महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 112 श्लोक 58-78
द्वादशाधिकशततम (112) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
जैसे मातलि इन्द्र का सारथि और सखा भी है, उसी प्रकार दारुका का छोटा भाई सात्यकि का सारथि और प्रिय सखा था। उसने सात्यकि को वह सूचना दी कि रथ जोतकर तैयार है । तदनन्तर सात्यकि ने स्नान करके पवित्र हो यात्रा का्लिक मंगलकृत्य सम्पन्न करने के पश्चात एक सहस्त्र स्त्रात को को सोने की मुद्राएं दान की। ब्राहामणों के आशीर्वाद् पाकर तेजस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ एवं मधुषर्क के अधिकारी सात्यकि ने कैला तक नामक मधु का पान किया। उसे पीते ही उनकी आँखें लाल हो गयीं। मद से नेत्र चञ्चल हो उठे, फिर उन्होंने अत्यन्त हर्ष में भरकर वीर कांस्य पात्र का स्पर्श किया। उस समय प्रज्वलित अग्नि के समानरथियों में श्रेष्ठ सात्यकि का तेज दूना हो गया।उन्होंने बाण सहित धनुष को गोद में लेकर ब्रह्मणों के मुख से स्वस्तिवाचन का कार्य सम्पन्न कराकर कवच एवं आभूषण धारण किये, फिर कुमारी कन्याओं ने लावा, गन्ध तथा पुष्पमालाओं से उनका पूजन एवं अभिनन्दन किया। इसके बाद सात्यकि ने हाथ जोडकर युधिष्ठिर के चरणों में प्रणामकिया और युधिष्ठिर ने उनका मस्तक सुघां। फिर वे उस विशाल रथपर आरुढ़ हो गये। तदनन्तर वे हष्ट-पुष्ट वायु के समान वेगशाली एवं अजेय सिंधुदेशीय घोड़े मदमत हो उस विजयशील रथ को लेकर चल दिये। इस प्रकार धर्मराज को सम्मानित भीमसेन भी युधिष्ठिर को प्रणाम करके सात्यकि के साथ चले । उन दोनों शत्रुदमन वीरों को आपकी सेना में प्रवेश करने के लिये इच्छुक देख द्रोणाचार्य आदि आपके सारे सैनिक सावधान होकर खडे हो गये।। उस समय भीमसेन को कवच चाहिये सुसज्जित होकर अपने पीछे आते देख उनका अभिनन्दन करके वीर सात्यकि उनसे यह हर्षवर्धक वचन कहा-। 'भीमसेन ! तुम राजा युधिष्ठिर की रक्षा करो। यही तुम्हारे लिये सबसे महान् कर्म है। जिस काल ने रांधकर पका दिया है, इस कौरव सेना को चीरकर मैं भीतर प्रवेश कर जाउंगा।। 'शत्रुदमन वीर ! इस समय और भविष्य में भी राजा की रक्षा करना ही श्रेयस्कर है। तुम मेरा बल जानते हो और मैं तुम्हारा ! अत: भीमसेन ! यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो तो लौट जाओ। सात्यकि के ऐसा कहने पर भीमसेन ने उनसे कहा- 'अच्छा भैया ! तुम कार्यसिद्धि के लिये आगे बढों। पुरुषवर ! मैं राजा की रक्षा करुंगा। भीमसेन के ऐसा कहने पर सात्यकि ने उनसे कहा- 'कुन्तीकुमार ! तुम जाओ । निश्चय ही लौट जाओ। मेरी विजय अवश्य होगी। 'भीमसेन ! तुम जो मेरे गुणों में अनुरक्त होकर मेरे वेश में हो गये हो तथा इस समय दिखायी देने वाले शुभ शकुन मुझे जैसी बात बता रहे है, इससे जान पड़ता है कि महात्मा अर्जुन के द्वारा पापी जयद्रथ के मारे जाने पर मैं निश्चय ही लौटकर धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर का आलिग्न करुंगा । भीमसेन से ऐसा कहकर उन्हें विदा करने के पश्चात महायशस्वी सात्यकि ने आपकी सेना की ओर उसी प्रकार देखा, जैसे बाघ मृगों के झुंड की ओर देखता है। नरेश्वर ! सात्यकि को अपने भीतर प्रवेश करने के लिये उत्सुक देख आपकी सेना पर पुन: मोह छा गया और वह बारंबार कांपने लगी । राजन् ! तदनन्तर धर्मराज की आज्ञा के अनुसार अर्जुन से मिलने के लिये सात्यकि आपकी सेना की ओर वेग पूर्वक बढ़े।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तगर्त जयद्रथपर्व में सात्यकि का कौरव सेना में प्रवेशविषयक एक सौ बांरहवा अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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