मैथिलीशरण गुप्त
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मैथिलीशरण गुप्त (अंग्रेज़ी: Maithili Sharan Gupt, जन्म- 3 अगस्त, 1886, झाँसी; मृत्यु- 12 दिसंबर, 1964, झाँसी) खड़ी बोली के प्रथम महत्वपूर्ण कवि थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है।[1]
जीवन परिचय
मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म 3 अगस्त 1886 चिरगाँव, झाँसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। संभ्रांत वैश्य परिवार में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त के पिता का नाम 'सेठ रामचरण' और माता का नाम 'श्रीमती काशीबाई' था। पिता रामचरण एक निष्ठावान् प्रसिद्ध राम भक्त थे।[2] इनके पिता 'कनकलता' उप नाम से कविता किया करते थे और राम के विष्णुत्व में अटल आस्था रखते थे। गुप्त जी को कवित्व प्रतिभा और राम भक्ति पैतृक देन में मिली थी। वे बाल्यकाल में ही काव्य रचना करने लगे। पिता ने इनके एक छंद को पढ़कर आशीर्वाद दिया कि "तू आगे चलकर हमसे हज़ार गुनी अच्छी कविता करेगा" और यह आशीर्वाद अक्षरशः सत्य हुआ।[3] मुंशी अजमेरी के साहचर्य ने उनके काव्य-संस्कारों को विकसित किया। उनके व्यक्तित्व में प्राचीन संस्कारों तथा आधुनिक विचारधारा दोनों का समन्वय था। मैथिलीशरण गुप्त जी को साहित्य जगत् में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था।
शिक्षा
मैथिलीशरण गुप्त की प्रारम्भिक शिक्षा चिरगाँव, झाँसी के राजकीय विद्यालय में हुई। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के उपरान्त गुप्त जी झाँसी के मेकडॉनल हाईस्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए भेजे गए, पर वहाँ इनका मन न लगा और दो वर्ष पश्चात् ही घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया। लेकिन पढ़ने की अपेक्षा इन्हें चकई फिराना और पतंग उड़ाना अधिक पसंद था। फिर भी इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिन्दी तथा बांग्ला साहित्य का व्यापक अध्ययन किया। इन्हें 'आल्हा' पढ़ने में भी बहुत आनंद आता था।
काव्य प्रतिभा
इसी बीच गुप्तजी मुंशी अजमेरी के संपर्क में आये और उनके प्रभाव से इनकी काव्य-प्रतिभा को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। अतः अब ये दोहे, छप्पयों में काव्य रचना करने लगे, जो कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में प्रकाशित होने वाले 'वैश्योपकारक' पत्र में प्रकाशित हुई। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जब झाँसी के रेलवे ऑफिस में चीफ़ क्लर्क थे, तब गुप्तजी अपने बड़े भाई के साथ उनसे मिलने गए और कालांतर में उन्हीं की छत्रछाया में मैथिलीशरण जी की काव्य प्रतिभा पल्लवित व पुष्पित हुई। वे द्विवेदी जी को अपना काव्य गुरु मानते थे और उन्हीं के बताये मार्ग पर चलते रहे तथा जीवन के अंत तक साहित्य साधना में रत रहे। उन्होंने राष्ट्रीय आंदलनों में भी भाग लिया और जेल यात्रा भी की।[3]
लोकसंग्रही कवि
मैथिलीशरण गुप्त जी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रान्तिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। 'अनघ' से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध और भारत भारती में कवि का क्रान्तिकारी स्वर सुनाई पड़ता है। बाद में महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और विनोबा भावे के सम्पर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। 1936 में गांधी ने ही उन्हें मैथिली काव्य–मान ग्रन्थ भेंट करते हुए राष्ट्रकवि का सम्बोधन दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी के संसर्ग से गुप्तजी की काव्य–कला में निखार आया और उनकी रचनाएँ 'सरस्वती' में निरन्तर प्रकाशित होती रहीं। 1909 में उनका पहला काव्य जयद्रथ-वध आया। जयद्रथ-वध की लोकप्रियता ने उन्हें लेखन और प्रकाशन की प्रेरणा दी। 59 वर्षों में गुप्त जी ने गद्य, पद्य, नाटक, मौलिक तथा अनूदित सब मिलाकर, हिन्दी को लगभग 74 रचनाएँ प्रदान की हैं। जिनमें दो महाकाव्य, 20 खंड काव्य, 17 गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य हैं।
देश प्रेम
काव्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से संपूर्ण देश में राष्ट्रभक्ति की भावना भर दी थी। राष्ट्रप्रेम की इस अजस्र धारा का प्रवाह बुंदेलखंड क्षेत्र के चिरगांव से कविता के माध्यम से हो रहा था। बाद में इस राष्ट्रप्रेम की इस धारा को देश भर में प्रवाहित किया था, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने।
जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
