नागार्जुन बौद्धाचार्य

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नागार्जुन एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- नागार्जुन (बहुविकल्पी)

नागार्जुन बौद्धाचार्य (जन्म -150 ई; मृत्यु -लगभग 250 ई) भारतीय बौद्ध भिक्षु-दार्शनिक और माध्यमिक (मध्य मार्ग) मत के संस्थापक, जिनकी ‘शून्यता’ (ख़ालीपन) की अवधारणा के स्पष्टीकरण को उच्चकोटि की बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धि माना जाता है। बाद के कई बौद्ध मतों ने उन्हें प्राधि-धर्माध्यक्ष माना। दो मौलिक रचनाएं, जो काफ़ी हद तक उनकी हैं और संस्कृत में उपलब्ध रही- मूलमाध्यमिका कारिका (सामान्यत: माध्यमिका कारिका के रूप में जानी जाती) तथा विग्रहव्यवर्तिनी हैं, जो अस्तित्व की उत्पत्ति, ज्ञान के साधन और यथार्थ के स्वरूप पर विचारों का विवेचनात्मक विश्लेषण हैं।

जीवन वृतांत

नागार्जुन की जीवन कथा का आंरभिक विवरण चीनी भाषा में उपलब्ध है, जिसे क़रीब 405 ई. में प्रसिद्ध बौद्ध अनुवादक कुमारजीव ने उपलब्ध कराया। यह अन्य चीनी एवं तिब्बती वृत्तांत से सहमत हैं कि नागार्जुन दक्षिण भारत में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। ऐतिहासिक रूप से बचपन की उनकी कथाएं विवादास्प्रद हैं, लेकिन यह संकेत देती हैं कि उनके पास असाधारण बौद्धिक क्षमता थी तथा जब उन्होंने महायान बौद्ध धर्म के सिद्धांतों, जो इस समय पूर्वी एशिया में प्रचलित हैं, के गहन अर्थों को समझा, तब उनमें आध्यात्मिक परिवर्तन हुआ। कुमारजीव के वृत्तांत के अनुसार, नागार्जुन द्वारा बौद्ध धर्म के कुछ मूल विचार कुछ असंतुष्टि से सीखने के बाद एक 'महानाग बोधिसत्व' पर ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर एक प्रमुख नागराज[1] ने दया दिखाई तथा उन्हें अत्यंत गूढ़ महायान श्लोकों के बारे में बताया। नागार्जुन ने कुछ ही समय में इनमें प्रवीणता हासिल की तथा भारत में सफलतापूर्वक सत्य (धर्म) का प्रचार किया और कई विरोधियों को बौद्धिक-दार्शनिक शास्त्रार्थ में परास्त किया। अनुश्रुत वृतांत यह भी संकेत देते हैं कि वह काफ़ी लंबी उम्र तक जिए तथा इसके बाद उन्होंने अपने जीवन का अंत करने का निर्णय लिया। विभिन्न वृत्तांत नागार्जुन के विभिन्न धार्मिक गुणों का वर्णन करते हैं तथा उनके जीवन का कालांकन 500 से अधिक वर्षों के दायरे में करते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि उपलब्ध संदर्भ कई व्यक्तियों के बारे में हो सकते हैं तथा इनमें कुछ काल्पनिक वृत्तांत भी शामिल होंगे। फिर भी नागार्जुन की जीवनी के विभिन्न तत्वों की पुष्टि एतिहासिक साम्रग्री से होती है। वर्तमान विद्वान् संकेत देते हैं कि नागार्जुन 50 ई. और 280 ई. किसी अवधि में रहे होंगे। एक आम राय के मुताबिक़़, उनका कालांकन 150-250 ई. है। कुछ पुरातात्विक सबूत : उनके द्वारा सातवाहन वंश के एक राजा, संभवत: यज्ञश्री (173-202) को लिखा एक पत्र (सुहारिल्लेख, ‘मैत्रिपूर्ण पत्र’) इस दावे की पुष्टि करता है कि वह दक्षिण भारत में रहते थे।

मुख्य बौद्धाचार्य

नागार्जुन माध्यमिक दर्शन के प्रतिष्ठापक और महायान बौद्ध दर्शन के प्रमुख आचार्य थे। भगवान बुद्ध ने शाश्वत और उच्छेद, सत् और असत्, भाव और अभाव इन दो अन्तों के बीच चलने का उपदेश दिया था। नागार्जुन ने तथागत द्वारा उपदिष्ठ इस मध्यम मार्ग की दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत की और बौद्ध परम्परा में प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत का दार्शनिक विश्लेषण प्रस्तुत कर जगत् को सापेक्ष, फलत: अनुत्पन्न, नि:स्वभाव और स्वभाव शून्य बताते हुए शून्यता के सिद्धांत को शास्त्रीय दृष्टि से प्रस्तुत किया। नागार्जुन ने जीवन एवं उनकी तिथि के विषय में कई प्रकार के प्रवाह और मत प्रचलित हैं। उन मतभेदों का विशद विवरण तो यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु उनके विषय में लंकावतारसूत्र, महामेघसूत्र, महामेरीसूत्र और मज्जुश्रीमूलकल्प में भविष्यवाणियाँ उपलब्ध होती हैं। सभी प्राणियों और परम्पराओं की समीक्षा से ज्ञात होता है कि भारतीय परम्परा में माध्यमिक दर्शन, रसेश्वर दर्शन, तन्त्र तथा आयुर्वेद से सम्बन्ध नागार्जुन नामधारी चार आचार्य हुए। इनमें प्राचीनतम बौद्ध नागार्जुन ही थे, जिनकी तिथि प्राय: ईसवी सन दूसरी शताब्दी के आस पास मानी गयी (146 – 217 ई.) है।

प्रभाव एवं रचनाएं

नागार्जुन का प्रभाव बौद्ध धर्म के माध्यमिक मत के अनुयायियों के ज़रिये जारी रहा। उनकी दार्शनिक स्थितियों की विवेचनात्मक पड़ताल तथा उपदेशात्मक व्याख्या का अध्ययन अब भी कई पूर्वी एशियाई मतों में चीनी बौद्ध धर्मशास्त्र (ता-त्सांग चिंग) के अंग के रूप में किया जाता है। इसी प्रकार तिब्बती बौद्ध धर्मशास्त्र के अंग की तरह बस्तान-ग्यूर में 17 माध्यमिका शोध प्रबंध हैं। इनमें से सभी प्रबंधों का श्रेय नागार्जुन को नहीं दिया और पारंपरिक तौर पर जिनका श्रेय उनको दिया जाता है, संभवत: वे भी उन्होंने नहीं लिखे हैं।

दो मूल रचनाएं, जो काफ़ी हद तक उनकी हैं, इस समय संस्कृत में उपलब्ध हैं; वे हैं- मूलमाध्यमिकाकारिका (माध्यमिका कारिका,’ मध्यम मार्ग के मूल सिद्धांत’) और विग्रहव्यवर्तनी (वाद-विवाद का निवारण), दोंनो सत्ता की उत्पत्ति, ज्ञान के साधन, तथा यथार्थ के स्वरूप के बारे में असत्य विचारों का विवेचनात्मक विश्लेषण है। जिन तीन महत्त्वपूर्ण, माध्यमिका रचनाओं का श्रेय नागार्जुन को दिया जाता है वे वर्तमान में केवल चीनी भाषा में उपलब्ध हैं, ता-चिह-तू-लुन (महाप्रज्ञपारमिता-शास्त्र, 'प्रज्ञा शोध प्रबंधों की महान् पराकाषठा'), शी-चू-पी-पा-शा-लुन (दशमूमि-विभाष-शास्त्र, ’10 स्तरीय ग्रंथों की आभा'), तथा शिन-एर्ह-मेन-लुक (द्वादश-द्वार {निकाय} -शास्त्र, '12 प्रवेश मार्ग ग्रंथ') निम्नलिखित रचनाएं केवल तिब्बती धर्मशास्त्र में मिलती हैं तथा कई विद्वान् इन्हें नागार्जुन की रचनाएं मानते हैं : रिग्स पा द्रग का पाही त्सिग लेहुर व्यास पा शेस ब्या बा (युक्ति-षष्टिका, 'संयोजन पर 60 छंद'), तोन पा निद दुन कु पाही त्सिग लेहूर ब्यास पा शेस ब्या बा (शुन्यता-सप्तति, 'शून्यता पर 70 छंद') और शिब भो नम्पर ह्तग पा शेस ब्या बहि म्दो (वैदालया-सूत्र, 'वैदालया श्रेणी का पवित्र ग्रंथ')।

माध्यमिक विश्लेषण के श्लोकों के अलावा तिब्बती अनुश्रुति ने कई तांत्रिक (जादुई) एवं चिकित्सा रचनाओं का श्रेय किसी 'नागार्जुन' को दिया है। बाद की भारतीय रचनाओं में नागार्जुन नाम के एक महान् सिद्ध या तांत्रिक का ज़िक्र है, जिन्होंने तांत्रिक आचरण, यानी चमत्कारी मंत्रों एवं मंडलों की मदद से जादुई शक्तियां प्राप्त की तथा नियंत्रित आहार और औषधि से अस्तित्व की अभौतिकीय अगत तक पहुंचे। इन कथाओं के साथ एक शक्तिशाली कीमियागर की कहानी भी संबद्ध है, जिन्होंने अन्य उपलब्धियों के अलावा अमरता का अमृत खोज निकाला था। ठोस ऐतिहासिक आंकड़ों के अभाव तथा परस्पर विरोधी वृत्तांतों दूसरी सदी के इस दार्शनिक पर लागू नहीं माना जाता है।

माध्यमिक दार्शनिक के जीवन एवं दृष्टिकोण के बारे में कुछ जानकारी नागार्जुन की रचनाओं से भी मिल सकती है। उनके विवेचनात्मक विश्लेषणात्मक काव्यों और उनके उपदेशात्मक प्रबंध, पत्र एवं श्लोक लोगों के साथ विनियोजन में ‘अनासक्ति’ (यानि सभी चीजों की शून्यता का बोध करना और इसलिए उनसे निर्लिप्त होना) को व्यवहार में लाने के प्रति अनेक गहरे सरोकार का संकेत देते हैं। दुरूह तर्क के ज़रिये, जैसा माध्यमिका कारिका में है, उन्होंने अस्तित्व के बारे में हिंदू एवं बौद्ध दृष्टिकोणों की आलोचना की हैं। लेकिन उनके अधिकतर शास्त्रार्थ स्थविरवाद और सर्वास्तिवाद के बौद्ध मतों द्वारा प्रस्तातिव अस्तित्व की व्याख्या के प्रयास थे। नागार्जुन की स्थिती प्रारंभिक महायान साहित्य के प्रज्ञापारमिता-सूत्र (प्रज्ञा श्लोकों की पराकाष्ठा) से घनिष्ठ रूप से संबद्ध और संभवत: निर्भर है, जिसमें 'शून्य' का विचार ज्ञान के मार्ग पर चलने वालों से लिए महत्त्वपूर्ण था और माध्यमिका मत में विशिष्ट शब्द बन गया।

