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'''शंकर लाल बैंकर''' (जन्म- [[27 दिसंबर]], [[1889]], [[मुंबई]]) [[गांधीजी]] के प्रमुख अनुयाई, समाजसेवी एवं स्वतंत्रता सेनानी थे। वे श्रमिक, पिछड़े और दलित वर्ग के उत्थान के लिये प्रयत्नशील रहे।
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'''शंकर दत्तात्रेय देव''' (जन्म- [[4 जनवरी]], [[1894]], [[पुणे]]) [[महाराष्ट्र]] के प्रसिद्ध गांधीवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने [[मराठी भाषा]] में अनेक पत्रों का प्रकाशन और संपादन भी किया है। 
 
==परिचय==
 
==परिचय==
[[गांधीजी]] के प्रमुख अनुयाई, समाजसेवी और रचनात्मक कार्यकर्ता शंकर लाल बैंकर का जन्म [[27 दिसंबर]], [[1889]] ई. को [[मुंबई]] में हुआ था। उनके पूर्वज आनंद ([[गुजरात]]) से आकर यहां बस गए थे। शंकर लाल ने एम.ए. की परीक्षा ज़ेवियर कॉलेज, मुंबई से पास की और उच्च शिक्षा के लिए [[इंग्लैंड]] गए, किंतु प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ हो जाने के कारण पढ़ाई छोड़कर उन्हें स्वदेश लौटकर आना पड़ा।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=822|url=}}</ref>
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[[महाराष्ट्र]] के प्रसिद्ध गांधीवादी नेता एवं स्वतंत्रता सेनानी शंकर दत्तात्रेय देव का जन्म [[4 जनवरी]] [[1894]] ई. को [[पुणे ज़िला|पुणे जिले]] की भोर नामक एक छोटी रियासत में एक निर्धन परिवार में हुआ था। ढाई वर्ष की उम्र में ही इनकी [[माता]] का देहांत हो गया और [[नाना]] ने उनकी देखभाल की। वे कुछ दिन [[पुणे]] में पढ़ने के बाद [[बड़ौदा]] आ गये और कॉलेज में पड़ाई की। यहां पर [[विनोबा भावे]], छगनलाल जोशी,  एन. वी. गाडगिल जैसे उनके सहपाठी थे। [[गांधीजी]] के आह्वान पर शंकर ने कानून की पढ़ाई को छोड़कर कर जीवन पर्यंत [[स्वतंत्रता संग्राम]] और गांधीजी के रचनात्मक कार्यों में जुड़ गये। [[महाराष्ट्र]] में प्रदेश कांग्रेस कमेटी की स्थापना का श्रेय शंकर दत्तात्रेय को है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=822|url=}}</ref>  
==राष्ट्रीयता==
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== स्वतंत्रता संग्राम और जेल यात्रा==
शंकरलाल बैंकर के विचार राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत थे। राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर उन्होंने होम रूल लीग आंदोलन में भाग लिया वे मुख्यत: [[महर्षि दयानंद]], 'सत्य प्रकाश' और [[रामकृष्ण परमहंस]], [[स्वामी विवेकानंद]], [[केशवचंद्र सेन]] आदि महापुरुषों के विचारों से प्रभावित रहे हैं। उन्होंने अविवाहित रहते हुए, लगभग 60 वर्षों तक देश और [[समाज]] की सेवा की।
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[[1919]] में शंकर ने [[डॉ. राजेंद्र प्रसाद]] के साथ चंपारन ([[बिहार]]) के  गांव में घूमकर किसानों की दशा का अध्ययन किया फिर वे सेनापति बाप्टे के साथ पुणे के [[सत्याग्रह]] में सम्मिलित हो गये और गिरफ्तार कर लिए गए। [[1923]] में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तो जेल में आषाढ़ एकादशी के दिन व्रत रखने और काम न करने के कारण उन्हें जेल में ही 30 बेंतों की कठोर सजा दी गई। बेंत से मार खाते-खाते बेहोश होने तक वे [[महात्मा गांधी]] की जय बोलते रहे। [[1923]] से [[1925]] तक उन्होंने [[बारदोली सत्याग्रह|बारदोली के किसान सत्याग्रह]] के संचालन में [[सरदार पटेल]] का साथ दिया। [[1927]] में [[अंग्रेज|अंग्रेजों]] की 'फूट डालो और राज करो' की नीति का विरोध करने पर उन्हें 2 वर्ष की सजा फिर भोगनी पड़ी। उसके बाद [[1930]] के [[नमक सत्याग्रह]], [[1940]] के [[व्यक्तिगत सत्याग्रह]] और [[1942]] के '[[भारत छोड़ो आंदोलन]]' में भी वे जेल गए।
==कार्यक्षेत्र==
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==रचनात्मक कार्य==
उन्होंने अपने लिए मुख्यतः कार्यक्षेत्र निर्धारित कर लिए थे। श्रमिक आंदोलन का संचालन उन्होंने [[गांधीजी]] की दृष्टि से किया। उद्योग मालिकों तथा श्रमिकों के बीच वे संघर्ष के स्थान पर वार्तालाप का माहोल तैयार कराते रहे। श्रमिक आंदोलन का संचालन उन्होंने गांधीजी की तरह से किया। समाज के पिछड़े वर्ग, श्रमिक और दलित वर्ग के उत्थान के कार्य में वे प्रयासरत रहे। शंकरलाल उनका सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से उत्थान करना चाहते थे। खादी और ग्रामोद्योग के क्षेत्र में उनकी समान रूचि और गहरी पैठ थी। इस क्षेत्र में उन्होंने बहुत विशेषज्ञता प्राप्त कर ली थी।
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शंकर दत्तात्रेय देव रचनात्मक कार्यकर्ता तो थे ही उन्होंने रचनात्मक कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए [[पुणे ज़िला|पुणे जिले]] में एक आश्रम की स्थापना की थी। [[विनोबा भावे]] द्वारा संचालित भूदान आंदोलन के भी सक्रिय कार्यकर्ता थे। वे एक अच्छे [[लेखक‍|लेखक]] भी थे। उन्होंने [[मराठी भाषा]] के अनेक पत्रों का प्रकाशन और संपादन किया। कांग्रेस संगठन से उनका निकट का संबंध था [[1946]] से [[1950]] तक वे [[कांग्रेस]] के महासचिव थे। संपूर्ण जीवन देश सेवा करने के लिये वे आजीवन अविवाहित रहे।
==गांधीजी से निकटता==
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शंकर लाल बैंकर [[गांधीजी]] के अत्यंत निकट थे। [[1920]] में वे [[महात्मा गांधी]] के सम्पर्क में आए और सदा के लिए उनके अनुयाई बन गए। उन्होंने गांधीजी द्वारा आरंभ किए हर राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लिया और जेल की यातनाएं भोगीं। ग्रामोद्योग और खादी के क्षेत्र में उन्होंने इतनी विशेषज्ञता प्राप्त कर ली थी कि गांधीजी उनसे परामर्श किया करते थे। उनकी गणना गांधीजी के विचारों को भली-भांति समझने और और उनके अनुसार काम करने वाले राष्ट्र सेवकों में होती थी।
 
