पतंजलि (योगसूत्रकार)
पतंजलि | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- पतंजलि |
पतंजलि अथवा 'पतञ्जलि' योगसूत्र के रचनाकार हैं, जो हिन्दुओं के छह दर्शनों-(न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त) में से एक है। भारतीय साहित्य में पतंजलि के लिखे हुए तीन मुख्य ग्रन्थ मिलते है-योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रन्थ। पतंजलि को नमन करते हुए भृतहरि ने अपने ग्रन्थ 'वाक्यपदीय' के प्रारम्भ में निम्न श्लोक लिखा है-
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां, मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
योऽपाकरोत् तं प्रवरं मुनीनां, पतंजलि प्रांजलिरानतोऽस्मि।।
अर्थ- योग से चित्त का, पद (व्याकरण) से वाणी का व वैद्यक से शरीर का मल, जिन्होंने दूर किया, उन मुनि श्रेष्ठ पतंजलि को मैं अंजलि बद्ध होकर नमस्कार करता हूँ। महर्षि पाणिनि ने 'अष्टाध्यायी' की रचना की जिसमें व्याकरण के नियम हैं। ये सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त हैं। उनका अर्थ जानने के लिए अर्थ बोधक विवेचन की आवश्यकता प्रतीत होती है।
पतंजलि योगदर्शन के प्रमाणित सूत्र योगसूत्र नाम से विख्यात हैं। इन योगसूत्रों का रचनाकार पतंजलि मुनि हैं। योगसूत्र के चार पद (विभाग) हैं। सूत्रों की कुल संख्या एक सौ पिच्यानवे है। पादों के नाम समाधिपाद, साधनापाद, विभूतिपाद और कैवल्यपाद हैं। विषय के अनुसार पादों के नाम रखे गये हैं, तथा प्रचलित हो गये हैं। प्राचीन परम्परा मानती है कि इसी पतंजलि ने पाणिनि मुनि के व्याकरण सूत्र पर सविस्तार तथा मनोरम और विविध विषयों का अभिप्राय विशद करते हुए महाभाष्य लिखा, इतना ही नहीं, वैद्यक शास्त्रांतर्गत चरक संहिता का संस्करण भी किया। प्राचीन वाङ्मय में उपलब्ध अनेक श्लोक और अनेक उल्लेख इस बात का समर्थन करते हैं कि उपविनिर्दिष्ट ग्रन्थों का रचयिता एकमेव पतंजलि ही है। उदाहरणार्थ निम्नांकित श्लोक द्रष्टव्य हैं।
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन। योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतंजलि प्रांजलिरानतोऽस्मि।।
श्लोक का अभिप्राय है कि 'योगशास्त्र से मन का, व्याकरण शास्त्र से वाणी का और वैद्यक शास्त्र से तन का मल नष्ट करने वाले पतंजलि मुनि के सम्मुख मैं नतमस्तक हूँ।' व्याकरण महाभाष्य का प्रारम्भ 'अथ शब्दानुशासनम्' से होता है। योगसूत्र का प्रारम्भ भी वैसे ही 'अथ योगानुशासनम्' इस सूत्र से हुआ है। अन्य दर्शनों के आरम्भ से मेल न रखने वाले परन्तु व्याकरण महाभाष्य के प्रारम्भ से मिलते जुलते इस योगसूत्र के कारण, दोनों ग्रन्थ एक ही लेखक ने लिखे होंगे, ऐसा परम्परा मानती है।
योगसूत्रों की भी रचना पतंजलि ने ही की, ऐसा प्रसिद्ध है, किन्तु 'भाष्यकार', 'योगसूत्रकार' तथा 'चरकसंस्कर्ता' को एक ही व्यक्ति मानना, अनेक विद्वानों को मान्य नहीं है। उनका तर्क है कि ये तीनों पतंजलि भिन्न काल के भिन्न व्यक्ति होने चाहिए। योगसूत्रों में आर्ष (ऋषि प्रणीत) प्रयोग नहीं है। सूत्रों के अर्थों के लिए अध्याहार (वाक्यपूर्ति के लिए शब्द-योजना) की आवश्यकता नहीं पड़ती और उसकी रचना-शैली महाभाष्य के अनुसार अनुरूप स्पष्ट एवं प्रासादिक है। इन आधारों पर डॉक्टर प्रभुदयाल अग्निहोत्री, महाभाष्यकर्ता को ही योगसूत्रों का कर्ता मानते हैं। अन्य किसी भी दार्शनिक की तुलना में योगसूत्रकार एक श्रेष्ठ वैयाकरण प्रतीत होते हैं। चक्रपाणि नामक एक प्राचीन टीकाकार ने भी निम्न श्लोक द्वारा पतंजलि को एक ही व्यक्ति माना है-
पातंजल-महाभाष्य-चरकप्रतिसंस्कृतै:।
मनोवाक्कायदोषाणां हन्त्रेऽहिपतये नम:।।
अर्थ- योगसूत्र, महाभाष्य तथा चरक संहिता का प्रतिसंस्करण इन कृतियों से, क्रमश: मन, वाणी एवं देह के दोषों का निरसन करने वाले पतंजलि को मैं नमस्कार करता हूँ।
विद्वान् विचार
'चरक' शब्द के कल्पित अर्थ लेकर विद्वानों ने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, उनमें द्विवेदी कहते हैं-'अध्याय की समाप्ति के पश्चात्, पतंजलि कुछ समय के लिए चरक अर्थात् भ्रमणशील रहे।' विभिन्न प्रदेशों व ग्रामों में घूम-फिरकर, उन्होंने पाणिनि, कात्यायन के पश्चात् संस्कृत भाषा के शब्द-प्रयोगों में जो परिवर्तन रूढ़ हुए उनका अध्ययन किया, और उनका निरूपण करने के लिए 'इष्टि' के नाम से कुछ नये नियम बनाए। पुणे निवासी करंदीकर ने चरक के 'चर' अर्थात् गुप्तचर इस अर्थ के आधार पर अपनी सम्भावना व्यक्त करते हुए लिखा है-
'प्रारम्भ में पतंजलि ने एक गुप्तचर की भूमिका से भारत भ्रमण किया होगा। उस स्थिति में उनका समावेश, अर्थशास्त्र में वर्णित सत्री नामक गुप्तचरों में हुआ होना चाहिए। आर्य चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि पितृहीन व आप्तहीन बालकों को सामुद्रिक, मुख-परीक्षा, जादू-विद्या, वशीकरण, आश्रम-धर्म, शकुन-विद्या आदि सिखाकर, उनमें से संसर्ग अथवा समागम द्वारा व्रत्त-संग्रह करने वाले गुप्तचरों का चुनाव किया जाना चाहिए। पतंजलि को गोणिका-पुत्र कहकर ही पहचाना जाता है। अत: उनके पिता की अकाल मृत्यु हुई होगी और वे निराधार रहे होंगे। परिणामस्वरूप सत्री नामक गुप्तचरों के बीच ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई होगी, अथवा उन्होंने स्वेच्छा से ही उस साहसी व्यवसाय को स्वीकार किया होगा।'
योगसूत्र
लेकिन उपर्युक्त उल्लेख पतंजलि के अनन्तर कई सौ वर्षों के बाद लिखित ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, जिससे वे प्रमाण नहीं माने जा सकते हैं। अंतरंग और बहिरंग साक्ष्य से यह ज्ञात होता है कि इन तीनों ग्रन्थों के रचयिताओं में सैकड़ों वर्षों का अन्तर है। व्याकरण महाभाष्य का रचना काल ईसा पूर्व द्वितीय शतक, चरक संहिता का संस्करण काल ईसवी द्वितीय शतक और योगसूत्र का ईसवी तृतीय व चतुर्थ शतक है। इस स्थिति में संदर्भित तीनों ग्रन्थों का कर्ता एक ही व्यक्ति है, यह मत असंगत लगता है। परन्तु नाम सादृश्य के कारण उपर्युक्त ग्रन्थों का एक ही पतंजलि कर्ता था, यह मत रूढ़ हो गया। भिन्न शतकों में तीन स्वतंत्र पतंजलि हुए, ऐसा इतिहास के नूतन शोधकों का मत है। योगसूत्रकार पतंजलि का काल निर्धारित करने के लिए अंतरंग सबूत उपलब्ध नहीं हैं। केवल तर्कसंमत बहिरंग सामग्री से उपलब्ध आधारों पर योगसूत्र और उनके रचयिता पतंजलि का काल ईसवीं तीसरा या चौथा शतक निश्चित किया गया है। योगसूत्रकार के माता, पिता तथा गुरु और शिष्य परम्परा आदि के संबंध में जानकारी उपलब्ध नहीं है। योगशास्त्र के आद्य प्रवर्तक हिरण्यगर्भ माने जाते हैं। हिरण्यगर्भ से प्रारम्भ हुई योगशास्त्र परम्परा गुरु और शिष्य के उपदेश द्वारा पतंजलि तक अखंड चलती रही। पतंजलि ने उस परम्परा को सूत्रबद्ध करके संग्रहीत किया। अत: योगशास्त्र की परम्परा अन्य शास्त्रों के समान अति प्राचीन काल से जारी है। इस बात की पुष्टि करने वाले अनेक प्रमाण प्राचीन वेद वाङ्मय में मिलते हैं। योगसूत्र के पहले ही सूत्र से यह स्पष्ट है। यह पहला सूत्र है 'अथ योगानुशासनम्'। इस सूत्र में अनुशासन शब्द का अर्थ है 'बाद में किया हुआ उपदेश'।