यह विचार बताता है कि अस्तित्व का स्वरूप संबंधात्मक है : कोई आत्मा नहीं है, कुछ नहीं है तथा इसके संदर्भ में स्वतंत्र कोई अवधारणा नहीं है; सभी चीज़े किसी से रिक्त हैं तथा केवल परिस्थिती के संदर्भ में विद्यमान हैं। परिवर्तनशील स्वरूपों के पीछे कोई शाश्वत सत्य नहीं है; यहां तक कि बिना किसी बंधन के निर्वाण (ज्ञान-प्राप्ति) भी अस्तित्व के बदलते स्वरूप से स्वतंत्र नहीं है। जिन व्यक्तियों ने ज्ञान में पूर्णता प्राप्त कर ली है, उन्हें निर्वाण एवं अस्तित्व के परिवर्तनशील प्रवाह का एक साथ बौद्ध होता है। यह पूर्णता उन दूसरी 'पूर्णताओं' को रुपांतरित करती है, जो बोधिसत्व (भावी बुद्ध) के मार्ग के अंग हैं, जैसे नैतिकता, सहनशीलता एवं ध्यान। विवेक की पराकाष्ठा पूर्णता के लिए प्रयासरत उत्साही व्यक्ति को पूर्णता की आसक्ति तक से मुक्ति दिला देती है, उस 'पूर्णता' से, जिसमें उसे क्षण के संबंधात्मक स्वरूप का बोध नहीं होता । अत: विवेक को करुणा से पृथक् न करने वाले नागार्जुन के दृष्टिकोण से विद्वतापूर्ण शास्त्रार्थ में हिस्सा लेना, बुद्ध की शिक्षाओं की व्याख्या लिखना तथा श्लोकों में माया एवं पीड़ा से मुक्ति की प्रशंसा करना परम सत्य (धर्म) अनुकूल माने जाते हैं।

सत्ताईस अध्यायों में विभक्त और 448 कारिकाओं में निबद्ध माध्यमिक कारिका या मध्यमक शास्त्र नागार्जुन की सर्वाधिक विद्वत्तापूर्ण और प्रसिद्ध रचना है, जो सम्पूर्ण माध्यमिक प्रस्थान का आधार स्तम्भ है। विग्रहव्यावर्तनी में नागार्जुन के दर्शन का प्रमाण पक्ष स्फुट हुआ है। चतु:स्तव में बुद्ध की स्तुति है तो रत्नावली में राजा के आचार मार्ग का निर्देश और बौद्ध दर्शन के वास्तविक स्वरूप का विवेचन है। प्रतीत्यसमुत्पादहृदय, शून्यतासप्तति, युक्तिषष्टिका, उपायहृदय, भवसंक्रांतिशास्त्र, महाप्रज्ञापारमिताशास्त्र और वैदत्यसूत्र नागार्जुन की दूसरी असंदिग्ध रचनायें हैं, जिनमें उनके दर्शन के विविध पक्षों की अभिराम अभिव्यक्ति हुई है।

