महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-20

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:33, 3 जनवरी 2016 का अवतरण (Text replacement - "पुरूष" to "पुरुष")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

चतुर्दश (14) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! अपने भाइयों के मुख से नाना प्रकार के वेदों के सिद्धान्तों को सुनकर भी जब कुन्ती पुत्र धर्मराज युधिष्ठिरकुछ नहीं बोले, तब महान् कुल में उत्पन्न हुई, युवतियों में श्रेष्ठ, स्थूल नितम्ब और विशाल नेत्रों वाली, पतियों एवं विशेषतः राजा युधिष्ठिरके प्रति अभिमान रखने वाली, राजा की सदा ही लाड़िली, धर्म पर दृष्टि रखने वाली तथा धर्म को जानने वाली श्रीमती महारानी द्रौपदी हाथियों से घिरे हुए यूथपति गजराज की भाति सिंह-शादॅूल-सहश पराक्रमी भाइयों से घिरकर बैठे हुए पतिदेव नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिरकी ओर देखकर उन्हें सम्बोधित करके सान्त्वनापूर्ण परम मधुर वाणी में इस प्रकार बोली। कुन्तीकुमार! आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सूख गये हैं; पपीहों के समान आपसे राज्य करने की रट लगा रहे हैं, फिर भी आप इनका अभिनन्दन नहीं करते? महाराज! उन्मत गजराजाओं के समान आपके ये बन्धु सदा आपके लिये दुःख-ही-दुःख उठाते आये हैं। अब तो इन्हें युक्तियुक्त वचनों द्वारा आनन्दित कीजिये। राजन्! द्वैतवन में ये सभी भाई जब आपके साथ सर्दी-गर्मी और आधी-पानी का कष्ट भेाग रहे थे, उन दिनों आपने इन्हें धैर्य देते हुये कहा था ’शत्रुओं का दमन करने वाले वीर बन्धुओ! विजय की इच्छा वाले हम लोग युद्ध में दुर्योधन को मारकर रथियों को रथहीन करके बड़े-बडे़ हाथियों का वध कर डालेंगे और घुड़सवार सहित रथों से इस पृथ्वी को पाट देंगे। तत्पश्चात् सम्पूर्ण भोगों से सम्पन्न वसुधा का उपभोग करेंगे। उस समय प्र्याप्त दान-दक्षिणा वाले नाना प्रकार के समृद्धिशाली यज्ञों के द्वारा भगवान की आराधना में लगे रहने से तुम लोगों को यह वनवास जनित दुःख सुखरूप में परिणत हो जायगा।’ धर्मात्माओं में श्रेष्ठ! वीर महाराज! पहले द्वैतवन में इन भाइयों से स्वयं ही ऐसी बातें कहकर आज क्यों आप फिर हमलोगों का दिल तोड़ रहे हैं। जो कायर और नपुंसक है, वह पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। वह न तो धन का उपार्जन कर सकता है और न उसे भोग ही सकता है। जैसे केवल कीचड़ में मछलियां नहीं होतीं। उसी प्रकार नपुंसक के घर में पुत्र नहीं होते। जो दण्ड देने की शक्ति नहीं रखता, उस क्षत्रिय की शोभा नहीं होती, दण्ड न देने वाला राजा इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। भारत! दण्डहीन राजा की प्रजाओं को कभी सुख नहीं मिलता है। नृपश्रेष्ठ! समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, दान लेना, देना, अध्ययन और तपस्या- यहब्राह्मणका ही धर्म है, राजा का नहीं। राजाओं का परम धर्म तो यही है कि ये दुष्टों को दण्ड दें, सत्पुरुषों का पालन करें और युद्ध में कभी पीठ न दिखाबें। जियमें समयानुसार क्षमा और क्रोध दोनों प्रकट होते हैं, जो दान देता और कर लेता है, जिसमें शत्रुओं को भय दिखाने और शरणागतों को अभय देने की शक्ति है, जो दुष्टों को दण्ड देता और दीनों पर अनुग्रह करता है, वही धर्मज्ञ कहलाता है। आपको यह पृथ्वी न तो शास्त्रों के श्रवणों से मिली है, न दान में प्राप्त हुई है, न किसी को समझाने-बुझाने से उपलब्ध हुई है, न यज्ञ कराने से और न कहीं भीख मागने से ही प्राप्त हुई है। वह जो शत्रुओं की पराक्रम सम्पन्न एवं श्रेष्ठ सेना हाथी, घोडे़ और रथ तीनों अगों से सम्पन्न थी तथा द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा और कृपाचार्य जिसकी रक्षा करते थे, उसका आपने बध किया है,तब यह पृथ्वी आपके अधिकार में आयी है, अतः वीर! टाप इसका उपभोग करें।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख