दिङ्नाग बौद्धाचार्य

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दिङ्नाग बौद्धाचार्य का जन्म दक्षिण भारत के काञ्चीनगर के समीप सिंहवक्त्र नामक स्थान पर विद्या-विनयसम्पन्न ब्राह्मण कुल में हुआ था। उन्होंने अपने आरम्भिक जीवन में परम्परागत सभी शास्त्रों का विधिवत अध्ययन किया था और उनमें पूर्ण पारंगत पण्डित हो गये थे। इसके बाद वे वात्सीपुत्रीय निकाय के महास्थविर नागदत्त से प्रव्रज्या ग्रहण कर बौद्ध भिक्षु हो गये।

  • 'दिङ्नाग' यह नाम प्रव्रज्या के अवसर पर दिया हुआ उनका नाम है।
  • महास्थविर नागदत्त से ही उन्होंने समस्त श्रावक पिटकों एवं शास्त्रों का अध्ययन किया था और उनमें परम निष्णात हो गये थे। एक दिन महास्थविर नागदत्त ने उन्हें 'शमथ' और 'विपश्यना' विषय को समझाते हुए अनिर्वचनीय पुद्गल की देशना की।
  • दिङ्नाग अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि के स्वतन्त्र विचारक पण्डित थे। उन्हें अनिर्वचनीय पुद्गल का सिद्धान्त रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। गुरु के उपदेश की परीक्षा के लिए अपने निवास-स्थान पर आकर उन्होंने दिन में सारे दरवाजों-खिड़कियों को खोलकर तथा रात में चारों ओर दीपक जलाकर कपड़ों को उतार कर सिर से पैर तक सारे अंगों को बाहर-भीतर सूक्ष्म रूप में निरीक्षण करते हुए अनिर्वचनीय पुद्गल को देखना शुरू किया। अपने साथ अध्ययन करने वाले साथियों के यह पूछने पर कि 'यह आप क्या कर रहे हैं'? दिङ्नाग ने कहा- 'पुद्गल की खोज कर रहा हूँ'। सूक्ष्मतया निरीक्षण करने पर भी उन्होंने कहीं पुद्गल की प्राप्ति नहीं की। शिष्य परम्परा से यह बात महास्थविर गुरु नागदत्त तक पहुँच गई। नागदत्त को लगा कि दिङ्नाग हमारा अपमान कर रहा है और अपने निकाय के सिद्धान्तों के प्रति उसे अविश्वास है। गुरु ने दिङ्नाग पर कुपित होकर उन्हें संघ से बाहर निकाल दिया। निकाल दिये जाने के बाद क्रमश: चारिका करते हुए वे आचार्य वसुबन्धु के समीप पहुँचे। इस अनुश्रुति से यह निष्कर्ष निकलता है कि दिङ्नाग पहले वात्सीपुत्रीय निकाय में प्रव्रजित हुए थे, किन्तु उस निकाय के दार्शनिक सिद्धान्त उन्हें रुचिकर प्रतीत नहीं हुए। इसके बाद आचार्य वसुबन्धु के समीप रहकर उन्होंने समस्त श्रावक और महायान पिटक, सम्पूर्ण बौद्ध शास्त्र और विशेषत: प्रमाणशास्त्र का गम्भीर अध्ययन किया।
  • कहा जाता है कि आचार्य वसुबन्धु के चार शिष्य अपने-अपने विषयों में वसुबन्धु से भी अधिक विद्वान् थे। जैसे-
  1. आचार्य गुणप्रभ- विनय-शास्त्रों में,
  2. आचार्य स्थिरमति- अभिधर्म विषय में,
  3. आचार्य विमुक्तिसेन- प्रज्ञापारमिता शास्त्र में तथा
  4. आचार्य दिङ्नाग- प्रमाणशास्त्र में।
  • कुछ विद्वानों की राय है कि आचार्य विमुक्तिसेन दिङ्नाग के शिष्य थे, वसुबन्धु के नहीं। भोटदेशीय विद्वत्परम्परा तो उन्हें वसुबन्धु का शिष्य ही निर्धारित करती है।
  • भारतीय इतिहास के मर्मज्ञ भोटविज्ञान लामा तारानाथ का कहना है कि त्रिरत्न दास और संघदास भी वसुबन्धु के शिष्य थे।

रचनाएं

आचार्य दिङ्नाग की अनेक रचनाएं हैं। उन्होंने विभिन्न विषयों पर ग्रन्थों का प्रणयन किया है।

युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिक

  • आचार्य दिङ्नाग के प्राय: सभी ग्रन्थ विशुद्ध प्रमाणमीमांसा से सम्बद्ध तथा स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्थ हैं। इसीलिए वे भारतीय तर्कशास्त्र के प्रवर्तक महान् तार्किक माने जाते हैं। इन ग्रन्थों में जिन विषयों को आचार्य ने प्रतिपादित किया है, वे सौत्रान्तिक दर्शन सम्मत ही हैं। बाह्यार्थ की सत्ता एवं ज्ञान की साकारता को मानते हुए उन्होंने विषय का निरूपण किया है। प्रमाणसमुच्चय के अवलोकन से यह निश्चित होता है कि केवल प्रमाणफल के निरूपण के अवसर पर ही उन्होंने विज्ञानवादी दृष्टिकोण अपनाया है। प्रमाण और प्रमेयों की स्थापना उन्होंने विशेषत: सौत्रान्तिक दर्शन के अनुरूप ही की है। दिङ्नाग के इन विचारों ने सौत्रान्तिक निकाय के चिन्तन की एक अपूर्व दिशा उद्धाटित की है, जिससे उक्त निकाय के चिन्तन में नूतन परिवर्तन परिलक्षित होता है। दिङ्नाग के इस प्रयास से तत्त्वचिन्तन के क्षेत्र में तर्क विद्या की महती प्रतिष्ठा हुई और ज्ञान की परीक्षा के नए नियम विकसित हुए तथा वे नियम सभी शास्त्रीय परम्पराओं और सम्प्रदायों में मान्य हुए। वास्तव में दिङ्नाग से ही विशुद्ध तर्कशास्त्र प्रारम्भ हुआ। फलत: सौत्रान्तिक निकाय ने आगम की परिधि से बाहर निकल कर अभ्युदय और नि:श्रेयस के साधक दार्शनिक क्षेत्र में पदार्पण किया।
  • दिङ्नाग के बाद आचार्य धर्मकीर्ति ने दिङ्नाग के ग्रन्थों में छिपे हुए गूढ़ तथ्यों का प्रकाशन करते हुए सात ग्रन्थों (सप्त प्रमाणशास्त्र) की रचना की। उन ग्रन्थों में न्यायपरमेश्वर धर्मकीर्ति ने बुद्धवचनों की नेयार्थता और नीतार्थता का विवेचन करते हुए शतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता आदि प्रज्ञापारमिता सूत्रों को बुद्धवचन के रूप में प्रमाणित किया। आचार्य धर्मकीर्ति के इस सत्प्रयास से दिङ्नाग के बारे में जो मिथ्या दृष्टियाँ और भ्रम उत्पन्न हो गये थे, उनका निरास हुआ। लोग कहते थे कि दिङ्नाग ने केवल वाद-विवाद एव जय-पराजय मूलक तर्कशास्त्रों की रचना की है। उनमें मार्ग और फल का निरूपण नहीं है और ऐसे शास्त्रों की रचना करना अध्यात्म प्रधान बौद्ध धर्म के अनुयायी एक भिक्षु को शोभा नहीं देता। धर्मकीर्ति की व्याख्या की वजह से दिङ्नाग समस्त बुद्ध वचनों के उत्कृष्ट व्याख्याता और महान् रथी सिद्ध हुए। साथ ही, सौत्रान्तिकों की दार्शनिक परम्परा का नया आयाम प्रकाशित हुआ। फलत: इन दोनों के बाद सौत्रान्तिक दर्शन के जो भी आचार्य उत्पन्न हुए, वे सब 'युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक' कहलाए। इसी परम्परा में आगे चलकर प्रसिद्ध सौत्रान्तिक आचार्य शुभगुप्त भी उत्पन्न हुए।
  • युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक दर्शन-प्रस्थान के विकास में नि:सन्देह आचार्य धर्मकीर्ति का योगदान रहा है, किन्तु इसका प्राथमिक श्रेय आचार्य दिङ्नाग को जाता है। यह सही है कि प्रमाणशास्त्र और न्यायप्रक्रिया के विकास में आचार्य धर्मकीर्ति के विशिष्ट मत और मौलिक उद्भावनाएं रही हैं, किन्तु सभी पारवर्ती आचार्य और विद्वान् उन्हें दिङ्नाग के व्याख्याकार ही मानते हैं। धर्मकीर्ति द्वारा प्रणीत सभी ग्रन्थों के विषय वे ही रहे हैं, जो दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय के हैं। यद्यपि धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक के प्रथम परिच्छेद में प्रमेयव्यवस्था और प्रमाणफल की स्थापना के सन्दर्भ में विज्ञप्तिमात्रता की चर्चा की है और इस तरह विज्ञानवाद की प्रतिष्ठा की है, किन्तु इन थोड़े स्थानों को छोड़कर शेष सम्पूर्ण ग्रन्थ में सौत्रान्तिक दृष्टि से ही विषय की स्थापना की है। इसलिए आचार्य दिङ्नाग और धर्मकीर्ति यद्यपि महायान के अनुयायी हैं, फिर भी यह कहा जा सकता है कि ये दोनों सौत्रान्तिक आचार्य थे। युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक दर्शनपरम्परा का स्वरूप उसके दर्शन के स्वरूप का निरूपण करते समय आगे विवेचित है।
  • आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमेय सम्बन्धी विचार आचार्य दिङ्नाग के समान ही हैं। धर्मकीर्ति द्वारा प्रणीत प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिन्दु, हेतुबिन्दु, सम्बन्धपरीक्षा, सन्तानन्तरसिद्धि और वादन्याय सातों प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की टीका के रूप में उपनिबद्ध हैं। यद्यपि इन ग्रन्थों में प्रमेयव्यवस्था के अवसर पर युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक और युक्ति-अनुयायी विज्ञानवादियों की विचारधारा के अनुरूप तत्त्वमीमांसा की विशेष रूप से चर्चा की गई है, तथापि ये ग्रन्थ मुख्य रूप से प्रमाणमीमांसा के प्रतिपादक ही हैं।