नागार्जुन का समय काल

  • ह्रेनसांग के अनुसार अश्वघोष, नागार्जुन, आर्यदेव और कुमारलब्ध (कुमारलात) समकालीन थे।
  • राजतंरगिणी और तारानाथ के मतानुसार नागार्जुन कनिष्क के काल में पैदा हुए थे। नागार्जुन के काल के बारे में इतने मत-मतान्तर हैं कि कोई निश्चित समय सिद्ध कर पाना अत्यन्त कठिन है, फिर भी ई.पू. प्रथम शताब्दी से ईस्वीय प्रथम-द्वितीय शताब्दी के बीच कहीं उनका समय होना चाहिए। कुमारजीव ने 405 ई. के लगभग चीनी भाषा में नागार्जुन की जीवनी का अनुवाद किया था। ये दक्षिण भारत के विदर्भ प्रदेश में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। वे ज्योतिष, आयुर्वेद, दर्शन एवं तन्त्र आदि विद्याओं में अत्यन्त निपुण थे और प्रसिद्ध सिद्ध तान्त्रिक थे।
  • प्रज्ञापारमितासूत्रों के आधार पर उन्होंने माध्यमिक दर्शन का प्रवर्तन किया था। कहा जाता है कि उनके काल में प्रज्ञापारमितासूत्र जम्बूद्वीप में अनुपलब्ध थे। उन्होंने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त किया तथा उन सूत्रों के दर्शन पक्ष को माध्यमिक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।
  • अस्तित्व का विश्लेषण दर्शनों का प्रमुख विषय रहा है। भारतवर्ष में इसी के विश्लेषण में दर्शनों का अभूतपूर्व विकास हुआ है। उपनिषद-धारा में आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा बौद्ध-धारा में आचार्य नागार्जुन का शून्याद्वयवाद शिखरायमाण है। परस्पर के वाद-विवाद ने इन दोनों धाराओं के दर्शनों को उत्कर्ष की पराकाष्ठा तक पहुंचाया है। यद्यपि आचार्य शंकर का काल नागार्जुन से बहुत बाद का है, फिर भी नागार्जुन के समय औपनिषदिक धारा के अस्तित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता, किन्तु उसकी व्याख्या आचार्य शंकर की व्याख्या से निश्चित ही भिन्न रही होगी। आचार्य नागार्जुन के आविर्भाव के बाद भारतीय दार्शनिक चिन्तन में नया मोड़ आया। उसमें नई गति एवं प्रखरता का प्रादुर्भाव हुआ। वस्तुत: नागार्जुन के बाद ही भारतवर्ष में यथार्थ दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ हुआ। नागार्जुन ने जो मत स्थापित किया, उसका प्राय: सभी बौद्ध-बौद्धेतर दर्शनों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और उसी के खण्डन-मण्डन में अन्य दर्शनों ने अपने को चरितार्थ किया।
  • नागार्जुन के मतानुसार वस्तु की परमार्थत: सत्ता का एक 'शाश्वत अन्त' है तथा व्यवहारत: असत्ता दूसरा 'उच्छेद अन्त' है। इन दोनों अन्तों का परिहास कर वे अपना अनूठा मध्यम मार्ग प्रकाशित करते हैं। उनके अनुसार परमार्थत: 'भाव' नहीं है तथा व्यवहारत: या संवृत्तित: 'अभाव' भी नहीं है। यही नागार्जुन का मध्यम मार्ग या माध्यमिक दर्शन है। इस मध्यम मार्ग की व्यवस्था उन्होंने अन्य बौद्धों की भाँति प्रतीत्यसमुत्पाद की अपनी विशिष्ट व्याख्या के आधार पर की है। वे 'प्रतीत्य' शब्द द्वारा शाश्वत अन्त का तथा 'समुत्पाद' शब्द द्वारा उच्छेद अन्त का परिहास करते हैं और शून्यतादर्शन की स्थापना करते हैं।

प्रमुख ग्रंथ

नागार्जुन के नाम पर अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें

  1. मूलमाध्यमिककारिका
  2. विग्रहव्यावर्तनी
  3. युक्तिषष्टिका
  4. शून्यतासप्तति
  5. रत्नावली
  6. वैदल्यसूत्र

इनमें मूलमाध्यमिककारिका शरीर स्थानीय है तथा अन्य ग्रन्थ उसी के अवयव या पूरक के रूप में माने जाते हैं। कहा जाता है कि उन्होंने मूलामाध्यमिककारिका पर 'अकुतोभया' नाम की वृत्ति लिखी थी, किन्तु अन्य साक्ष्यों के प्रकाश में आने पर अब यह मत विद्वानों में मान्य नहीं है। इसके अतिरिक्त सुहृल्लेख एवं सूत्रसमुच्चय आदि भी उनकी कृतियाँ हैं।

  • भारतीय बौद्ध आचार्यों का कृतियों का तिब्बत के 'तन-ग्युर' नामक संग्रह में संकलन किया गया है।