पिताजी के आशीर्वाद से वह राष्ट्रकवि के सोपान तक पदासीन हुए। महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि कहे जाने का गौरव प्रदान किया। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की। हिन्दी में मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-साधना सदैव स्मरणीय रहेगी। बुंदेलखंड में जन्म लेने के कारण गुप्त जी बोलचाल में बुंदेलखंडी भाषा का ही प्रयोग करते थे। धोती और बंडी पहनकर माथे पर तिलक लगाकर संत के रूप में अपनी हवेली में बैठे रहा करते थे। उन्होंने अपनी साहित्यिक साधना से हिन्दी को समृद्ध किया। मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओत प्रोत है। वे भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थे। परन्तु अंधविश्वासों और थोथे आदर्शों में उनका विश्वास नहीं था। वे भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थे।
महाकाव्य
मैथिलीशरण गुप्त को काव्य क्षेत्र का शिरोमणि कहा जाता है। मैथिलीशरण जी की प्रसिद्धि का मूलाधार भारत–भारती है। भारत–भारती उन दिनों राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का घोषणापत्र बन गई थी। साकेत और जयभारत, दोनों महाकाव्य हैं। साकेत रामकथा पर आधारित है, किन्तु इसके केन्द्र में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला है। साकेत में कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यन्त मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चात्ताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत किया है। यशोधरा में गौतम बुद्ध की मानिनी पत्नी यशोधरा केन्द्र में है। यशोधरा की मनःस्थितियों का मार्मिक अंकन इस काव्य में हुआ है। विष्णुप्रिया में चैतन्य महाप्रभु की पत्नी केन्द्र में है। वस्तुतः गुप्त जी ने रबीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा बांग्ला भाषा में रचित 'काव्येर उपेक्षित नार्या' शीर्षक लेख से प्रेरणा प्राप्त कर अपने प्रबन्ध काव्यों में उपेक्षित, किन्तु महिमामयी नारियों की व्यथा–कथा को चित्रित किया और साथ ही उसमें आधुनिक चेतना के आयाम भी जोड़े।
विविध धर्मों, सम्प्रदायों, मत–मतांतरों और विभिन्न संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता व समन्वय की भावना गुप्त जी के काव्य का वैशिष्ट्य है। पंचवटी काव्य में सहज वन्य–जीवन के प्रति गहरा अनुराग और प्रकृति के मनोहारी चित्र हैं, तो नहुष पौराणिक कथा के आधार के माध्यम से कर्म और आशा का संदेश है। झंकार वैष्णव भावना से ओतप्रोत गीतिकाव्य है, तो गुरुकुल और काबा–कर्बला में कवि के उदार धर्म–दर्शन का प्रमाण मिलता है। खड़ी बोली के स्वरूप निर्धारण और विकास में गुप्त जी का अन्यतम योगदान रहा।
भारत-भारती
'भारत-भारती', मैथिलीशरण गुप्तजी द्वारा स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है। भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति 'भारत-भारती' निश्चित रूप से किसी शोध कार्य से कम नहीं है। गुप्तजी की सृजनता की दक्षता का परिचय देने वाली यह पुस्तक कई सामाजिक आयामों पर विचार करने को विवश करती है। यह सामग्री तीन भागों में बाँटी गयी है।
अतीत-खंड
भारत–भारती
यह भाग भारतवर्ष के इतिहास पर गर्व करने को पूर्णत: विवश करता है। उस समय के दर्शन, धर्म-काल, प्राकृतिक संपदा, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक-व्यवस्था जैसे तत्त्वों को संक्षिप्त रूप से स्मरण करवाया गया है। अतिशयोक्ति से दूर इसकी सामग्री संलग्न दी गयी टीका-टिप्पणियों के प्रमाण के कारण सरलता से ग्राह्य हो जाती हैं। मेगस्थनीज से लेकर आर. सी. दत्त. तक के कथनों को प्रासंगिक ढंग से पाठकों के समक्ष रखना एक कुशल नियोजन का सूचक है। निरपेक्षता का ध्यान रखते हुए निन्दा और प्रशंसा के प्रदर्शन हुए है, जैसे मुग़ल काल के कुछ क्रूर शासकों की निंदा हुई है तो अकबर जैसे मुग़ल शासक का बखान भी हुआ है। अंग्रेज़ों की उनके विष्कार और आधुनिकीकरण के प्रचार के कारण प्रशंसा भी हुई है।
भारतवर्ष के दर्शन पर वे कहते हैं-
पाये प्रथम जिनसे जगत् ने दार्शनिक संवाद हैं-
गौतम, कपिल, जैमिनी, पतंजली, व्यास और कणाद है।
नीति पर उनके द्विपद ऐसे हैं-
सामान्य नीति समेत ऐसे राजनीतिक ग्रन्थ हैं-
संसार के हित जो प्रथम पुण्याचरण के पंथ हैं।
सूत्रग्रंथ के सन्दर्भ में ऋषियों के विद्वत्ता पर वे लिखते हैं-
उन ऋषि-गणों ने सूक्ष्मता से काम कितना है लिया,
आश्चर्य है, घट में उन्होंने सिन्धु को है भर दिया।
वर्तमान-खंड
दारिद्र्य, नैतिक पतन, अव्यवस्था और आपसी भेदभाव से जूझते उस समय के देश की दुर्दशा को दर्शाते हुए, सामाजिक नूतनता की माँग रखी गयी है।
अपनी हुई आत्म-विस्मृति पर वे कहते हैं-
हम आज क्या से क्या हुए, भूले हुए हैं हम इसे,
है ध्यान अपने मान का, हममें बताओ अब किसे!
