प्रशस्तपाद भाष्य

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परिचय

पदार्थ धर्म संग्रह पर भाष्य का सम्प्रदायगत लक्षण घटित न होने के कारण कुछ विद्वानों की दृष्टि में यह भाष्य नहीं है। यह व्याख्यान वैशेषिक सूत्रों के क्रम से नहीं है, 40 सूत्रों का तो इसमें उल्लेख ही नहीं है। और वैशेषिक सूत्रों में अचर्चित कई नये सिद्धान्तों का भी इसमें समावेश है। वैशेषिक सूत्र पर लिखित अपने भाष्य की भूमिका में चन्द्रकान्त भट्टाचार्य ने तो यह स्पष्ट कहा कि पदार्थ धर्म संग्रह में भाष्यत्व नहीं है, अत: वह अपना अलग भाष्य लिख रहे हैं। किन्तु व्योमवती, स्यादवादरत्नाकर आदि ग्रन्थों में पदार्थ धर्म संग्रह का उल्लेख भाष्य के रूप में ही किया गया है।

प्राचीन आचार्यों के मत में भाष्य शब्द का दो अर्थों में प्रयोग होता है, तद्यथा-

  1. सूत्रार्थों वर्ण्यते यत्र शब्दै: सूत्रानुसारिभि:। स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदु:॥
  2. न्यायनिबन्धप्रकाश (परिशुद्धिप्रकाश) में वर्धमानोपाध्याय ने भाष्य का लक्षण इस प्रकार बताया है-

सूत्रं बुद्धिस्थीकृत्य तत्पाठनियमं विनापि तद्व्याख्यानं भाष्यम्।
यदवा सूत्रव्याख्यानान्तरमनुपजीव्य तद्व्याख्यानं भाष्यम्,
व्याख्यानान्तरमुपजीव्य सूत्रव्याख्यानं वृत्ति:।

इस प्रकार अधिकतर विद्वानों का यह मत है कि पारिभाषिक दृष्टि से भाष्य के प्रथम लक्षण के अनुसार भाष्य न होने पर भी द्वितीय लक्षण के अनुसार पदार्थ धर्म संग्रह का भाष्यत्व सिद्ध होता है। पदार्थ धर्म संग्रह नाम पड़ने के कारण इसका भाष्यत्व निरस्त नहीं होता। नामान्तर से निर्देश भाष्यत्व का व्याघात नहीं करता। व्याकरण महाभाष्य के आरम्भ में उसका 'शब्दानुशासन' नाम से उल्लेख होने पर भी जैसे वह भाष्य से बहिर्भूत नहीं होता, वैसे ही पदार्थ धर्म संग्रह कहने से भी इस ग्रन्थ का भाष्यत्व निरस्त नहीं होता।

व्योमवती में भी प्रशस्तपाद की इस कृति के लिए भाष्य तथा पदार्थ धर्म संग्रह शब्दों का प्रयोग किया गया है।[1]

न्यायकन्दली[2]

तथा किरणावली[3] में भी ऐसा ही कहा गया है। किरणावलीकार ने 'संग्रह' का लक्षण करते हुए यह भी कहा है- विस्तरेणोपदिष्टानामर्थानां सूत्रभाष्ययो:।
निबन्धों यस्समासेन, संग्रहं तं विदुर्बुधा:॥

उपस्कारकर्ता शंकरमिश्र ने पदार्थधर्मसंग्रह का निर्देश प्रकरण शब्द से भी किया है। प्रकरण का लक्षण इस प्रकार है— शास्त्रैकदेशसम्बद्धं शास्त्रधर्मान्तरे स्थितम्।
आहु: प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चित:॥

किन्तु किरणावलीकार के अनुसार प्रकरण एक देशीय होते हैं, अत: उदयनाचार्य पदार्थ संग्रह को प्रकरण नहीं मानते। न्यायकन्दली, उपस्कार, सम्मतितर्कप्रकरण, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, तत्त्वसंग्रहपंजिका आदि में प्रशस्तपाद के ग्रन्थ का उल्लेख पदार्थप्रवेशक, पदार्थप्रवेश आदि नामों से भी उपलब्ध होता है। नयचक्र, उसकी व्याख्या, प्रमाणसमुच्चयव्याख्या, विशालामलवती तथा बौद्धभारती ग्रन्थमाला में मुद्रित तत्त्वसंग्रह पंजिका के वैशेषिक मत-परीक्षा, विशेष परीक्षा तथा समवायपरीक्षा सम्बन्धी विश्लेषणों में जितने अंश भाष्य से उद्धृत बताये गये हैं उतने अंश प्रशस्तपाद भाष्य में उपलब्ध नहीं हैं। कुछ अंश हैं, कुछ नहीं हैं। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि प्रशस्तपाद ने दो ग्रन्थ लिखे थे-

