वैशेषिक दर्शन का वैशिष्ट्य

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वैशेषिक सिद्धान्तों का अतिप्राचीनत्व प्राय: सर्वस्वीकृत है। महर्षि कणाद द्वारा रचित वैशेषिकसूत्र में बौद्धों के सिद्धान्तों की समीक्षा न होने के कारण यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि कणाद बुद्ध के पूर्ववर्ती हैं। जो विद्वान कणाद को बुद्ध का पूर्ववर्ती नहीं मानते, उनमें से अधिकतर इतना तो मानते ही हैं कि कणाद दूसरी शती ईस्वी पूर्व से पहले हुए होंगे। संक्षेपत: सांख्यसूत्रकार कपिल और ब्रह्मसूत्रकार व्यास के अतिरिक्त अन्य सभी आस्तिक दर्शनों के प्रवर्त्तकों में से कणाद सर्वाधिक पूर्ववर्ती हैं। अत: वैशेषिक दर्शन को सांख्य और वेदान्त के अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय दर्शनों का पूर्ववर्ती मानते हुए यह कहा जा सकता है कि केवल दार्शनिक चिन्तन की दृष्टि से ही नहीं, अपितु अतिप्राचीन होने के कारण भी इस दर्शन का अपना विशिष्ट महत्त्व है।

वैशेषिक दर्शन का प्राचीनत्व

वैशेषिक सम्मत तत्त्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा और आचार मीमांसा से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस दर्शन के प्रवर्तकों और उत्तरवर्ती चिन्तकों ने बड़ी गहराई और सूक्ष्मता से अपने मन्तव्यों का आख्यान किया है।

वैशेषिक का पदार्थ-विवेचन अत्यन्त प्राचीन होने पर भी आधुनिक विज्ञान के साथ पर्याप्त सामंजस्य रखता है। अत: निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि वैशेषिक एक ऐसा दर्शन है, जिसमें अध्यात्मोन्मुख भौतिकवाद का विश्लेषण किया गया है। इस संदर्भ में सर्वाधिक ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि वैशेषिकों ने समता या एकात्मकता या साधर्म्य या समाष्टि (यूनिटि) को नहीं, अपितु विषमता या विभज्यता या वैधर्म्य या व्यष्टि (डाइवर्सिटी) को जगत का आधार माना है।

भारतीय दर्शनों के आस्तिक और नास्तिक भेद से दो वर्ग माने जाते हैं। आस्तिक दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और वेदान्त का तथा नास्तिक वर्ग में चार्वाक, बौद्ध दर्शन और जैन दर्शनों का परिगणन किया जाता है। न्याय और वैशेषिक समानतन्त्र माने जाते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वैशेषिक का उल्लेख नहीं है। अत: यह संभव है कि कौटिल्य के समय तक न्याय और वैशेषिक इन दोनों समानतन्त्र दर्शनों का उल्लेख आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत ही कर दिया हो।

यद्यपि न्याय और वैशेषिक को एक दूसरे में अन्तर्भूत करने या मिलाने का तथा एक दूसरे से उनको पृथक् करने का भी समय-समय पर प्रयास किया जाता रहा, फिर भी यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि दोनों का अस्तित्व पृथक् भी बना रहा और दोनों में पर्याप्त सीमा तक ऐक्य भी रहा। इस प्रकार न्याय और वैशेषिक में एक साथ ही उपलब्ध ऐक्य और पार्थक्य भी इन दोनों दर्शनों के वैशिष्ट्य का आधार है।

न्याय-वैशेषिक में वैषम्य

गौतम ने सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति का उल्लेख किया, जबकि कणाद छ: पदार्थों के साधर्म्य-वैधर्म्यपरक तत्त्वज्ञान को नि:श्रेयस का साधन बताते हैं। वैशेषिक संसार का तत्त्वमीमांसीय दृष्टिकोण से आकलन करते हैं, जबकि नैयायिक ज्ञानमीमांसीय दृष्टिकोण से न्याय और वैशेषिक दोनों में समवाय सम्बन्ध को स्वीकार करते हैं किन्तु नैयायिक उसको प्रत्यक्षगम्य मानते हैं, जबकि वैशेषिकों के अनुसार यह प्रत्यक्षगम्य नहीं है। नैयायिक पिठरपाकवादी हैं और वैशेषिक पीलुपाकवादी। वैशेषिकों के अनुसार पाक घट के परमाणुओं में होता है, किन्तु नैयायिक यह मानते हैं कि पाक पिठर में ही होता है। न्याय का प्राथमिक उद्देश्य इस तथ्य का विश्लेषण करना नहीं है 'वस्तुएँ स्वत: क्या हैं?' अपितु यह प्रतिपादित करना है कि वस्तुओं के स्वरूप का निर्धारण करना है। इसीलिए न्याय को प्रमाणशास्त्र और वैशेषिक को पदार्थशास्त्र भी कहा जाता है। प्रमाणों की संख्या की दृष्टि से भी दोनों में अन्तर है। न्याय में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण माने गये हैं, जबकि वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो को ही स्वीकार करते हैं और उपमान का शब्द में तथा शब्द का अनुमान में अन्तर्भाव करते हैं।

नैयायिकों के अनुसार पञ्चरूपोपपन्न लिंग ही अनुमिति का कारण होता है। न्याय में हेतु के पाँच लक्षण इस प्रकार बताये गये हैं-

  1. पक्षसत्त्व
  2. सपक्षसत्त्व
  3. विपक्षासत्त्व
  4. अबाधित और
  5. असत्प्रतिपक्ष।

इन लक्षणों के अभाव में हेतु क्रमश:

  1. असिद्ध,
  2. विरुद्ध,
  3. अनैकान्तिक,
  4. बाधित और
  5. सत्प्रतिपक्ष नामक दोषों से ग्रस्त होने के कारण हेत्वाभास कहलाते हैं।

नैयायिकों के मत के विपरीत हेतु में

  1. पक्षसत्त्व
  2. सपक्षसत्त्व और
  3. विपक्षासत्त्व इन तीन लक्षणों का होना ही पर्याप्त है और इन तीनों के अभाव में क्रमश: विरुद्ध, असिद्ध और संदिग्ध ये तीन ही हेत्वा भास माने जा सकते हैं।

न्याय-वैशेषिक से साम्य

न्याय-वैशेषिक का प्रमुख समान अभ्युगम यह है कि ज्ञान स्वरूपत: ऐसी वस्तु की ओर संकेत करता है जो उससे बाहर और उससे स्वतन्त्र हैं।[1] दोनों दर्शन यह मानते हैं कि यद्यपि वस्तुएँ प्राय: अनेक निजी लक्षणों के कारण एक दूसरी से भिन्न हैं। किन्तु कतिपय सामान्य धर्मों के आधार पर उनको कुछ वर्गों में वर्गीकृत भी किया जा सकता है।

नि:श्रेयस की प्राप्ति को न्याय और वैशेषिक दोनों दर्शनों में जीवन का उद्देश्य माना गया है तथा यह बताया गया है कि तत्त्वज्ञान से अपवर्ग होता है और मिथ्याज्ञान से संसार में आवागमन बना रहता है। वैशेषिक सूत्र और न्याय सूत्र में पदार्थों की गणना के संबन्ध में जो अन्तर दिखाई देता है, वह वात्स्यायन आदि भाष्यकारों की इन उक्तियों से समाहित हो जाता है कि- 'अस्त्यन्यदपि द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेष-समवाया: प्रमेयम्।[2]'

न्याय और वैशेषिक दोनों ही वस्तुवादी और दु:खवादी दर्शन है। विश्वनाथ पंचानन और अन्नंभट्ट के ग्रन्थों में जो संहतिवादी प्रवृत्ति 16वीं शती के आसपास चरम सीमा पर पहुँची, उसके बीज वात्स्यायन के न्यायभाष्य में भी उपलब्ध हो जाते हैं। वैसे इनके समन्वय का विधिवत प्रामाणिक निरूपण दसवीं शती में शिवादित्य द्वारा रचित सप्तपदार्थी में ही सर्वप्रथम उपलब्ध होता है। न्याय और वैशेषिक का इस विश्वास के आधार पर भी साम्य है कि जिस वस्तु का अस्तित्व है, वह ज्ञेय है। यद्यपि ज्ञान भी ज्ञेय है, फिर भी ज्ञान प्रमुख रूप से वस्तुविषयक होता है। बाह्यजगत की वास्तविकता स्वत: सिद्ध है तथापि उस तक पहुँचने के लिये ज्ञान एक अनिवार्य साधन है।

सामान्यत: यह माना जाता है कि वस्तुओं की संरचना में एक से अधिक भूतद्रव्य समाहित होते हैं जैसे कि वेदान्त में शरीर को पांचभौतिक माना गया है, किन्तु न्याय-वैशेषिक दोनों के अनुसार मानव शरीर केवल पृथ्वी के परमाणुओं से ही निर्मित है, जल आदि के परमाणु भी उसमें रहते हैं, पर वे पृथ्वी के संयोग के कारण आनुषंगिक या गौण रूप में रहते हैं, प्रमुख रूप से नहीं। यह ज्ञातव्य है कि न्याय-वैशेषिकों का यह दृष्टिकोण अन्य दर्शनों द्वारा स्वीकार नहीं हुआ, क्योंकि जल आदि के तत्त्व तो शरीर में साक्षात ही दिखाई देते हैं।

न्याय और वैशेषिक दोनों ही यह मानते है कि उत्पत्ति के पूर्व वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं होता। इस सिद्धान्त को आरम्भवाद या असत्कार्यवाद कहा जाता है। न्याय-वैशेषिक की तत्त्वमीमांसा का सार यह है कि ब्रह्माण्ड दो प्रकार का है-

  1. मूल जगत (परमाणुरूप) और
  2. व्युत्पन्न जगत (कार्यरूप)।

मूल जगत परमाणुरूप, असृष्ट, नित्य और अविनाशी है, मूल जगत विभिन्न प्रकार के परमाणुओं, आत्मा आदि द्रव्यों और सामान्यों से बना है। व्युत्पन्न (कार्यरूप) जगत हमारे अनुभव का विषय है। यह अपने अस्तित्व के लिये मूल जगत पर आधारित है और अनित्य तथा विनाशशील है। व्युत्पन्न जगत की सूक्ष्मतम दृश्य इकाई अणु या परमाणु कहलाती है। यद्यपि आरम्भवादी यानी त्र्यणुक से सृष्टयारम्भ की संकल्पना न्याय और वैशेषिक में समान रूप से प्रवर्तित हुई, किन्तु इसका पल्लवन वैशेषिक में अधिक हुआ। अत: परमाणुवाद प्रमुख रूप से वैशेषिक सिद्धान्त के रूप में प्रख्यात हुआ।

वैशेषिकसम्मत परमाणुवाद

वैशेषिक की तत्त्व मीमांसा में परमाणुवाद का अत्यधिक महत्त्व है। बल्कि यह मानना भी अनुपयुक्त न होगा कि परमाणु ही वैशेषिक का प्राण है। किन्तु भगवत्पाद शंकराचार्य प्रभृति चिन्तकों ने वैशेषिक के परमाणुवाद पर यह आक्षेप किया है कि यह वेदविहित नहीं है अत: अप्रामाणिक है। यद्यपि उदयनाचार्य ने इस आक्षेप का उत्तर यह कहते हुए दिया कि 'विश्वतश्चक्षु:'- इस वैदिक मन्त्र में पतत्र शब्द परमाणु का वाचक है, अत: परमाणु का उल्लेख वेद में है। किन्तु स्पष्ट है कि यह एक क्लिष्ट कल्पना है। वैसे इसका एक समुचित उत्तर यह है कि यह मत वेद विरुद्ध भी तो नहीं है। साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि वैशेषिक तो शब्द को पृथक् प्रमाण भी नहीं मानते। उनका कहना तो यह है कि परमाणु नित्य एवं अतीन्द्रिय तत्त्व है। उसकी सिद्धि अनुमान से होती है।[3] परमाणु के स्वरूप पर गम्भीर चर्चा हुई है। शिवादित्य के अनुसार, निरवयव क्रियावान् तत्त्व परमाणु है।[4] परमाणु अतीन्द्रिय, नित्य तथा अविभाज्य है। वह भौतिक जगत का सर्वाधिक सूक्ष्म उपादान कारण हैं। अन्त्य विशेष के कारण परमाणु एक-दूसरे से पृथक् रहते हैं। परमाणु चार प्रकार के होते हैं-

  1. पार्थिव
  2. जलीय
  3. तेजस
  4. वायवीय

दो परमाणुओं के संयोग से द्वयणुक और तीन द्वयणुकों से संयोग से त्र्यणुक बनता है। महत परिमाण (दृश्यमान आकार) केवल त्र्यणुक में पाया जाता है, द्वयणुक में नहीं। विश्वनाथ ने यह बताया कि द्वयणुक के परिमाण के प्रति परमाणुगत द्वित्वसंख्या और त्रसरेणु के परिमाण के प्रति द्वयणुकगत त्रित्वसंख्या असमवायिकारण है। रघुनाथ शिरोमणि का यह विचार है कि त्र्यणुक ही सूक्ष्मतम अविभाज्य तत्त्व है। अत: द्वयणुक और अणु को मानने की आवश्यकता ही नहीं है। किन्तु वेणीदत्त ने पदार्थ-मण्डन नामक ग्रन्थ में रघुनाथ के मत का खण्डन करते हुए यह कहा कि त्र्यणुक के तो अवयव होते हैं, अत: उसको अन्तिम द्रव्य नहीं माना जा सकता। इस प्रकार संक्षेपत: यह कहा जा सकता है कि वैशेषिक नय के अनुसार परमाणु ही भौतिक जगत के मूल उपादान कारण हैं। अत: मेरी दृष्टि में वैशेषिकों का परमाणुवाद समादरणीय और समुचित है।