पूर्वज हमारे कौन थे, हमको नहीं यह ज्ञान भी,
है भार उनके नाम पर दो अंजली जल-दान भी।
नैतिक और धार्मिक पतन के लिए गुप्तजी ने उपदेशकों, संत-महंतों और ब्राह्मणों की निष्क्रियता और मिथ्या-व्यवहार को दोषी मान शब्द बाण चलाये हैं। इस तरह कविवर की लेखनी सामाजिक दुर्दशा के मुख्य कारणों को खोज उनके सुधार की माँग करती है। हमारे सामाजिक उत्तरदायित्व की निष्क्रियता को उजागर करते हुए भी 'वर्तमान खंड' आशा की गाँठ को बाँधे रखती है।
भविष्यत्-खंड
अपने ज्ञान, विवेक और विचारों की सीमा को छूते हुए राष्ट्रकवि ने समस्या समाधान के हल खोजने और लोगों से उसके के लिए आवाहन करने का भरसक प्रयास किया है।
आर्य वंशज हिन्दुओं को देश पुनर्स्थापना के लिए प्रेरित करते हुए वे कहते हैं-
हम हिन्दुओं के सामने आदर्श जैसे प्राप्त हैं-
संसार में किस जाति को, किस ठौर वैसे प्राप्त हैं,
भव-सिन्धु में निज पूर्वजों के रीति से ही हम तरें,
यदि हो सकें वैसे न हम तो अनुकरण तो भी करें।
पुस्तक की अंत की दो रचनाएं 'शुभकामना' और 'विनय' कविवर की देशभक्ति की परिचायक है। तन में देश सद्भावना की ऊर्जा का संचार करने वाली यह दो रचनाएं किसी प्रार्थना से कम नहीं लगती।
वह अमर लेखनी ईश्वर से प्रार्थना करती है-
इस देश को हे दीनबन्धो!आप फिर अपनाइए,
भगवान्! भारतवर्ष को फिर पुण्य-भूमि बनाइये,
जड़-तुल्य जीवन आज इसका विघ्न-बाधा पूर्ण है,
हेरम्ब! अब अवलंब देकर विघ्नहर कहलाइए।[4]
राष्ट्रकवि
अपने साहित्यिक गुरु महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से गुप्त जी ने 'भारत-भारती' की रचना की। 'भारत-भारती' के प्रकाशन से ही गुप्त जी प्रकाश में आये। उसी समय से आपको 'राष्ट्रकवि' के नाम से अभिनंदित किया गया। उनकी साहित्य साधना सन् 1921 से सन् 1964 तक निरंतर आगे बढ़ती रही। गुप्त जी युग-प्रतिनिधि राष्ट्रीय कवि थे। इस अर्ध-शताब्दी की समस्त सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक हलचलों का प्रतिनिधित्व इनकी रचनाओं में मिल जाता है। इनके काव्य में राष्ट्र की वाणी मुखर हो उठी है। देश के समक्ष सबसे प्रमुख समस्या दासता से मुक्ति थी। गुप्त जी ने 'भारत-भारती' तथा अपनी अन्य रचनाओं के माध्यम से इस दिशा में प्रेरणा प्रदान की। इन्होंने अतीत गौरव का भाव जगाकर वर्तमान को सुधारने की प्रेरणा दी। अपनी अभिलाषा अभिव्यक्त करते हुए वे कहते हैं-
"मानव-भवन में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती।
भगवान् भारतवर्ष में, गूंजे हमारी भारती।"
इस युग की प्रमुख समस्या हिन्दू-मुस्लिम एकता थी। गुप्त जी ने अपनी अनेक रचनाओं में दोनों की एकता पर बल दिया। 'काबा और कर्बला' में उन्होंने मुसलमानों की सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास किया है। इस प्रकार गुप्त जी ने समस्त समस्याओं का राष्ट्रीय दृष्टि से समाधान प्रस्तुत किया है।
काव्य सौन्दर्य
मैथिलीशरण गुप्त अपनी भाव रश्मियों से हिन्दी साहित्य को प्रकाशित करने वाले युग कवि थे। 40 वर्ष तक निरंतर इनकी रचनाओं में युग स्वर गूंजता रहा। इन्होंने गौरवपूर्ण अतीत को प्रस्तुत करने के साथ-साथ भविष्य का भी भव्य रूप प्रस्तुत किया-
"मैं अतीत नहीं भविष्यत् भी हूँ आज तुम्हारा।"
- गुप्त जी मानवतावाद के पोषक और समर्थक थे। इनकी भगवत भावना महान् थी। इनके काव्य में निर्गुण नारायण ही पृथ्वी को स्वर्ग बनाने के लिए भूतल पर आते हैं।
'भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया,
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल ही को स्वर्ग बनाने आया।
- गुप्त जी का काव्य मानस की प्रेरणा और प्रवृत्ति का स्रोत है। आधुनिक काल का यह समन्वित रूप है। मानवीय चरित्र की जितनी भी संभावनाएँ संभव हैं, उस सबकी सृष्टि राम का चरित्र है।[3]
भाषा-शैली
