दादू दयाल
दादू दयाल
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जन्म | संवत् 1601 (सन् 1544 ई.) |
जन्म भूमि | अहमदाबाद |
मृत्यु | संवत् 1660 (सन् 1603 ई.) |
अभिभावक | लोदीराम और बसी बाई |
संतान | पुत्र- ग़रीबदास और मिस्कीनदास, पुत्रियाँ- नानीबाई तथा माताबाई |
कर्म भूमि | गुजरात |
कर्म-क्षेत्र | समाज सुधाकर काव्य |
मुख्य रचनाएँ | साखी, पद्य, हरडेवानी, अंगवधू |
विषय | धर्मनिर्पेश, समाज सुधारक |
भाषा | हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | भारत के अन्य भक्त और संत की तरह दादू दयाल के जीवन के बारे में भी प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। इनका जन्म, मृत्यु, जीवन और व्यक्तित्व किंवदन्तियों, अफ़वाहो और कपोल-कल्पनाओं से ढका हुआ है। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
दादू दयाल (अंग्रेज़ी: Dadu Dayal, जन्म: 1544 ई.; मृत्यु: 1603 ई.) हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि थे। इन्होंने एक निर्गुणवादी संप्रदाय की स्थापना की, जो 'दादूपंथ' के नाम से ज्ञात है। वे अहमदाबाद के एक धुनिया के पुत्र और मुग़ल सम्राट् शाहजहाँ (1627-58) के समकालीन थे। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन राजपूताना में व्यतीत किया एवं हिन्दू और इस्लाम धर्म में समन्वय स्थापित करने के लिए अनेक पदों की रचना की। उनके अनुयायी न तो मूर्तियों की पूजा करते हैं और न कोई विशेष प्रकार की वेशभूषा धारण करते हैं। वे सिर्फ़ राम का नाम जपते हैं और शांतिमय जीवन में विश्वास करते हैं, यद्यपि दादू पंथियों का एक वर्ग सेना में भी भर्ती होता रहा है। भारत के अन्य भक्त और संत की तरह दादू दयाल के जीवन के बारे में भी प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। इनका जन्म, मृत्यु, जीवन और व्यक्तित्व किंवदन्तियों, अफ़वाहो और कपोल-कल्पनाओं से ढका हुआ है। इसका एक कारण यह है कि ये संत आम जनता के बीच से उभरे थे।
जीवन परिचय
दादू पेशे से धुनिया थे और बाद में वह धार्मिक उपदेशक तथा घुमक्कड़ बन गए। वह कुछ समय तक सांभर व आंबेर और अंततः नारायणा में रहे, जहाँ उनकी मृत्यु हुई। ये सभी स्थान जयपुर तथा अजमेर (राजस्थान राज्य) के आसपास है। उन्होंने वेदों की सत्ता, जातिगत भेदभाव और पूजा के सभी विभेदकारी आडंबरों को अस्वीकार किया। इसके बदले उन्होंने जप (भगवान के नाम की पुनरावृत्ति) और आत्मा को ईश्वर की दुल्हन मानने जैसे मूल भावों पर ध्यान केंद्रित किया। उनके अनुयायी शाकाहार और मद्यत्याग पर ज़ोर देते हैं और सन्न्यास दादू पंथ का एक अनिवार्य घटक है। दादू के उपदेश मुख्यतः काव्य सूक्तियों और ईश्वर भजन के रूप में हैं, जो 5,000 छंदों के संग्रह में संग्रहीत है, जिसे बानी (वाणी) कहा जाता है। ये अन्य संत कवियों, जैसे कबीर, नामदेव, रविदास और हरिदास की रचनाओं के साथ भी किंचित परिवर्तित छंद संग्रह पंचवाणी में शामिल हैं। यह ग्रंथ दादू पंथ के धार्मिक ग्रंथों में से एक है। आम जनता का विवरण आम तौर पर कहीं नहीं मिलता। यही कारण है कि इन संतों के जीवन का प्रामाणिक विवरण हमें नहीं मिलता। दादू, रैदास और यहाँ तक की कबीर का नामोल्लेख भी उस युग के इतिहास-ग्रंथों में यदा-कदा ही मिलता है। संतों का उल्लेख उनकी मृत्यु के वर्षों बाद मिलने लगता है, जब उनके शिष्य संगठित राजनीतिक-सामाजिक शक्ति के रूप में उभर कर आने लगे थे। इतनी उपेक्षा के बावजूद, दादू दयाल उन कवियों में से नहीं हैं, जिन्हें भारतीय जनता ने भुला दिया हो। आधुनिक शोधकर्ताओं ने अनुसंधान करके ऐसे अनेक विस्मृत कवियों को खोज निकालने का गौरव प्राप्त किया है।
विभिन्न मतों के अनुसार
- चंद्रिका प्रसाद त्रिपाठी के अनुसार अठारह वर्ष की अवस्था तक अहमदाबाद में रहे, छह वर्ष तक मध्य प्रदेश में घूमते रहे और बाद में सांभर (राजस्थान) में आकर बस गये। यदि दादू का जन्म अहमदाबाद में ही हुआ था, तो वे सांभर कब और क्यों आये। सांभर आने से पहले उन्होंने क्या किया था और कहाँ-कहाँ भ्रमण कर चुके थे। इसकी प्रामाणिक सूचना हमें नहीं मिलती।
- जन गोपाल की 'परची' के अनुसार दादू तीस वर्ष की अवस्था में सांभर में आकर रहने लगे थे। सांभर निवास के दिनों के बाद की उनकी गतिविधियों की थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है। सांभर के बाद वह कुछ दिनों तक आमेर में (जयपुर के निकट) रहे। यहाँ पर अभी भी एक 'दादू द्वारा' बना हुआ है।
- कुछ लोगों का कहना है, दादू ने फ़तेहपुर सीकरी में अकबर से भेंट की थी और चालीस दिनों तक आध्यात्मिक विषयों की चर्चा भी करते रहे थे। यद्यपि ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में यह जानकारी उपलब्ध नहीं है। यह अनुमान का विषय है।[1] वैसे अकबर ने उस युग के अनेक धार्मिक भक्तों और संतों से विचार-विमर्श किया था। कई हिन्दू संत भी उनसे मिलने गये थे। सम्भव है उनमें दादू भी एक रहे हों और अपने जीवन काल में इतने प्रसिद्ध न होने के कारण उनकी ओर ध्यान केन्द्रित न किया गया हो। अन्य संतों की तरह दादू दयाल ने भी काफ़ी देश-भ्रमण किया था। विशेषकर उत्तर भारत, काशी), बिहार, बंगाल और राजस्थान के भीतरी भागों में लम्बी यात्राएँ की थीं। अन्त में, ये नराणा, राजस्थान में रहने लगे, जहाँ उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त की।
जन्म
संत कवि दादू दयाल का जन्म फागुन सुदी आठ बृहस्पतिवार संवत् 1601 (सन् 1544 ई.) को हुआ था। दादू दयाल का जन्म भारत के राज्य गुजरात के अहमदाबाद शहर में हुआ था, पर दादू के जन्म स्थान के बारे में विद्वान् एकमत नहीं है। दादू पंथी लोगों का विचार है कि वह एक छोटे से बालक के रूप में (अहमदाबाद के निकट) साबरमती नदी में बहते हुए पाये गये। दादू दयाल का जन्म अहमदाबाद में हुआ था या नहीं, इसकी प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करने के साधन अब हमारे पास नहीं हैं। फिर भी इतना तो निश्चित है कि उनके जीवन का बड़ा भाग राजस्थान में बीता।
पारिवारिक जीवन
उनके परिवार का सम्बन्ध राजदरबार से नहीं था। तत्कालीन इतिहास लेखकों और संग्रहकर्त्ताओं की दृष्टि में इतिहास के केंद्र राजघराने ही हुआ करते थे। दादू दयाल के माता-पिता कौन थे और उनकी जाति क्या थी। इस विषय पर भी विद्वानों में मतभेद है। प्रामाणिक जानकारी के अभाव में ये मतभेद अनुमान के आधार पर बने हुए हैं। उनके निवारण के साधन अनुपलब्ध हैं। एक किंवदंती के अनुसार, कबीर की भाँति दादू भी किसी कवाँरी ब्राह्मणी की अवैध सन्तान थे, जिसने बदनामी के भय से दादू को साबरमती नदी में प्रवाहित कर दिया। बाद में, इनका लालन-पालन एक धुनिया परिवार में हुआ। इनका लालन-पालन लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण ने किया। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के मतानुसार इनकी माता का नाम बसी बाई था और वह ब्राह्मणी थी। यह किंवदंती कितनी प्रामाणिक है और किस समय से प्रचलित हुई है, इसकी कोई जानकारी नहीं है। सम्भव है, इसे बाद में गढ़ लिया गया हो। दादू के शिष्य रज्जब ने लिखा है—
धुनी ग्रभे उत्पन्नो दादू योगन्द्रो महामुनिः।
उतृम जोग धारनं, तस्मात् क्यं न्यानि कारणम्।। [2]
पिंजारा रुई धुनने वाली जाति-विशेष है, इसलिए इसे धुनिया भी कहा जाता है। आचार्य क्षितिजमोहन सेन ने इनका सम्बन्ध बंगाल से बताया है। उनके अनुसार, दादू मुसलमान थे और उनका असली नाम 'दाऊद' था। दादू दयाल के जीवन की जानकारी दादू पंथी राघोदास 'भक्तमाल' और दादू के शिष्य जनगोपाल द्वारा रचित 'श्री दादू जन्म लीला परची' में मिलता है। इसके अलावा दादू की रचनाओं के अन्तःसाक्ष्य के माध्यम से भी, हम उनके जीवन और व्यक्तित्व के बारे में अनुमान लगा सकते हैं।
