महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 131-146

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प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिकापर्व)

महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 131-146 का हिन्दी अनुवाद

भगवान श्रीकृष्‍ण की सुन्‍दर नीति और भीमसेन तथा अर्जुन की शक्ति से बल के घमण्‍ड में चूर रहने वाले जरासन्‍ध और चेदिराज शिशुपाल को मरवाकर धर्मराज युधिष्ठिर ने महायज्ञ राजसूय का सम्‍पादन किया। वह यज्ञ सभी उत्तम गुणों से सम्‍पन्‍न था। उसमें प्रचुर अन्न और पर्याप्‍त दक्षिणा का वितरण किया गया था। उस समय इधर- उधर विभिन्न देशों तथा नृपतियों के यहाँ से मणि, सुवर्ण, रत्न, गाय, हाथी, घोड़े, धन-सम्पत्ति, विचित्र वस्त्र, तम्बू, कनात, परदे, उत्तम कम्बल, श्रेष्ठ मृगचर्म तथा रंकुनामक मृग के बालों से बने हुए कोमल बिछौने आदि जो उपहार की बहुमूल्य वस्तुएँ आतीं, वे दुर्योधन के हाथ में दी जातीं- उसी की देख-रेख में रखी जाती थीं।

उस समय पाण्डवों की वह बढ़ी- चढ़ी समृद्धि, सम्पत्ति देखकर दुर्योधन के मन में ईर्ष्‍या जनित महान् रोष एवं दुःख का उदय हुआ। उस अवसर पर मयदान ने पाण्डवों को एक सभा भवन भेंट में दिया था, जिसकी रूप- रेखा विमान के समान थी। वह भवन उसके शिल्प कौशल का एक अच्छा नमूना था। उसे देखकर दुर्योधन को और अधिक संताप हुआ। उसी सभा भवन में जब सम्भ्रम (जल में स्थल और स्थल में जल का भ्रम) होने के कारण दुर्योधन के पाँव फिसलने से लगे, तब भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही भीमसेन ने उसे गँवार सा सिद्ध करते हुए उसकी हँसी उड़ायी थी। दुर्योधन नाना प्रकार के भोग तथा भाँति-भाँति के रत्नो का उपयोग करते रहने पर भी दिनों- दिन दुबला रहने लगा। उसका रंग फीका पड़ गया। इसकी सूचना कर्मचारियों ने महाराज धृतराष्ट्र को दी। धृतराष्ट्र अपने उस पुत्र के प्रति अधिक आसक्त थे, अतः उसकी इच्छा जानकर उन्होंने उसे पाण्डवों के साथ जुआ खेलने की आज्ञा दे दी। जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह समाचार सुना, तब उन्हें धृतराष्ट्र पर बड़ा क्रोध आया। यद्यपि उनके मन में कलह की सम्भावना के कारण कुछ विशेष प्रसन्नता नहीं हुई, यथापि उन्होंने (मौन रहकर) इन विवादों का अनुमोदन ही किया और भिन्न-भिन्न प्रकार के भयंकर अन्याय, द्यूत आदि को देखकर भी उनकी उपेक्षा कर दी। (इस अनुमोदन या उपेक्षा का कारण यह था कि वे धर्मनाशक दुष्ट राजाओं का संहार चहाते थे।) अतः उन्हें विश्वास था कि इस विग्रह जनित महान् युद्ध में विदुर, भीष्म,, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य की अवहेलना करके सभी दुष्ट क्षत्रिय एक दूसरे को अपनी क्रोधाग्रि में भस्म कर डालेंगे। जब युद्ध में पाण्डवों की जीत होती गयी, तब यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर तथा दुर्योधन, कर्ण और शकुनि के दुराग्रह पूर्ण निश्चित विचार जानकर धृतराष्ट्र बहुत देर तक चिन्ता में पड़े रहे। फिर उन्होंने संजय से कहा-‘संजय ! मेरी सब बातें सुन लो। फिर इस युद्ध या विनाश के लिये तुम मुझे दोष न दे सकोगे। तुम विद्वान, मेधावी, बुद्धिमान और पण्डित के लिये भी आदरणीय हो। इस युद्ध में मेरी सम्मति बिल्कुल नहीं थी और यह जो हमारे कुल का विनाश हो गया है, इससे मुझे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई है। मेरे लिये अपने पुत्रों और पाण्डवों में कोई भेद नहीं था। किन्तु क्या करूँ? मेरे पुत्र क्रोध के वशीभूत हो मुझ पर ही दोषारोपण करते थे और मेरी बात नहीं मानते थे। मैं अंधा हूँ, अतः कुछ दीनता के कारण और कुछ पुत्रों के प्रति अधिक आसक्ति होने से भी वह सब अन्याय सहता आ रहा हूँ। मन्द बुद्धि दुर्योधन जब मोहवश दुखी होता था, तब मैं भी उसके साथ दुखी हो जाता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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