  
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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महाराष्ट्र के प्रसिद्ध गांधीवादी नेता शंकर दत्तात्रेय देव का जन्म 4 जनवरी 1894  ईसवी को पुणे जिले की भोर नामक एक छोटी रियासत में एक निर्धन परिवार में हुआ था|  ढाई वर्ष के थे, तभी माता का देहांत हो गया और नाना ने उनकी देखभाल की।  कुछ दिन पुणे में पढ़ने के बाद शंकर बड़ौदा चले आए और कॉलेज में भर्ती हो गए।  यहां उनके सहपाठी थे विनोबा भावे छगनलाल जोशी (जो बाद में साबरमती आश्रम के सचिव बने)  एन.वी. गाडगिल  आदि।  शंकर कानून की पढ़ाई कर रहे थे, तभी गांधी जी के आह्वान पर  उन्होंने छोड़ दिया।  तब से वह जीवन पर्यंत स्वतंत्रता संग्राम और गांधी जी के रचनात्मक कार्यों में जुड़े रहे।
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1919 में शंकर ने डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के साथ चंपारन बिहार के गांव में घूमकर किसानों की दशा का अध्ययन किया फिर वे सेनापति बाप्टे के साथ पुणे के सत्याग्रह में सम्मिलित हुए और गिरफ्तार कर लिए गए।  1923 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।  इस बार की जेल यात्रा में आषाढ़ एकादशी के दिन व्रत रखने और काम न करने के कारण उन्हें जेल में ही 30 बेंतों की कठोर सजा दी गई। बेंत लगते समय  बेहोश होने तक वे महात्मा गांधी की जय बोलते रहे।  महाराष्ट्र में प्रदेश कांग्रेस कमेटी की स्थापना का श्रेय शंकर दत्तात्रेय को है।  1923  से 1925 तक उन्होंने बारदोली के किसान सत्याग्रह के संचालन में सरदार पटेल का साथ दिया। 1927 में अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो'  की नीति का विरोध करने पर उन्हें 2 वर्ष की सजा फिर भोगनी पड़ी।  उसके बाद 1930 के नमक सत्याग्रह, 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह और 1942 के 'भारत छोड़ो' आंदोलन में भी वे जेल गए। विनोबा भावे द्वारा संचालित भूदान आंदोलन के भी शंकर सक्रिय कार्यकर्ता थे।
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शंकर दत्तात्रेय अच्छे लेखक भी थे।  उन्होंने मराठी भाषा के अनेक पत्रों का प्रकाशन और संपादन किया।  रचनात्मक कार्य कर्ता के प्रशिक्षण के लिए उन्होंने पुणे जिले में एक आश्रम की स्थापना की थी।  कांग्रेस संगठन से उनका निकट का संबंध था 1946 से 1950 तक वे कांग्रेस के महासचिव थे।  संपूर्ण जीवन देश सेवा को समर्पित करने के उद्देश्य से वे आजीवन अविवाहित रहे।
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भारतीय चरित्र कोश 822

08:46, 14 जुलाई 2018 का अवतरण

शंकर दत्तात्रेय देव (जन्म- 4 जनवरी, 1894, पुणे) महाराष्ट्र के प्रसिद्ध गांधीवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने मराठी भाषा में अनेक पत्रों का प्रकाशन और संपादन भी किया है।

परिचय

महाराष्ट्र के प्रसिद्ध गांधीवादी नेता एवं स्वतंत्रता सेनानी शंकर दत्तात्रेय देव का जन्म 4 जनवरी 1894 ई. को पुणे जिले की भोर नामक एक छोटी रियासत में एक निर्धन परिवार में हुआ था। ढाई वर्ष की उम्र में ही इनकी माता का देहांत हो गया और नाना ने उनकी देखभाल की। वे कुछ दिन पुणे में पढ़ने के बाद बड़ौदा आ गये और कॉलेज में पड़ाई की। यहां पर विनोबा भावे, छगनलाल जोशी, एन. वी. गाडगिल जैसे उनके सहपाठी थे। गांधीजी के आह्वान पर शंकर ने कानून की पढ़ाई को छोड़कर कर जीवन पर्यंत स्वतंत्रता संग्राम और गांधीजी के रचनात्मक कार्यों में जुड़ गये। महाराष्ट्र में प्रदेश कांग्रेस कमेटी की स्थापना का श्रेय शंकर दत्तात्रेय को है।[1]

स्वतंत्रता संग्राम और जेल यात्रा

1919 में शंकर ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद के साथ चंपारन (बिहार) के गांव में घूमकर किसानों की दशा का अध्ययन किया फिर वे सेनापति बाप्टे के साथ पुणे के सत्याग्रह में सम्मिलित हो गये और गिरफ्तार कर लिए गए। 1923 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तो जेल में आषाढ़ एकादशी के दिन व्रत रखने और काम न करने के कारण उन्हें जेल में ही 30 बेंतों की कठोर सजा दी गई। बेंत से मार खाते-खाते बेहोश होने तक वे महात्मा गांधी की जय बोलते रहे। 1923 से 1925 तक उन्होंने बारदोली के किसान सत्याग्रह के संचालन में सरदार पटेल का साथ दिया। 1927 में अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' की नीति का विरोध करने पर उन्हें 2 वर्ष की सजा फिर भोगनी पड़ी। उसके बाद 1930 के नमक सत्याग्रह, 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह और 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' में भी वे जेल गए।

रचनात्मक कार्य

शंकर दत्तात्रेय देव रचनात्मक कार्यकर्ता तो थे ही उन्होंने रचनात्मक कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए पुणे जिले में एक आश्रम की स्थापना की थी। विनोबा भावे द्वारा संचालित भूदान आंदोलन के भी सक्रिय कार्यकर्ता थे। वे एक अच्छे लेखक भी थे। उन्होंने मराठी भाषा के अनेक पत्रों का प्रकाशन और संपादन किया। कांग्रेस संगठन से उनका निकट का संबंध था 1946 से 1950 तक वे कांग्रेस के महासचिव थे। संपूर्ण जीवन देश सेवा करने के लिये वे आजीवन अविवाहित रहे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 822 |

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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महाराष्ट्र के प्रसिद्ध गांधीवादी नेता शंकर दत्तात्रेय देव का जन्म 4 जनवरी 1894 ईसवी को पुणे जिले की भोर नामक एक छोटी रियासत में एक निर्धन परिवार में हुआ था| ढाई वर्ष के थे, तभी माता का देहांत हो गया और नाना ने उनकी देखभाल की। कुछ दिन पुणे में पढ़ने के बाद शंकर बड़ौदा चले आए और कॉलेज में भर्ती हो गए। यहां उनके सहपाठी थे विनोबा भावे छगनलाल जोशी (जो बाद में साबरमती आश्रम के सचिव बने) एन.वी. गाडगिल आदि। शंकर कानून की पढ़ाई कर रहे थे, तभी गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने छोड़ दिया। तब से वह जीवन पर्यंत स्वतंत्रता संग्राम और गांधी जी के रचनात्मक कार्यों में जुड़े रहे।

1919 में शंकर ने डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के साथ चंपारन बिहार के गांव में घूमकर किसानों की दशा का अध्ययन किया फिर वे सेनापति बाप्टे के साथ पुणे के सत्याग्रह में सम्मिलित हुए और गिरफ्तार कर लिए गए।  1923 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।  इस बार की जेल यात्रा में आषाढ़ एकादशी के दिन व्रत रखने और काम न करने के कारण उन्हें जेल में ही 30 बेंतों की कठोर सजा दी गई। बेंत लगते समय   बेहोश होने तक वे महात्मा गांधी की जय बोलते रहे।  महाराष्ट्र में प्रदेश कांग्रेस कमेटी की स्थापना का श्रेय शंकर दत्तात्रेय को है।  1923  से 1925 तक उन्होंने बारदोली के किसान सत्याग्रह के संचालन में सरदार पटेल का साथ दिया। 1927 में अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो'  की नीति का विरोध करने पर उन्हें 2 वर्ष की सजा फिर भोगनी पड़ी।  उसके बाद 1930 के नमक सत्याग्रह, 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह और 1942 के 'भारत छोड़ो' आंदोलन में भी वे जेल गए। विनोबा भावे द्वारा संचालित भूदान आंदोलन के भी शंकर सक्रिय कार्यकर्ता थे।
शंकर दत्तात्रेय अच्छे लेखक भी थे।  उन्होंने मराठी भाषा के अनेक पत्रों का प्रकाशन और संपादन किया।  रचनात्मक कार्य कर्ता के प्रशिक्षण के लिए उन्होंने पुणे जिले में एक आश्रम की स्थापना की थी।  कांग्रेस संगठन से उनका निकट का संबंध था 1946 से 1950 तक वे कांग्रेस के महासचिव थे।  संपूर्ण जीवन देश सेवा को समर्पित करने के उद्देश्य से वे आजीवन अविवाहित रहे।

भारतीय चरित्र कोश 822