हिन्दू समाज में परम्परागत रूप से व्यक्ति का परिचय उसके कुल और उसकी जाति से दिया जाता रहा है। जात-पात की व्यवस्था मध्य काल में बहुत सुदृढ़ थी। अधिकांश निर्गुण संत कवि नीची समझी जाने वाली जातियों में हुए थे और वे जात-पात की व्यवस्था के विरोधी थे। लेकिन उनके अपमान का अभिजात समाज जात-पात का कट्टर समर्थक था। इस क्रूर यथार्थ को संत कवि जानते थे। फिर भी, उनके मन में अपनी जाति सम्बन्धी कोई हीन भावना नहीं थी। अतः उन्होंने न तो अपनी जाति को छिपाया और न इसे चरम सत्य मानकर ही पूजते रहे। कई बार स्वयं इनके जिज्ञासु भक्त भी यह पूछ ही लेते थे कि महाराज, आपकी जाति क्या है।
ऐसे जिज्ञासु भक्तों को सम्बोधित करते हुए दादू ने लिखा-
दादू कुल हमारे केसवा, सगात सिरजनहार।
जाति हमारी जगतगुर, परमेश्वर परिवार।।
दादू एक सगा संसार में, जिन हम सिंरजे सोइ।।
मनसा बाचा क्रमनां, और न दूजा कोई।। [3]
यहाँ दादू ने अपनी विचार प्रणाली को व्यक्त करते हुए कहा है कि मेरे सच्चे सम्बन्ध तो ईश्वर से हैं। और इसी सम्बन्ध से मेरा परिचय है। परिवार में अपने-पराये की भावना आ जाती है। दादू इसे संसार की 'माया' और संसार के 'मोह' की संज्ञा देते हैं। दादू अपने आपको इनसे मुक्त कर चुके थे, वह संसार में रहते हुए भी सांसारिक बंधनों को काट चुके थे। अतः निरर्थक जात-पात की लौकिक भाषा में अपना वास्तविक परिचय कैसे देते।
फिर भी, कई स्थानों पर उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया है कि वे एक पिंजारा हैं। एक पद में उन्होंने लिखा है—
कौण आदमी कमीण विचारा, किसकौं पूजै ग़रीब पिंजारा।।टेक
मैं जन येक अनेक पसारा, भौजिल भरिया अधिक अपारा।।1
एक होइ तौ कहि समिझाऊँ, अनेक अरुझै क्यौं सुरझाउं।।2
मैं हौं निबल सबल ए सारे, क्यौं करि पूजौं बहुत पसारे।।3
पीव पुकारौ समझत नाही, दादू देषि दिसि जाही।।4[4]
दादू ने इस पद में अपने आपको 'कमीण' कहकर पुकारा है। यह उन्होंने नम्रतावश ही नहीं कहा है। बल्कि सवर्णों द्वारा नीची समझी जाने वाली जातियों के व्यक्तियों को पुकारे जाने वाले नाम को प्रकट किया है और प्रकारान्तर से सवर्णों की समझ की अपज्ञापूर्वक निन्दा भी कर दी है।
दादू ने एक और पद में कहा है—
तहाँ मुझ कमीन की कौन चलावै।
जाका अजहूँ मुनि जन महल न पावै।।टेक
स्यौ विरंचि नारद मुनि गाबे, कौन भाँति करि निकटि बुलावै।।1
देवा सकल तेतीसौ कोडि, रहे दरबार ठाड़े कर जोड़ि।।2
सिध साधक रहे ल्यौ लाई, अजहूँ मोटे महल न पाइ।।3
सवतैं नीच मैं नांव न जांनां, कहै दादू क्यों मिले सयाना।।4[5]
इस पद में सामाजिक संवेदना और आध्यात्मिक अनुभव का मिश्रण हुआ है। दादू ईश्वर से मिलना चाहता है, लेकिन यह समाज बाधक बना हुआ है। ईश्वर की दृष्टि में सभी मनुष्य बराबर हों भी तो क्या होता है। समाज तो मुझे सबसे नीच और कमीन कहकर ही पुकारता है। यहाँ ईश्वर से न मिल पाने की निराशा के साथ-साथ सामाजिक अन्याय से आहत हृदय का दर्द भी अभिव्यक्त हो गया है। इस अन्तः साक्ष्य के आधार पर निस्संकोच रूप से यह कहा जा सकता है कि दादू पिंजारा थे। ब्राह्मण सिद्ध करने वाली किंवदंतियों का जन्म बाद में हुआ। वह मुसलमान थे या नहीं, या उन्होंने इस्लाम में नयी-नयी दीक्षा ले ली थी, जिसके कारण उनमें कुछ हिन्दू संस्कार बच गए थे, पर वह थे मुसलमान ही। इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। सम्भव है, यह उन पर आरोप लगाने के लिए कहा जाता रहा हो। निर्गुण संतों की वर्णाश्रम विरोधी चेतना के प्रभाव को खत्म करने के लिए उन पर इस्लाम के प्रभाव को प्रचारित किया जाता रहा है। इस्लाम चूँकि उस युग का राज-धर्म था, अतः इनको भी तत्कालीन सत्ताधारियों से जोड़कर इनके जन-आधार को संकुचित करने का प्रयास किया गया था। ऐसा अनुमान इसलिए लगाया जा सकता है क्योंकि यही आरोप कबीर पर भी लगाया गया था। उन्होंने अपनी रचनाओं में हिन्दू और तुर्क दोनों के मार्गों को ग़लत बताया है। उनके शिष्य हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। फिर भी, उनके इस्लाम में दीक्षित हो जाने का कोई तर्क-सम्मत कारण नहीं दिखायी देता।
दादू की पत्नी कौन थी, और उसका क्या नाम था, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। इनके ग़रीबदास और मिस्कीनदास नामक दो पुत्र और नानीबाई तथा माताबाई नाम की दो पुत्रियाँ थीं। कुछ विद्वान् इस बात से असहमत हैं। उनके अनुसार ये उनके वरद पुत्र थे। कुछ लोगों के अनुसार ये उनके शिष्य थे। जनगोपाल के अनुसार दादू तीस वर्ष की अवस्था में सांभर में बस गये और दो वर्ष के बाद, उनके ज्येष्ठ पुत्र ग़रीबदास का जन्म हुआ।
दादू के गुरु
दादू ने अपनी वाणी में गुरु की महिमा का गान तो बहुत किया है, लेकिन उनका कहीं नाम नहीं लिया है, जिनके ज्ञान के प्रभाव से दादू का व्यक्तित्व लौकिक बाधा-बंधनों को काट सका। दादू ने अपनी रचनाओं में गुरु की महिमा का विस्तार से बखान किया है। अतः यह जानना भी हमारे लिए आवश्यक है कि इनके गुरु कौन थे। लेकिन इस तथ्य की प्रमाणिक जानकारी अनुपलब्ध है। जन गोपाल की 'श्री दादू जन्म लीला परची' के अनुसार ग्यारह वर्ष की अवस्था में भगवान ने एक बुद्ध के रूप में दर्शन देकर इनसे एक पैसा माँगा। फिर इनसे प्रसन्न होकर इनके सिर पर हाथ रखा और इनके सारे शरीर का स्पर्श करते हुए इनके मुख में 'सरस पान' भी दिया। दादू पंथियों के अनुसार बुड्ढन नामक एक अज्ञात संत इनके गुरु थे। जन गोपाल के अनुसार बचपन के ग्यारह वर्ष बीत जाने के बाद, इन्हें बुड्ढे के रूप में गुरु के दर्शन हुए।
वे साक्षर थे या नहीं, इसके बारे में अब भी संदेह बना हुआ है। इनके गुरु, जो अब तक अज्ञात हैं, यदि वे थोड़े बहुत साक्षर रहे भी हों तो भी इतना निश्चित है कि इन्होंने धर्म और दर्शन का अध्ययन नहीं किया था। उनकी रचनाओं का वस्तुगत विश्लेषण इसकी पुष्टि नहीं करता कि उन्होंने धर्म का शास्त्रीय अध्ययन किया था। अन्य निर्गुण संतों की तरह इन्हें भी सत्संग से धर्म-आध्यात्म का ज्ञान मिला था। उन्होंने लिखा है—
हरि केवल एक अधारा, सो तारण तिरण हमारा।।टेक
ना मैं पंडित पढ़ि गुनि जानौ, ना कुछ ग्यान विचारा।।1
ना मैं आगम जोंतिग जांनौ, ना मुझ रूप सिंगारा।।2[6]
यहाँ पढ़-लिखकर पंडित होने का तात्पर्य शास्त्रीय विद्या से लिया जा सकता है। मध्य युग में यह सुविधा सिर्फ़ सवर्णों को मिली हुई थी। यहाँ एक तरफ़ तो उन तथाकथित सवर्णों की स्थिति पर व्यंग्य किया गया है। दूसरी तरफ़ शास्त्रीय ज्ञान के अभाव की कसक को भी संप्रेषित किया गया है। धर्म-शास्त्रों के शास्त्रज्ञों ने निश्चय ही उनके ज्ञान को चुनौती दी थी और दादू जैसे शांत स्वभाव के संत ने इस कमी को स्वीकार कर लिया—
आगम मो पै जाण्यौ न जाइ, इहै विमासनि जियड़े माहि।।[7]
यह भी एक सर्वस्वीकृत तथ्य है कि अपनी रचनाओं का संग्रह स्वयं दादू दयाल ने नहीं बल्कि उनके शिष्यों ने किया था। इससे भी यह संदेह पुष्ट होता है कि शायद दादू साक्षर नहीं थे। भक्तिकाल के इन निर्गुण संतों की बड़ी विशेषता यह भी थी कि इनमें से अधिकांश संत गृहस्थ थे। वे सांसारिक मोह-माया को त्यागने का उपदेश देते थे। लेकिन संसार के त्याग का नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि संसार में रहते हुए भी संसार से ऊपर उठा जाए। संसार का बहिष्कार करने वाले तो क़ायर होते हैं। उन्हें मुक्ति कैसे मिल सकती है। सांभर से ही दादू दयाल की भक्ति-साधना आरम्भ होती है। यहीं से उन्होंने उपदेश देने शुरू किए थे और यहीं पर उन्होंने 'पर ब्रह्म सम्प्रदाय' की स्थापना की थी। जो दादू की मृत्यु के बाद 'दादू पंथ' कहा जाने लगा। दादू ने अपनी रचनाओं में अपने परिवार और पारिवारिक स्थिति का ज़िक्र किया है। उन्होंने लिखा है—
