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*[[कालिदास]] तथा अश्वघोष की रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि अश्वघोष कालिदास के परवर्ती थे। कालिदास की तिथि प्रथम शताब्दी ई॰ पू॰ स्वीकार करने से यह मानना पड़ता है कि दोनों रचनाओं में जो साम्य परिलक्षित होता है उससे कालिदास का ऋण अश्वघोष पर सिद्ध होता है। अश्वघोष के ऊपर कालिदास का प्रभूत प्रभाव पड़ा था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि कालिदास ने [[कुमारसंभव]] और [[रघुवंश]] में जिन श्लोंकों को लिखा, उन्हीं का अनुकरण अश्वघोष ने बुद्धचरित में किया है। कालिदास ने विवाह के बाद प्रत्यागत [[शिव]]-[[पार्वती देवी|पार्वती]] को देखने के लिए उत्सुक कैलास की ललनाओं का तथा स्वयम्वर के अनन्तर [[अज]] और [[इन्दुमती]] को देखने के लिए उत्सुक विदर्भ की रमणियों का क्रमश: कुमारसंभव तथा रघुवंश में जिन श्लोकों द्वारा वर्णन किया है, उन्हीं के भावों के माध्यम से अश्वघोष ने भी राजकुमार सिद्धार्थ को देखने के लिए उत्सुक [[कपिलवस्तु]] की सुन्दरियों का वर्णन किया है। बुद्धचरित का निम्नश्लोक-
 
*[[कालिदास]] तथा अश्वघोष की रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि अश्वघोष कालिदास के परवर्ती थे। कालिदास की तिथि प्रथम शताब्दी ई॰ पू॰ स्वीकार करने से यह मानना पड़ता है कि दोनों रचनाओं में जो साम्य परिलक्षित होता है उससे कालिदास का ऋण अश्वघोष पर सिद्ध होता है। अश्वघोष के ऊपर कालिदास का प्रभूत प्रभाव पड़ा था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि कालिदास ने [[कुमारसंभव]] और [[रघुवंश]] में जिन श्लोंकों को लिखा, उन्हीं का अनुकरण अश्वघोष ने बुद्धचरित में किया है। कालिदास ने विवाह के बाद प्रत्यागत [[शिव]]-[[पार्वती देवी|पार्वती]] को देखने के लिए उत्सुक कैलास की ललनाओं का तथा स्वयम्वर के अनन्तर [[अज]] और [[इन्दुमती]] को देखने के लिए उत्सुक विदर्भ की रमणियों का क्रमश: कुमारसंभव तथा रघुवंश में जिन श्लोकों द्वारा वर्णन किया है, उन्हीं के भावों के माध्यम से अश्वघोष ने भी राजकुमार सिद्धार्थ को देखने के लिए उत्सुक [[कपिलवस्तु]] की सुन्दरियों का वर्णन किया है। बुद्धचरित का निम्नश्लोक-
 
*वातायनेभ्यस्तु विनि:सृतानि परस्परायासितकुण्डलानि।<br />
 
*वातायनेभ्यस्तु विनि:सृतानि परस्परायासितकुण्डलानि।<br />
स्त्रीणां विरेजुर्मुखपङकजानि सक्तानि हर्म्येष्विव पङकजानि॥<balloon title="(बुद्धचरित 3।19)" style=color:blue>*</balloon>
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स्त्रीणां विरेजुर्मुखपङकजानि सक्तानि हर्म्येष्विव पङकजानि॥<ref>(बुद्धचरित 3।19)</ref>
 
कुमारसंभव तथा रघुवंश के निम्नश्लोक-<br />
 
कुमारसंभव तथा रघुवंश के निम्नश्लोक-<br />
 
*तासां मुखैरासवगन्धगर्भैर्व्याप्तान्तरा सान्द्रकुतूहलानाम्।<br />
 
*तासां मुखैरासवगन्धगर्भैर्व्याप्तान्तरा सान्द्रकुतूहलानाम्।<br />
विलोलनेत्रभ्रमरैर्गवाक्षा: सहस्रपत्राभरणा इवासन्।<balloon title="कुमारसंभव 7।62, रघुवंश7।11" style=color:blue>*</balloon>
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विलोलनेत्रभ्रमरैर्गवाक्षा: सहस्रपत्राभरणा इवासन्।<ref>कुमारसंभव 7।62, रघुवंश7।11</ref>
 
की प्रतिच्छाया है। उपर्युक्त श्लोकद्वय के तुलनात्मक अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि अश्वघोष कालिदास के ऋणी थे, क्योंकि जो मूल कवि होता है वह अपने सुन्दर भाव को अनेकत्र व्यक्त करता है। उस भाव का प्रचार-प्रसार चाहता है इसीलिए कालिदास ने कुमारसंभव और रधुवंश में अपने भाव को दुहराया है। परन्तु अश्वघोष ने कालिदास का अनुकरण किया है। अत: उन्होंने एक ही बार इस भाव को लिया है। फलत: अश्वघोष कालिदास से परवर्ती हैं।  
 
की प्रतिच्छाया है। उपर्युक्त श्लोकद्वय के तुलनात्मक अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि अश्वघोष कालिदास के ऋणी थे, क्योंकि जो मूल कवि होता है वह अपने सुन्दर भाव को अनेकत्र व्यक्त करता है। उस भाव का प्रचार-प्रसार चाहता है इसीलिए कालिदास ने कुमारसंभव और रधुवंश में अपने भाव को दुहराया है। परन्तु अश्वघोष ने कालिदास का अनुकरण किया है। अत: उन्होंने एक ही बार इस भाव को लिया है। फलत: अश्वघोष कालिदास से परवर्ती हैं।  
 
