महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 1 श्लोक 52-69

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प्रथम (1) अध्याय: सौप्तिकपर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व :प्रथम अध्याय: श्लोक 52-69 का हिन्दी अनुवाद

इस विषय में न्याय पर दृष्टि रखने वाले धर्मचिन्ता एवं तत्वरदर्शी पुरुषों ने प्राचीन काल में ऐसे श्लोकों का गान किया है जो तात्विक अर्थ का प्रतिपादन करने वाले हैं। वे श्लोक इस प्रकार सुने जाते हैं- । शत्रुओं की सेना यदि बहुत थक गयी हो तितर-बितर हो गयी हो भोजन कर रही हो कहीं जा रही हो अथवा किसी स्थान विशेष में प्रवेश कर रही हो तो भी विपक्षियों को उस पर प्रहार करना ही चाहिये । जो सेना आधी रात के समय नींद में अचेत पड़ी हो जिस का नायक नष्ट हो गया हो जिसके योद्धाओं में फूट हो गयी हो और जो दुविधा में पड़ गयी हो उस पर भी शत्रु को अवश्य प्रहार करना चाहिए । इस प्रकार विचार करके प्रतापी द्रोणपुत्र ने रात को सोते समय पांचालों सहित पाण्डवों को मार डालने का निश्चय किया । क्रूरतापूर्ण बुद्धि का आश्रय ले बारंबार उपर्युक्त निश्चय करके अश्वात्थामा ने सोये हुए अपने मामा कृपाचार्य तथा भोजवंशी कृतवर्मा को भी जगाया । जागने पर महामनस्वी महाबली कृपाचार्य और कृतवर्मा ने जब अश्वत्थामा का निश्चय सुनाए तब वे लज्जा से गड़ गये और उन्हें कोई उचित उत्तर नहीं सूझा । तब अश्वत्थामा दो घड़ी तक चिन्तामग्न रहकर अश्रुगद वाणी में इस प्रकार बोला- संसार का अद्वितीय वीर महाबली राजा दुर्योधन मारा गया जिसके लिये हम लोगों ने पाण्डवों के साथ वैर बॉंध रखा था । जो किसी दिन ग्यारह अक्षौहणी सेनाओं का स्वामी था वह राजा दुर्योधन विशुद्ध पराक्रम का परिचय देता हुआ अकेला युद्ध कर रहा था किंतु बहुत-से नीच पुरुषों ने मिलकर युद्ध स्थल में उसे भीमसेन के द्वारा धराशायी करा दिया । एक मूर्धाभिषिक्त सम्राट के मस्तक पर लात मारते हुए नीच भीमसेन ने यह बड़ा ही क्रूरतापूर्ण कार्य कर डाला है । पांचाल योद्धा हर्ष में भरकर सिंहनाद करते हल्ला मचाते हँसते सैकड़ों शंख बजाते और डंके पीटते हैं । शंखध्वनि से मिला हुआ नाना प्रकार के वाध्यों का गम्भीर एवं भयंकर घोष वायु से प्रेरित हो सम्पूर्ण दिशाओं को भरता-जान पड़ता है । हींसते हुए घोड़ों और चिंग्घाड़ते हुए हाथियों की आवाज के साथ शूरवीरों का यह महान् सिंहनाद सुनायी दे रहा है । हर्ष में भरकर पूर्व दिशा की ओर वेगपूर्वक जाते हुए पाण्डाव योद्धाओं के रथों के पहियों के ये रोमांचकारी शब्द कानों में पड़ रहे हैं । हाय ! पाण्डवों ने धृतराष्ट्र के पुत्रों और सैनिकों का जा यह विनाश किया है इस महान् संहार से हम तीन ही बच पाये हैं । कितने ही वीर सौ-सौ हाथियों के बराबर बलशाली थे और कितने ही सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों की संचालन-कला में कुशल थे किन्तु पाण्डवों ने उन सबको मार गिराया। मैं इसे समय का ही फेर समझता हूँ । निश्‍चय ही इस कार्य से ठीक ऐसा ही परिणाम होने वाला था। हम लोगों के द्वारा अत्यन्त दुष्कर कार्य किया गया तो भी इस युद्ध का अन्तिम फल इस में प्रकट हुआ । श्यदि आप दोनों की बुद्धि मोह से नष्ट न हो गयी हो तो इस महान् संकट के समय अपने बिगड़े हुए कार्य को बनाने के उद्देश्य से हमारे लिये क्या करना श्रेष्ठ होगा यह बताइये।

इस प्रकार श्री महाभारत सौप्तिक पर्व में अश्वत्थामा की मन्त्रगणाविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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