थॉमस अक्वाइनस

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थॉमस अक्वाइनस

थॉमस अक्वाइनस इटली का एक महान् दार्शनिक था। थॉमस अक्वाइनस का जन्म नेपल्ज के निकट रोकासैका, (इटली) नामक स्थान में हुआ था। जन्म तिथि के सम्बन्ध में मतभेद है। सम्भवत: यह 1224 का अन्त हो या 1225 का प्रारम्भ। उनके पिता सम्मानित सामन्त थे। परिवार अभिजात वर्ग का था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा मॉन्टे कैसीनो में हुई थी। 1239 में उनका नामांकन नेपल्ज विश्वविद्यालय में हुआ। 1244 में उन्होंने पादरी वृत्ति स्वीकार कर ली। 1245 में वे अध्ययन हेतु पेरिस गए, जहाँ बाद में उन्होंने अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। 1259 में उन्हें पोप के निकट ही धर्म दर्शन के अध्यापन का कार्य मिला। प्राय: दस वर्षों तक वे इटली के विभिन्न धर्म केन्द्रों में अध्ययन-अध्यापन कार्य में रत रहे। 1268 से 1272 तक वे पुन: पेरिस विश्वविद्यालय से सम्बन्ध रहे। कहा जाता है कि 1273 में उन्हें रहस्यात्मक अनुभव प्राप्त हुए। 49 वर्ष की अवस्था में नेपल्ज में उनकी मृत्यु हुई।

आस्था एवं तर्कबुद्धि

संत थॉमस के पहले के ईसाई विचारकों (शायद संत ऑगस्टीन जैसे कुछ एक अपवादों को छोड़कर) की सामान्य धारणा थी कि बौद्धिकता के लिए धर्म में स्थान नहीं है, एक तो इस कारण कि शुद्ध बौद्धिक दृष्टिकोण आस्था के महत्त्व को नहीं समझ पाता, दूसरे इस कारण कि आस्था को तर्क बृद्धि के सहारे की आवश्यकता नहीं होती, जबकि ज्ञान की उपलब्धि के लिए आस्था आवश्यक है। किन्तु अक्वाइनस को आस्था एवं तर्क बुद्धि के बीच कोई विरोध या असंगति दिखाई नहीं दी। वे स्वीकार करते हैं कि कुछ मुख्य धार्मिक तत्त्व तर्क बुद्धि के द्वारा नहीं जाने जा सकते, उनका ज्ञान मूलत: रहस्यात्मक दिव्य अनुभव पर ही निर्भर होता है। किन्तु उनका कहना है कि ऐसे सत्व भी हैं, जिनका ज्ञान तर्क बुद्धि प्राप्त कर सकती है। आस्था एवं तर्क बुद्धि के स्वरूप तथा पारस्परिक सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए संत थॉमस ने तीन प्रकार के सत्यों का उल्लेख किया है-

  1. वे रहस्यात्मक दिव्य अनुभव जिनकी बौद्धिक उपलब्धि सम्भव नहीं है
  2. धर्म के सहज सत्य (जैसे, ईश्वर का अस्तित्व) जिनका रहस्यात्मक अनुभव भी सम्भव है और बौद्धिक ज्ञान भी
  3. कुछ ऐसे आनुभविक एवं वैज्ञानिक तथ्य जिनका स्पष्ट बौद्धिक ज्ञान सम्भव है।

वैसे संत थॉमस ईश्वर को ही सभी सत्यों का स्रोत मानते हैं। कुछ सत्य तो ईश्वर के द्वारा साक्षात् ढंग से प्रदत्त हैं- श्रुत (इलहामी) हैं, तथा कुछ सत्यों की जानकारी को हम ईश्वर के द्वारा दी गई शक्तियों के माध्यम से स्वयं प्राप्त करते हैं। संत थॉमस की भाषा में प्रथम ज्ञान ईश्वरीय है तथा दूसरा मानवीय। कुछ ऐसे भी ज्ञान सम्भव हैं जो एक दृष्टि से ईश्वरीय तथा दूसरी दृष्टि से मानवीय। ईश्वर का अस्तित्व उसी प्रकार का ज्ञान है। यह श्रुत (इलहामी) ज्ञान है, साथ ही इसकी स्थापना मानवीय ज्ञान के आधार पर बौद्धिक युक्तियों के द्वारा भी की जा सकती है। इस दृष्टि से भी ज्ञान के तीन ही रूप दिखाई देते हैं।

दार्शनिक विचार

49 वर्ष के जीवन काल में ही थॉमस अक्वाइनस ने अनेक पुस्तकों की रचना कर डाली। उनकी अपूर्ण किन्तु प्रमुख पुस्तक 'सुमा थियोलॉजिका' का दर्शन और चिन्तन के इतिहास में विशिष्ट स्थान है। उन्होंने धार्मिक विचारों को बौद्धिक आधार तथा दार्शनिक पृष्ठभूमि देने की चेष्टा की।

ज्ञानमीमांसा

संत थॉमस के अनुसार ज्ञान, एवं ज्ञेय का एक विशेष प्रकार का सम्बन्ध है, जिसमें ज्ञेय अपनी छाप ज्ञाता पर छोड़ता है। ज्ञेय के द्वारा जो परिवर्तन ज्ञाता में उत्पन्न होता है, वह न तो पूर्णतया भौतिक है, न पूर्णतया अभौतिक है। संत थॉमस उसे जैविक सम्बन्ध मानते हैं। यह भौतिक तो नहीं ही है, क्योंकि आँखेंं रंग देखकर रंगीन नहीं हो जातीं। जिस प्रकार 'लाह' पर छाप अंकित हो जाती है, उसी प्रकार विषय का रूप मन में छा जाता है तथा ज्ञाता विषय का ज्ञान पा लेता है। इसी कारण कहा जाता है कि ज्ञान में ज्ञाता एवं ज्ञेय एक हो जाते हैं। इस एक होने का अर्थ पूर्ण ऐक्य की स्थापना नहीं है, बल्कि केवल यह है कि ज्ञेय ज्ञाता के ज्ञान का एक अंश, एक अंग बन जाता है। साधारण ज्ञान के निम्नलिखित स्रोत माने जा सकते हैं :- (क) एंद्रिय ज्ञान (ख) प्रज्ञात्मक ज्ञान (ग) आप्त पुरुष का पंथों से प्राप्त ज्ञान (च) मन में निहित शक्तियों के द्वारा स्थापित सत्यों का ज्ञान।

वैसे संत थॉमस स्वीकार करते हैं कि हमारा साधारण ज्ञान, बाह्य जगत् का ज्ञान, ऐंद्रिय ज्ञान पर आश्रित होता है। यदि ज्ञानेन्द्रियाँ न होतीं तो मन बाह्य वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त न कर पाता। प्रज्ञात्मक ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त तत्त्वों के विश्लेषण संश्लेषण से प्राप्त होता है। तर्क बुद्धि कभी कभी इसी ज्ञान के आधार पर प्रमाणित अन्य सत्यों की स्थापना भी कर लेती है। इसे तर्क बुद्धिपरक ज्ञान कहा जाता है। साधारण जीवन में उपरोक्त सभी प्रकार के ज्ञान की उपयोगिता है। वस्तुत: स्वयं अपने स्तर (नैसर्गिक स्तर) पर ज्ञाता-ज्ञान ज्ञेय की एक समय श्रृंखला तैयार करती है, जो उस रूप में पूर्ण है। इस सीमित अर्थ में वे मनुष्य और निसर्ग की आपेक्षिक स्वतंत्रता स्वीकार करते हैं, जो उस समय निश्चय ही एक क्रांतिकारी विचार था और जिस पर स्पष्टत: अरस्तु के विचारों की छाप थी। किन्तु दूसरी ओर धार्मिक अनुभूति या ईश्वर के ज्ञान के लिए आस्था अनिवार्य है। आस्था एवं ज्ञान के उपरोक्त ढंगों में विरोध नहीं है, उचित ज्ञानोपार्जन से आस्था को बल ही मिलता है। इसी विश्वास से संत थॉमस ने अपनी तत्वमीमांसा में भी आस्था को केन्द्रीय स्थान दिया है तथा उसके बौद्धिक पहलू को उभारने की चेष्टा की है।

