"कबीर के दोहे" के अवतरणों में अंतर
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सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ। | सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ। | ||
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥ | धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥ | ||
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+ | सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय । | ||
+ | भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय ॥ | ||
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। | साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। | ||
पंक्ति 129: | पंक्ति 132: | ||
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय। | साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय। | ||
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥ | आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥ | ||
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+ | शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । | ||
+ | तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ | ||
जो तोको कांटा बुवै, ताहि बोओ तू फूल। | जो तोको कांटा बुवै, ताहि बोओ तू फूल। | ||
पंक्ति 165: | पंक्ति 171: | ||
जीवत समझे जीवत बुझे, जीवत ही करो आस| | जीवत समझे जीवत बुझे, जीवत ही करो आस| | ||
जीवत करम की फाँस न काटी, मुए मुक्ति की आस|| | जीवत करम की फाँस न काटी, मुए मुक्ति की आस|| | ||
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+ | जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव । | ||
+ | कहै कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव ॥ | ||
ज्यों नैनों में पुतली, त्यों मालिक घट माहिं। | ज्यों नैनों में पुतली, त्यों मालिक घट माहिं। | ||
पंक्ति 195: | पंक्ति 204: | ||
परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं । | परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं । | ||
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ | दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ | ||
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+ | पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख । | ||
+ | स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख ॥ | ||
चलती चक्की देखि कै, दिया कबीरा रोय। | चलती चक्की देखि कै, दिया कबीरा रोय। | ||
पंक्ति 273: | पंक्ति 285: | ||
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय। | गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय। | ||
बलिहारी गुरु आपनै, गोबिंद दियो मिलाय॥ | बलिहारी गुरु आपनै, गोबिंद दियो मिलाय॥ | ||
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+ | गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि । | ||
+ | बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ | ||
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+ | गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं । | ||
+ | भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि ॥ | ||
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+ | गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव । | ||
+ | दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव ॥ | ||
गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह । | गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह । | ||
पंक्ति 315: | पंक्ति 336: | ||
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। | अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। | ||
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।। | अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।। | ||
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+ | यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान । | ||
+ | सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ | ||
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04:19, 23 सितम्बर 2012 का अवतरण
कबीर के दोहे
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पूरा नाम | संत कबीरदास |
अन्य नाम | कबीरा, कबीर साहब |
जन्म | सन 1398 (लगभग) |
जन्म भूमि | लहरतारा ताल, काशी |
मृत्यु | सन 1518 (लगभग) |
मृत्यु स्थान | मगहर, उत्तर प्रदेश |
पालक माता-पिता | नीरु और नीमा |
पति/पत्नी | लोई |
संतान | कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री) |
कर्म भूमि | काशी, बनारस |
कर्म-क्षेत्र | समाज सुधारक कवि |
मुख्य रचनाएँ | साखी, सबद और रमैनी |
विषय | सामाजिक |
भाषा | अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी |
शिक्षा | निरक्षर |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | कबीर ग्रंथावली, कबीरपंथ, बीजक, कबीर के दोहे आदि |
अन्य जानकारी | कबीर का कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त आज तक नहीं मिल सका, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, सांप्रदायिक ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कतिपय फुटकल रचनाओं के अंत:साध्य का ही सहारा लिया जाता रहा है। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
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कस्तूरी कुन्डल बसे, मृग ढूढै बन माहि । |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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