दादू रोजी राम है, राजिक रिजक हमार।
दादू उस परसाद सौं, पोष्या सब परिवार।।[8]
दादू साहिब मेरे कपड़े, साहिब मेरा पाण।
साहिब सिर का नाज़ है, साहिब प्यंड परांण।।
सांई सत संतोष दे, भाव भगति बेसास।
सिदक सबूरी साच दे, माँगै दादू दास।।[9]
ऐसा लगता है कि किसी जिज्ञासु व्यक्ति ने दादू से सीधा सवाल पूछा था कि आपका खाना-पीना कैसे चलता है। आप अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे करते हैं। अर्थात् आपकी आय के साधन क्या हैं। यहाँ तो चारों तरफ़ अभाव ही अभाव दिखाई दे रहा है। इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए दादू ने कहा कि राम ही मेरा रोज़गार है, वही मेरी सम्पत्ति है, उसी राम के प्रसाद से परिवार का पोषण हो रहा है। इन पंक्तियों से यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि यहाँ पर ऐश्वर्य का बोलबाला नहीं, ग़रीबी का साम्राज्य है। यह बात यहाँ रेखांकित करने के लायक़ है कि दादू को अपनी ग़रीबी से कोई शिकायत नहीं है। इसे सहज जीवन स्थिति मानकर उन्होंने स्वीकार कर लिया है। ग़रीबी की पीड़ा का बोध और उससे उत्पन्न आक्रोश दादू की रचनाओं में कहीं भी नहीं मिलता। यहाँ कवि राम पर निर्भर है, क्योंकि लौकिक स्थिति अनिश्चित है। जिसे ईश्वर ने माँ के गर्भ में बच्चे के लिए नौ महीने तक भोजन पहुँचा दिया है और जिसने जठराग्नि के बीच उसकी कोमल काया को बचाए रखा है, वह राम न कभी इतना निर्दयी हो सकता है और न इतना अशक्त ही कि वह व्यक्ति को इस संसार में भूख से मार डाले। अतः मनुष्य को खाने-पीने की अभाव की हाय-तौबा नहीं मचानी चाहिये। दादू के अनुसार अपने व्यक्तिगत जीवन की चिन्ता मनुष्य को नहीं करनी चाहिये, स्वयं राम अपने आप मनुष्य की चिनता करता है और करेगा। दादू ने एक साखी में कहा है—
दादू हूंणा था सो होइ रह् या, और न होवै आइ।
लेणा था सो ले रह् या, और न लीया जाइ।।[10]
दादू की इन पंक्तियों में सामाजिक जीवन भी व्यक्त हो गया है। इससे तत्कालीन राज्य व्यवस्था में जनता की अशक्ति प्रकट होती है। वह मानते हैं कि अपनी चिन्ता स्वयं करने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इसका फल हानिकारक है। अतः दादू कहते हैं कि आदमी को अनुत्पादक चिन्ता नहीं करनी चाहिये। उस युग के भक्तों और संतों ने यह अनुभवपरक निष्कर्ष निकाला था कि आदमी को अपने भोजन-पानी की चिन्ता नहीं करनी चाहिये। वह तो मिल ही जायेगा। इससे अधिक सम्पत्ति संचित करने की इच्छा मनुष्य को निरन्तर कष्ट देती है। वह सम्पत्ति संचय तो नहीं कर पाता, उल्टे अपने भोजन से ही हाथ धो बैठता है। अतः संतोष धारण करके आदमी को राम का नाम लेते रहना चाहिये। अपने समय के समाज का सर्वेक्षण करते हुए दादू ने कहा है—
दादू सब जग नीधना, धनवंता नहीं कोई।
सो धनवंता जाणिय, जाकै राम पदारथ होई।।[11]
इसी सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए संत कवि मूलकदास ने कहा था कि अजगर किसी कि चाकरी नहीं करता और पक्षी कोई भी काम नहीं करते। फिर भी उनको आहार तो मिलता ही है। सब जीवों के दाता राम हैं। अतः मनुष्य को खाने-पीने के लिए अपनी आत्मा को गिरवी नहीं रखना चाहिये।
निर्गुण संत
दादू दयाल ने अपने पूर्ववर्ती निर्गुण संतों का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया है। विशेष रूप से उन्होंने नामदेव, कबीर और रैदास के प्रति अगाध श्रद्धा प्रकट की है। कबीर तो दादू के आदर्श थे। उन्होंने एक पद में लिखा—
अंमृत रांम रसाइण पीया, ताथैं अमर कबीरा कीया।।
रांम रांम कहि रांम समांनां, जन रैदास मिले भगवाना।।[12]