दार्शनिक विचार

नागार्जुन का सम्पूर्ण माध्यमिक दर्शन प्रज्ञापारमिताओं में प्रतिपादित धर्मनैरात्म्य और पुद्गल नैरात्म्य पदार्थों या धर्मों की नि:स्वभावता, धर्मता, धर्म धातु, भूतकोटि इत्यादि पदों से संकेतित शून्यता, हेतु प्रत्यय सापेक्ष कारणता के सिद्धांत प्रतीत्यसमुत्पाद और दूसरे सहायन सिद्धांतों की दार्शनिक दृष्टि से की महायान गयी व्याख्या पर आधृत है। उन्होंने प्रज्ञापारमिताओं में प्रतिपादित इन सिद्धांतों का शास्त्रीय दृष्टि से, क्रमबद्ध और तार्किक विधि से विश्लेषण कर उन्हें एक अभिनव रीति से प्रस्तुत किया है।

शून्यता का सिद्धांत

शून्यता नागार्जुन के दर्शन का आधारभूत सिद्धांत है। सामान्यत: शून्य से असत् या अभाव का अर्थ लिया जाता है। इस प्रकार लोक व्यवहार में शून्यवाद का प्रसिद्ध अर्थ है सकल सत्ता का निषेध या अभाव। उसी साधारण अर्थ को ग्रहण करने के कारण शून्यवाद 'सर्ववैनाशिकवाद' कहा गया है। परन्तु नागार्जुन शून्य से नि:स्वभाव या स्वभावशून्य का अर्थ लेते हुए शून्य के सस्वभाव मूलक अभाव के अर्थ का स्पष्ट प्रतिषेध करते हैं। (द्र. मध्यमकशास्त्र, आर्यसत्यपरीक्षा)। उनकी स्पष्ट उक्ति है :-

अस्तीति शाश्वतग्राहो नास्तोत्युच्छेद दर्शनम्।
तस्मादस्तित्व नास्तित्वे नाश्रीयेत विचक्षण:।। [2]

अर्थात् अस्ति से शाश्वतवाद का और नास्ति से उच्छेदवाद का परिग्रह होता है। अतएव बुद्धिमान अस्ति और नास्ति इन उभय अन्तों का आश्रयण नहीं करते। माध्यमिक नय में किसी भी पदार्थ या धर्म का स्वरूप निर्णय करने के लिए सत् (भाव), असत् (अभाव), सदसत् (भावाभाव, उभय) और न सत्, न सदसत् (अनुभय, न भाव, न अभाव) इन चार कोटियों का प्रयोग सम्भव है, किन्तु तत्व इन चार कोटियों से परे, वाणी के द्वारा अवर्ण्य बुद्धि का अविषय और प्रत्यात्मवेद्य है आर्यदेव की इन विषय में स्पष्ट उक्ति है-

न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम्।
चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदु:।। [3]

शून्यता का अर्थ व्यवहार और परमार्थ इन दो दृष्टियों से बोध्य है। क्योंकि व्यवहार के बिना परमार्थ का बोध नहीं होता और परमार्थ की प्राप्ति के बिना निर्वाण भी समधिगम्य नहीं होता। व्यवहार दृष्टि से शून्यता का अर्थ है स्वभाव शून्यता या नि:स्वाभवता। संसार के सभी धर्म हेतु प्रत्यय जनित यानी प्रतीत्यसुमत्पन्न हैं। जिन हेतु प्रत्ययों से पदार्थ उत्पन्न होते हैं, उनके न रहने पर उनका निरोध होता है। अत: पदार्थ सस्वभाव स्वतंत्र रूप से स्थित नहीं माने जा सकते। व्यवहार की दृष्टि से शून्यता का यही नि:स्वभावतामूलक अर्थ ज्ञय है। इस दृष्टि से प्रतीत्यसमुत्पाद भी शून्यता का ही पर्याय है। इस दृष्टि से नागार्जुन की यह उक्ति भी विचारणीय है कि शून्यता सभी दृष्टियों का नि:सरण है, क्योंकि तत्व किसी भी दृष्टि, वाद या अन्त का विषय नहीं बन सकता।

व्यवहारमनाश्रित्य परमार्थी न देश्यते।
परमार्थमनागम्य निर्वाणं नाधिगम्यते।। [4]

हेतुत: सम्भवो यस्य स्थितिर्न प्रत्ययैर्विना।
विगम: प्रत्ययात्रावात् सोऽस्तीत्यवगत: कथम्।। [5]

शून्यता सर्वदृष्टीनां प्रोक्ता नि:सरणं जिनै:।
येषां तु शून्यता दृष्टिस्तानसाध्यान् बभाषिरे।। [6]

परमार्थ दृष्टि से शून्यता का अर्थ प्रपव्यशून्यता है। संवृत्ति या व्यवहार की दृष्टि से शून्यता प्रतीञ्चसमुत्पाद है, किन्तु परमार्थ दृष्टि से शून्यता का अर्थ है निर्विकल्प तत्त्व जो वाणी के अभिलापों का अविषय, परोपदेश से अगम्य, अद्वय (अनाना) तत्त्व है। यह अनक्षर, शान्त (स्वभावरहित) और प्रपंचों का अविषय है, जहाँ बुद्धि की समस्त कोटियाँ शान्त हो जाएं, जो सर्वविध प्रपंच से शून्य और अस्पृष्ट, अद्वय, विशुद्ध, ज्ञान रूप हो, वही तत्त्व है। नागार्जुन कहते हैं :-

अपरप्रत्ययं शान्तं प्रपंचचैर प्रपञ्चितम्।
निर्विकल्पम नानार्थ मे तत्तत्त्वस्य लक्षणम्।। [7]

इस दृष्टि से संसार (प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्मादि) और निर्वाण में किंचितमात्र भी भेद नहीं है। जो व्यवहार दृष्टि से शून्य, प्रतीत्यसमुत्पाद या संसार है, वही परमार्थ दृष्टि से निर्वाण कहा जाता है। जो प्रतीति और उपादान की दृष्टि से आवागमन रूपी संसार है, वही अप्रतीति और अनुपादान की दृष्टि से निर्वाण है। lसंसार और निर्वाण दोनों का स्वभाव नियत नहीं किया जा सकता। इसीलिए दोनों एक कोटिक (यानी नि:स्वभाव) हैं। इसी दृष्टि से निर्वाण को अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता में मायोपम भी कहा गया है। यह शंका हो सकती है कि यदि सब कुछ शून्य है, न किसी वस्तु का (स्वभावत:) उत्पाद होता है और न ही निरोध या प्रहाण, तो किसके प्रहाण या निरोध से निर्वाण होता है। इस पर नागार्जुन का कथन है कि निर्वाण न तो प्रहाण (नष्ट) होता है और न ही प्राप्त (असंप्राप्त) न उसका उच्छेद होता है, न वह शाश्वत ही है, उसका निरोध होता है और वह न तो उत्पन्न होता है और न निरुद्ध।

अप्रहीणमसम्प्राप्तमनुच्छिन्नमशाश्वतम्।
अनिरुद्धमनुत्पन्नमेतन्निर्वाणमुच्यते।। [8]