विद्वानों से मतभेद
कुछ विद्वानों का मत है कि पतंजलि से पहले कई शतकों से योग दर्शन प्रचलित था, परन्तु बादरायण के द्वारा उसका खंडन ब्रह्मसूत्र ग्रन्थ में किये जाने के कारण वह दर्शन त्याज्य माना गया और अनन्तर पूर्ण तथा विलुप्त भी हो गया। उस योग दर्शन के दोषों को हटाते हुए नये विद्वत्संमत योगशास्त्र की रचना पतंजलि ने की। यह नूतन योग दर्शन उपनिषत् सिद्धांतों से मेल रखने के कारण वेदज्ञ विद्वानों के द्वारा स्वीकृत किया गया। योगसूत्र की रचना के बाद भी शंकराचार्य आदि भाष्यकारों ने अपनी अपनी रचनाओं में जिस योग का खंडन किया और जिसका अवैदिकत्व सिद्ध करने का प्रयास किया, वह प्राचीन योग दर्शन है, पातंजल योग दर्शन नहीं। इन विद्वानों के मतानुसार पतंजलि रचित योग दर्शन वैदिक तथा सर्वथा ग्राह्य है। श्रीमद्भगवदगीता में इसी योगशास्त्र का उल्लेख अनेक जगह अतीव आदर भाव से किया गया है तथा योगशास्त्र को मान्यता दी गई है। योगशास्त्र प्रणीत साधना मुमुक्षु मात्र के लिए अत्यावश्यक है। यह तथ्य वहाँ पुन: पुन: ध्यान में लाया गया है। प्रत्येक अध्याय के शीर्षक में ही योग शब्द संलग्न करके यह सूचित करने का प्रयास किया गया है कि मनुष्य को जीवन में क्षण प्रतिक्षण योग का आधार लेना ही पड़ता है, तभी उसका जीवन कृतार्थ हो सकता है। इसीलिए पतंजलि का योग दर्शन वैदिक और अद्वैत वेदान्त के विरोध में नहीं है, यह कहना युक्तियुक्त होगा।
उपर्युक्त मत में तीन मुद्दे हैं- पहला पांतजल योग दर्शन वैदिक है। दूसरा अद्वैत दर्शन से उसका विरोध नहीं है, बल्कि वह उसे पुष्टि प्रदान करता है और बादरायणाचार्य आदि भाष्यकारों के द्वारा खंडित एवं त्याज्य बतलाया हुआ योग दर्शन पातंजल योग दर्शन नहीं है, बल्कि वह अति प्राचीन योग दर्शन है। तीसरा ब्रह्मसूत्र और अद्वैतवादियों के द्वारा खंडित होने से प्राचीन योग परम्परा त्याज्य होकर नष्टप्राय हो गई। इन तीनों मुद्दों की समालोचना पतंजलि के संदर्भ में करना आवश्यक है।
दर्शन के विभाग
प्राचीन परम्परा के अनुसार दर्शन के दो विभाग हैं। एक वैदिक और दूसरा अवैदिक। वैदिक दर्शनों की संख्या छ: है, जिसमें योग दर्शन समाविष्ट है। अत: योग दर्शन प्राचीन हो या अर्वाचीन, उसका अवैदिकत्व सिद्ध करने का आग्रह व्यर्थ है। वेदों में योग साधनाओं का उल्लेख अनेक स्थलों पर उपलब्ध है। योग साधना की उपयुक्तता भी वैदिक वाङ्मय में विशेषत: उपनिषदों में अनेक बार स्वीकृत की गयी है। यह वास्तविकता होते हुए भी बादरायणाचार्य ने ब्रह्मसूत्र में योग का खंडन किया और अनुगामी भाष्यकारों ने भी उसमें अपना स्वर मिलाया। बादरायणाचार्य तथा उनकी परम्परा के अन्य भाष्यकार स्वयं को वैदिकों के अग्रणी समझते हैं। तथापि वैदिक योग का खंडन उन्होंने क्यों किया, यह समस्या प्रश्नांकित रहती है।
अद्वैतवादियों ने कर्मवाद का भी बड़ी कड़ाई से खंडन किया है। कर्मवाद वेदांगभूत ही है। कुछ सीमा तक कर्मवाद को अद्वैतवादियों ने मान्यता दी है। सारांश, वेदों में अनेक विषय कथित हैं। उनकी उपयोगिता अनुरूप परिस्थिति में तथा विभिन्न स्वभावों के मानवों के उत्कर्ष के लिए है ही। विषयों की उपयोगिता तथा महत्ता कुछ सीमा तक ही रहती है। सीमा पार होने पर उपयोगिता समाप्त हो जाती है। अन्तिम ध्येय की दृष्टि से कर्मवाद, योगाभ्यास आदि सब सीढ़ियाँ हैं। ये सब साधन हैं। साधनों को अंतिम साध्य का रूप मानना कदापि युक्तियुक्त नहीं हो सकता।
मुमुक्षु के लिए चित्तवृत्ति विरोध रूप योग साधना अनिवार्य है। मोक्ष की सिद्धि प्राप्त करने के लिए पतंजलि मुनि के द्वारा प्रकाशित योगमार्ग अत्युत्कृष्ट तथा अत्यावश्यक है। पतंजलि प्रणीत राह के राहियों को राह में आने वाले विघ्नों, खतरों तथ संकटों से मानवीय मन का स्वरूप ध्यान में रखकर स्पष्टतया सावधान किया गया है। इसका कोई अद्वैत तत्वाभिमानी प्रतिवाद करने का प्रयास नहीं करेगा। तथापि जगत, जीव, ईश्वर और मोक्ष आदि विषयों के बारे में पतंजलि के योशशास्त्र में जिन सिद्धांतों की स्थापना की गई है, वे अधिकृत सांख्य प्रणाली से मेल रखते हैं। अत: वे सिद्धांत सम्पूर्णतया अवैदिक हैं- यह अद्वैतवादियों का मत है। उपर्युक्त बातों से यह अनुगत होता है कि बादरायण ने प्राचीन योगशास्त्र का खंडन किया, परन्तु पतंजलि प्रणीत नये योगशास्त्र का उन्होंने और उनके अनुयायियों ने खंडन नहीं किया, यह कहना दोष में मुक्त नहीं है। प्राचीन योगशास्त्र के जिन सिद्धांतों का खंडन अद्वैतियों ने किया है, वे सिद्धांत इस प्रकार से हैं- प्रधान त्रिगुणात्मक, अनादि, अनन्त तथा जगदुत्पत्ति का कारण है, पुरुष अनेक हैं इत्यादि। यही सिद्धांत पतंजलि ने स्वीकृत किये हैं। अत: पतंजलि प्रणीत योगशास्त्र के महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों का अद्वैतवाद के विरोध में रहने के कारण अद्वैतवादियों के खंडन से मुक्त रहना असम्भव है।
योगशास्त्र
ब्रह्मसूत्रों का अद्वैतवादियों के द्वारा प्राचीन योगशास्त्र का परित्याग किए जाने के कारण प्राचीन योगशास्त्र की परम्परा नष्ट हो गयी है। यह बात भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि अद्वैतवादियों ने योगदर्शन के साथ साथ चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि अवैदिक दर्शनों का, इतना ही नहीं, पूर्व मीमांसा, न्याय, वैशेषिक आदि वैदिक दर्शनों का भी खंडन किया। परन्तु इसके पश्चात् भी उन दर्शन शास्त्रों की परम्परा नष्ट नहीं हुई बल्कि छांटे हुए वृक्ष की भांति वह परम्परा विकसित तथा सुफलित हुई। अत: प्राचीन योग दर्शन और पतंजलि का योग दर्शन सर्वथा अलग अलग है, यह कहना तथा उन दर्शनों में व्यवच्छेद मानना तर्क संगत नहीं हो सकता। बल्कि परम्परा से प्रचलित योगशास्त्र की कुशल सूत्रबद्ध रचना पतंजलि मुनि ने की, और वही पतंजलि का योगसूत्र है, ऐसा हम कहें तो तर्कसंगत लगेगा।
वस्तुत: जीव, जगत् और ईश्वर आदि का सत्य स्वरूप, उनका अन्योन्य संबंध तथा मानवीय जीवन से संबंध नानाविध कूट समस्याओं का समाधान, प्रमाण मीमांसा आदि सूक्ष्त तथा जटिल विषयों पर विचार करना योगशास्त्र का उद्देश्य नहीं है। योगशास्त्र का एकमेव ध्येय है चित्तवृत्तिनिरोध की अवस्था प्राप्त करना, अर्थात् मनुष्य के मन को विषयों की ओर होने वाली दौड़ रोककर उसको पूर्णतया अंतर्मुख करना। इस उद्देश्य की पूर्ति के दौरान साधक के सन्मुख उपस्थित होने वाली आपत्तियाँ, मन की बाहरी ओर प्रवृत्त क्यों होती हैं, आदि विषयों के स्पष्टीकरण के लिए जीव और जगत् का सत्य स्वरूप, ईश्वर का स्वरूप आदि विषयों का विवेचन आवश्यक होने के कारण उनका समावेश योग दर्शन में किया गया है। मन की एकतानता प्राप्त करने के लिए योग दर्शन एकमेव दर्शन है। व्यवहार और परमार्थ या प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों जीवन मार्गों में सफलता के लिए मन की एकाग्रता अतीव आवश्यक है। अत: योग दर्शन का यह ध्येय तथा उसमें विवेचित साधनाएं मनुष्य मात्र के लिए महत्त्व रखती हैं। मन की यह एकाग्रता किसी को योगशास्त्र के अभ्यास से प्राप्त हो सकती है। किसी को योगशास्त्र से परिचय न होते हुए भी जन्मत: या स्वभावत: प्राप्त हो सकती है। किसी आदमी को परिस्थितिवश इस एकाग्रता का लाभ हो सकता है। फलत: इन तीनों में अन्तर होने के कारण नहीं है। विभिन्न प्रकारों से मन की एकाग्रता की सिद्धि के अनेकानेक उदाहरण प्रत्यक्ष व्यवहार में मिलते हैं।
एकाग्रता
'चित्तवृत्तिनिरोध' का अभिप्राय है मन की आत्यंतिक या परमावधि की एकाग्रता। यही योग दर्शन का उद्देश्य है। इस एकाग्रता की साधना और फल योगसूत्रों में सुस्पष्ट किये गए हैं। पातंजलि योग अष्टांगयोग नाम से भी प्रसिद्ध है, क्योंकि पतंजलि ने योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठ अंग बताए हैं। आठ अंगों के लक्षण और उनके अनुष्ठान से प्राप्तव्य, लौकिक तथा अलौकिक लाभ आदि का विवेचन भी पतंजलि ने किया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम होते हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान, ये पांच नियम हैं। इनमें यम सार्वभौम हैं, यह पतंजलि का मत है। इनके आचरण के लिए देश काल परिस्थिति का कोई बंधन नहीं है। ये महाव्रत हैं और किसी भी कारण इनका आचरण टाला नहीं जा सकता। एक दृष्टि से हम यह भी कह सकते हैं कि पांच यम समाज धारणा के लिए अत्यावश्यक हैं। अत: वे सामाजिक कर्तव्य सिद्ध होते हैं। शौच आदि नियम वैयक्तिक कर्तव्य रूप हैं। व्यक्ति जीवन विकास के लिए उनका आचरण आवश्यक है। यमों का पालन न करने वाला, अर्थात् हिंसक, असत्यभाषी, चोर कर्मी, कामासक्त और अत्यधिक लोभी मनुष्य सामाजिक स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध होता है। परन्तु नियमों की अवज्ञा करने वाला अर्थात् मलिन, असंतुष्ट, अच्छृंखल, अनभ्यासी और नास्तिक मनुष्य, यद्यपि समाज धारणा को प्रत्यक्षत: अस्त व्यस्त तो नहीं करेगा, पर वैयक्तिक जीवन ज़रूर बरबाद करेगा। यह मानना पड़ेगा कि अस्वच्छता या असंतुष्टता के कारण समाज भी कुछ मात्रा में अव्यवस्थित होगा, लेकिन समाज धारणा के साथ नियमों का संबंध यमों के संबंध की अपेक्षा अप्रत्यक्ष है। इसीलिए पतंजलि का यम और नियम दोनों में किया हुआ अंतर ध्यान देने योग्य है। आसन, प्राणायाम आदि छ: अंग केवल व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिए महत्त्व रखते हैं।
समाधिपद