अर्थात् कबीर ने राम रस का पान किया था, इससे वह अमर हो गये। जन रैदास राम का नाम लेकर राम के समान हो गये। उनके पदों और साखियों का प्रभाव दादू-वाणी पर स्पष्ट देखा जा सकता है। कई साखियाँ तो थोड़ी बहुत हेर-फेर के बाद कबीर और दादू दोनों के नाम से प्रचलित हैं। कबीर की रचनाओं पर भी पूर्ववर्ति नाथों और सिद्धों की रचनाओं का बहुत गहरा असर पड़ा है। अतः इनके साहित्य को देखकर यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इनका कौन-सा पद मौलिक है और कौन-सा नहीं।
दादू के शिष्य
दादू के जीवन काल में ही उनके अनेक शिष्य बन चुके थे। उन्हें एक सूत्र में बाँधने के विचार से एक पृथक् सम्प्रदाय की स्थापना होनी चाहिये, यह विचार स्वयं दादू के मन में आ गया था। और इसलिए उन्होंने सांभर में 'पर ब्रह्म सम्प्रदाय' की स्थापना कर दी थी। दादू की मृत्यु के बाद उनके शिष्यों ने इस सम्प्रदाय को 'दादू पंथ' कहना शुरू कर दिया। आरम्भ में इनके कुल एक सौ बावन शिष्य माने जाते रहे। इनमें से एक सौ शिष्य (बीतरागी) थे और भगवत भजन में ही लगे रहे। बावन शिष्यों ने एकांत भगवत-चिन्तन के साथ लोक में ज्ञान के प्रचार-प्रसार का संगठनात्मक कार्य करना भी आवश्यक समझा। इन बावन शिष्यों के थांभे प्रचलित हुए। इनके थांभे अब भी अधिकतर राजस्थान, पंजाब व हरियाणा में हैं। इस क्षेत्र में अनेक स्थानो पर दादू-द्वारों की स्थापना की गई थी। उनके शिष्यों में ग़रीबदास, बधना, रज्जब, सुन्दरदास, जनगोपाल आदि प्रसिद्ध हुए। इनमें से अधिकतर संतों ने अपनी मौलिक रचनाएँ भी प्रस्तुत की थीं।
आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है--
दादू दयाल जी के देहान्त हो जाने के लगभग सौ वर्षों के अन्दर दादू पंथ के अनुयायियों की विचारधारा, वेष भूषा, रहन-सहन तथा उपासना प्रणाली में क्रमशः न्यूनाधिक परिवर्तन आरम्भ हो गया और यह बात प्रधान केन्द्र तक में दीख पड़ने लगी। नराणा के महन्तों का जैतराम जी (सं0 1750-1789) से अविवाहित रहा करना आवश्यक हो गया, दादू वाणी को उच्च स्थान पर पधारकर उसका पूजन आरम्भ हो गया। विधिवत आरती एवं भजनों का गान होने लगा, स्वर्गीय सदगुरु के प्रति परमात्मवाद भाव प्रदर्शित किया जाने लगा तथा साम्प्रदायिकता के भाव में उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली गयी। जब तक दादू दयाल जी के रज्जब जी, सुन्दरदास जी, बनवारीदास जी जैसे शिष्य जीवित रहे उनकी मूल बातों की ओर लोगों का ध्यान अधिक आकृष्ट रहा। किन्तु इनके भी मर जाने पर जब पृथक-पृथक् थांभों की प्रतिष्ठा हो चली और उक्त विचार धारा का दूर-दूर तक प्रचार हो चला तो, कुछ स्थानीय विशेषताओं के कारण और कुछ व्यक्तिगत मतभेदों के भी आ जाने से, उपसम्प्रदायों तक की सृष्टि आरम्भ हो गयी। दादू मत का मौलिक सार्वभौमरूप क्रमशः तिरोहित-सा होता चला गया और उसकी जगह एक न्यूनाधिक 'हिन्दू धर्म प्रभावित पंथ' निर्मित हो गया।
दादू दयाल के विरोधी
दादू दयाल के जहाँ इतने शिष्य और समर्थक थे, वहाँ उनके विरोधी और निंदक भी कम नहीं थे। दादू दयाल अपने निंदकों को जानते थे। इसलिए एक पद में उन पर हल्का-सा व्यंग्य किया है। उसमें दादू ने कहा है कि निंदक तो मुझे भाई के समान प्रिय हैं, जो करोड़ों कर्मों के बंधन को काटता है। जो स्वयं भवसागर में डूबकर भी दूसरे को बचा लेता है। वह उनको युगों तक जीवित रहने का आशीर्वाद भी देते हैं—
न्यंदक वावा बीर हमारा, बिन ही कौड़े वहे विचारा।।टेक
करम कोटि के कुसमल काटै, काज सवारे बिनही साटे।।1
आपण बूड़ै और कौं तारै, ऐसा प्रीतम पार उतारे।।2
जुगि जुगि जीवे निंदक मोरा, रामदेव तुम करौं निहोरा।।3
न्यंदक बपुरा पर उपगारी, नादू न्यंद्या करें हमारी।।4[13]
दूसरी ओर दादू ने अपने शिष्यों को उपदेश दिया है कि वे परनिंदा न किया करें, क्योंकि निंदा तो वह व्यक्ति करता है, जिनके हृदय में राम का निवास नहीं है। दादू को बड़ा आश्चर्य होता है कि लोग कैसे निस्संकोच रूप से दूसरे की निंदा कर देते हैं।
न्यंदत सब लोग विचारा, हमकौं भावे राम पियारा।।
नरसंसै न्रिदोष रहताजे, तासनि कहत गये रे ये।।
निरवैरी निहकामी साध, तासिरि देत बहुत अपराध।।
लोहा कंचन एक समान, तासनि कहैं करत अभिमान।।
न्यंदा स्तुति एक करि तौले, तासौं कहैं अपवाद हि बोलें।।
दादू निंदा ताकौं भावैं, जाकै हिरदे राम न आवैं।।[14]
दादू की रचनाओं का वस्तुगत अध्ययन करने से पता चलता है कि उनमें वाद-विवाद की प्रवृत्ति कम थी। उन्होंने खण्डन कम और मण्डन अधिक किया है। इससे लगता है कि उनका विरोध या तो उनकी अनुपस्थिति में होता था, जिसकी जानकारी उन्हें बाद में मिलती थी या वह स्वयं इतने शान्त स्वभाव के थे कि किसी विवाद में उलझे ही नहीं। निंदा-स्तुति को उन्होंने समभाव से ग्रहण कर लिया था। जो भी हो, उन्होंने अपने विरोधियों से बहस कम की है और समर्थकों को सलाह ज़्यादा दी है।
प्रमुख उपसम्प्रदाय
कालान्तर में दादू पंथ के पाँच प्रमुख उपसम्प्रदाय निर्मित हुए :-
- खालसा
- विरक्त तपस्वी
- उतराधें या स्थानधारी
- खाकी
- नागा
इनके मानने वाले अलग-अलग स्थानों पर मिलते हैं। इनमें आपस में थोड़ी बहुत मत भिन्नता भी पायी जाती है। लेकिन सब उपसम्प्रदायों में दादू के महत्त्व को स्वीकार किया जाता है। संत दादू दयाल के विभिन्न स्मारकों का उल्लेख करते हुए आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है-
संत दादू दयाल के स्मारक रूप विशिष्ट स्थानों में सर्वप्रथम स्थान करडाला व कल्याणपुर प्रसिद्ध है। जहाँ उन्होंने पहली बार काफ़ी समय तक साधना की थी। इस बात का परिचय दिलाने के लिए वहाँ उनकी एक 'भजन शिला, वर्तमान है। वहाँ पर पहाड़ी के नीचे की ओर एक दादू द्वारा भी बना दिया गया है जिसे, उसी कारण महत्त्व दिया जाता है। करडाला के अतिरिक्त सांभर में भी दादू जी की एक छतरी बनी हुई है। जो उनके रहने की पुरानी कुटिया का प्रतिनिधित्व करती है और पीछे वहाँ पर एक विशाल मन्दिर भी बना दिया गया है। सांभर के अनन्तर अधिक समय तक उनके निवास करने का स्थान आमेर समझा जाता है, जहाँ पर एक सुन्दर दादू द्वारा निर्मित है। परन्तु इन सभी से अधिक महत्त्व नराणे को दिया जाता है, जहाँ पर अभी तक वह खेजड़े का वृक्ष भी दिखलाया जाता है, जहाँ पर वे बैठा करते थे। उसी के समीप एक 'भजनशाला' है, तथा एक विशाल मन्दिर भी बना हुआ है। यहाँ का दादू द्वारा सर्वप्रथम माना जाता है। दादू जी का शव, जहाँ उनका देहान्त हो जाने पर, डाल दिया गया था, वह भराणे का स्थान भी उनके अन्तिम स्मारक के रूप में वर्तमान है। वहाँ पर भी एक चबूतरा बना दिया गया है और पूरा स्थान 'दादू खोल' के नाम से भी अभिहित किया जाता है। कहते हैं कि यहीं कहीं पर उनके कुछ बाल, तूँबा, चोला तथा खड़ाऊँ भी अभी तक सुरक्षित है। कल्याणपुर, सांभर, आमेर, नराणा व भैराणा 'पंचतीर्थ' भी माने जाते हैं।[15]
उनके स्मारक के रूप में दो मेले भी लगा करते हैं। इनमें से एक नराणे में प्रति वर्ष फागुन सुदी पाँच से लेकर एकादशी तक लगा करता है। जिनमें प्रायः सभी स्थानों के दादू पंथी इकट्ठे होते हैं। दूसरा मेला भैराणे में फागुन कृष्ण तीन से फागुन सुदी तीन तक चलता रहता है।[16]
दादू की रचनाएँ
- साखी
- पद्य
- हरडेवानी
- अंगवधू
दादू ने कई साखी और पद्य लिखे है। दादू की रचनाओं का संग्रह उनके दो शिष्यों संतदास और जगनदास ने 'हरडेवानी' नाम से किया था। कालांतर में रज्जब ने इसका सम्पादन 'अंगवधू' नाम से किया। दादू की कविता जन सामान्य को ध्यान में रखकर लिखी गई है, अतएव सरल एवं सहज है। दादू भी कबीर की तरह अनुभव को ही प्रमाण मानते थे। दादू की रचनाओं में भगवान के प्रति प्रेम और व्याकुलता का भाव है। कबीर की तरह उन्होंने भी निर्गुण निराकार भगवान को वैयक्तिक भावनाओं का विषय बनाया है। उनकी रचनाओं में इस्लामी साधना के शब्दों का बहुत प्रयोग हुआ है। उनकी भाषा पश्चिमी राजस्थानी से प्रभावित हिन्दी है। इसमें अरबी-फ़ारसी के काफ़ी शब्द आए हैं, फिर भी वह सहज और सुगम है।