विशेष का अन्त्यत्व

पदार्थ के रूप में विशेष के स्वरूप का विश्लेषण तत्त्व मीमांसा प्रकरण में किया जा चुका है। उसका सार यह है कि वस्तुओं का भेद उनके अवयवों के आधार पर किया जाता है। किन्तु परमाणु का कोई अवयव नहीं होता। ऐसी स्थिति में एक परमाणु का दूसरे परमाणुओं से भेद बताने के लिए वैशेषिकों ने 'विशेष' नामक पदार्थ का अस्तित्व माना और यह बताया कि अणुओं में पारस्परिक व्यावर्तन करने वाला अन्तिम तत्त्व विशेष है। विशेष का कोई विशेष नहीं होता। अत: वह स्वत:व्यावर्तक होता है। अर्थात एक विशेष अन्य विशेषों से अपने को भिन्न करने का कार्य भी स्वयं ही करता है। जिस प्रकार वस्तुओं में सर्वाधिक व्यापकता से अवस्थित तत्त्व ही सत्ता कहा जाता है, वैसे ही सर्वाधिक सूक्ष्म अणु के व्यावर्तक अतीन्द्रिय तत्त्व को विशेष कहा जाता है। परमाणुओं का ही एक दूसरे से भेद स्वत: क्यों नहीं माना जाए? इस शंका का समाधान करते हुए प्रशस्तपाद यह कहते हैं कि एक परमाणु का दूसरे परमाणु से तादात्म्य है, जबकि एक विशेष का दूसरे विशेष से तादात्म्य नहीं है। अत: विशेष को अलग से एक स्वतंत्र पदार्थ माना जाना ही उपयुक्त है। यद्यपि वैशेषिक सम्मत पीलुपाकवाद, मुक्तिवाद और विशेषविषयक सिद्धान्त का भी अन्य दर्शनों में समादर नहीं हुआ और अन्य अनेक संदर्भों में भी अन्य दार्शनिकों ने वैशेषिकों की भरपूर आलोचनाएँ कीं, तथापि यह तो स्पष्ट ही है कि वैशेषिक दर्शन की समग्र संरचना का प्रमुख आधार-स्तम्भ विशेष मूलक वैशिष्ट्य ही माना जाता है। ब्रह्माण्ड की संरचना को जानने के लिए उसमें समाहित सभी वस्तुओं में उनकी अपनी-अपनी विशेषताओं को जानना अत्यन्त आवश्यक है। यद्यपि सूत्रकार कणाद के अनुसार पदार्थों की पारस्परिक समानता और पारस्परिक पृथक्ता का बोध ही तत्त्वज्ञान है, जिससे अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति हो सकती है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि विशेष के पदार्थत्व का आख्यान करके सूत्रकार ने भी वस्तुओं के पार्थक्य ज्ञान पर अधिक बल दिया है। पदार्थों के समष्टिगत धर्मपरक सामान्य का महत्त्व तो 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' इस वैदिक या औपनिषदिक भावना में पहले से ही यपायित चला आ रहा था। पर इसकी बराबरी पर व्यष्टि को खड़ा करने का कार्य वैशेषिकों ने किया। अत: भारतीय दार्शनिक चिन्तन में सन्तुलित वस्तुवाद का समारम्भ करने का श्रेय वैशेषिक दर्शन को ही है। और यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि वैशेषिकों को उन प्रमुख सिद्धान्तों का प्रवर्तन करने से प्राप्त हुई, जिनको परमाणुवाद या आरम्भवाद या विशेष वैशिष्ट्यवाद कह कर समादृत किया जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न चाविषया काचिदुपलब्धि:, न्या.भा. 4.1.32
  2. न्या. भा
  3. अस्ति तावदयं परिमाणभेद:, तस्मादणुपरिमाणं क्वाचिन्निरतिशयमिति सिद्धो नित्य: परमाणु:, न्या. क. पृ. 79
  4. निरवयव: क्रियावान् परमाणु:, स.प. पृ. 88

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