महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 26 श्लोक 1-15

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षड्विंश (26) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षड्विंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


अन्तर्यामी की प्रधानता

ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! जगत् का शासक एक ही है, दूसरा नहीं। जो हृदय के भीतर बिराजमान है, उस परमात्मा को ही मैं सबका शासक बतला रहा हूँ। जैसे पानी ढालू स्थान से नीचे की ओर प्रवाहित होता है, वैसे ही उस- परमात्मा की पे्ररणा से मैं जिस तरह के कार्य में नियुक्त होता हूँ, उसी का पालन करता रहता हूँ। एक ही गुरु है दूसरा नहीं। जो हृदय में स्थित है, उस परमात्मा को ही मैं गुरु बतला रहा हूँ। उसी गुरु के अनुशासन से समसत दानव हार गये हैं। एक ही बन्धु है, उससे भिन्न दूसरा कोई बन्धु नहीं है। जो हृदय में स्थित है, उस परमात्मा को ही मैं बन्धु कहता हूँ। उसी के उपदेश से बान्धवगण बन्धुमान होते हैं और सप्तर्षि लोग आकाश में प्रकाशित होते हैं। एक ही श्रोता है, दूसरा नहीं। जो हृदय मे स्थित परमात्मा है, उसी को मैं श्रोता कहता हूँ। इन्द्र ने उसी को गुरु मानकर गुरुकुलवास का नियम पूरा किया अर्थात शिष्य भाव से वे उस अन्तर्यामी की ही शरण में गये। इससे उन्हें सम्पूर्ण लोकों का साम्राज्य और अमरत्व प्राप्त हुआ। एक ही शत्रु है दूसरा नहीं। जो हृदय में स्थित है, उस परमात्मा को ही मैं गुरु बतला रहा हूँ। उसी गुरु की पे्ररणा से जगत् के सारे साँप सदा द्वेषभाव से युक्त रहते हैं। पूर्वकाल में सर्पों, देवताओं और ऋषियों की प्रजापति के साथ जो बातचीत हुई थी, उस प्राचीन इतिहास के जानकार लोग उस विषय में उदाहरण दिया करते हैं। एक बाद देवता, ऋषि, नाग और असुरों ने प्रजापति के पास बैठकर पूछा- ‘भगवन्! हमारे कलयाण का क्या उपाय है? यह बताइये’। कलयाण की बात पूछने वाले उन महानुभावों का प्रश्न सुनकर भगवान प्रजापति ब्रह्माजी ने एकाक्षर ब्रह्म- ॐकार का उच्चारण किया। उनका प्रणवनाद सुनकर सब लोग अपनी अपनी दिशा (अपने अपने स्थान) की ओर भाग चले। फिर उन्होंने उस उपदेश के अर्थ पर जब विचार किया, तब सबसे पहले सर्पों के मन दूसरों के डँसने का भाव पैदा हुआ, असुरों में स्वाभाविक दम्भ का आविर्भाव हुआ था देवताओं ने दान को और महर्षियों ने दम को ही अपना ने का निश्चय किया। इस प्रकार सर्प, देवता, ऋषि और दानव- ये सब एक ही उपदेशक गुरु के पास गये थे और एक ही शब्द के उपदेश से उनकी बुद्धि का संस्कार हुआ तो भी उनके मन में भिन्न भिन्न प्रकार के भाव उत्पन्न हो गये। श्रोता गुरु के कहे हुए उपदेश को सुनता है और उसको जैसे जैसे (भिन्न भिन्न रूप में) ग्रहण करता है। अत: प्रश्न पूछने वाले शिष्य के लिये अपने अन्तर्यामी से बढ़कर दूसरा कोई गुरु नहीं है। पहले वह कर्म का अनुमोदन करता है, उसके बाद जीव की उस कर्म में प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार हृदय में प्रकट होने वाला परमात्मा ही गुरु, ज्ञानी, श्रोता और द्वेष्टा है। संसार में जो पाप करते हुए विचरता है, वह पापाचारी और जो शुभ कर्मों का आचरण करता है, वह शुभाचारी कहलाता है। इसी तरह कामनाओं के द्वारा इन्द्रिय सुख में परायण मनुष्य कामचारी और इन्द्रिय संयम में प्रवृत्त रहने वाला पुरुष सदा ही ब्रह्मचारी है।






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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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