"गंगा की विदाई -माखन लाल चतुर्वेदी": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
('{{पुनरीक्षण}} {| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
{{पुनरीक्षण}}
{| style="background:transparent; float:right"
{| style="background:transparent; float:right"
|-
|-
पंक्ति 32: पंक्ति 31:
{{Poemopen}}
{{Poemopen}}
<poem>
<poem>
शिखर शिखारियों मे मत रोको,
शिखर शिखारियों में मत रोको,
उसको दौड़ लखो मत टोको,
उसको दौड़ लखो मत टोको,
लौटे ? यह न सधेगा रुकना
लौटे? यह न सधेगा रुकना
दौड़, प्रगट होना, फ़िर छुपना,
दौड़, प्रगट होना, फ़िर छुपना,


अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।


तुम ऊंचे उठते हो रह रह
तुम ऊंचे उठते हो रह रह,
यह नीचे को दौड़ जाती,
यह नीचे को दौड़ जाती,
तुम देवो से बतियाते यह,
तुम देवो से बतियाते, यह
 
भू से मिलने को अकुलाती,
भू से मिलने को अकुलाती,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
पंक्ति 50: पंक्ति 48:


तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।


डेढ सहस मील मे इसने
डेढ सहस मील में इसने,
प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीँ,
प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीँ,
तरल तारिणी तरला ने
तरल तारिणी तरला ने,
सागर की प्रणय पुकारें सुन लीँ,
सागर की प्रणय पुकारें सुन लीँ,
श्रृद्धा से दो बातें करती,
श्रृद्धा से दो बातें करती,
पंक्ति 62: पंक्ति 60:


हरे-हरे अपने आँचल कर, पट पर वैभव डाल चली,
हरे-हरे अपने आँचल कर, पट पर वैभव डाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।


यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
पंक्ति 69: पंक्ति 67:
यह तो जन जीवन का पानी !
यह तो जन जीवन का पानी !
इसकी लहरों से गर्वित 'भू'
इसकी लहरों से गर्वित 'भू'
ओढे नई चुनरिया धानी,
ओढ़े नई चुनरिया धानी,
देख रही अनगिनत आज यह,
देख रही अनगिनत आज यह,
नौकाओ की आनी-जानी,
नौकाओ की आनी-जानी,


इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली,
इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।


शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे,
शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे,
पंक्ति 81: पंक्ति 79:
भारत को वरदान हिमालय,
भारत को वरदान हिमालय,
उच्च, सुनो सागर की गुरुता,
उच्च, सुनो सागर की गुरुता,
कर दो कन्यादान हिमालय |
कर दो कन्यादान हिमालय।
पाल मार्ग से सब प्रदेश, यह तो अपने बंगाल चली,
पाल मार्ग से सब प्रदेश, यह तो अपने बंगाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।


</poem>
</poem>

08:55, 24 दिसम्बर 2011 का अवतरण

गंगा की विदाई -माखन लाल चतुर्वेदी
माखन लाल चतुर्वेदी
माखन लाल चतुर्वेदी
कवि माखन लाल चतुर्वेदी
जन्म 4 अप्रैल, 1889 ई.
जन्म स्थान बावई, मध्य प्रदेश
मृत्यु 30 जनवरी, 1968 ई.
मुख्य रचनाएँ कृष्णार्जुन युद्ध, हिमकिरीटिनी, साहित्य देवता, हिमतरंगिनी, माता, युगचरण, समर्पण, वेणु लो गूँजे धरा, अमीर इरादे, गरीब इरादे
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
माखन लाल चतुर्वेदी की रचनाएँ

शिखर शिखारियों में मत रोको,
उसको दौड़ लखो मत टोको,
लौटे? यह न सधेगा रुकना
दौड़, प्रगट होना, फ़िर छुपना,

अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।

तुम ऊंचे उठते हो रह रह,
यह नीचे को दौड़ जाती,
तुम देवो से बतियाते, यह
भू से मिलने को अकुलाती,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
इसकी धारा, सब कुछ बहता,
तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह,
इसका बाद रवानी कहता,

तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।

डेढ सहस मील में इसने,
प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीँ,
तरल तारिणी तरला ने,
सागर की प्रणय पुकारें सुन लीँ,
श्रृद्धा से दो बातें करती,
साहस पे न्यौछावर होती,
धारा धन्य की ललच उठी है,
मैं पंथिनी अपने घर होती,

हरे-हरे अपने आँचल कर, पट पर वैभव डाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।

यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
यह खेतीहर की महारानी,
यह भक्तों की अभय देवता,
यह तो जन जीवन का पानी !
इसकी लहरों से गर्वित 'भू'
ओढ़े नई चुनरिया धानी,
देख रही अनगिनत आज यह,
नौकाओ की आनी-जानी,

इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।

शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे,
लिए हुए छविमान हिमालय,
मन्त्र-मन्त्र गुंजित करते हो,
भारत को वरदान हिमालय,
उच्च, सुनो सागर की गुरुता,
कर दो कन्यादान हिमालय।
पाल मार्ग से सब प्रदेश, यह तो अपने बंगाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।

संबंधित लेख