शैलियों के निर्वाचन में मैथिलीशरण गुप्त ने विविधता दिखाई, किन्तु प्रधानता प्रबंधात्मक इतिवृत्तमय शैली की है। उनके अधिकांश काव्य इसी शैली में हैं- 'रंग में भंग', 'जयद्रथ वध', 'नहुष', 'सिद्धराज', 'त्रिपथक', 'साकेत' आदि प्रबंध शैली में हैं। यह शैली दो प्रकार की है- 'खंड काव्यात्मक' तथा 'महाकाव्यात्मक'। साकेत महाकाव्य है तथा शेष सभी काव्य खंड काव्य के अंतर्गत आते हैं।
- गुप्त जी की एक शैली विवरण शैली भी है। 'भारत-भारती' और 'हिन्दू' इस शैली में आते हैं।
- तीसरी शैली गीत शैली है। इसमें गुप्त जी ने नाटकीय प्रणाली का अनुगमन किया है। 'अनघ' इसका उदाहरण है।
- आत्मोद्गार प्रणाली गुप्त जी की एक और शैली है, जिसमें 'द्वापर' की रचना हुई है।
- नाटक, गीत, प्रबंध, पद्य और गद्य सभी के मिश्रण एक मिश्रित शैली है, जिसमें 'यशोधरा' की रचना हुई है।
इन सभी शैलियों में गुप्त जी को समान रूप से सफलता नहीं मिली। उनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें इनका व्यक्तित्व झलकता है। पूर्ण प्रवाह है। भावों की अभिव्यक्ति में सहायक होकर उपस्थित हुई हैं। मैथिलीशरण गुप्त की काव्य भाषा खड़ी बोली है। इस पर उनका पूर्ण अधिकार है। भावों को अभिव्यक्त करने के लिए गुप्त जी के पास अत्यंत व्यापक शब्दावली है। उनकी प्रारंभिक रचनाओं की भाषा तत्सम है। इसमें साहित्यिक सौन्दर्य कला नहीं है। 'भारत-भरती' की भाषा में खड़ी बोली की खड़खड़ाहट है, किन्तु गुप्त जी की भाषा क्रमशः विकास करती हुई सरस होती गयी। संस्कृत के शब्द भंडार से ही उन्होंने अपनी भाषा का भण्डार भरा है, लेकिन 'प्रियप्रवास' की भाषा में संस्कृत बहुला नहीं होने पायी। इसमें प्राकृत रूप सर्वथा उभरा हुआ है। भाव व्यंजना को स्पष्ट और प्रभावपूर्ण बनाने के लिए संस्कृत का सहारा लिया गया है। संस्कृत के साथ गुप्त जी की भाषा पर प्रांतीयता का भी प्रभाव है। उनका काव्य भाव तथा कला पक्ष दोनों की दृष्टि से सफल है।[3]
काव्यगत विशेषताएँ
इनके काव्य की विशेषताएँ इस प्रकार उल्लेखित की जा सकती हैं -
- राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता
- गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता
- पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता
- नारी मात्र को विशेष महत्व
- प्रबंध और मुक्तक दोनों में लेखन
- शब्द शक्तियों तथा अलंकारों के सक्षम प्रयोग के साथ मुहावरों का भी प्रयोग
पतिवियुक्ता नारी का वर्णन
स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रकवि के आसंदी पर आरूढ़ मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपने साठ वर्षीय काव्य साधना, कला में लगभग सत्तर कृतियों की रचना करके न केवल हिन्दी साहित्य की अपितु सम्पूर्ण भारतीय समाज की अमूल्य सेवा की है। उन्होंने अपने काव्य में एक ओर भारतीय राष्ट्रवाद, संस्कृति, समाज तथा राजनीति के विषय में नये प्रतिमानों को प्रतिष्ठित किया, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के अंत:सम्बंधों के आधार पर इन्हें नवीन अर्थ भी प्रदान किया है। गुप्तजी द्विवेदी युग के प्रमुख कवि थे। वह युग जातीय जागरण और राष्ट्रीय उन्मेष का काल था। वे अपने युग और उसकी समस्याओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील थे। उनका संवेदनशील और जागरूक कवि हृदय देश की वर्तमान दशा से क्षुब्ध था। वे धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों को इस दुर्दशा का मूल कारण मानते थे। अत: उनके राष्ट्रवाद की प्रथम जागृति धार्मिक और सामाजिक सुधारवाद के रूप में दिखाई देती है। नारियों की दुरवस्था तथा दु:खियों दीनों और असहायों की पीड़ा ने उसके हृदय में करुणा के भाव भर दिये थे। यही वजह है कि उनके अनेक काव्य ग्रंथों में नारियों की पुनर्प्रतिष्ठा एवं पीड़ित के प्रति सहानुभूति झलकती है। नारियों की दशा को व्यक्त करती उनकी ये पंक्तियां पाठकों के हृदय में करुणा उत्पन्न करती है-
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।
एक समुन्नत, सुगठित और सशक्त राष्ट्रीय नैतिकता से युक्त आदर्श समाज, मर्यादित एवं स्नेहसिक्त परिवार और उदात्त चरित्र वाले नर - नारी के निर्माण की दिशा में उन्होंने प्राचीन आख्यानों को अपने काव्य का वर्ण्य विषय बनाकर उनके सभी पात्रों को एक नया अभिप्राय दिया है। जयद्रथवध, साकेत, पंचवटी, सैरन्ध्री, बक संहार, यशोधरा, द्वापर, नहुष, जयभारत, हिडिम्बा, विष्णुप्रिया एवं रत्नावली आदि रचनाएं इसके उदाहरण हैं। गुप्त जी मर्यादा प्रेमी भारतीय कवि हैं। उनके ग्रंथों के सुपात्र वारिक व्यक्ति हैं। उन्होंने संयुक्त परिवार को सर्वोपरि महत्व दिया है तथा नैतिकता और मर्यादा से युक्त सहज सरल पारिवारिक व्यक्ति को श्रेष्ठ माना है। ऐसे ही व्यक्ति में उदात्त गुणों का प्रादुर्भाव हो सकता है। इस संदर्भ में डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी का कथन द्रष्टव्य है- मैथिलीशरण गुप्त ने सम्पूर्ण भारतीय पारिवारिक वातावरण में उदात्त चरित्रों का निर्माण किया है। उनके काव्य शुरू से अंत तक प्रेरणा देने वाले हैं। उनमें व्यक्तित्व का स्वत: समुच्छित उच्छ्वास नहीं है, पारिवारिक व्यक्तित्व का और संयत जीवन का विलास है। वस्तुत: गुप्तजी पारिवारिक जीवन के कथाकार है। परिवार का अस्तित्व नारी के बिना असंभव है। इसीलिए वे नारी को जीवन का महत्वपूर्ण अंग मानते हैं। नारी के प्रति उनकी दृष्टि रोमानी न होकर मर्यादावादी और सांस्कृतिक रही है। वे अपने नारी पात्रों में उन्हीं गुणों की प्रतिष्ठा करते हैं, जो भारतीय कुलवधू के आदर्श माने गये हैं। उनकी दृष्टि में नारी भोग्य मात्र नहीं अपितु पुरुष का पूरक अंग है। इसीलिए उनके काव्य में नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व स्वाभिमान, दर्प और स्वावलम्बन का समुचित चित्रण हुआ है। उनके काव्य में नारी, अधिकारों के प्रति सजग, शीलवती, मेधाविनी, समाजसेविका, साहसवती, त्यागशीलता और तपस्विनी के रूप में उपस्थित हुई। इस अनुपम सृष्टि, इसके सर्जक और इसके महत्वपूर्ण घटक नर - नारी के प्रति गुप्तजी की पूर्ण आस्था है। इस आस्था के दर्शन उनके काव्य में होते हैं। आस्था का विखंडन गुप्तजी के लिए असहनीय है। नारी के प्रति पुरुष का अनुचित आचरण उन्हें अस्वीकार है। इसीलिए 'द्वापर' में विधृता के माध्यम से इन पंक्तियों को प्रस्तुत करते हैं-
नर के बांटे क्या नारी की नग्न मूर्ति ही आई।
माँ बेटी या बहिन हाय, क्या संग नहीं लाई॥
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी गुप्तजी के काव्य - गुरु थे। द्विवेदी जी के कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता के विमर्श ने गुप्त जी को साकेत महाकाव्य लिखने के लिए प्रेरित किया। भारत वर्ष में गूंजे हमारी भारती की प्रार्थना करने वाले कवि कालान्तर में, विरहिणी नारियों के दु:ख से द्रवित हो जाते हैं। परिवार में रहती हुई पतिवियुक्ता नारी की पीड़ा को जिस शिद्दत के साथ गुप्तजी अनुभव करते हैं और उसे जो बानगी देते हैं, वह आधुनिक साहित्य में दुर्लभ है। उनकी वियोगिनी नारी पात्रों में उर्मिला (साकेत महाकाव्य), यशोधरा (काव्य) और विष्णुप्रिया खण्डकाव्य प्रमुख है। उनका करूण विप्रलम्भ तीनों पात्रों में सर्वाधिक मर्मस्पर्शी बन पड़ा है। उनके जीवन संघर्ष, उदात्त विचार और आचरण की पवित्रता आदि मानवीय जिजीविषा और सोदेश्यता को प्रमाणित करते हैं। गुप्तजी की तीनों विरहिणी नायिकाएं विरह ताप में तपती हुई भी अपने तन - मन को भस्म नहीं होने देती वरन् कुंदन की तरह उज्ज्वल वर्णी हो जाती हैं। साकेत की उर्मिला रामायण और रामचरितमानस की सर्वाधिक उपेक्षित पात्र है। इस विरहिणी नारी के जीवन वृत्त और पीड़ा की