"नूर मुहम्मद" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
छो (Text replacement - " दुख " to " दु:ख ")
छो (Text replacement - "जरूर" to "ज़रूर")
 
पंक्ति 17: पंक्ति 17:
 
*कवि ने [[जायसी]] के पहले के कवियों के अनुसार पाँच पाँच चौपाइयों के उपरांत दोहे का क्रम रखा है। इसी ग्रंथ को सूफी पद्धति का अंतिम ग्रंथ मानना चाहिए।
 
*कवि ने [[जायसी]] के पहले के कवियों के अनुसार पाँच पाँच चौपाइयों के उपरांत दोहे का क्रम रखा है। इसी ग्रंथ को सूफी पद्धति का अंतिम ग्रंथ मानना चाहिए।
 
*नूर मुहम्मद का एक और ग्रंथ फारसी अक्षरों में लिखा मिला है, जिसका नाम है '[[अनुराग बाँसुरी]]'। यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है। पहली बात तो इसकी [[भाषा]] है जो सूफी रचनाओं से बहुत अधिक [[संस्कृत]] गर्भित है। दूसरी बात है [[हिन्दी भाषा]] के प्रति मुसलमानों का भाव।  
 
*नूर मुहम्मद का एक और ग्रंथ फारसी अक्षरों में लिखा मिला है, जिसका नाम है '[[अनुराग बाँसुरी]]'। यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है। पहली बात तो इसकी [[भाषा]] है जो सूफी रचनाओं से बहुत अधिक [[संस्कृत]] गर्भित है। दूसरी बात है [[हिन्दी भाषा]] के प्रति मुसलमानों का भाव।  
*'इंद्रावती' की रचना करने पर शायद नूर मुहम्मद को समय समय पर यह उपालंभ सुनने को मिलता था कि तुम [[मुसलमान]] होकर [[हिन्दी]] भाषा में रचना करने क्यों गए। इसी से 'अनुराग बाँसुरी' के आरंभ में उन्हें यह सफाई देने की जरूरत पड़ी
+
*'इंद्रावती' की रचना करने पर शायद नूर मुहम्मद को समय समय पर यह उपालंभ सुनने को मिलता था कि तुम [[मुसलमान]] होकर [[हिन्दी]] भाषा में रचना करने क्यों गए। इसी से 'अनुराग बाँसुरी' के आरंभ में उन्हें यह सफाई देने की ज़रूरत पड़ी
 
<poem>जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा॥
 
<poem>जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा॥
 
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ॥
 
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ॥

10:51, 2 जनवरी 2018 के समय का अवतरण

नूर मुहम्मद दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के समय में थे और 'सबरहद' नामक स्थान के रहने वाले थे जो जौनपुर, आजमगढ़ की सरहद पर है। पीछे सबरहद से ये अपनी ससुराल भादों[1] चले गए। इनके श्वसुर 'शमसुद्दीन' का और कोई वारिस न था, इससे वे ससुराल ही में रहने लगे। नूर मुहम्मद के भाई मुहम्मद शाह सबरहद ही में रहे। नूर मुहम्मद के दो पुत्र हुए ग़ुलाम हुसैन और नसीरुद्दीन। नसीरुद्दीन की वंश परंपरा में शेख फिदाहुसैन अभी वर्तमान हैं जो सबरहद और कभी कभी भादों में भी रहा करते हैं। अवस्था इनकी 80 वर्ष की है।

हिन्दी काव्यभाषा

नूर मुहम्मद फारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिन्दी काव्यभाषा का भी ज्ञान और सब सूफी कवियों से अधिक था। फारसी में इन्होंने एक दीवान के अतिरिक्त 'रौजतुल हकायक' इत्यादि बहुत सी किताबें लिखी थीं जो असावधानी के कारण नष्ट हो गईं।

  • इन्होंने 1157 हिजरी (संवत् 1801) में 'इंद्रावती' नामक एक सुंदर आख्यान काव्य लिखा जिसमें 'कालिंजर' के राजकुमार राजकुँवर और आगमपुर की राजकुमारी इंद्रावती की प्रेमकहानी है। कवि ने प्रथानुसार उस समय के शासक मुहम्मदशाह की प्रशंसा इस प्रकार की है -

करौं मुहम्मदशाह बखानू । है सूरज देहली सुलतानू॥
धरमपंथ जग बीच चलावा । निबर न सबरे सों दु:ख पावा॥
बहुतै सलातीन जग केरे। आइ सहास बने हैं चेरे॥
सब काहू परदाया धारई । धरम सहित सुलतानी करई॥
कवि ने अपनी कहानी की भूमिका इस प्रकार बाँधी है॥
मन दृग सों इक राति मझारा । सूझि परा मोहिं सब संसारा॥
देखेउँ एक नीक फुलवारी । देखेउँ तहाँ पुरुष औ नारी॥
दोउ मुख सोभा बरनि न जाई । चंद सुरुज उतरे भुइँ आई॥
तपी एक देखेउतेहि ठाऊँ । पूछेउँ तासौं तिन्हकर नाऊँ॥
कहा अहै राजा औ रानी । इंद्रावति औ कुँवर गियानी॥
आगमपुर इंद्रावती, कुँवर कलिंजर रास॥
प्रेम हुँते दोउन्ह कहँ, दीन्हा अलख मिलाय॥

  • कवि ने जायसी के पहले के कवियों के अनुसार पाँच पाँच चौपाइयों के उपरांत दोहे का क्रम रखा है। इसी ग्रंथ को सूफी पद्धति का अंतिम ग्रंथ मानना चाहिए।
  • नूर मुहम्मद का एक और ग्रंथ फारसी अक्षरों में लिखा मिला है, जिसका नाम है 'अनुराग बाँसुरी'। यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है। पहली बात तो इसकी भाषा है जो सूफी रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृत गर्भित है। दूसरी बात है हिन्दी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव।
  • 'इंद्रावती' की रचना करने पर शायद नूर मुहम्मद को समय समय पर यह उपालंभ सुनने को मिलता था कि तुम मुसलमान होकर हिन्दी भाषा में रचना करने क्यों गए। इसी से 'अनुराग बाँसुरी' के आरंभ में उन्हें यह सफाई देने की ज़रूरत पड़ी

जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा॥
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ॥
मन इस्लाम मिरिकलैं माँजेउँ । दीन जेंवरी करकस भाँजेउँ॥
जहँ रसूल अल्लाह पियारा । उम्मत को मुक्तावनहारा॥
तहाँ दूसरो कैसे भावै । जच्छ असुर सुर काज न आवै॥

  • संवत् 1800 तक आते आते मुसलमान हिन्दी से किनारा खींचने लगे थे। हिन्दी हिंदुओं के लिए छोड़कर अपने लिखने पढ़ने की भाषा वे विदेशी अर्थात् फारसी ही रखना चाहते थे। जिसे 'उर्दू' कहते हैं, उसका उस समय तक साहित्य] में कोई स्थान न था, इसका स्पष्ट आभास नूर मुहम्मद के इस कथन से मिलता है

कामयाब कह कौन जगावा । फिर हिन्दी भाखै पर आवा||
छाँड़ि पारसी कंद नवातैं । अरुझाना हिन्दी रस बातैं||

  • 'अनुराग बाँसुरी' का रचनाकाल 1178 हिजरी अर्थात् 1821 है। कवि ने इसकी रचना अधिक पांडित्यपूर्ण रखने का प्रयत्न किया है और विषय भी इसका तत्वज्ञान संबंधी है।
  • नूर मुहम्मद को हिन्दी भाषा में कविता करने के कारण जगह जगह इसका सबूत देना पड़ा है कि वे इस्लाम के पक्के अनुयायी थे।
  • सूफी आख्यान काव्यों की अखंडित परंपरा की यहीं समाप्ति मानी जा सकती है। इस परंपरा में मुसलमान कवि ही हुए हैं। केवल एक हिंदू मिला है। सूफी मत के अनुयायी सूरदास नामक एक पंजाबी हिंदू ने शाहजहाँ के समय में 'नल दमयंती कथा' नाम की एक कहानी लिखी थी, पर इसकी रचना अत्यंत निकृष्ट है।
  • साहित्य की कोई अखंड परंपरा समाप्त होने पर भी कुछ दिन तक उस परंपरा की कुछ रचनाएँ इधर उधर होती रहती हैं। इस ढंग की पिछली रचनाओं में 'चतुर्मुकुट की कथा' और 'यूसुफ जुलेखा' उल्लेख योग्य हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ज़िला-आजमगढ़

आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 86-88।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख