मोहन ! कल जो तुम मुस्कुराते मिले मेरी जन्मों की साध मानो पूर्ण किए अब खोजती हूँ मुस्कुराने के अर्थ जाने कौन से भेद थे छुपे अटकलें लगाती हूँ मगर प्यारे तुम्हारे प्रेम की न थाह पाती हूँ जाने कौन सी अदा भा गयी जो इस गोपी पर दया आ गयी प्रेम की यूं बाँसुरी बजायी मेरी प्रीत दौड़ी चली आई और न कुछ मेरी पूँजी है ये अश्रुओं की खेती ही बीजी है जो तुम इन पर रिझो बिहारी तो अश्रुहार से करूँ श्रृंगार मुरारी हे गोविन्द! हे केशव! हे माधव ! अब विनती यही है हमारी छवि ऐसी ही दिखलाया करना जब जब निज चरणन में बुलाया करना नैनन में जो बसी छवि प्यारी मैं भूली अपनी सुध सारी प्रीतम बस यही है मेरी प्रीत सारी तुझ पर जाऊँ तन मन से बलिहारी