अनुभूतियों का विशद वर्णन आख्यानकारों ने नहीं किया है। उर्मिला लक्ष्मण की पत्नी है और अपनी चारों बहनों में वही एक मात्र ऐसी नारी है, जिसके हिस्से में चौदह वर्षों के लिए पतिवियुक्ता होनेे का दु:ख मिला है। उनकी अन्य तीनों बहनों में सीता, राम के साथ, मांडवी भरत के सान्निध्य में तथा श्रुतिकीर्ति शत्रुघ्न के संग जीवन यापन करती हैं। उर्मिला का जीवन वृत्त और उसकी विरह - वेदना सर्वप्रथम मैथिलीशरण गुप्त जी की लेखनी से साकार हुई हैं। डॉ. जगीनचन्द सहगल लिखते हैं - साकेत मैथिलीशरण गुप्त का निज कवि धन है। यह उनका जीवन कार्य है। डॉ. सहगल कवि के लक्ष्य की ओर इंगित करते हुए आगे लिखते हैं साकेत के कवि का लक्ष्य रामकथा के उपेक्षित पात्रों को प्रकाश में लाना तथा उसके देवत्व गुणयुक्त पात्रों को मानव रूप में उपस्थित करना है। गुप्तजी ने अपने काव्य का प्रधान पात्र राम और सीता को न बनाकर लक्ष्मण, उर्मिला और भरत को बनाया है। गुप्तजी ने साकेत में उर्मिला के चरित्र को जो विस्तार दिया है, वह अप्रतिम है। कवि ने उसे मूर्तिमति उषा, सुवर्ण की सजीव प्रतिमा कनक लतिका, कल्पशिल्पी की कला आदि कहकर उसके शारीरिक सौंदर्य की अनुपम झांकी प्रस्तुत की है। उर्मिला प्रेम एवं विनोद से परिपूर्ण हास - परिहास मयी रमणी है। उसका हास-परिहास बुद्धिमत्तापूर्ण है- लक्ष्मण जब उर्मिला की मंजरी सी अंगुलियों में यह कला देखकर अपना सुधबुध भूल जाते हैं और मत्त गज सा झूम कर उर्मिला से अनुनय करते हैं -
कर कमल लाओ तुम्हारा चूम लूं।
इसके प्रत्युत्तर में उर्मिला अपना कमल सा हाथ पति की ओर बढ़ाती हुई मुस्कराती है और विनोद भरे शब्दों में कहती हैै-
मत्त गज बनकर, विवेक न छोड़ना।
कर कमल कह, कर न मेरा तोड़ना।
एक ओर उसका दाम्पत्य जीवन अत्यन्त आल्हाद एवं उमंगों से भरा हुआ है तो दूसरी ओर उसमें त्याग, धैर्य एवं बलिदान की भावना अत्यधिक मात्रा में विद्यमान है। लक्ष्मण के वन गमन का समाचार सुनकर उसके हृदय में भी सीता की भांति वन - गमन की इच्छा होती है, परन्तु लक्ष्मण की विवशता देखकर वह अपने प्रिय के साथ चलना उचित नहीं समझती। वह अपने हृदय में धैर्य धारण करके अपने मन को यह कह कर समझा लेती है-
तू प्रिय-पथ का विघ्न न बन
आज स्वार्थ है त्याग धरा।
हो अनुराग विराग भरा।
तू विकार से पूर्ण न हो
शोक भार से चूर्ण न हो॥
किन्तु उर्मिला अत्यन्त भोली - भाली सुकुमार एवं कोमल हृदयवाली भी है। राजसुखों में पली हुई वह नवयौवना वियोग का दु:ख क्या होता है, उसे नहीं जानती। इसीलिए अपने प्रियतम पति लक्ष्मण के बिछुड़ते ही वह अपने धैर्य को सम्हाल नहीं पाती और एक मुग्धानारी की भांति हाय कहकर धड़ाम से धरती पर गिर जाती है। उसका मूर्छित होना स्वाभाविक है किन्तु सचेत होने पर उसकी बौद्धिकता पुन: जागृत हो जाती है और अपनी मूर्च्छा को वह नारी सुलभ दुर्बलता मानकर अपने पति के बारे में यही कामना करती है-
करना न सोच मेरा इससे। व्रत में कुछ विघ्न पड़े जिससे॥
उर्मिला के चौदह वर्षों का विरहकाल व्यतीत करना आसान नहीं है। उसके पास लक्ष्मण के साथ बिताये हुए सुखमय जीवन की स्मृतियों के सिवाय कुछ भी नहीं है। एक - एक पल पर्वत सा प्रतीत होता है, किन्तु विरह के इस वृहत काल को तो गुजारना ही होगा। यह निश्चय करके उर्मिला सेवा का मार्ग अपना लेती है। वह अपनी सासों की सेवा करती है, रसोई बनाती है, किसानों की दशा पूछती रहती है-
पूछी थी सुकालदशा मैंने आज देवर से
इतना ही नहीं। वह नगर की जितनी प्रोषित पतिकाएं हैं, उनकी सुध-बुध लेती है। उनके हाल चाल जानने के लिए आतुर रहती है। इस तरह एक विरह - विदग्धा सर्व सुविधा सम्पन्न राज वधु को एक लोक सेविका के रूप में रूपान्तरित करके राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने नारी को एक दिशा दी है। जीवन के प्रति अटूट आस्था स्थापित की है।
