चैतन्य महाप्रभु का मत

चैतन्य महाप्रभु के मत को अचिन्त्य भेदाभेदवाद के नाम से पुकारा जाता है। अत: यह जानना भी आवश्यक है कि अचिन्त्य का अर्थ क्या है।
- श्रीधर स्वामी के अनुसार अचिन्त्य वह ज्ञान है, जो तर्कगम्य नहीं होता। 'अचिन्त्यम् तर्कासहं यज्ञज्ञानम्।'
- जबकि जीव गोस्वामी के अनुसार अचिन्त्य का अर्थ है- :'अर्थापत्तिगम्य'- 'भिन्नाभिन्नत्वादिविकल्पेश्चिन्तयितुमशक्य: केवलमर्थापत्ति ज्ञानगोचर:।'
जीव गोस्वामी ने भागवत संदर्भ में यह भी कहा है कि वह शक्ति जो असम्भव को भी सम्भव बना दे अथवा अभेद में भी भेद का दर्शन करवा दे, अचिन्त्य कहलाती है।
- "दुर्घटघटकत्वम् अचिन्त्यत्वम्।" रूप गोस्वामी का यह कथन है कि पुरुषोत्तम में एकत्व और पृथकत्व अंशत्व और अंशित्व युगपद रूप में रह सकते हैं। जिस प्रकार अग्नि में ज्वलन शक्ति तथा जैसे भगवान श्रीकृष्ण में सोलह हज़ार रानियों के समक्ष एक साथ ही रहने की शक्ति है, किन्तु उसकी कोई तार्किक व्याख्या नहीं की जा सकती, उसी प्रकार अभेद में भेद की सत्ता है, किन्तु उसका तार्किक विश्लेषण नहीं किया जा सकता, वह अचिन्त्य है।
- बलदेव विद्याभूषण ने अचिन्त्य की व्याख्या में विशेष शब्द का भी सन्निवेश कर दिया और इस प्रकार उन्होंने अभेद में भेद का आधार विशेष को ही बतलाया और एक प्रकार से विशेष को अचिन्त्य का पर्यायवाची मानने का उपक्रम किया।
- विशेषबलात् तद् भेद व्यवहारो भवतिविशेषश्च भेदप्रतिनिधि: भेदाभावेऽपि तत् कार्य प्रत्याय्यम्।[1]
चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार न केवल भेदाभेद के विश्लेषण के लिए, अपितु श्रुतियों की व्याख्या के लिए भी अचिन्त्य शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए बृहदारण्यक उपनिषद[2] में कहा गया है- 'विज्ञानम् आनन्दं ब्रह्म।' इस श्रुति वाक्य में यदि आनन्द और विज्ञान को समानार्थक माना जाये तो दोनों शब्दों में से एक का प्रयोग व्यर्थ हो उठेगा। इसके विपरीत यदि दोनों शब्दों को समानार्थक न माना जाये तो ब्रह्म में स्वत: ही भेद मानना पड़ेगा। इस समस्या का समाधान अचिन्त्य शक्ति के आधार पर ही सम्भव है। अत: चैतन्य का मत, यदि 'अचिन्त्य भेदाभेद' नाम से प्रसिद्ध हुआ तो यह श्रुति व्याख्यान की दृष्टि से भी उपयुक्त ही है।
अचिन्त्य भेदाभेदवाद का तुलनात्मक विश्लेषण
शंकर के अनुसार निर्विकल्पक ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है और सम्यक ज्ञान ही उसकी प्राप्ति का एक मात्र साधन है। जबकि चैतन्य ब्रह्म को सविकल्पक मानते हैं और भक्ति को ही उसकी प्राप्ति का साधन बतलाते हैं। शंकर के अनुसार ब्रह्म "सत्-चित्-आनन्दमय" है।

निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से सत् का ज्ञान होता है। सत् ही चिन्मय है। रामानुज, वल्लभ और मध्व निर्विकल्पक ज्ञान की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। चैतन्य मतानुयायी जीव गोस्वामी भी वैसे तो निर्विकल्पक ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, किन्तु उनका यह भी कथन है कि यदि निर्विकल्पक ब्रह्म को मानना ही हो तो अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि वह सविकल्पक ब्रह्म का अपूर्ण दर्शन है। चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार ब्रह्म केवल भक्तिगम्य है। वल्लभाचार्य का भक्ति मार्ग और चैतन्य का भक्ति मार्ग प्राय: एक जैसा ही है। निम्बार्क का 'द्वैताद्वैतवाद' और चैतन्य का 'अचिन्त्य भेदाभेदवाद' भी एक दूसरे से बहुत भिन्न नहीं है। मध्व के मत से तो चैतन्य मत का अत्यधिक साम्य स्पष्ट होता है। श्री मध्व और चैतन्य दोनों के मतानुसार ब्रह्म सगुण और सर्विशेष है।
जीव अणु और सेवक है। जीव की मुक्ति भक्ति से होती है। जगत सत्य है और ब्रह्म भी जगत का निमित्त और उपादान कारण है। जीव और ब्रह्म मुक्तावस्था में भी भिन्न रहते हैं। किन्तु मध्व के मत से इतना साम्य होने पर भी चैतन्य का मत इस दृष्टि से कुछ पृथक है कि चैतन्य के मत में गुण और गुणी भाव से जीव और ब्रह्म को अभिन्न और भिन्न माना जाता है। उपासना की दृष्टि से भी दोनों में यह अन्तर है कि जहाँ मध्व ब्रह्म और जीव में सेव्य-सेवक भाव को ही स्फूर्ति मानते हैं, वहाँ गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय में ब्रह्म और जीव के बीच दास्य के अतिरिक्त शान्त, सख्य, वात्सल्य और मधुर भाव को भी स्थान दिया गया है। जीव गोस्वामी ब्रह्म को अद्वय ज्ञानतत्व बतलाते हैं। अद्वैतवादियों ने भी यद्यपि इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है किन्तु वहाँ पर शंकर का यह विचार कि ब्रह्म 'अद्वय' है, क्योंकि उसके अतिरिक्त कोई दूसरा तत्व है ही नहीं, वहाँ रूप गोस्वामी के अनुसार ब्रह्म अद्वय है, क्योंकि वैसा ही कोई दूसरा तत्व ब्रह्माण्ड में विद्यमान नहीं है।[3] जीव गोस्वामी भगवान को परम तत्व और ब्रह्म को निर्विशेष मानते हैं। ब्रह्म में शक्तियाँ अव्यक्त रूप से रहती हैं। भगवान में वे क्रियाशीलता के साथ रहती हैं। इन दोनों स्थितियों के बीच की एक अन्य स्थिति है, जिसमें ब्रह्म को परमात्मा कहा जाता है। माया शक्ति का सम्बन्ध परमात्मा से ही है।
![]() |
चैतन्य महाप्रभु का मत | ![]() |
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सिद्धांत रत्न 83.4
- ↑ बृहदारण्यक उपनिषद 3.9.2.8
- ↑ आशय यह है कि ब्रह्म के समान तो नहीं, किन्तु उससे अवर तत्व जीव जगत तो विद्यमान हैं
बाहरी कड़ियाँ
- चैतन्य महाप्रभु
- गौरांग ने आबाद किया कृष्ण का वृन्दावन
- Gaudiya Vaishnava
- Lord Gauranga (Sri Krishna Chaitanya Mahaprabhu)
- Gaudiya History
- Sri Gaura Purnima Special: Scriptures that Reveal Lord Chaitanya’s Identity as Lord Krishna
- Gaudiya Vaishnavas
- चैतन्य महाप्रभु - जीवन परिचय
- परिचय- चैतन्य महाप्रभु
- जीवनी/आत्मकथा >> चैतन्य महाप्रभु (लेखक- अमृतलाल नागर)
- श्री संत चैतन्य महाप्रभु
- चैतन्य महाप्रभु यदि वृन्दावन न आये होते तो शायद ही कोई पहचान पाता कान्हा की लीला स्थली को
- Shri Chaitanya Mahaprabhu -Hindi movie (youtube)
संबंधित लेख