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तुम आती हो,
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जाके लिए घर आई घिघाय, करी मनुहारि उती तुम गाढ़ी
नव अंगों का
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आजु लखैं उहिं जात उतै, न रही सुरत्यौ उर यौं रति बाढ़ी
शाश्वत मधु-विभव लुटाती हो।
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ता छिन तैं तिहिं भाँति अजौं, न हलै न चलै बिधि की लसी काढ़ी
 
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वाहि गँवा छिनु वाही गली तिनु, वैसैहीं चाह (बै) वैसेही ठाढ़ी ।।  
बजते नि:स्वर नूपुर छम-छम,
 
सांसों में थमता स्पंदन-क्रम,
 
तुम आती हो,
 
अंतस्थल में
 
शोभा ज्वाला लिपटाती हो।
 
 
 
अपलक रह जाते मनोनयन
 
कह पाते मर्म-कथा वचन,
 
तुम आती हो,
 
तंद्रिल मन में
 
स्वप्नों के मुकुल खिलाती हो।
 
 
 
अभिमान अश्रु बनता झर-झर,
 
अवसाद मुखर रस का निर्झर,
 
तुम आती हो,
 
आनंद-शिखर
 
प्राणों में ज्वार उठाती हो।
 
 
 
स्वर्णिम प्रकाश में गलता तम,
 
स्वर्गिक प्रतीति में ढलता श्रम
 
तुम आती हो,
 
जीवन-पथ पर
 
सौंदर्य-रहस बरसाती हो।
 
 
 
जगता छाया-वन में मर्मर,
 
कंप उठती रुध्द स्पृहा थर-थर,
 
तुम आती हो,
 
उर तंत्री में
 
स्वर मधुर व्यथा भर जाती हो।  
 
 
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==संबंधित लेख==
 
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07:06, 8 सितम्बर 2011 का अवतरण

जाके लिए घर आई घिघाय -बिहारी लाल
बिहारी लाल
कवि बिहारी लाल
जन्म 1595
जन्म स्थान ग्वालियर
मृत्यु 1663
मुख्य रचनाएँ बिहारी सतसई
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
बिहारी लाल की रचनाएँ

जाके लिए घर आई घिघाय, करी मनुहारि उती तुम गाढ़ी
आजु लखैं उहिं जात उतै, न रही सुरत्यौ उर यौं रति बाढ़ी
ता छिन तैं तिहिं भाँति अजौं, न हलै न चलै बिधि की लसी काढ़ी
वाहि गँवा छिनु वाही गली तिनु, वैसैहीं चाह (बै) वैसेही ठाढ़ी ।।

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