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महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 35 श्लोक 1-18

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पञ्चत्रिंश (35) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (पुत्रदर्शन पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

व्‍यासजी की कृपा से जनमेजसय को अपने पिता का दर्शन प्राप्‍त होना

वैशम्पायन जी कहते हैं - कुरूश्रेष्ठ जनमेजय ! राजा धृतराष्ट्र ने पहले कभी अपने पुत्रों को नहीं देखा था, परंतु महर्षि व्यास के प्रसाद से उन्होंने उनके स्वरूप का दर्शन प्राप्त कर लिया। उन नरश्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्र ने राजधर्म, ब्रह्मविद्या तथा बुद्धि का यथार्थ निश्चय भी पा लिया था । महाज्ञानी विदुर ने अपने तपोबल से सिद्धि प्राप्त की थी; परंतु धृतराष्ट्र ने तपस्वी व्यास का आश्रय लेकर सिद्धि लाभ किया था। जनमेजय ने कहा– ब्रह्मन् ! यदि वरदायक भगवान् व्यास मुझे भी तेरे पिता का उसी रूप, वेश और अवस्था में दर्शन करा दें तो मैं आपकी बतायी हुई सारी बातों पर विश्वास कर सकता हूँ । उस अवस्था में मैं कृतार्थ होकर दृढ़ निश्चय को प्राप्त हो जाऊँगा । इससे मेरा अत्यन्‍त प्रिय कार्य सिद्ध होगा। आज मुनिश्रेष्ठ व्यास जी के प्रसाद से मेरी इच्छा भी पूर्ण होनी चाहिये। सौति कहते हैं–राजा जनमेजय के इस प्रकार कहने पर परम प्रतापी बुद्धिमान् महर्षि व्यास ने उन पर भी कृपा की । उन्होंने राजा परीक्षित् को उस यज्ञ भूमि में बुला दिया। स्वर्ग सेउसी रूप और अवस्था में आये हुए अपने तेजस्वी पिता राजा परीक्षित् का भूपाल जनमेजय ने दर्शन किया। उन के साथ ही महात्मा शमीक और उन के पुत्र श्रृंगी ऋषि भी थे । राजा परीक्षित् के जो मन्त्री थे,उन का भी जनमेजय ने दर्शन किया। तदनन्तर राजा जनमेजय ने प्रसन्न होकर यज्ञान्त स्नान के समय पहले अपने पिता को नहलाया; फिर स्वयं स्नान किया । फिर राजा परीक्षित् वहीं अन्तर्धान हो गये। स्नान करके उन नरेश ने यायावर कुल में उत्पन्न जरत्कारू कुमार आस्तीक मुनि से इस प्रकार कहा–‘आस्तीक जी ! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, मेरा यह यज्ञ नाना प्रकार के आश्चर्यों काकेन्द्र हो रहा है; क्योंकि आज मेरे शोकों का नाश करने वाले ये पिताजी भी यहाँ उपस्थित हो गये थे’। आस्तीक बोले- कुरूकुल श्रेष्ठ ! राजन् ! जिस के यज्ञ में तपस्या की निधि पुरातन ऋषि महर्षि द्वैपायन व्यास विराजमान हों, उस की तो दोनों लोकों में विजय है। पाण्डवनन्दन ! तुमने यहविचित्र उपाख्यान सुना । तुम्हारे शत्रु सर्पगण भस्म होकर तुम्हारे पिता की ही पदवी को पहुँच गये। पृथ्वीनाथ ! तुम्हारी सत्यपरायणता के कारण किसी तरह तक्षक के प्राण बच गये हैं। तुमने समसत ऋषियों की पूजा की और महात्मा व्यास की कहाँ तक पहुँच है, इसे देख लिया। इस पापनाशक कथा को सुनकर तुम्हें महान् धर्म की प्राप्ति र्हुअ है। उदार हृदय वाले संतों के दर्शन से तुम्हारे हृदय की गाँठ खुल गयी- तुम्हारा सारा संशय देर हो गया। जो लो धर्म के पक्षपाती हैं तथा जिनके दर्शन से पाप का नाश होता है, उन महातमाओं को अब तुम्हें नमसकार करना चाहिये। सौति कहते हैं- शौनक ! विप्रवर आस्तीक के मुख से यह बात सुनकर राजा जनमेजय ने उन महर्षि व्यास का बार-बार पूजन और सत्कार किया। साधु शिरोमणे ! तत्पश्चात् उन धर्मज्ञ नरेश ने धर्म से कभी च्युत न होने वाले महर्षि वैशम्पायन से पुनः धृतराष्ट्र के वनवास की अवशिष्ट कथा पूछी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत पुत्रदर्शन पर्व में जनमेजय के द्वारा अपने पिता का दर्शन विषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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