  1. एक विस्तृत व्याख्या और
  2. दूसरा पदार्थ धर्म संग्रह।

इससे यह भी सिद्ध होता है कि प्रशस्तमति भी इनका ही नाम था। और यह भी माना जा सकता है कि प्रशस्तपाद ने एक तो वैशेषिक सूत्रों का भाष्य लिखा और दूसरा वैशेषिक मत संग्राहक ग्रन्थ लिखा, जो पदार्थ-धर्म-संग्रह नाम से प्रख्यात हुआ। अब जो ग्रन्थ उपलब्ध है, वह प्रशस्तपाद भाष्य तथा पदार्थ धर्म संग्रह दोनों नामों से प्रसिद्ध है। इस भाष्य में निरूपित प्रमुख विषयों का विवरण इस प्रकार है-

  1. द्रव्यों की गणना,
  2. द्रव्यों का साधर्म्य-वैधर्म्य,
  3. पृथ्वी आदि का स्वरूप,
  4. सृष्टिसंहारविधि,
  5. गुण,
  6. गुण-साधर्म्य-वैधर्म्य,
  7. पाकजोत्पत्ति,
  8. संख्या,
  9. विपर्यय,
  10. अनध्यवसाय,
  11. स्वप्न आदि का निरूपण।

प्रमाणों का विश्लेषण बुद्धि के अन्तर्गत किया गया है। इन प्रतिपाद्य विषयों की सूची के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ सूत्रों का क्रमिक भाष्य नहीं अपितु यह वैशेषिक के मन्तव्यों का एक व्यवस्थित और क्रमबद्ध संक्षिप्त विश्लेषण है। भाष्यकर्त्ता प्रशस्तपादाचार्य प्रशस्त, प्रशस्तदेव, प्रशस्तवरण, प्रशस्तमति नामों से भी अभिहित किये जाते हैं।

बोधायनसूत्र के प्रवराध्याय के आंगिरसगण में समाहित शारदवतगण में प्रशस्त का समावेश किया गया है। अन्य लोगों का यह मत है कि प्रवररत्नग्रन्थ में आंगिरसगण के गौतमवर्ण में प्रशस्त का निर्देश है। उदयनाचार्य, श्रीधर, शंकरमिश्र आदि का यह विचार है कि कणाद-प्रशस्तवाद में गौतम-वात्स्यायन के समान परमर्षित्वता कपिल, पंचशिख आदि के समान आचार्यत्व है। वसुबन्धु ने प्रशस्तपाद-भाष्य का खण्डन किया है। न्यायभाष्य में प्रशस्तपाद द्वारा उल्लिखित सिद्धान्तों का वर्णन है।

प्रशस्तपाद का समय

प्रशस्तपाद के समय के विषय में विद्वानों में एकमत्य नहीं है। एच. उई के अनुसार इनका समय धर्मपाल तथा परमार्थ के समय के आधार पर निश्चित किया जा सकता है क्योंकि दोनों ने प्रशस्तपाद भाष्य के आधार पर वैशेषिक के मन्तव्यों का उल्लेख करके उनका खण्डन किया है। बोदास प्रभृति विद्वानों के अनुसार प्रशस्तपाद वात्स्यायन से पूर्ववर्ती हैं। वात्स्यायन का समय रान्डले तीसरी शती, विद्याभूषण, राधाकृष्णन और कीथ चौथी शती, एवं पाटर, फ्राउवाल्नर और बोदास पाँचवीं शती मानते हैं न्यायभाष्य में कौटिल्य (327 ई.) के अर्थशास्त्र और पतंजलि 150 ई. पू. के महाभाष्य के उद्धरण तथा नागार्जुन (300 ई.) के मत का खण्डन है तथा दिङ्नाग (500 ई.) ने वात्स्यायन की आलोचना की है, अत: वात्स्यायन का समय लगभग 400 ई. के आसपास है। जबकि फैडेशन आदि का यह विचार है कि वात्स्यायन प्रशस्तपाद के पूर्ववर्ती हैं। किन्तु कीथ ने प्रशस्तपाद को दिङ्नाग का परवर्ती माना जबकि प्रो. शेरवात्स्की और प्रो. ध्रुव ने प्रशस्तपाद को दिङ्नाग से पूर्ववर्ती सिद्ध किया है। प्रमाणसमुच्चय के टीकाकार जिनेन्द्र बुद्धि ने प्रमाण समुच्चय में संकेतित कतिपय कथनों को प्रशस्तमति द्वारा उक्त बताया है। इस प्रकार यदि प्रशस्तपाद तथा प्रशस्तमति एक ही व्यक्ति हैं तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि प्रशस्तपाद दिङ्नाग के पूर्ववर्ती हैं। कतिपय विद्वानों का कथन है कि प्रशस्तपाद दिङ्नाग के पूर्ववर्ती हैं। कतिपय विद्वानों का कथन है कि यद्यपि दिङ्नाग ने कहीं स्पष्टत: प्रशस्तपाद का उल्लेख नहीं किया, फिर भी उनके द्वारा संकेतित पूर्वपक्षों में प्रशस्तपाद की छाया सी प्रतीत होती है। दिङ्नाग का समय लगभग 480 ई. माना जाता है।

अब भी प्रशस्तपाद के समय के सम्बन्ध में आधुनिक विद्वानों में बड़ा मतभेद बना हुआ है। उनका समय राधाकृष्णन चतुर्थ शती, कीथ पंचम शती, फाउबाल्नर छठी शती मानते हैं। हमारे विचार में प्रशस्तपाद का समय चतुर्थ शती का उत्तर भाग या पंचम शती का पूर्व भाग मानना अधिक तर्कसम्मत है।

प्रशस्तपाद या प्रशस्तमति की वाक्यनाम्नी टीका

प्रशस्तपाद तथा प्रशस्तमति नामों के समान वाक्यनाम्नी टीका और प्रशस्तमति टीका के बारे में अभी तक भी बड़ा भ्रम व्याप्त है। कहा जाता है कि कणाद प्रणीत वैशेषिक सूत्र पर वाक्य या प्रशस्तमति नामक संक्षिप्त व्याख्यान अथवा संक्षिप्त भाष्य ग्रन्थ लिखा गया था, जिसकी रचना प्रशस्तमति ने की थी या जिस पर प्रशस्तमति ने टीका लिखी थी। टीका का नाम वाक्य या प्रशस्तमति था। इसका आधार इस प्रकार बनाया जाता है कि शान्तरक्षित ने तत्त्वसंग्रह में ईश्वर के विभुत्व और सर्वज्ञान के संदर्भ में विशेष पदार्थ का निरूपण किया है तथा कमलशील ने 'तत्त्वसंग्रह व्याख्या पंजिका' में प्रशस्तमति के मत का खण्डन किया है। नयचक्र तथा नयचक्रव्याख्या में जो भाष्य वचन उद्धृत किए गए है, वे प्रशस्तपाद भाष्य में उपलब्ध नहीं हैं। जिनेन्द्र बुद्धि द्वारा दिङ्नाग के प्रमाण समुच्चयों पर रचित 'विशालामलवती' नामक व्याख्या में भी जो भाष्य वचन उद्धृत किये गये हैं, वे प्रशस्तपाद भाष्य में नहीं मिलते। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रशस्तपाद रचित भाष्य पदार्थ धर्म संग्रह के अतिरिक्त कोई अन्य भाष्य भी था, जो कि प्रशस्तपाद अथवा प्रशस्तमति नामक किसी अन्य आचार्य ने लिखा था। प्रशस्तमति को कुछ विद्वान् प्रशस्तपाद से भिन्न व्यक्ति मानते हैं, किन्तु अधिकतर विद्वानों का यह मत है कि ये दोनों नाम एक ही व्यक्ति के थे।

जैनाचार्य मल्लवादी के नयचक्र से यह भी ज्ञात होता है कि वैशेषिक सूत्रों पर रचित 'वाक्य' नाम की इस संक्षिप्त व्याख्या में सूत्र तथा वाक्य साथ-साथ लिये गये थे।

प्रशस्तपाद भाष्य का प्रतिपाद्य

प्रशस्तपाद भाष्य का अध्याय आदि के रूप में विभाजन नहीं है। प्रशस्तपाद ने कहीं-कहीं कणाद के सूत्रों का उल्लेख करते हुए और कहीं-कहीं सूत्रों के स्थान पर उनके भाव का ग्रहण करते हुए अपने ढंग से ही वैशेषिक भाष्य के कलेवर को प्रतिष्ठापित किया है। वैशेषिक दर्शन में आचार्य प्रशस्तपाद के मन्तव्यों, महत्त्व और योगदान का उल्लेख संक्षेप में इस प्रकार है-

  1. वैशेषिक दर्शन के मुख्य मन्तव्यों का व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण।
  2. वैशेषिक के छ: पदार्थों की स्पष्ट व्याख्या।
  3. कणाद द्वारा उल्लिखित सत्रह गुणों के स्थान पर चौबीस गुणों का उल्लेख।
  4. बुद्धि के अन्तर्गत वैशेषिकसम्मत प्रमाणों का सन्निधान और निरूपण।
  5. अपेक्षाबुद्धि से संख्या की उत्पत्ति तथा संख्या के विनाश का विश्लेषण।
  6. परिमाण के भेद तथा उत्पत्ति का निरूपण।
  7. पाकज रूप का निरूपण तथा पीलुपाकवाद का विश्लेषण।
  8. सृष्टि एवं प्रलय का विश्लेषण। [4]
  9. परमाणु से द्वयणुक आदि की उत्पत्ति का विश्लेषण।
  10. धर्म-अधर्म तथा बन्ध और मोक्ष का विश्लेषण।
  11. शब्द का विशद विश्लेषण।[5]

प्रशस्तपाद भाष्य की टीकाएँ और उपटीकाएँ

वैशेषिक दर्शन सम्बन्धी वाङ्मय में वैशेषिक सूत्र से भी अधिक प्रसिद्धि प्रशस्तपाद भाष्य की हुई। इसका प्रमाण यह है कि इस भाष्य पर एक विपुल टीका-साहित्य की रचना हुई और एक प्रकार से इसी की टीका-प्रटीकाओं के माध्यम से वैशेषिक के मन्तव्यों का क्रमिक विकास व परिष्कार हुआ।

  • श्रीधर द्वारा रचित न्यायकन्दली की पंजिका नामक टीका में जैनाचार्य राजेश्वर ने प्रशस्तपादीय पदार्थ धर्म संग्रह की चार प्रमुख व्याख्याओं का निर्देश इस प्रकार किया है-
  1. व्योमवतीव्योमशिवाचार्य रचित
  2. न्यायकन्दली—श्रीधराचार्य रचित
  3. किरणावलीउदयनाचार्य रचित
  4. लीलावतीश्रीवत्साचार्य रचित

इनमें से लीलावती के स्थान पर कतिपय विद्वान् श्रीवल्लभाचार्य द्वारा रचित न्यायलीलावती की परिगणना करते हैं। किन्तु न्यायलीलावती एक स्वतंत्र ग्रन्थ है, टीका नहीं। अत: स्थानापन्नता उचित नहीं है। इन चार प्रमुख टीकाओं के अतिरिक्त निम्नलिखित अन्य अवान्तर चार टीकाओं की भी गणना करके कुछ विद्वान् प्रमुख टीकाओं की संख्या आठ मानते हैं—

  1. सेतु -- पद्मनाभरचित
  2. भाष्यसूक्ति:- जगदीशरचित
  3. भाष्यनिकष: - कोलाचल मल्लिनाथरचित
  4. कणादरहस्यम् – शंकर मिश्ररचित

इन टीकाओं में से सर्वाधिक प्राचीन टीका व्योमवती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पदार्थधर्माणां संग्रह इति निबन्धकारैर्विस्तारोक्तानां संक्षेपेणाभिधानम्, व्योमवती पृ. 20, 33
  2. अन्यत्र ग्रन्थे विस्तरेण इतस्तत: अभिहितानाम् इह एकत्र तावतामेव पदार्थानां ग्रन्थे संक्षेपेणाभिधानम्, न्या.क. पृ. 6
  3. शास्त्रे नानास्थानेषु वितता: एकत्र संकलय्य कथ्यन्ते स संग्रह:, किरणावली, पृ. 5
  4. क) Historical Survey of Indian Logic, R.AS. BP. 40
    (ख) प्रशस्तपादभाष्य हिन्दी अनुवाद (श्रीनिवास शास्त्री) पृ. 12
    (ग) Introduction to Nyaya Prakash: P XXI
    (घ) Vaisheshik System, P-605
    (ङ) Indian Logic And Atomism. P. 27
  5. द्रष्टव्य—प्रशस्तपादभाष्य हिन्दी अनुवाद, श्रीनिवास शास्त्री पृ. 18

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