वृंद

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:56, 7 नवम्बर 2017 का अवतरण (Text replacement - "शृंगार" to "श्रृंगार")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

वृंद मेड़ता, जोधपुर के रहने वाले थे और 'कृष्णगढ़' नरेश 'महाराज राजसिंह' के गुरु थे। संवत् 1761 में ये शायद कृष्णगढ़ नरेश के साथ औरंगजेब की फ़ौज में ढाके तक गए थे। इनके वंशधर अब तक कृष्णगढ़ में वर्तमान हैं। इनकी 'वृंदसतसई'[1], जिसमें नीति के सात सौ दोहे हैं, बहुत प्रसिद्ध हैं। खोज में 'श्रृंगारशिक्षा'[2], और 'भावपंचाशिका' नाम की दो रस संबंधी पुस्तकें और मिली हैं, पर इनकी ख्याति अधिकतर सूक्तिकार के रूप में ही है। 'वृंद सतसई' के कुछ दोहे हैं -

भले बुरे सब एक सम, जौ लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काग पिक, ऋतु बसंत के माहिं॥
हितहू कौं कहिए न तेहि, जो नर होय अबोध।
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाए क्रोध॥



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संवत् 1761
  2. संवत् 1748

आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 227।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख