संख्या -वैशेषिक दर्शन

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महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।

संख्या का स्वरूप

  • एक, दो आदि व्यवहार के कारण को संख्या कहा जाता है। दूसरे शब्दों में संख्या वह सामान्य गुण है, जो एकत्व आदि व्यवहार का निमित्त होता है। वह नौ द्रव्यों में रहती है और एक से लेकर परार्ध पर्यन्त होती है। संख्या दो प्रकार की होती है- एक द्रव्य में रहने वाली एकत्व और अनेक द्रव्यों में रहने वाली- द्वित्व त्रित्व आदि। एकत्व भी दो प्रकार का होता है-
  1. नित्य, जो पृथ्वी, जल, तेज़ और वायु के परमाणु तथा आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन इन नित्य पदार्थों में रहता है और
  2. अनित्य, जो अपने आश्रय घट-पट आदि के समवायि कारण तन्तु आदि अनित्य पदार्थों में रहता है। इन पदार्थों के नाश से तद्गत एकत्व भी नष्ट हो जाता है पट का रूप अपने समवायिकारणों के रूप से उत्पन्न होता है। द्वित्वादि नामक संख्या तो सभी द्रव्यों में अनित्य होती है।
  • द्वित्व संख्या की उत्पत्ति दो द्रव्यों में जैसे 'यह एक घट है' यह भी एक घट है' इस अपेक्षाबुद्धि से होती है। द्वित्व दो द्रव्यों का गुण है, अत: दो द्रव्य द्वित्व के समवायिकरण होते हैं और दोनों द्रव्यों के दोनों एकत्व असमवायिकारण होते हैं, एकत्व की अपेक्षाबुद्धि निमित्त कारण होती है। अपेक्षाबुद्धि के नाश से द्वित्व का भी नाश हो जाता है।
  • साधारणतया तो संख्या एक प्रतीतिमात्र है, किन्तु न्यायवैशेषिक की दृष्टि से रूप आदि के समान संख्या भी एक गुण है। संक्षेपत: द्वित्व आदि की उत्पत्ति (द्वित्वोदय प्रक्रिया) वैशेषिकों के अनुसार इस प्रकार है—
  • प्रथम क्षण में – इन्द्रिय का घटद्वय से सम्बन्ध।
  • द्वितीय क्षण में- एकत्वसामान्य का ज्ञान।
  • तृतीय क्षण में – एक यह, एक यह, इस प्रकार की अपेक्षाबुद्धि का उत्पन्न होना।
  • चतुर्थ क्षण में – द्वित्व संख्या की उत्पत्ति
  • पंचम क्षण में – द्वित्व सामान्य (जाति का ज्ञान)।
  • षष्ठ क्षण में- द्वित्व संख्या का ज्ञान।
  • सप्तम क्षण में – द्वित्वसंख्याविशिष्ट दो घट व्यक्ति का ज्ञान।
  • अष्ठम क्षण में – द्वित्व ज्ञान से आत्संस्कार।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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