- यशोधरा खण्डकाव्य
गुप्तजी की यशोधरा खण्डकाव्य में राजकुमार सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा के मनोभावों का बखूबी चित्रण हुआ है। यशोधरा भी एक वियोगिनी नारी है। सिद्धार्थ के द्वारा रात्रि में उसे सोती हुई छोड़कर राजप्रसाद से चुपचाप संन्यास हेतु निकल जाने से उसका मन आहत हो जाता है। यशोधरा को इसी बात का दु:ख था कि उसके पति समझते थे कि वह उनके मार्ग की बाधा बनेगी इसीलिए उसे बिना बताएं घर छोड़कर चले गये। यही पीड़ा इसलिए और अधिक गहरी हो जाती है कि जो पत्नी सहधर्मिणी थी, जो उसके हर काम में सहयोग देती थी, उस पर सिद्धार्थ ने अविश्वास किया। यशोधरा का कहना है कि यदि वे उस पर विश्वास करते और गृहत्याग की बात बता देते तो वह उन्हें पूरा सहयोग देती। उसने अपने आहत अभिमान की व्यंजना - सखि वे मुझसे कहकर जाते। गीत में करती है, वह गा उठती है-
सिद्धि हेतु स्वामी गये यह गौरव की बात।
पर चोरी चोरी गये यह बड़ी आघात॥
सखी वे मुझसे कहकर जाते।
विरहिणी यशोधरा की आंखों का पानी कभी नहीं सूखता, राहुल के प्रति कर्तव्य भार को वहन करते हुए जल-जलकर काया को जीवित रखती है। एक तो वह पीड़ा का स्वागत करती है। वेदना तू भी भली बनी तो दूसरी वह मृत्यु का वरन् सुन्दर बन आयारी। गुप्तजी के नारी पात्र घोर संकट ओर विषम परिस्थितियों में भी धीरता, कर्मण्यता और कर्तव्य भावना का परित्याग नहीं करते। वे कर्तव्यनिष्ठा, त्यागशील और सहिष्णु नारी है। यशोधरा अपने श्वसुर शुद्धोदन से भी अधिक धैर्यवान, सहिष्णु है और वह स्वनिर्मित मर्यादा में तल्लीन रहती है। गौतम द्वारा उनका परित्याग कर देने पर भी यशोधरा यही कामना करती है-
व्यर्थ न दिव्य देह वह तप-वर्षा-हिम-वात सहे।
उसकी सहिष्णुता का यह रूप है कि वह विरहिणी के असहाय दु:ख को भी अपने लिए मूल्यवान मानती है।
होता सुख का क्या मूल्य, जो न दु:ख रहता।
प्रिय हृदय सदय हो तपस्ताप क्यों सहता।
मेरे नयनों से नीर न यदि यह बहता।
तो शुष्क प्रेम की बात कौन फिर कहता।
रह दु:ख प्रेम परमार्थ दया मैं लाऊँ।
कह मुक्ति भला किसलिए तुम्हें मैं पाऊँ।
- विष्णुप्रिया खण्डकाव्य
गुप्तजी की विष्णुप्रिया भी उर्मिला और यशोधरा के समान ही एक पतिवियुक्ता नारी हैं। पश्चिम बंगाल के प्रसिद्ध संत महाप्रभु चैतन्य की पत्नी के रूप में वह प्रतिष्ठित है। महाप्रभु चैतन्य के साथ उनका विवाह मात्र 12 वर्ष की आयु में हुआ और पति के संन्यासी बन जाने के कारण वह 26 वर्षों तक पतिवियुक्ता बन कर विरहाग्नि में जलती रही। वह सामान्य मध्यम परिवार की नारी है और नि:संतान है। गुप्तजी ने विष्णुप्रिया खण्डकाव्य में भी एक भारतीय नारी की विवशता को दर्शाया है। श्री चैतन्य के संन्यास लेने के प्रसंग में विष्णुप्रिया के कथन - रो रो कर मरना नारी लिखा लायी है। इसका प्रमाण है। इसी तरह अनेक पंक्तियां एक सामान्य नारी के रूप में विष्णुप्रिया की विवशता को प्रकट करती हैं। यथा - देव ने लिखाया सुख फिर भी दिया नहीं, मेरी मति और गति केवल तुम्हीं - तुम्हीं आदि। यशोधरा की तरह उसके हृदय को भी यह सोचकर ठेस लगती है - हाय मैं छली गयी हूं, छिपकर भागे वे। चैतन्य के संन्यास ग्रहण करने हेतु चले जाने पर विष्णुप्रिया पति वियोग के सन्ताप को सहती हुई जीविकोपार्जन, सास की सेवा और पति - चिंतन के सहारे समय व्यतीत करती है। इस तरह गुप्त जी ने विष्णुप्रिया में प्रेम, पीड़ा और कर्तव्य भावना का समन्वय किया है। स्वप्न दर्शन के माध्यम से उसके आत्मबल को अभिव्यक्त किया है और पर्वोत्सवों के माध्यम से उसकी करुणामयी सामाजिक चेतना, वेदना तथा उदार भावना को प्रकट किया है। पति और सास के स्वर्गारोहण के बाद विष्णुप्रिया नितान्त अकेली रह जाती है। वह हताश होकर इस दुनिया को छोड़ देना चाहती है किन्तु वह मर नहीं पाती क्योंकि वह पति - स्मरण छोड़ नहीं पाती थी। उसे चैतन्य