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महाभारत शल्य पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-22

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द्वितीय (2) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

राजा धृतराष्ट्र का विलाप करना और संजय से युद्ध का वृत्तान्त पूछना

वैशम्पायनजी कहते हैं- महाराज ! स्त्रियों के विदा हो जाने पर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र एक दुःख से दूसरे दुःख में पड़कर गरम-गरम उच्छ्वास लेते और बारंबार दोनों हाथ हिलाते हुए विलाप करने लगे। और बड़ी देरतक चिंता मग्न रहकर इस प्रकार बोले।

धृतराष्ट्र ने कहा- सूत! मेरे लिये महान् दुःख की बात है कि में तुम्हारे मुख से रणभूमि में पाण्डवों को सकुशल और विनाशरहित सुन रहा हूँ। निश्चय ही मेरा यह सुदृढ़ हृदय वज्र के सारतत्व का बना हुआ है; क्योंकि अपने पुत्रों को मारा गया सुनकर भी इसके सहस्त्रों टुकडे़ नहीं हो जाते हैं। संजय ! में उनकी अवस्था और बाल-क्रीडा का चिन्तन करके जब उन सब के मारे जाने की बात सोचता हूँ, तब मेरा हृदय अत्यन्त विदीर्ण होने लगता है। यद्यपि नेत्रहीन होने के कारण मैंने उनका रूप कभी नहीं देखा था, तथापि इन सबके प्रति पुत्रस्नेह जनित प्रेम का भाव सदा ही रखा है। निष्पाप संजय ! जब में यह सुनता था कि मेरे बच्चे बाल्यावस्था को लाँघकर युवावस्था में प्रविष्ट हुए हैं और धीरे-धीरे मध्य अवस्था तक पहुँच हैं, तब हर्ष से फूल उठता था। आज उन्हीं पुत्रों को ऐश्वर्य और बल से हीन एवं मारा गया सुनकर उनकी चिन्ता से व्यथित हो कहीं भी शांति नहीं पा रहा हूँ। (इतना कहकर राजा धृतराष्ट्र इस प्रकार विलाप करने लगे-) बेटा ! राजाधिराज ! इस समय मुझ अनाथ के पास आओ, आओ। महाबाहो ! तुम्हारे बिना न जाने में किस दशाको पहुँच जाऊँगा ? तात ! तुम यहाँ पधारे हुए समस्त भूमिपालों को छोड़कर किसी नीच और दुष्ट राजा के समान मारे जाकर पृथ्वी पर कैसे सो रहे हो ? वीर महाराज ! तुम भाई-बन्धुओं और सुहृदो के आश्रय होकर किसी मुझ अंधे और बुढे़ को छोड़कर कहाँ चले आ रहे हो ?
राजन् ! तुम्हारी वह कृपा, वह प्रीति और दूसरों को सम्मान देने की वह वृत्ति कहाँ चली गयी; तुम तो किसी से परास्त होने वाले नही थे; फिर कुन्ती के पुत्रों के द्वारा युद्ध में कैसे मारे गये ? वीर ! अब मेरे उठने पर मुझे सदा तात, महाराज और लोकनाथ आदि बारंबार कहकर हौन पुकारेगा? कुरूनन्दन ! तुम पहले स्नेह से नेत्रों में आँसू भरकर मेरे गले से लग जाते और कहते पिताजी ! मुझे कर्तव्य का उपदेश दीजिए, वही सुन्दर बात फिर मुझसे कहो। बेटा ! मैंने तुम्हारे मुँह से यह बात सुनी थी कि मेरे अधिकार में बहुत बड़ी पृथ्वी है। इतना विशाल भूभाग कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के अधिकार में कभी नहीं रहा। नृपश्रेष्ठ ! भगदत्त, कृपाचार्य, शल्य, अवन्ती के राजकुमार, जयद्रथ, भूरिश्रवा, सोमदत्त महाराज बाहिृक, अश्वत्थामा, कृतवर्मा, महाबली मगधनरेश बृहद्बल, क्राथ, सुबलपुत्र शकुनि, लाखों म्लेच्छ, यवन एवं शक, काम्बोजराज, सुदक्षिण, त्रिगर्तराज सुशर्मा, पितामह भीष्म, भरद्वाजनन्दन द्रौणाचार्य, गौतमगोत्रीय कृपाचार्य, श्रुतायु, अयुतायु, पराक्रमी शतायु, जलसन्ध, ऋष्यशृंगपुत्र राक्षस अलायुध, महाबाहु अलम्बुष और महारथी सुबाहु- ये तथा और भी बहुत से नरेश मेरे लिये प्राणों और घनका मोह छोड़कर सब-के-सब युद्ध के लिये उद्यत हैं। इन सबके बीच में रहकर भाईयों से घिरा हुआ में रणभूमि में पाण्डवों और पांचालों के साथ युद्ध करूँगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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