अंगवधू
दादू दयाल की वाणी अंगवधू सटीक आचार्य चन्द्रिका प्रसाद त्रिपाठी द्वारा सम्पादित है जो अजमेर से प्रकाशित हुई है। यह कई हस्तलिपियों के अनुकरण के आधार पर सम्पादित की गई है। इसी क्रम में रज्जब ने इनकी वाणी को क्रमबद्ध तथा अलग-अलग भागों में विभाजित करके अंगवधू के नाम से इनकी वाणियों का संकलन किया। अंगवधू में हरडे वाणी की सभी त्रुटियों को दूर करने का प्रयास परिलक्षित होता है। अंगवधू को 37 भागों में विभाजित करने का प्रयास है। इसी के आधार पर ही अलग-अलग विद्वानों ने दादू वाणी को अपने-अपने ढंग से सम्पादित किया है। 59 दादू वाणी को कई लोगों ने सम्पादित किया है। जिनमें चन्द्रिका प्रसाद, बाबू बालेश्वरी प्रसाद, स्वामी नारायण दास, स्वामी जीवानंद, भारत भिक्षु आदि प्रमुख हैं। सन् 1907 में सुधाकर द्विवेदी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा से इनकी रचनाओं को दादू दयाल की बानी के नाम से प्रकाशित करवाया। इन्होंने इसको दो भागों में विभाजित किया है। पहले खण्ड में दोहे तथा दूसरे में पद है, जिन्हें राग-रागिनियों के सन्दर्भों में वर्गीकृत किया है।
मृत्यु
दादू दयाल की मृत्यु जेठ वदी अष्टमी शनिवार संवत् 1660 (सन् 1603 ई.) को हुई। जन्म स्थान के सम्बन्ध में मतभेद की गुंजाइश हो सकती है। लेकिन यह तय है कि इनकी मृत्यु अजमेर के निकट नराणा नामक गाँव में हुई। वहाँ 'दादू-द्वारा' बना हुआ है। इनके जन्म-दिन और मृत्यु के दिन वहाँ पर हर साल मेला लगता है। नराणा उनकी साधना भूमि भी रही है और समाधि भूमि भी। इस स्थान का पारम्परिक महत्त्व आज भी ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। दादू पंथी संतों के लिए यह स्थान तीर्थ के समान है। चूँकि इनके जन्म-स्थान के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती, अतः दादू-पंथी लोग भी किसी स्थान विशेष की पूजा नहीं करते। अन्त में, ये नराणा (राजस्थान) में रहने लगे, जहाँ उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त की। दादू की इच्छानुसार उनके शरीर को भैराना की पहाड़ी पर स्थित एक ग़ुफ़ा में रखा गया, जहाँ इन्हें समाधि दी गयी। इसी पहाड़ी को अब 'दादू खोल' कहा जाता है। जहाँ उनकी स्मृति में अब भी मेला लगा करता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
पुस्तक सन्दर्भ:- दादू दयाल, लेखक- रामबक्ष, प्रकाशक- साहित्य अकादमी
- ↑ दूसरी परम्परा की खोज, पृ. 55
नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1982 - ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 3
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 97
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ.455
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 470-471
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 400
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 469
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 214
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 215
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 214
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 25
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 325
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 453
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 477
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, भूमिका, पृ. 12
- ↑ दादू दयाल ग्रंथावली, भूमिका, पृ. 12-13