तत्वमीमांसा

थॉमस अक्वाइनस

संत थॉमस की तत्वमीमांसा मूलत: उनके धर्म दर्शन पर आधारित है, किन्तु उस पर ग्रीक दर्शन का भी स्पष्ट प्रभाव है। उसी प्रभाव से वे कहते हैं कि परम तत्व शुद्ध भाव है। इस शुद्ध भाव की परिभाषा नहीं दी जा सकती, किन्तु कहा जा सकता है कि हर अस्तित्ववान तत्व भाव है। इस दृष्टि से ईश्वर भी भाव है। संत थॉमस के अनुसार सभी सत्तावान तत्व सम्भाव्यता एवं वास्तविकता के सम्मिश्रण रूप हैं। मूल उपादान (मेटीरिया प्राइमा) में सभी सम्भावनाएं निहित हैं। ईश्वर में सभी सम्भावनाएं पूर्ण तथा व्यक्त हैं। अन्य सत्ताएं इन्हीं दो छोरों के बीच की सत्ताएं हैं।

(1) ईश्वर-

संत थॉमस का कहना है कि ईश्वर पूर्ण सत्ता है, क्योंकि सत्ता की सभी सम्भावनाएं इसमें पूर्णतया व्यक्त हैं (ऐक्टस प्यूरस)। सच पूछा जाये तो ईश्वर को अस्तित्ववान सिद्ध करने की आवश्यकता भी नहीं। ईश्वर अस्तित्ववान है, यह वाक्य वास्तविक अर्थ में विश्लेषणात्मक वाक्य है। यदि ईश्वर का अवबोध हो तो ईश्वर अस्तित्व स्वत: सिद्ध प्रतीत होगा। किन्तु साधारण बुद्धि को इस प्रकार का पूर्ण अवबोध नहीं होता। अत: ईश्वर के अस्तित्व को बोधगम्य बनाने के लिए युक्तियों की आवश्यकता हो जाती है। संत थॉमस, संत एन्सेल्म के द्वारा दी गई प्रत्यय सत्ता युक्ति को मान्यता नहीं देते, किन्तु उन्होंने स्वयं ईश्वर के अस्तित्व के समर्थन में पांच प्रमुख युक्तियाँ दीं, जिन्हें पाश्चात्य दर्शन में बड़ा महत्त्व दिया गया है।

  1. उन्होंने गति के स्वरूप के विश्लेषण के आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने की चेष्टा की। हर गतिमान वस्तु को गति किसी अन्य से मिलती है, और यह तभी सम्भव होता है, जब उस अन्य को दूसरा गतिशील करे। अत: मानना पड़ता है कि गति के अन्तिम कारण के रूप में कोई आद्य चालक (प्राइम मूवर) अवश्य है। उसे ही ईश्वर की संज्ञा दी जाती है।
  2. विश्व का स्वरूप कार्य रूप है, हर कार्य का कोई निमित्त कारण होता है। अत: विश्व के निमित्त कारण के रूप में ईश्वर को मानना पड़ता है।
  3. विश्व के हर तत्व में निर्भरता है। हर तत्व किसी अन्य तत्व पर निर्भर करता है। इस निर्भरता का कोई चरम आधार अवश्य है, जो किसी अन्य पर निर्भर न करे। वही अनिवार्य आधार ईश्वर है।
  4. विश्व के तत्वों में पूर्णता और अपूर्णता का क्रम दिखलाई देता है। एक तत्व अधिक अपूर्ण प्रतीत होता है तो दूसरा अधिक पूर्ण। अत: मानना पड़ता है कि पूर्णता की एक पराकाष्ठा भी है, जिसके अनुसार ही पूर्णता और अपूर्णता का क्रम निर्धारित होता है। उसी परम पूर्ण को ईश्वर कहते हैं।
  5. विश्व में संगठन, सामंजस्य तथा व्यवस्था दिखाई देती है। अत: यह स्वीकारना पड़ता है कि कोई पूर्ण शक्ति इस संगठन एवं सामंजस्य की व्यवस्थापक है।

इस प्रकार की युक्तियों के द्वारा हम यह जान सकते हैं कि ईश्वर है, किन्तु ईश्वर के अस्तित्व का पूर्ण अवबोध तर्क बुद्धि के द्वारा सम्भव नहीं है। फिर भी तर्क बुद्धि अपने अपूर्ण ढंग से ही ईश्वर भाव की अपनी अवधारणा बना लेती है और इसमें सामान्यत: सादृश्य तथा निषेध के नियमों का सहारा लेती है। सादृश्य का अर्थ यह है कि सीमित गुणों एवं लक्षणों की जानकारी के आधार पर हम उन्हीं गुणों की असीमता का प्रत्यय बना लेते हैं तथा उन असीम गुणों को ईश्वर का लक्षण मान लेते हैं। इसी प्रकार हर सीमित गुण का ईश्वर भाव से निषेध किया जाता है और इस ढंग से निषेधात्मक रूप में ईश्वर भाव को समझने की चेष्टा होती है। इसी आधार पर ईश्वर के गुणों का विवरण दिया जाता है तथा ईश्वर को एक पूर्ण, नित्य अपरिवर्तनशील, विश्व का स्रष्टा एवं रक्षक आदि बताया जाता है। यह कहा जा सकता है कि ईश्वर ने सभी जीवों की सृष्टि अपने मन में स्थित मूल प्रतिमान (एक्जेम्पलर) के अनुरूप की। जीव तथा जगत् उसी से संचालित हैं तथा वे अन्तत: उसी में लीन भी हो जायेंगे।

(2) जगत-

जगत ईश्वर के द्वारा निर्मित है। उसके निर्माण के लिए किसी अन्य द्रव्य को मानने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ईश्वर शून्य से भी सृष्टि कर सकता है। तर्क बुद्धि के द्वारा जगत् की उत्पत्ति का पूर्ण ज्ञान सम्भव नहीं है। सामान्यत: समष्टि रूप में जगत् को 'शुभ' कहा जा सकता है। जगत् विकास का क्रम शुभ है, किन्तु इस जगत् को सर्वोत्तम जगत् कहना अयुक्त है, क्योंकि यदि यह जगत् सर्वोत्तम है तो इसका यही अर्थ है कि इससे श्रेष्ठतर जगत् की सृष्टि ईश्वर की शक्ति के परे है। दिक् और काल के स्वरूप के सम्बन्ध में भी संत थॉमस के विचार मौलिक हैं। दिक् वास्तविक हैं, किन्तु इसे बाह्य ढांचे के रूप में नहीं समझना चाहिए। दिक् का अस्तित्ववान वस्तुओं से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है। दिक् असीम भी नहीं है, क्योंकि यह सृष्टि का एक अवयव है। काल को भी वस्तुनिष्ठ प्रवाह के रूप में नहीं स्वीकारा गया है। वस्तुओं में अनुक्रम का सम्बन्ध मन के द्वारा जोड़ा जाता है, अत: मन ही काल के अनुक्रम का निर्धारक है।

(3) आत्मा-

अक्वाइनस के अनुसार मनुष्य भौतिक-अभौतिक दोनों तत्वों का सम्मिश्रण है। आत्मा अभौतिक है, किन्तु आत्मा की अनेक क्रियाएं शरीर के माध्यम से होती हैं। इसी कारण मानव को आत्मा एवं शरीर का संगठन माना गया है। संत थॉमस मानते हैं कि शारीरिक व्यवहार की व्याख्या आनुभविक एवं भौतिक तत्वों के द्वारा हो सकती है, किन्तु आत्मा की पूर्ण व्याख्या केवल भौतिक तत्वों के द्वारा सम्भव नहीं है। आत्मा के सम्बन्ध में संत थॉमस यह मानते हैं कि आत्मा की सृष्टि हुई है, परन्तु साथ ही यह भी मानते हैं कि आत्मा अमर है। उन्हें इसमें कोई विरोधाभास दिखाई नहीं देता। यह एक अभौतिक तत्व है, किन्तु सृजन के समय ही ईश्वरीय इच्छा शक्ति के द्वारा इसका संगठन शरीर के साथ हो गया, किन्तु शरीर के साथ आत्मा का नाश नहीं होता। आत्मा की अमरता के पक्ष में उनकी एक युक्ति यह है कि आत्मा अभौतिक होने के कारण भौतिक तत्वों के समान दूषित या खंडित नहीं हो सकता। अत: उसके नष्ट होने का प्रश्न ही नहीं उठता। उनका एक तर्क बड़ा रोचक है। उनका कहना है कि ज्ञान, सत्कर्म, सद्गुण, पूर्णता ये सभी आत्मा को भौतिकता से दूर हटाते हैं तथा पूर्णता की ओर ले चलते हैं। अत: मृत्यु जिसमें आत्मा का भौतिकता से पूर्ण वियोग हो जाता हैं, आत्मा का विनाश कर सकने वाली नहीं हो सकती। संत थॉमस यह भी कहते हैं कि आत्मा की अमरता में विश्वास जीवन में शुभ कर्म करने का प्रेरक होता है।

नीति दर्शन

संत थॉमस के अनुसार हर इच्छा तथा हर मानवीय कार्य का सहज एवं स्वाभाविक लक्ष्य शुभ रूप है, आनन्द है। परम शुभ ईश्वर ही है, जीवन का परम लक्ष्य परम शुभ की प्राप्ति है। अत: ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति सर्वोत्तम पुरुषार्थ है। इस प्रकार का आनन्द सबको इसी जीवन में प्राप्त हो जाए, यह नहीं भी हो सकता। किन्तु इस आनन्द की आंशिक प्राप्ति सबको हो सकती है। उसके लिए धार्मिक नैतिकता का मार्ग सद्गुणों की प्राप्ति अनिवार्य है। संत थॉमस सांसारिकता एवं धार्मिक नैतिकता में समन्वय करते हैं। उनके अनुसार भौतिक सुख (स्वास्थ्य, धन आदि) वांछनीय है तथा वे भी आनन्द के ही रूप हैं। किन्तु इनकी प्राप्ति शुद्ध हृदय तथा शुभ अभिप्राय से करने का प्रयत्न होना चाहिए। धार्मिक सद्गुणों के अन्तर्गत आस्था, सेवा, प्रेम आदि आते हैं। इस प्रकार के जीवन-यापन से इस जीवन में भी आनन्द की प्राप्ति हो सकती है।

समाज तथा राजनीति दर्शन

सम्पत्ति-

संत थॉमस के समय एक प्रचलित मत यह था कि सम्पत्ति रखना पाप है। आदर्श समाज की हर सम्पत्ति समाज की होती है, व्यक्ति की नहीं। बारहवीं शताब्दी के कुछ विचारकों ने आवश्यकता एवं स्वामित्व में अन्तर किया तथा कुछ अनिवार्य सम्पत्ति को आवश्यकता के अन्तर्गत रख लिया। उसी समय अरस्तु के पालिटिक्स का अनुवाद हुआ। संत थॉमस ने अरस्तु के विचारों का अपने ढंग से समर्थन किया। उन्होंने कहा कि सामाजिक व्यवस्था के लिए भी सम्पत्ति अर्जित करना अनिवार्य है। संकटकालीन अवस्था में सम्पत्ति पर समानाधिकार स्वीकारा जा सकता है। उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि अत्यन्त संकट में आवश्यकतानुसार अन्य की सम्पत्ति से कुछ ले लेना पाप नहीं है।

व्यापार-

प्रारम्भिक मध्य काल में व्यापार समाज का एक मान्य अंश था, किन्तु जैसे जैसे व्यापार तथा व्यापारी वर्ग बढ़ता गया, उनके विरुद्ध प्रतिक्रियाएं आरम्भ हो गईं। बारहवीं शताब्दी तक ईसाई विचारक व्यापारी वर्ग के प्रति अनुदार हो गए और उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि ईसाई धर्मावलम्बी को व्यापारी नहीं होना चाहिए। संत थॉमस का मत भी कुछ इसी ढंग का है, किन्तु उन्होंने इस संदर्भ में कुछ नये विकल्पों को प्रस्तुत किया। राज्य को अधिक व्यापार को प्रोत्साहन न देकर पूर्णतया आत्म निर्भर होने की चेष्टा करनी चाहिए, क्योंकि व्यापारी वर्ग पर निर्भरता बढ़ने से विशेषत: युद्धकालीन स्थिति में खाद्य सामग्री भी दुर्लभ हो जाती है। कुछ अनिवार्य व्यापार की अनुशंसा उन्होंने की है। इस संदर्भ में उन्होंने उचित मूल्य तथा व्याजखोरी पर बड़े मौलिक विचार दिये हैं। मध्यकालीन विचारकों के अनुसार उचित मूल्य विक्रेता के लागत के बराबर होता है। यदि कोई लागत से अधिक मूल्य लेता है तो पाप का भागी है। संत थॉमस इसका समर्थन करते हैं, किन्तु वे कुछ अपवाद भी मानते हैं। वस्तुत: उन्होंने लागत शब्द के अर्थ में ही कुछ परिमार्जन कर दिया। उदाहरणत: बिक्री की वस्तु से अलग होना भी विक्रेता के लिए कुछ कमी, कुछ हानि का सूचक है। अत: यह भी लागत मूल्य में वृद्धि हो सकती है। स्पष्ट है कि अर्थशास्त्रीय लागत की अवधारणा का प्रारम्भिक रूप संत थॉमस के विचारों में ही उभरा है।