प्रमाणसमुच्चय

यह ग्रन्थ आचार्य दिङ्नाग की कृति है। यह आचार्य की अनेक छिटपुट रचनाओं का समुच्चय है और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह महनीय भावी बौद्ध न्याय के विकास का आधार और बौद्ध विचारों में नई उत्क्रान्ति का वाहक रहा है। इस ग्रन्थ के प्रभाव से भारतीय दार्शनिक चिन्तनधारा में नए एवं विशिष्ट परिवर्तन का सूत्रपात हुआ। ज्ञान के सम्यक्त्व की परीक्षा, पूर्वाग्रहमुक्त तत्त्वचिन्तन, प्रमाण के प्रामाण्य आदि का निर्धारण आदि वे विशेषताएं हैं, जिनका विश्लेषण दिङ्नाग के बाद प्राय: सभी भारतीय दर्शनों में बहुलता से प्रारम्भ होता है। इस प्रकार हम विशुद्ध ज्ञानमीमांसा और निरपेक्ष प्रमाणमीमांसा का प्रादुर्भाव दिङ्नाग के बाद घटित होते हुए देखते हैं। इस ग्रन्थ में छह परिच्छेद हैं, यथा-

  1. प्रत्यक्ष परिच्छेद
  2. स्वार्थनुमान परिच्छेद
  3. परार्थनुमान परिच्छेद
  4. दृष्टान्तपरीक्षा
  5. अपोहपरीक्षा एवं
  6. जात्युत्तर परीक्षा।
  • इन परिच्छेदों के विषय उनके नाम से ही प्रकट है। इनमें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की सुस्पष्ट स्थापना, प्रमाणद्वय का स्पष्ट निर्धारण, ज्ञान की ही प्रमाणता, साधन और दूषण का विवेचन, शब्दार्थ-विषयक चिन्तन (अपोहविचार), प्रमाण और प्रमाणफल की एकात्मकता एवं प्रसंग के स्वरूप का निर्धारण आदि विषय विशेष रूप से चर्चित हुए हैं।

दिङ्नाग का समय काल

आचार्य दिङ्नाग के समय को लेकर विद्वानों में विवाद अधिक है। डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण उनका काल ईस्वीय सन् 450 से 520 के बीच निर्धारित करते हैं। डॉ. एस. एन. दास गुप्त उन्हें ईस्वीय पाँचवीं शताब्दी के अन्त में उत्पन्न मानते हैं। डॉ. विनयघोष भट्टाचार्य मानते हैं कि वे 345 से 425 ईस्वीय वर्षों में विद्यमान थे। पण्डित दलसुखभाई मालवणियाँ इस मत का समर्थन करते हैं। न्यायसूत्रों के भाष्यकार वात्स्यायन और प्रशस्तपाद के मतों की दिङ्नाग ने युक्तिपूर्वक समालोचना की है तथा न्यायवार्तिकार उद्योतकर ने दिङ्नाग के मत की समालोचना दिङ्नाग की रचनाओं का अनुवाद चीनी भाषा में 557 से 569 ईस्वीय वर्षों में सम्पन्न हो गया था। इन सब साक्ष्यों के आधार पर आचार्य दिङ्नाग का काल ईस्वीय पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानना समीचीन मालूम होता है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन भी उन्हें 425 ईस्वीय वर्ष में विद्यमान मानते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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