==व्यक्तित्व तथा कर्तृव्य==
 
==व्यक्तित्व तथा कर्तृव्य==
[[संस्कृत]] के प्रथम [[बौद्ध]] महाकवि अश्वघोष के जीवनवृत्त से सम्बन्धित अत्यल्प विवरण ही प्राप्त है। 'सौन्दरनन्द' नामक महाकाव्य की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था तथा ये [[साकेत]] के निवासी थे। ये महाकवि के अतिरिक्त 'भदन्त', 'आचार्य' तथा 'महावादी' आदि उपाधियों से विभूषित थे।<balloon title="आर्य सुवर्णाक्षीपुत्रस्य साकेतकस्य भिक्षोराचार्य भदन्ताश्वघोषस्य महाकवेर्महावादिन: कृतिरियम्। (अश्वघोष- सौन्दरनन्द की पुष्पिका" style=color:blue>*</balloon> उनके काव्यों की अन्तरंग परीक्षा से ज्ञात होता है कि वे जाति से ब्राह्मण थे तथा वैदिक साहित्य, [[महाभारत]]-[[रामायण]] के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनका 'साकेतक' होना इस तथ्य का परिचायक है कि उन पर रामायण का व्यापक प्रभाव था।  
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[[संस्कृत]] के प्रथम [[बौद्ध]] महाकवि अश्वघोष के जीवनवृत्त से सम्बन्धित अत्यल्प विवरण ही प्राप्त है। 'सौन्दरनन्द' नामक महाकाव्य की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था तथा ये [[साकेत]] के निवासी थे। ये महाकवि के अतिरिक्त 'भदन्त', 'आचार्य' तथा 'महावादी' आदि उपाधियों से विभूषित थे।<ref>आर्य सुवर्णाक्षीपुत्रस्य साकेतकस्य भिक्षोराचार्य भदन्ताश्वघोषस्य महाकवेर्महावादिन: कृतिरियम्। (अश्वघोष- सौन्दरनन्द की पुष्पिका</ref> उनके काव्यों की अन्तरंग परीक्षा से ज्ञात होता है कि वे जाति से ब्राह्मण थे तथा वैदिक साहित्य, [[महाभारत]]-[[रामायण]] के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनका 'साकेतक' होना इस तथ्य का परिचायक है कि उन पर रामायण का व्यापक प्रभाव था।  
*सम्राट कनिष्क के राजकवि अश्वघोष बौद्ध धर्म के कट्टर अनुयायी थे। इनकी रचनाओं पर बौद्ध धर्म एवम्  गौतम बुद्ध के उपदेशों का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। अश्वघोष ने धर्म का प्रसार करने के उद्देश्य से ही कविता लिखी थी। अपनी कविता के विषय में अश्वघोष की सुस्पष्ट उद्घोषणा है कि मुक्ति की चर्चा करनेवाली यह कविता शान्ति के लिए है, विलास के लिए नहीं।<balloon title="'इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भाकृति:'सौन्दरनन्द 18।63" style=color:blue>*</balloon> काव्य-रूप में यह इसलिए लिखी गई है ताकि अन्यमनस्क श्रोता को अपनी ओर आकृष्ट कर सके।  
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*सम्राट कनिष्क के राजकवि अश्वघोष बौद्ध धर्म के कट्टर अनुयायी थे। इनकी रचनाओं पर बौद्ध धर्म एवम्  गौतम बुद्ध के उपदेशों का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। अश्वघोष ने धर्म का प्रसार करने के उद्देश्य से ही कविता लिखी थी। अपनी कविता के विषय में अश्वघोष की सुस्पष्ट उद्घोषणा है कि मुक्ति की चर्चा करनेवाली यह कविता शान्ति के लिए है, विलास के लिए नहीं।<ref>'इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भाकृति:'सौन्दरनन्द 18।63</ref> काव्य-रूप में यह इसलिए लिखी गई है ताकि अन्यमनस्क श्रोता को अपनी ओर आकृष्ट कर सके।  
*अश्वघोष बौद्ध-दर्शन-साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित थे। इनकी गणना उन कलाकारों की श्रेणी में की जाती है जो कला की यवनिका के पीछे छिपकर अपनी मान्यताओं को प्रकाशित करते हैं। इन्होंने कविता के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर जनसाधारण के लिए सरलता तथा सरलतापूर्वक सुलभ एवम् आकर्षक बनाने का सफल प्रयास किया है। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्धधर्म के सिद्धान्त प्रतिबिम्बित हुए हैं। भगवान बुद्ध के प्रति अपरिमित आस्था तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता महाकवि अश्वघोष के व्यक्तित्व की अन्यतम विशेषता है। अश्वघोष कवि होने के साथ ही संगीत मर्मज्ञ भी थे। उन्होंने अपने विचारों को प्रभावशाली बनाने के लिए काव्य के अतिरिक्त गीतात्मकता को प्रमुख साधन बनाया।<balloon title="Keith- History of Sanskrit Literature, Page 56" style=color:blue>*</balloon>
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*अश्वघोष बौद्ध-दर्शन-साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित थे। इनकी गणना उन कलाकारों की श्रेणी में की जाती है जो कला की यवनिका के पीछे छिपकर अपनी मान्यताओं को प्रकाशित करते हैं। इन्होंने कविता के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर जनसाधारण के लिए सरलता तथा सरलतापूर्वक सुलभ एवम् आकर्षक बनाने का सफल प्रयास किया है। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्धधर्म के सिद्धान्त प्रतिबिम्बित हुए हैं। भगवान बुद्ध के प्रति अपरिमित आस्था तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता महाकवि अश्वघोष के व्यक्तित्व की अन्यतम विशेषता है। अश्वघोष कवि होने के साथ ही संगीत मर्मज्ञ भी थे। उन्होंने अपने विचारों को प्रभावशाली बनाने के लिए काव्य के अतिरिक्त गीतात्मकता को प्रमुख साधन बनाया।<ref>Keith- History of Sanskrit Literature, Page 56</ref>
 
*बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान महाकवि अश्वघोष में शास्त्र और काव्य-सर्जन की समान प्रतिभा थी। उनके व्यक्तित्व में कवित्व तथा आचार्यत्व का मणिकांचन संयोग था। उन्होंने सज्रसूची, महायानश्रद्धोत्पादशास्त्र तथा सूत्रालंकार अथवा कल्पनामण्डितिका नामक धर्म और दर्शन विषयों के अतिरिक्त शारिपुत्रप्रकरण नामक एक रूपक तथा बुद्धचरित तथा सौन्दरनन्द नामक दो महाकाव्यों की भी रचना की। इन रचनाओं में बुद्धचरित महाकवि अश्वघोष का कीर्तिस्तम्भ है। इसमें कवि ने तथागत के सात्त्विक जीवन का सरल और सरस वर्णन किया है। 'सौन्दरनन्द' अश्वघोषप्रणीत द्वितीय महाकाव्य है। इसमें भगवान बुद्ध के अनुज नन्द का चरित वर्णित है। इन रचनाओं के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर उन्हें जनसाधारण के लिए सुलभ कराना ही महाकवि अश्वघोष का मुख्य उद्देश्य था। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्ध धर्म के सिद्धान्त सुस्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हैं। अश्वघोष प्रणीत महाकाव्यों में बुद्धचरित अपूर्ण तथा सौन्दरनन्द पूर्ण रूप में मूल संस्कृत में उपलब्ध है।  
 
*बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान महाकवि अश्वघोष में शास्त्र और काव्य-सर्जन की समान प्रतिभा थी। उनके व्यक्तित्व में कवित्व तथा आचार्यत्व का मणिकांचन संयोग था। उन्होंने सज्रसूची, महायानश्रद्धोत्पादशास्त्र तथा सूत्रालंकार अथवा कल्पनामण्डितिका नामक धर्म और दर्शन विषयों के अतिरिक्त शारिपुत्रप्रकरण नामक एक रूपक तथा बुद्धचरित तथा सौन्दरनन्द नामक दो महाकाव्यों की भी रचना की। इन रचनाओं में बुद्धचरित महाकवि अश्वघोष का कीर्तिस्तम्भ है। इसमें कवि ने तथागत के सात्त्विक जीवन का सरल और सरस वर्णन किया है। 'सौन्दरनन्द' अश्वघोषप्रणीत द्वितीय महाकाव्य है। इसमें भगवान बुद्ध के अनुज नन्द का चरित वर्णित है। इन रचनाओं के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर उन्हें जनसाधारण के लिए सुलभ कराना ही महाकवि अश्वघोष का मुख्य उद्देश्य था। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्ध धर्म के सिद्धान्त सुस्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हैं। अश्वघोष प्रणीत महाकाव्यों में बुद्धचरित अपूर्ण तथा सौन्दरनन्द पूर्ण रूप में मूल संस्कृत में उपलब्ध है।  
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06:29, 1 जून 2010 का अवतरण

संस्कृत में बौद्ध महाकाव्यों की रचना का सूत्रपात सर्वप्रथम महाकवि अश्वघोष ने ही किया था। अत: महाकवि अश्वघोष संस्कृत के प्रथम बौद्धकवि हैं। चीनी अनुश्रुतियों तथा साहित्यिक परम्परा के अनुसार महाकवि अश्वघोष सम्राट कनिष्क के राजगुरु एवम् राजकवि थे। इतिहास में कम से कम दो कनिष्कों का उल्लेख मिलता है। द्वितीय कनिष्क प्रथम कनिष्क का पौत्र था। दो कनिष्कों के कारण अश्वघोष के समय असंदिग्ध रूप से निर्णीत नहीं था।

  • विण्टरनित्स के अनुसार कनिष्क 125 ई॰ में सिंहासन पर आसीन हुआ था। तदनुसार अश्वघोष का स्थितिकाल भी द्वितीय शती ई॰ माना जा सकता है। परन्तु अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि कनिष्क शक संवत का प्रवर्तक है। यह संवत्सर 78 ई॰ से प्रारम्भ हुआ था। इसी आधार पर कीथ अश्वघोष का समय 100 ई॰ के लगभग मानते हैं। कनिष्क का राज्यकाल 78 ई॰ से 125 ई॰ तक मान लेने पर महाकवि अश्वघोष का स्थितिकाल भी प्रथम शताब्दी माना जा सकता है।
  • बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनके आधार पर अश्वघोष, सम्राट कनिष्क के समकालीन सिद्ध होते हैं। चीनी परम्परा के अनुसार सम्राट कनिष्क के द्वारा काश्मीर के कुण्डलव में आयोजित अनेक अन्त:साक्ष्य भी अश्वघोष को कनिष्क का समकालीन सिद्ध करते हैं।
  • अश्वघोष कृत 'बुद्धचरित' का चीनी अनुवाद ईसा की पांचवीं शताब्दी का उपलब्ध होता है। इससे विदित होता है कि भारत में पर्याप्त रूपेण प्रचारित होने के बाद ही इसका चीनी अनुवाद हुआ होगा।
  • सम्राट अशोक का राज्यकाल ई॰पू॰ 269 से 232 ई॰ पू॰ है, यह तथ्य पूर्णत: इतिहास-सिद्ध है। 'बुद्धचरित' के अन्त में अशोक का उल्लेख होने के कारण यह निश्चित होता है कि अश्वघोष अशोक के परवर्ती थे।
  • चीनी परम्परा अश्वघोष को कनिष्क का दीक्षा-गुरु मानने के पक्ष में है। अश्वघोष कृत 'अभिधर्मपिटक' की विभाषा नाम्नी एक व्याख्या भी प्राप्त होती है जो कनिष्क के ही समय में रची गयी थी।
  • अश्वघोष रचित 'शारिपुत्रप्रकरण' के आधार पर प्रो0 ल्यूडर्स ने इसका रचनाकाल हुविष्क का शासनकाल स्वीकार किया है। हुविष्क के राज्यकाल में अश्वघोष की विद्यमानता ऐतिहासिक दृष्टि से अप्रमाणिक है। इनका राज्यारोहणकाल कनिष्क की मृत्यु के बीस वर्ष के बाद है। हुविष्क के प्राप्त सिक्कों पर कहीं भी बुद्ध का नाम नहीं मिलता, किन्तु कनिष्क के सिक्कों पर बुद्ध का नाम अंकित है। कनिष्क बौद्धधर्मावलम्बी थे और हुविष्क ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। अत: अश्वघोष का उनके दरबार में विद्यमान होना सिद्ध नहीं होता।
  • कालिदास तथा अश्वघोष की रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि अश्वघोष कालिदास के परवर्ती थे। कालिदास की तिथि प्रथम शताब्दी ई॰ पू॰ स्वीकार करने से यह मानना पड़ता है कि दोनों रचनाओं में जो साम्य परिलक्षित होता है उससे कालिदास का ऋण अश्वघोष पर सिद्ध होता है। अश्वघोष के ऊपर कालिदास का प्रभूत प्रभाव पड़ा था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि कालिदास ने कुमारसंभव और रघुवंश में जिन श्लोंकों को लिखा, उन्हीं का अनुकरण अश्वघोष ने बुद्धचरित में किया है। कालिदास ने विवाह के बाद प्रत्यागत शिव-पार्वती को देखने के लिए उत्सुक कैलास की ललनाओं का तथा स्वयम्वर के अनन्तर अज और इन्दुमती को देखने के लिए उत्सुक विदर्भ की रमणियों का क्रमश: कुमारसंभव तथा रघुवंश में जिन श्लोकों द्वारा वर्णन किया है, उन्हीं के भावों के माध्यम से अश्वघोष ने भी राजकुमार सिद्धार्थ को देखने के लिए उत्सुक कपिलवस्तु की सुन्दरियों का वर्णन किया है। बुद्धचरित का निम्नश्लोक-
  • वातायनेभ्यस्तु विनि:सृतानि परस्परायासितकुण्डलानि।

स्त्रीणां विरेजुर्मुखपङकजानि सक्तानि हर्म्येष्विव पङकजानि॥[1] कुमारसंभव तथा रघुवंश के निम्नश्लोक-

  • तासां मुखैरासवगन्धगर्भैर्व्याप्तान्तरा सान्द्रकुतूहलानाम्।

विलोलनेत्रभ्रमरैर्गवाक्षा: सहस्रपत्राभरणा इवासन्।[2] की प्रतिच्छाया है। उपर्युक्त श्लोकद्वय के तुलनात्मक अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि अश्वघोष कालिदास के ऋणी थे, क्योंकि जो मूल कवि होता है वह अपने सुन्दर भाव को अनेकत्र व्यक्त करता है। उस भाव का प्रचार-प्रसार चाहता है इसीलिए कालिदास ने कुमारसंभव और रधुवंश में अपने भाव को दुहराया है। परन्तु अश्वघोष ने कालिदास का अनुकरण किया है। अत: उन्होंने एक ही बार इस भाव को लिया है। फलत: अश्वघोष कालिदास से परवर्ती हैं।

व्यक्तित्व तथा कर्तृव्य

संस्कृत के प्रथम बौद्ध महाकवि अश्वघोष के जीवनवृत्त से सम्बन्धित अत्यल्प विवरण ही प्राप्त है। 'सौन्दरनन्द' नामक महाकाव्य की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था तथा ये साकेत के निवासी थे। ये महाकवि के अतिरिक्त 'भदन्त', 'आचार्य' तथा 'महावादी' आदि उपाधियों से विभूषित थे।[3] उनके काव्यों की अन्तरंग परीक्षा से ज्ञात होता है कि वे जाति से ब्राह्मण थे तथा वैदिक साहित्य, महाभारत-रामायण के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनका 'साकेतक' होना इस तथ्य का परिचायक है कि उन पर रामायण का व्यापक प्रभाव था।

  • सम्राट कनिष्क के राजकवि अश्वघोष बौद्ध धर्म के कट्टर अनुयायी थे। इनकी रचनाओं पर बौद्ध धर्म एवम् गौतम बुद्ध के उपदेशों का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। अश्वघोष ने धर्म का प्रसार करने के उद्देश्य से ही कविता लिखी थी। अपनी कविता के विषय में अश्वघोष की सुस्पष्ट उद्घोषणा है कि मुक्ति की चर्चा करनेवाली यह कविता शान्ति के लिए है, विलास के लिए नहीं।[4] काव्य-रूप में यह इसलिए लिखी गई है ताकि अन्यमनस्क श्रोता को अपनी ओर आकृष्ट कर सके।
  • अश्वघोष बौद्ध-दर्शन-साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित थे। इनकी गणना उन कलाकारों की श्रेणी में की जाती है जो कला की यवनिका के पीछे छिपकर अपनी मान्यताओं को प्रकाशित करते हैं। इन्होंने कविता के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर जनसाधारण के लिए सरलता तथा सरलतापूर्वक सुलभ एवम् आकर्षक बनाने का सफल प्रयास किया है। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्धधर्म के सिद्धान्त प्रतिबिम्बित हुए हैं। भगवान बुद्ध के प्रति अपरिमित आस्था तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता महाकवि अश्वघोष के व्यक्तित्व की अन्यतम विशेषता है। अश्वघोष कवि होने के साथ ही संगीत मर्मज्ञ भी थे। उन्होंने अपने विचारों को प्रभावशाली बनाने के लिए काव्य के अतिरिक्त गीतात्मकता को प्रमुख साधन बनाया।[5]
  • बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान महाकवि अश्वघोष में शास्त्र और काव्य-सर्जन की समान प्रतिभा थी। उनके व्यक्तित्व में कवित्व तथा आचार्यत्व का मणिकांचन संयोग था। उन्होंने सज्रसूची, महायानश्रद्धोत्पादशास्त्र तथा सूत्रालंकार अथवा कल्पनामण्डितिका नामक धर्म और दर्शन विषयों के अतिरिक्त शारिपुत्रप्रकरण नामक एक रूपक तथा बुद्धचरित तथा सौन्दरनन्द नामक दो महाकाव्यों की भी रचना की। इन रचनाओं में बुद्धचरित महाकवि अश्वघोष का कीर्तिस्तम्भ है। इसमें कवि ने तथागत के सात्त्विक जीवन का सरल और सरस वर्णन किया है। 'सौन्दरनन्द' अश्वघोषप्रणीत द्वितीय महाकाव्य है। इसमें भगवान बुद्ध के अनुज नन्द का चरित वर्णित है। इन रचनाओं के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर उन्हें जनसाधारण के लिए सुलभ कराना ही महाकवि अश्वघोष का मुख्य उद्देश्य था। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्ध धर्म के सिद्धान्त सुस्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हैं। अश्वघोष प्रणीत महाकाव्यों में बुद्धचरित अपूर्ण तथा सौन्दरनन्द पूर्ण रूप में मूल संस्कृत में उपलब्ध है।

टीका टिप्पणी

  1. (बुद्धचरित 3।19)
  2. कुमारसंभव 7।62, रघुवंश7।11
  3. आर्य सुवर्णाक्षीपुत्रस्य साकेतकस्य भिक्षोराचार्य भदन्ताश्वघोषस्य महाकवेर्महावादिन: कृतिरियम्। (अश्वघोष- सौन्दरनन्द की पुष्पिका
  4. 'इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भाकृति:'सौन्दरनन्द 18।63
  5. Keith- History of Sanskrit Literature, Page 56

साँचा:बौद्ध दर्शन

सम्बंधित लिंक

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