ऐसा निर्वाण भाव रूप नहीं कहा जा सकता, क्योंकि भाव रूप मानने पर निर्वाण को उपादान युक्त (सोपादान, उपादाय) मानना पड़ेगा। यदि निर्वाण भाव रूप नहीं है तो उसे अभाव रूप भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि अभाव भाव सापेक्ष होता है। वह उभय रूप (भावाभाव रूप) भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि एकत्र भाव और अभाव की स्थिति स्वीकार नहीं की जा सकती। निर्वाण अनुपादाय है। यदि उसे भाव या अभाव (या उभय या अनुभय) रूप माना जायेगा तो वह सांसारिक धर्मों की भांति ही उत्पत्ति निरोध सापेक्ष हो जायेगा। उत्पत्ति, निरोध का सापेक्ष क्रम ही संसार कहा जाता है। उसी की निरपेक्ष रूपेण अप्रवृत्ति निर्वाण है। संसार और निर्वाण में किसी प्रकार का भेद नहीं है। परमार्थ अशब्द, निर्विकल्प और प्रत्यात्मवेद्य है। निर्वाण भी प्राय: उसी प्रकार का है। वस्तुत: भगवान तथागत ने शब्दश: किसी भी धर्म का (परमार्थत: शब्दों के द्वारा) उपदेश नहीं दिया है, क्योंकि परमार्थ सभी प्रकार के उपलम्भों और प्रपंचों का अविषय है :-

सर्वोपलम्भोपशम: प्रपंचोपशम: शिव:।
न क्वचित् कस्यचित् कश्चिदर्मो बुद्धेन देशिता।। [9]

नागार्जुन ने बौद्ध परमार्थ विचार को प्रौढ़ और समुन्नत रूप प्रदान किया है। इसमें उन्होंने जिस तर्क पद्धति का आश्रय लिया है, वह उनका पूर्ववर्ती विचार धाराओं के समीक्षण और चातुष्कोटिक प्रसङ्गापादान की रीति पर आश्रित है। नागार्जुन ने विग्रह व्यावर्तनी में नि:स्वभावता के सिद्धांत का परिग्रह कर प्रमाणों को भी नि:स्वभाव मानते हुए परिमार्थत: उनकी स्वाभाविक सत्ता अस्वीकार की है। प्रमाण उनके मत में अग्नि के समान है। उनकी स्वभावत: सत्ता न स्वत:, न परत:, न उभयत और न अनुभवत: ही सिद्ध होती है। वस्तुत: माध्यमिक का कोई पक्ष नहीं है। दूसरे वादी के पक्ष का निरास करना ही माध्यमिक का लक्ष्य है। ऐसा करके वह सस्वभावावाद और दृष्टिवाद का निरसन करता है। दूसरी ओर नागार्जुन प्रतिपादित माध्यमिक दर्शन में भावरूप में किसी सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया गया है। केवल निषेध प्रधान तर्क पद्धति से नागार्जुन परमत का निरसन करते हैं। माध्यमिक का कोई पक्ष नहीं है। इसीलिए उसके निरसन का प्रश्न भी नहीं उपस्थित होता। यद्यपि नागार्जुन परमार्थत: प्रमाण को नि:स्वभाव मानते हैं, किन्तु माध्यमिक मत में व्यवहार दशा में प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है।

इसी प्रकार बौद्ध वाद के इतिहास में जहाँ नागार्जुन एक और महायान दर्शन के प्रतिष्ठापक, प्रज्ञापारमिता ग्रन्थों के उद्धारकर्ता तथा टीकाकार और माध्यमिक दर्शन के प्रतिष्ठापक हैं, वहीं दूसरी ओर वे नि:स्वाभावता या शून्यता के सिद्धांत के प्रतिष्ठापक और बौद्ध परम्परा में चातुष्कोटिक तर्क पद्धति को पुष्ट स्वरूप प्रदान करने वाले भी हैं। इन सभी दृष्टियों से उनका बौद्ध दर्शन के क्षेत्र में योगदान परिमेय है।

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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अक्षरश: सर्प, पूर्वोत्तर भारत की एक पर्वतीय जाती का नाम भी
  2. मध्यमकशास्त्र (5) 1211
  3. ज्ञानसारसमुच्चय, कारिका, 28
  4. माध्यमिक कारिका 24/8
  5. युक्तिषष्टिका
  6. माध्यमिक कारिका 13/18
  7. माध्यमिक कारिका 18 - 9
  8. माध्यमिक कारिका 25/311
  9. माध्यिक कारिका 24/30

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