महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 115 श्लोक 1-18

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पंचदशाधिकशततम (115) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: पंचदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

सत्यकि के द्वारा कृतवर्मा की पराजय, त्रिगर्ता की गजसेना का संहार और जलसंघ का वध

संजय कहते हैं - राजन्! आप मुझसे जो कुछ रहे हैं, उसे एकग्रचित होकर सुनिये। महामना कृत वर्मा के द्वारा खदेड़ी जाने के कारण जब पाण्डव सेना लज्जा से नतमस्तक हो गयी और आपके सैनिक हर्ष उल्लसित हो उठे, उस समय अथाह सैन्‍य-समुद्र में थाह पाने की इच्छा वाले पाण्डव सैनिकों के लिये जो द्वीप बनकर आश्रयदाता हुआ (उस सात्यकि का पराक्रम श्रवण कीजिए) । राजन् ! उस महासमर में आपके सैनिकों का भयंकर सिंह नाद सुनकर सात्यकि ने तुरंत ही कृतवर्मा पर आक्रमण किया। उन्होंने क्रोध और अमर्ष में भरकर वहाँ सारथि से कहा- सूत! तुम मेरे उत्तम वयको कृतवर्मा के सामने ले चलो ।‘देखो, वह अमर्प युक्त होकर पाण्डव सेना में संहार मचा रहा है। सारथे! इसे जीतकर मैं पुनः अर्जुन के पास चलुँगा । महामते! सात्यकि के ऐसा कहने पर सारथि पलक गिरते-गिरते रथ लेकर कृत वर्मा के पास जा पहुँचा । हृदिक पुत्र कृत वर्मा ने अत्यन्त कुपित हो सात्यकि पर पैने बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। इससे सात्यकिका क्रोध भी बहुत बढ़ गया। उन्होंने तुरंत ही कृतवर्मा पर समर भूमि में एक तीखे भल्ल का प्रहार किया। फिर चार बाण और मारे । उन चारों बाणों ने कृतवर्मा के चारों घोड़ो को मार डाला। सात्यकि ने भल्ल से उसके धनुष को काट दिया। फिर पैने बाणों द्वारा उसके पृष्ठ रक्षका और सारथि को भी क्षत-विक्षत कर दिया। तदन्तर सम्य पराक्रमी सात्यकि ने कृत वर्मा को रथहीन करके झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा उसकी सेना को पीडि़त करना आरम्भ किया। सात्यकि के बाणों से पीड़ितहो कृतवर्मा की सेना भाग खड़ी हुई। तत्पश्चात् सत्यपराक्रमी सात्यकि तुंरत आगे बढ़ गये । महाराज! पराक्रर्मी सात्यकिने द्रोणाचार्य के सैन्य समुद्र को लाँघकर आपकी सेनाओं में पराक्रम किया, उसका वर्णन सुनिये । उस महासमर में कृतवर्मा को पराजित करके हर्ष में भरे हुए शूरवीर सात्यकि बिना किसी घबराहट के सारथि से बोले- ‘सूत! धीरे-धीरे चलो’। रथ, घोड़े हाथी और पैदलों से भरी हुई आपकी सेना को देखकर सात्यकि ने पुनः सारथि से कहा- ‘सूत! द्रोणाचार्य की सेना के बायें भाग में जो यह मेघों की घटा के समान विशाल गज सेना दिखायी देती है, इसके मुहाने पर रूकमरथ खड़ाहै। इसमें बहुत से ऐसे शूरवीर है, जिन्हें युद्ध में रोकना अत्यन्त कठिन है। ये दुर्योधन की आज्ञा में प्राणों का मोह छोड़कर मेरे साथ युद्ध करने के लिये खड़े हैं। ‘सूत! इन्हें रण में परास्त किये बिना न तो जयद्रथ को प्राप्त किया जा सकता है और न किसी प्रकार अर्जुन ही मुझे मिल सकते हैं। ये समस्त विद्याओं में प्रवीण योद्धा एक साथ संगठित होकर खडे़ हैं।ये त्रिगर्त देश के उदार महारथी राजकुमार महान् धनुर्धर हैं और सभी पराक्रर्मपूर्वक युद्ध करने वाले है। इन सबकी ध्वजा सुवर्णमयी है। ‘ये समस्त वीर मेरी ही ओर मुँह करके युद्ध करने के लिये खड़े हैं। सारथे! घोड़ों को हाँको और मुझे शीघ्र ही इनके पास पहुंचा दो। मैं द्रोणाचार्य के देखते-देखते त्रिगतो के साथ युद्ध करूँगा’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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