समाधिपाद में चित्तवृत्तिनिरोध का फल वर्णित है। वह है 'जीव का स्वस्वरूप में अवस्थान'। यह बताते हुए निरोध रहित स्थिति में जीव किन किन वृत्तियों में अवगुंठित हो जाता है, वृत्तियां कितनी और कौन कौन सी हैं, आदि बातें पतंजलि ने बतायी हैं। पतंजलि बताते हैं कि प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ज्ञान के साधन अर्थात् प्रमाण हैं। इसी पाद में शब्द से विकल्पात्मक ज्ञान होता है, यह कल्पना पतंजलि ने प्रस्तुत की है। पतंजलि ने विकल्प का लक्षण बताया है 'शब्दाज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प:' कभी, शब्दोच्चार के तुरन्त बाद किसी विषय का ज्ञान होता है। परन्तु इस ज्ञान में ज्ञात विषय अर्थात् वस्तु कहीं भी अस्तित्व में नहीं रहता। जैसे, वंध्यापुत्र, खरगोश का सींग, मन के मोल गधे, गोल त्रिकोण, पुरुष का चैतन्य आदि शब्द प्रयोग सुन लेने के बाद कुछ ज्ञान होता है, परन्तु ज्ञात वस्तु का संसार में अस्तित्व कभी होता नहीं है। बोलने वाला किसी वस्तु की स्थूल कल्पना करके बोलता है तथा सुनने वाला भी कल्पित वस्तु का ज्ञान पाता है। यह मनुष्यमात्र का अनुभव है और इसी की ओर निर्देश पतंजलि ने किया है। इस विकल्प रूप पदार्थ को हम सत्य भी नहीं कह सकते तथा सर्वथा असत्य भी नहीं कह सकते। पतंजलि द्वारा प्रस्तुत इस विकल्प की कल्पना अभिनव तथा मौलिक है। इसी पाद में पतंजलि ईश्वर का स्वरूप और उसकी आवश्यकता बताते हैं। ईश्वरी अविद्या, अस्मिता आदि पांच क्लेशों से तथा कर्म, जन्म-मरण और वासना से सदैव मुक्त रहता है। जीवन का मूल स्वरूप भी यही है। परन्तु वह कैवल्य प्राप्ति के बाद प्रकट होता है। उसके पूर्व एवं बद्धावस्था में जीव अविद्यादि उपाधियों से ग्रस्त ही रहता है। मुक्ति के पश्चात् जीव अविद्यारहित हो जाने पर भी ईश्वर से अलग रहता है। ईश्वर सर्वाधिक सर्वज्ञता से आपूरित होता है, लेकिन जीव में इस प्रकार का सर्वज्ञत्व कभी नहीं पाया जा सकता। जीव और ईश्वर में यह अन्तर सदैव रहता है।
नैयायिकों ने ईश्वर का अस्तित्व अनुमान से सिद्ध किया है। क्षित्यंकुरादि सृष्टि का उत्पादक कोई अवश्य होना चाहिए। मर्त्य मनुष्य तो इस सृष्टि का सृजन कभी नहीं कर सकता। अत्य नित्यज्ञान, नित्य इच्छा और नित्यकृति इन तीन गुणों से मंडित ईश्वर अनुमान के आधार पर सिद्ध होता है। वेदान्ती श्रुति के आधार पर ईश्वर को सिद्ध करते हैं। ईश्वर वस्तुत: जगत् का निमित्त कारण भी नहीं है और उपादान कारण भी नहीं। बल्कि मायाविशिष्ट स्वप्रधान ईश्वर जगत् का उपादान कारक सिद्ध होता है। ईश्वर और उसका यह द्विविध स्वरूप प्रधानतया श्रुति तथा श्रुति-अनुकूल अनुमान के आधार पर निर्धारित करते हैं। इस स्थिति में यह प्रश्न उठता है कि योगियों के ईश्वर के नित्य ज्ञान सम्पन्न रहते हुए भी उसमें कर्तृत्व या इच्छा नहीं होती, फिर ऐसे ईश्वर की सत्ता कैसे सिद्ध होती है और अगर सिद्ध हुई भी तो ऐसे ईश्वर की सत्ता का लाभ भी क्या हो सकता है।
पतंजलि के प्रमाण
पतंजलि ने प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण स्वीकृत किये हैं। इन तीन प्रमाणों में से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने वाला प्रमाण कौन सा है, यह पतंजलि ने नहीं बताया है। 'लक्षण प्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्ध:' किसी भी वस्तु का अस्तित्व सिद्ध करने का यह सर्वसंमत तरीका है। ईश्वर का लक्षण पतंजलि ने 'क्लेश कर्मविपाकाशयैरपराभृष्ट: पुरुष विशेष ईश्वर:', इस सूत्र में विशद किया है। परन्तु ईश्वर का यह स्वरूप है, यह उन्होंने कैसे निर्धारित किया। किसी भी वस्तु के ज्ञान के बिना उस वस्तु का लक्षण करना असम्भव है। प्रमाण के बल पर ही उसके सत्य स्वरूप का आकलन होता है।
'ईवर प्रणिधानाद्वा' तथा 'समाधिसिद्धिरीश्वर प्रणिधानात्' इन दो सूत्रों में ईश्वर की मानवीय जीवन में उपयोगिता वर्णित है। ईश्वर प्रणिधान एक नियम भी है। इससे ईश्वर प्रणिधान का विषय निश्चित होता है। पतंजलि इस कथन से अप्रत्यक्ष रूप से सूचित करते हैं कि प्रणिधान रूप प्रमाण से ईश्वर का ज्ञान होता है। प्रथम पादांतर्गत ईश्वर प्रणिधान प्रकरण में प्रणिधान का स्वरूप 'तज्जपस्तदर्थभावनम्' ऐसा विशद किया गया है। वहाँ ईश्वर वाचक ओंकार का जप तथा उस ओंकार के अर्थ की ईश्वर की भावना अर्थात् अखंड चिंतन ईश्वर प्रणिधान का स्वरूप बताया गया है। अर्थात् प्रणिधान एक तरह का एकाग्र मानस ज्ञान सिद्ध होता है। इस मानस ज्ञान का विषय ईश्वर है। तात्पर्य यह हुआ कि ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण मानस प्रत्यक्ष है और ईश्वर अविद्या अस्मितादि पांच क्लेशों से तथा कर्म, जन्म मरण और वासना से सदैव मुक्त रहता है, यह उसका लक्षण है। उपर्युक्त लक्षण प्रमाणों के ईश्वरसिद्धि पतंजलि ने की है। अब इस ईश्वर का कार्य क्या है। यह प्रश्न उठता है। वस्तुत: किसी भी वस्तु की लक्षण प्रमाणों सिद्धि होने पर उसके अस्तित्व को मान्यता देना शास्त्र का काम है। उसकी उपयोगिता की, उससे होने वाले लाभ या हानि की कल्पना व्यवहार सापेक्ष है। अत: अस्तित्व की स्वीकृति के संदर्भ में अप्रस्तुत है। हम ऐसा भी कह सकते हैं कि शास्त्र के लिए वस्तु का अस्तित्व ही उसका उपयोग है। ईश्वरवादी वैशेषिकादि शास्त्रकारों की तरह पतंजलि ने ईश्वर को सृष्टि के कार्य में नहीं लगाया, क्योंकि योग की दृष्टि से त्रिगुणात्मक विश्व की उत्पत्ति सहज, स्वाभाविक ही है, जैसे- निम्न भूमि की ओर बहना जल का सहज स्वभाव ही है। निम्न भूमि की ओर जल को ढकेलना नहीं पड़ता है। पर अगर ईश्वर की जगत् की रचना के काम में व्यावहारिक उपयोगिता सिद्ध नहीं हुई, तो भी ईश्वर का अस्तित्व असत्य सिद्ध नहीं हो सकता है। 'लक्षण प्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धि:' इस न्याय के अनुसार वस्तु के अस्तित्व का अवलोकन करने वाली लक्षण और प्रमाण, ये दो ही आँखेंं हैं। यह होते हुए भी मानवीय जीवन में ईश्वर की उपयोगिता है, यह पतंजलि का मत है।
जीवन का अन्तिम उद्देश्य
मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य क्या है? पतंजलि का उत्तर है कैवल्य प्राप्ति। उस कैवल्य की प्राप्ति के लिए चित्तवृत्तिनिरोधरूप योग अनिवार्य है। इस योग के अनेक मार्ग हैं। उनमें एक है 'ईश्वर प्रणिधान' अर्थात् अतीव एकाग्र मन से ईश्वर चिंतन। यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि ईश्वर प्रणिधान को एकमात्र मार्ग पतंजलि ने नहीं माना है तथा अभ्यास, वैराग्य आदि का प्रथम उल्लेख करने के बाद ईश्वर प्रणिधान का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि योग का प्रधान तथा स्वाभाविक पथ, अभ्यास एवं वैराग्य ही है। किन्तु जिन लोगों को अभ्यास या वैराग्य का पथ कठिन मालूम होता है, उनके लिए ईश्वरोपासना योग का साधन है, यह पतंजलि ने सूचित किया है। पतंजलि ने चेतन तथा अचेतन सृष्टि के बारे में सांख्य मत को माना है। इन दोनों प्रकार की सृष्टियों की उत्पत्ति के लिए ईश्वर की ज़रूरत कहीं भी आवश्यक न होने के कारण सांख्यानुयायियों ने विशुद्ध वैचारिक तथा तात्विक स्तर पर ईश्वर के अस्तित्व को मान्यता नहीं दी है। पतंजलि ने ईश्वर का अस्तित्व माना तथा उसका लक्षण और वैकल्पिक आवश्यकता भी निरूपित की। इसका कोई सामाजिक, राजकीय या बहिरंग (तात्त्विकेतर) कारण हो सकता है। केवल शुद्ध विचार के प्रवक्ता, नास्तिक या निरीश्वरवादी दार्शनिकों को तत्कालीन समाज में दर्जा या राजाश्रय प्राप्त करना साधारण मनुष्य की सामर्थ्य के बाहर है। सम्भवत: इसी कारण पतंजलि ने ईश्वर की सत्ता को माना, ईश्वर या उसके प्रतीक ओंकार को उपासना के लिए प्रयुक्त किया और सामाजिक क्षेत्र में इस शास्त्र को दर्जा प्राप्त करवाया।
प्रतीकोपासनाएं
उपनिषदों में कुछ प्रतीकोपासनाएं प्रस्तुत की गयी हैं। उन प्रतीकोपासनाओं का आधार पतंजलि प्रणीत विकल्पात्मक ज्ञान ही है। ईश्वर या इष्ट देवता विकल्प रूप ही होता है, परन्तु किसी विशेष अवस्था में मनुष्य को प्रतीकोपासना के लिए उनकी ज़रूरत पड़ती है, ऐसा पतंजलि का अभिप्राय कुछ अभ्यासकों ने माना है। ईश्वर का स्वरूप और उसके उपयोग के साथ साथ प्रथम पाद में समाधि के प्रकार, चित्त की प्रसन्नता प्राप्त करने के साधन आदि विषय चर्चित हैं।
साधनपाद
दूसरे साधनपाद में क्लेश, द्रष्टा का अर्थात् पुरुष का स्वरूप, अविद्या का कारण, योग के आठ अंग और उनकी फलश्रुति आदि वर्णित हैं।
विभूतिपाद
तीसरे विभूतिपा में योग के अंतरंग साधन, योगानुष्ठान से प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियाँ आदि विषयों का प्रतिपादन करते हुए पतंजलि ने सूचित किया है कि सिद्धियों का मोह करना समाधि के लिए अनिष्टकारी तथा कैवल्य प्राप्ति के मार्ग में विघ्न ही है।
विज्ञानवाद
चौथे पाद में विज्ञानवाद के खंडन के साथ साथ स्वरूप प्रतिष्ठा अर्थात् कैवल्य का वर्णन किया है। योग के यम, नियम आदि आठ अंगों में से आसन तथा प्राणायाम का हठयोग से निकट संबंध है। शेष छ: अंगों का विशेष राजयोग है। कुछ फल सबकी अनुभूति का विषय हो सकते हैं तथा वर्तमान काल में भी स्वीकारणीय हैं। चित्तवृत्तिनिरोध से द्रष्टाअपने केवल विशुद्ध रूप में रहता है और वही है स्वरूप प्रतिष्ठा या कैवल्य। अहिंसावृत्ति दृढ़ होते ही वैरभाव छूट जाता है। संतोष से उत्कृष्ट सुख का लाभ होता है इत्यादि। परन्तु अस्तेयवृत्ति स्थिर होते ही सकल रत्न प्राप्त होते हैं। अपरिग्रहवृत्ति स्थिर होते ही पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म का ज्ञान होता है, शब्द, अर्थ और अनुभव का भेद ज्ञात हो तो सब प्राणियों की भाषाएं समझ में आती हैं। इस प्रकार की फलश्रुति और विभूतिपाद में कथित अनेक अन्य विभूतियों का उल्लेख साधारणजन की यमनियमों के प्रति प्रवृत्ति जागृत कराने के लिए प्रलोभन मात्र है या वे विभूतियाँ वास्तव में हैं। वास्तव में हों तो उनके कार्यकारणभव की संगति वर्तमान काल में कैसे बिठायी जाए। पुराणान्तर्गत वर्णनों की तरह ऐसे उल्लेख क्या केवल पढ़कर छोड़ देने चाहिए। वर्तमान वैज्ञानिक युग में ऐसी सिद्धियाँ शायद बुद्धि संगत न लगें।
इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि पतंजलि ने योगसूत्र की रचना करके एक अतीव उपयुक्त शास्त्र की परम्परा प्रदीप्त की और मनुष्य जाति को ऐहिक तथा पारलौकिक आनंद का अखंड निर्मल निर्भर उपलब्ध करा दिया।
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