अजित शंकर चौधरी
अजित शंकर चौधरी
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अन्य नाम | अजित कुमार |
जन्म | 9 जून, 1933 |
जन्म भूमि | लखनऊ, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 18 जुलाई, 2017 |
मृत्यु स्थान | दिल्ली |
अभिभावक | माता- सुमित्रा कुमारी |
पति/पत्नी | स्नेहमयी चौधरी |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | साहित्य |
मुख्य रचनाएँ | 'अकेले कंठ की पुकार' 1958, 'अंकित होने दो' 1962, 'ये फूल नहीं' 1970, 'घरौंदा' 1987, 'हिरनी के लिए' 1993 |
विद्यालय | इलाहाबाद विश्वविद्यालय |
पुरस्कार-उपाधि | केंद्रीय हिन्दी संस्थान, हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा सम्मानित |
प्रसिद्धि | कवि, संस्मरणकार, कहानीकार, उपन्यासकार |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | कविता को साधारण ढंग में विन्यस्त कर उसे तार्किक विस्तार देने की अजित कुमार जैसी कुशलता बहुत कम कवियों में दिखती है। |
अद्यतन | 18:17, 20 जुलाई 2017 (IST)
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इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
अजित शंकर चौधरी (अंग्रेज़ी: Ajit Shankar Chaudhary, जन्म- 9 जून, 1933, लखनऊ, उत्तर प्रदेश; मृत्यु-18 जुलाई, 2017) सुप्रसिद्ध भारतीय कवि, संस्मरणकार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा सहृदय समीक्षक थे। कवि के रूप में उनकी केंद्रीय उपस्थिति थी। अपने कविता संग्रहों- अकेले कंठ की पुकार, अंकित होने दो, ये फूल नहीं, घरौंदा, हिरनी के लिए, घोंघे और ऊसर के माध्यम से उन्होंने कविता को नया मुहावरा देने के साथ-साथ उसे ऐसी अर्थ-लय दी, जिसमें दैनंदिन जीवन के साथ-साथ मनुष्य के संघर्षों की अनुगूंजें भी ध्वनित होती हैं। कविता को साधारण ढंग में विन्यस्त कर उसे तार्किक विस्तार देने की अजित कुमार जैसी कुशलता बहुत कम कवियों में दिखती है। पहली से लेकर अंतिम कविता संग्रह तक लगातार प्रयोगशील रहते हुए अजित कुमार ने कविता को जन-रुचियों के निकट लाने का प्रयत्न किया। कविवर हरिवंश राय ‘बच्चन’ से उनकी निकटता थी और यही निकटता कारण बनी कि उन्होंने ‘बच्चन रचनावली’ का संपादन तो किया ही, 'बच्चन: निकट से' नामक पुस्तक का संयोजन भी किया।
परिचय
9 जून, 1933 को लखनऊ में जन्मे अजित कुमार को साहित्यिक परिवेश विरासत में मिला था। उनके पिता प्रकाशन चलाते थे, जिसने निराला की पुस्तकें छापीं। मां सुमित्रा कुमारी सिन्हा स्वयं महत्वपूर्ण कवयित्री थीं। बहन कीर्ति चौधरी ‘तार सप्तक’ की कवयित्री थीं। बहनोई ओंकारनाथ श्रीवास्तव कवि तो थे ही, बी.बी.सी.-लंदन की हिंदी सेवा का अत्यंत लोकप्रिय नाम रहे। उनकी पत्नी स्नेहमयी चौधरी भी प्रतिष्ठित कवयित्री हैं। ऐसे साहित्यिक परिवेश में पले-बढ़े अजित कुमार ने कानपुर, लखनऊ तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की और कुछ समय के लिए डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर में अध्यापन भी किया। उसके बाद दिल्ली आ गए, जहां उनकी नियुक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध 'किरोड़ीमल कॉलेज' में हुई और यहीं से रिटायर हुए।
व्यक्तित्व
कुछ वर्ष पूर्व वह पक्षाघात का शिकार हो गए, पर उनके जीवन के आगे उसकी एक न चली। शायद ही दिल्ली का कोई साहित्यिक आयोजन हो, जिसमें वह न दिखे। हर परिचित या किसी नए से भी आत्मीयता से मिलकर कुशल-क्षेम पूछना उनका स्वभाव था। उन्हें कभी किसी पद या पुरस्कार के लिए लिप्सा पालते नहीं देखा गया। वह बस लगातार काम करना जानते थे। नये से नया काम करना और स्वयं को उसमें तिरोहित कर देना उनका अभीष्ट था। उन्होंने अपने जीवन का यही लक्ष्य बनाया था- जितना हो सके करना और किसी भी लोभ-लाभ से विरत रहना। यही कारण है कि चालाकी से भरे इस दौर में वह गुटों, पक्षों से बाहर रहे और अपने को लगभग हाशिये पर भी डाल दिया। साहित्य का अध्ययन, मनन और उसके प्रति गहरी अनुरक्ति ने उनको एक ऐसा सर्जक बनाया, जिससे विपुल साहित्य रचा जा सका। मठों, जमातों से दूर रहकर काम में मगन रहना उनका धर्म था, छोटे-बड़े सबके प्रति स्नेहिल भाव रखना स्वभाव।
साहित्यिक परिचय
निराला, शमशेर, बच्चन, अज्ञेय तो उनकी जुबान पर रहते थे। देवीशंकर अवस्थी को अक्सर वह भरे मन से याद करते। आज के साहित्यिक दौर पर अपनी निराशा व्यक्त करते हुए वह खामोश हो जाते- समय बुरा है, हम सब भूल से गए हैं कि हमारा दायित्व क्या है? हममें न सहकार रहा, न सद्भाव। साहित्य को गुटबाजी और वैचारिक लामबंदी में बंटा देख उन्हें निराशा होती थी। उनकी रचनाओं के विदेशी अनुवाद हुए, तो वह पर्याप्त पढ़े जाने वाले लेखकों में भी शुमार हुए। पर उन्हें वह सम्मान, पुरस्कार या प्रतिष्ठा नहीं मिली, जो कथित संस्थाएं लेखकों को देकर उपकृत करती हैं और लेखक भी खुद को धन्य मानकर प्रफुल्लित हुआ रहता है। बेशक केंद्रीय हिन्दी संस्थान, हिन्दी अकादमी, दिल्ली आदि के पुरस्कार उन्हें मिले, पर वह इनसे ज्यादा के हकदार थे। ऐसे निश्च्छल मन, बड़े मनुष्य और हमारे समय के मूर्धन्य लेखकों में एक अजित कुमार का जाना कष्टदायक है।
रचनाएँ
कवि के साथ-साथ वह संस्मरणकार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा सहृदय समीक्षक भी थे। 1958 में उनका पहला कविता संग्रह 'अकेले कंठ की पुकार' आया। उसके बाद 'अंकित होने दो' 1962, 'ये फूल नहीं' 1970, 'घरौंदा' 1987, 'हिरनी के लिए' 1993, 'घोंघे' 1996 और 2001 में 'ऊसर' नाम से कविता संग्रह आया। 'बच्चन रचनावली' के यशस्वी सम्पादक तथा दूरदर्शन के साहित्यिक कार्यक्रम 'पत्रिका' के संचालक के रूप में भी उन्हें अच्छी तरह से जाना जाता है।
'छुट्टियां' उपन्यास के अलावा 'छाता' और 'चारपाई' उनका कहानी संग्रह हैं। 'इधर की हिंदी कविता' व 'कविता का जीवित संसार' जैसी हार्दिकता से लिखी गई उनकी चर्चित समीक्षा पुस्तकें हैं। 'दूर वन में', 'सफरी झोले में', 'निकट मन में', 'यहां से कहीं भी', 'अंधेरे में जुगनू' व 'जिनके संग जिया' जैसी संस्मरणात्मक पुस्तकों के सर्जक अजित कुमार ने व्यक्ति, परिवेश और स्मृति का जैसा परिवेश इनमें रचा है, अन्यत्र दुर्लभ है। वह उन रचनाकारों में रहे, जो मानते हैं कि अपने समय को अंतरंगता से दर्ज करना साहित्यिक का पहला कर्तव्य है।
सम्पादन कार्य
संपादन कर्म भी उनका प्रिय कर्म रहा है। 'रामचंद्र शुक्ल विश्वकोष', 'हिन्दी की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएं', 'आठवें दशक की श्रेष्ठ प्रतिनिधि कविताएं', 'सुमित्रा कुमारी सिन्हा रचनावली', 'बच्चन रचनावली', 'बच्चन के साथ क्षण भर' जैसी पुस्तकों का संपादन कर उन्होंने अपनी समझ के साथ-साथ श्रेष्ठ संपादन का आदर्श भी प्रस्तुत किया। इतना कुछ करने के बाद भी वह साहित्यिक चातुर्य से परे रहे।
सम्मान एवं पुरस्कार
अजित शंकर चौधरी को केंद्रीय हिन्दी संस्थान, हिन्दी अकादमी, दिल्ली आदि के द्वारा सम्मानित किया गया था।
निधन
हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अजित शंकर चौधरी को स्वास्थ्य समस्याओं के चलते दिल्ली के 'फोर्टिस अस्पताल' में भर्ती कराया गया था। 18 जुलाई, 2017 को सुबह 6 बजे दिल का दौरा पड़ने से उनका अकस्मात निधन हो गया। उन्होंने काफ़ी समय पहले देहदान करने की घोषणा की थी, इसलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया। बल्कि उनका पार्थिव शरीर 'अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान' को सौंप दिया गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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