की मूर्ति में विलीन होने का स्वप्न आता है। वह सती भी नहीं हो सकती क्योंकि स्वप्न में चैतन्य का आदेश था - आयु शेष रहते मरण आत्मघात है, मेरी एक मूर्ति रखो निज गृह कक्ष में। इस आदेश के अनुसार विष्णुप्रिया ने एक मंदिर बनवाया - मंदिर बनाया निज गेह उस देवी ने। इस तरह विरहिणी विष्णुप्रिया एकान्तवासिनी होकर जितने मंत्र, श्लोक जपती थी, उतने ही धान्य - कणों का भोजन करती हुई पति, और सास का चिन्तन करती है। इस तरह गुप्तजी की विष्णुप्रिया पतिवियुक्ता विरहिणी होकर भी भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार की सहनशीला, सेवाभावी, पतिपरायणा, और सदा गृहस्थ नारी के रूप में चित्रित हुई है।[5]
प्रमुख कृतियाँ
मैथिलीशरण के नाटकों में 'अनघ' जातक कथा से सम्बद्ध बोधिसत्व की कथा पर आधारित पद्य में लिखा गया नाटक है।
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गुप्त जी की 52 से भी अधिक काव्य रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से कुछ अनूदित भी हैं। उन्होंने 'मधुप' उपनाम से 'विरहणी ब्रजांगन', 'प्लासी का युद्ध' और 'मेघनाद वध' नामक बंगला काव्य कृतियों का अनुवाद किया है तथा कुछ संस्कृत नाटकों के अनुवाद भी किये। इसी प्रकार 'रुबाइयात उमरखय्याम' भी उमर खयाम की रुबाइयों का हिन्दी रूपान्तर है। इनकी उल्लेखनीय मौलिक रचनाओं की तालिका में- रंग में भंग, जयद्रथ वध, पद्य प्रबंध, भारत भारती, शकुंतला, तिलोत्तमा, चंद्रहास, पत्रावली, वैतालिका, किसान, अनघ, पंचवटी, स्वदेश संगीत, हिन्दू, विपथगा, शक्ति विकटभट, गुरुकुल, झंकार, साकेत, यशोधरा, सिद्धराज, द्वापर, मंगलघट, नहुष, कुणालगीत , काबा और कर्बला, प्रदक्षिणा, जयभारत, विष्णुप्रिया आदि आते हैं।[3]
पुरस्कार व सम्मान
मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी के प्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि कहे जाते हैं। सन 1936 में इन्हें काकी में अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया था। इनकी साहित्य सेवाओं के उपलक्ष्य में आगरा विश्वविद्यालय तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने इन्हें डी. लिट. की उपाधि से विभूषित भी किया। 1952 में गुप्त जी राज्य सभा के सदस्य मनोनीत हुए और 1954 में उन्हें 'पद्मभूषण' अलंकार से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, 'साकेत' पर 'मंगला प्रसाद पारितोषिक' तथा 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। 'हिन्दी कविता' के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है। 'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।
मृत्यु
मैथिलीशरण गुप्त जी का देहावसान 12 दिसंबर, 1964 को चिरगांव में ही हुआ। इनके स्वर्गवास से हिन्दी साहित्य को जो क्षति पहुंची, उसकी पूर्ति संभव नहीं है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ (हि्न्दी) (पी एच पी) कविता कोश। अभिगमन तिथि: 25 जुलाई, 2010।
- ↑ तिवारी, नीशू। राष्ट्रप्रेम की भावना (हि्न्दी) (एच.टी.एम.एल) हिन्दी साहित्य मंच। अभिगमन तिथि: 25 जुलाई, 2010।
- ↑ 3.0 3.1 3.2 3.3 3.4 मैथिलीशरण गुप्त (हिन्दी) राजभाषा हिन्दी। अभिगमन तिथि: 04 जून, 2015।
- ↑ एस. तिवारी, अवनीश। मैथिलीशरण गुप्त और भारत-भारती (हि्न्दी) सृजनगाथा। अभिगमन तिथि: 25 जुलाई, 2010।
- ↑ 'फरहद', दादूलाल जोशी। मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में : पतिवियुक्ता नारी (हिन्दी) विचार वीथी। अभिगमन तिथि: 9 जून, 2015।
- ↑ 6.0 6.1 मैथिलीशरण गुप्त (हिन्दी) काव्यांचल। अभिगमन तिथि: 25 जुलाई, 2010।
बाहरी कड़ियाँ
- मैथिलीशरण गुप्त - अनुभूति
- माँ कह एक कहानी
- मैथिलीशरण गुप्त और भारत-भारती
- मैथिलीशरण गुप्त की कविता 'आर्य'
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