ऋण-

दान तथा व्याजखोरी की समस्या पर भी संत थॉमस ने अपने विचार दिए हैं, जो बाद के समाज दर्शन के लिए बड़े महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए। साधारणत: व्याजखोरी को उस समय भी पाप ही माना जाता था। वैसे, समाज में ऋण दान एवं व्याजखोरी का प्रचलन प्राय: स्वाभाविक ही था। संत थॉमस ने इस संदर्भ में दो प्रकार की वस्तुओं में भेद किया। एक प्रकार तो ऐसी वस्तुओं का जिनके उपभोग से व्यय नहीं होता (जैसे मकान) स्पष्ट है कि केवल दूसरे प्रकार की वस्तुओं में मालिक एवं उपभोक्ता भिन्न हो सकते हैं। पैसा प्रथम कोटि की वस्तु है। अत: ऋण देने वाले जो मूल के साथ सूद भी वसूलते हैं, दूहरा लाभ उठा रहे हैं। क्योंकि वे उस पैसे से अपना व्यापार भी करते हैं। यह पाप है, लेकिन कुछ अवधि तक उनका पैसा उनके पास नहीं रहता। इस दृष्टि से उनकी कुछ क्षतिपूर्ति की जा सकती है।

राज्य-

संत थॉमस का कहना है कि सार्वजनिक शुभ की उपलब्धि के लिए राज्य की आवश्यकता होती है। सभी राजकीय नियमों का उद्देश्य सार्वजनिक शुभ ही होता है। विधि नैतिकता का बाह्य रूप है। राजकीय विधियाँ ही राज्य की संरचना का आधार हैं। अत: यदि राज्य सार्वजनिक सुख-सुविधा की उपेक्षा करे तो इन विधियों का उल्लंघन हो जाता है तथा राज्य का स्वरूप अन्यायपूर्ण बन जाता है। इसी कारण संत थॉमस कहत हैं कि राज्य का लक्ष्य आर्थिक तथा भौतिक सुख साधनों की उपलब्धि के साथ साथ नैतिक कार्यों को रूप देना भी है। यह देखना है कि नागरिक की शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था है। कभी कभी राज्य के एंग अनैतिक हो जाते हैं। अत: राज्य शक्ति पर कुछ प्रतिबंध भी अनिवार्य हो जाता है। संत थॉमस के अनुसार यह धर्म के द्वारा संभव हो सकता है। धर्म जनता को अनैतिक कार्यों के प्रति जागरुक कर सकता है। दूसरा प्रतिबंध जनमत के द्वारा सम्भव है। जनमत अत्याचार का प्रतिपाद कर सकता है। संत थॉमस राज्य के किसी विशेष रूप की अनुशंसा तो नहीं करते, किन्तु उनके लेखों से प्राय: स्पष्ट है कि उनके अनुसार एक व्यक्ति के द्वारा संचालित राज्य में सामाजिक व्यवस्था एवं संगठन अधिक सुलभ होता है। उनके अनुसार राज्य का रूप महत्त्वपूर्ण नहीं, महत्त्वपूर्ण है यह तथ्य कि राज्य संचालक राज्य के लक्ष्यों की प्राप्ति में रत है या नहीं।

संत थॉमस का ऐतिहासिक महत्त्व इस तथ्य में है कि वे समाज तथा राजनीति दर्शन की कुछ ऐसी मूल समस्याओं को प्रकाश में लायें, जो बाद के विचारकों के लिए समाज तथा राजनीति दर्शन की केन्द्रीय समस्याएं बन गईं। साथ ही यह भी द्रष्टव्य है कि उनके दर्शन में मानवतावाद (धार्मिक) तथा प्रकृति के मध्य समन्वय का जो रूप स्पष्ट हुआ, वह पाश्चात्य चिंतनधारा में एक स्थायी योगदान के रूप में स्वीकार किया गया।



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