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पजनेस [[पन्ना]] के रहने वाले थे। इनका कुछ विशेष वृत्तांत प्राप्त नहीं। कविता काल इनका संवत् 1900 के आसपास माना जा सकता है। कोई पुस्तक तो इनकी नहीं मिलती, पर इनकी बहुत सी फुटकल कविता संग्रह ग्रंथों में मिलती और लोगों के मुँह से सुनी जाती है। इनका स्थान [[ब्रजभाषा]] के प्रसिद्ध कवियों में है। 'ठाकुर शिवसिंहजी' ने 'मधुरप्रिया' और 'नखशिख' नाम की इनकी दो पुस्तकों का उल्लेख किया है, पर वे मिलती नहीं। भारत जीवन प्रेस ने इनकी फुटकल कविताओं का एक संग्रह 'पजनेस प्रकाश' के नाम से प्रकाशित किया है जिसमें 127 कवित्त-सवैया हैं। इनकी कविताओं को देखने से पता चलता है कि ये [[फ़ारसी भाषा|फारसी]] भी जानते थे। एक सवैया में इन्होंने फारसी के शब्द और वाक्य भरे हैं। इनकी रचना [[श्रृंगार रस]] की ही है, पर उसमें कठोर वर्णों (जैसे ट, ठ, ड) का व्यवहार यत्र तत्र बराबर मिलता है। ये 'प्रतिकूल वर्णन' की परवाह कम करते थे। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि कोमल अनुप्रासयुक्त ललित भाषा का व्यवहार इनमें नहीं है। पदविन्यास इनका अच्छा है। इनके फुटकल कवित्त अधिकतर अंगवर्णन के मिलते हैं जिससे अनुमान होता है कि इन्होंने कोई नखशिख लिखा होगा। शब्दचमत्कार पर इनका ध्यान विशेष रहता था जिससे कहीं कहीं कुछ भद्दापन आ जाता था।  -  
पजनेस [[पन्ना]] के रहने वाले थे। इनका कुछ विशेष वृत्तांत प्राप्त नहीं। कविता काल इनका संवत् 1900 के आसपास माना जा सकता है। कोई पुस्तक तो इनकी नहीं मिलती, पर इनकी बहुत सी फुटकल कविता संग्रह ग्रंथों में मिलती और लोगों के मुँह से सुनी जाती है। इनका स्थान [[ब्रजभाषा]] के प्रसिद्ध कवियों में है। 'ठाकुर शिवसिंहजी' ने 'मधुरप्रिया' और 'नखशिख' नाम की इनकी दो पुस्तकों का उल्लेख किया है, पर वे मिलती नहीं। भारत जीवन प्रेस ने इनकी फुटकल कविताओं का एक संग्रह 'पजनेस प्रकाश' के नाम से प्रकाशित किया है जिसमें 127 कवित्त-सवैया हैं। इनकी कविताओं को देखने से पता चलता है कि ये [[फ़ा{{cite book | last = | first =  | title =  | edition = | publisher = | location =  | language =  | pages =  | chapter =}}रसी भाषा|फारसी]] भी जानते थे। एक सवैया में इन्होंने फारसी के शब्द और वाक्य भरे हैं। इनकी रचना [[श्रृंगार रस]] की ही है, पर उसमें कठोर वर्णों (जैसे ट, ठ, ड) का व्यवहार यत्र तत्र बराबर मिलता है। ये 'प्रतिकूल वर्णन' की परवाह कम करते थे। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि कोमल अनुप्रासयुक्त ललित भाषा का व्यवहार इनमें नहीं है। पदविन्यास इनका अच्छा है। इनके फुटकल कवित्त अधिकतर अंगवर्णन के मिलते हैं जिससे अनुमान होता है कि इन्होंने कोई नखशिख लिखा होगा। शब्दचमत्कार पर इनका ध्यान विशेष रहता था जिससे कहीं कहीं कुछ भद्दापन आ जाता था।  -  
<poem>छहरै छबीली छटा छूटि छितिमंडल पै,  
<poem>छहरै छबीली छटा छूटि छितिमंडल पै,  
उमग उजेरो महाओज उजबक सी।
उमग उजेरो महाओज उजबक सी।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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11:22, 11 अगस्त 2011 का अवतरण

पजनेस पन्ना के रहने वाले थे। इनका कुछ विशेष वृत्तांत प्राप्त नहीं। कविता काल इनका संवत् 1900 के आसपास माना जा सकता है। कोई पुस्तक तो इनकी नहीं मिलती, पर इनकी बहुत सी फुटकल कविता संग्रह ग्रंथों में मिलती और लोगों के मुँह से सुनी जाती है। इनका स्थान ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों में है। 'ठाकुर शिवसिंहजी' ने 'मधुरप्रिया' और 'नखशिख' नाम की इनकी दो पुस्तकों का उल्लेख किया है, पर वे मिलती नहीं। भारत जीवन प्रेस ने इनकी फुटकल कविताओं का एक संग्रह 'पजनेस प्रकाश' के नाम से प्रकाशित किया है जिसमें 127 कवित्त-सवैया हैं। इनकी कविताओं को देखने से पता चलता है कि ये [[फ़ा 'रसी भाषा|फारसी]] भी जानते थे। एक सवैया में इन्होंने फारसी के शब्द और वाक्य भरे हैं। इनकी रचना श्रृंगार रस की ही है, पर उसमें कठोर वर्णों (जैसे ट, ठ, ड) का व्यवहार यत्र तत्र बराबर मिलता है। ये 'प्रतिकूल वर्णन' की परवाह कम करते थे। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि कोमल अनुप्रासयुक्त ललित भाषा का व्यवहार इनमें नहीं है। पदविन्यास इनका अच्छा है। इनके फुटकल कवित्त अधिकतर अंगवर्णन के मिलते हैं जिससे अनुमान होता है कि इन्होंने कोई नखशिख लिखा होगा। शब्दचमत्कार पर इनका ध्यान विशेष रहता था जिससे कहीं कहीं कुछ भद्दापन आ जाता था। -

छहरै छबीली छटा छूटि छितिमंडल पै,
उमग उजेरो महाओज उजबक सी।
कवि पजनेस कंज मंजुल मुखी के गात,
उपमाधिकाति कल कुंदन तबक सी
फैली दीप दीप दीप दीपति दीपति जाकी।
दीपमालिका की रही दीपति दबक सी।
परत न ताब लखि मुख माहताब जब,
निकसी सिताब आफताब की भभक सी

पजनेस तसद्दुक ता बिसमिल जुल्फष फुरकत न कबूल कसे।
महबूब चुनाँ बदमस्त सनम अजश्दस्त अलाबल जुल्फ फँसे
मजमूए, न काफष् शिगाफष् रुए सम क्यामत चश्म से खूँ बरसे।
मिजश्गाँ सुरमा तहरीर दुताँ नुकते, बिन बे, किन ते, किन से


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 271।

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