ऊदा देवी

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ऊदा देवी
ऊदा देवी
ऊदा देवी
पूरा नाम ऊदा देवी
अन्य नाम जगरानी
मृत्यु 16 नवम्बर, 1857
मृत्यु स्थान सिकंदर बाग़, लखनऊ
मृत्यु कारण शहादत
पति/पत्नी मक्का पासी
स्मारक ऊदा देवी की एक मूर्ति 'सिकन्दर बाग़' परिसर में कुछ ही वर्ष पूर्व स्थापित की गयी है।
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि महिला स्वतंत्रता सेनानी
संबंधित लेख प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन
अन्य जानकारी ऊदा देवी अवध के छठे नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते की सदस्या थीं। उन्होंने 16 नवम्बर, 1857 को 32 अंग्रेज़ सैनिकों को मौत के घाट उतारकर शहादत प्राप्त की थी।

ऊदा देवी 'पासी' जाति से सम्बंधित एक वीरांगना थीं, जिन्होंने 1857 के 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' में प्रमुखता से भाग लिया था। ये अवध के नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते की सदस्या थीं। ऊदा देवी लखनऊ की रहने वाली थीं और उन्होंने लखनऊ के सिकन्दर बाग़ में एक पेड़ पर चढ़कर दो दर्जन से अधिक अंग्रेज़ सिपाहियों को मार डाला था। यद्यपि इस लड़ाई में काफ़ी देर तक संघर्ष करने के बाद ऊदा देवी भी शहीद हो गईं। कहा जाता है कि उनकी इस स्तब्ध कर देने वाली वीरता से अभिभूत होकर अंग्रेज़ काल्विन कैम्बेल ने हैट उतारकर शहीद ऊदा देवी को श्रद्धांजलि दी थी।

संक्षिप्त परिचय

वीरांगना ऊदा देवी के सम्बंध में अधिक जानकारी का अभाव है। इनका ससुराली नाम 'जगरानी' माना जाता है। इनके भक्त दृढ़ता से यह मत व्यक्त करते रहे हैं कि ऊदा देवी उर्फ जगरानी को 16 नवम्बर, 1857 को सिकन्दर बाग़ में साहसिक कारनामा अंजाम देने की शक्ति उनके पति 'मक्का पासी' के बलिदान से प्राप्त हुई थी।[1]

महिला दस्ते की सदस्या

ऊदा देवी अवध के छठे नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते की सदस्या थीं। वाजिद अली शाह 'दौरे वली अहदी' में परीख़ाना की स्थापना के कारण लगातार विवाद का कारण बने रहे। फ़रवरी, 1847 में नवाब बनने के बाद अपनी संगीत प्रियता और भोग-विलास आदि के कारण वे बार-बार ब्रिटिश रेजीडेंट द्वारा चेताये जाते रहे। नवाब वाजिद अली शाह ने बड़ी मात्रा में अपनी सेना में सैनिकों की भर्ती की, जिसमें लखनऊ के सभी वर्गों के ग़रीब लोगों को नौकरी पाने का अच्छा अवसर मिला। ऊदा देवी के पति भी काफ़ी साहसी व पराक्रमी थे, वे भी वाजिद अली शाह की सेना में भर्ती हुए। वाजिद अली शाह ने इमारतों, बाग़ों, संगीत, नृत्य व अन्य कला माध्यमों की तरह अपनी सेना को भी बहुरंगी विविधता तथा आकर्षक वैभव प्रदान किया था।

नवाब वाजिद अली शाह ने अपनी पलटनों को 'तिरछा रिसाला', 'गुलाबी', 'दाऊदी', 'अब्बासी', 'जाफरी' जैसे फूलों के नाम दिये और फूलों के रंग के अनुरूप ही उस पल्टन की वर्दी का रंग भी निर्धारित किया। परी से महल बनी उनकी मुंहलगी बेगम 'सिकन्दर महल' को 'ख़ातून दस्ते' का रिसालदार बनाया गया था। स्पष्ट है वाजिद अली शाह ने अपनी कुछ बेगमों को सैनिक योग्यता भी दिलायी थी। उन्होंने बली अहदी के समय में अपने तथा परियों की रक्षा के उद्देश्य से तीस फुर्तीली स्त्रियों का एक सुरक्षा दस्ता भी बनाया, जिसे अपेक्षानुरूप सैनिक प्रशिक्षण भी दिया गया। संभव है ऊदा देवी पहले इसी दस्ते की सदस्य रही हों, क्योंकि बादशाह बनने के बाद नवाब ने इस दस्ते को भंग करके बाकायदा स्त्री पलटन खड़ी की थी। इस पलटन की वर्दी काली रखी गयी थी।

स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी

ऊदा देवी ने वर्ष 1857 के 'प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' के दौरान भारतीय सिपाहियों की ओर से युद्ध में भाग लिया था। ये अवध के छठे नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते की सदस्या थीं। इस विद्रोह के समय हुई लखनऊ की घेराबंदी के समय लगभग 2000 भारतीय सिपाहियों के शरण स्थल 'सिकन्दर बाग़' पर ब्रिटिश फौजों द्वारा चढ़ाई की गयी और 16 नवंबर, 1857 को बाग़ में शरण लिये इन 2000 भारतीय सिपाहियों का ब्रिटिश फौजों द्वारा संहार कर दिया गया था।

शहादत

इस लड़ाई के दौरान ऊदा देवी ने पुरुषों के वस्त्र धारण कर स्वयं को एक पुरुष के रूप में तैयार किया था। लड़ाई के समय वे अपने साथ एक बंदूक और कुछ गोला-बारूद लेकर एक ऊँचे पेड़ पर चढ़ गयी थीं। उन्होने हमलावर ब्रिटिश सैनिकों को सिकंदर बाग़ में तब तक प्रवेश नहीं करने दिया, जब तक कि उनका गोला बारूद समाप्त नहीं हो गया। ऊदा देवी 16 नवम्बर, 1857 को 32 अंग्रेज़ सैनिकों को मौत के घाट उतारकर वीरगति को प्राप्त हुईं। ब्रिटिश सैनिकों ने उन्हें उस समय गोली मारी, जब वे पेड़ से उतर रही थीं। उसके बाद जब ब्रिटिश लोगों ने जब बाग़ में प्रवेश किया, तो उन्होने ऊदा देवी का पूरा शरीर गोलियों से छलनी कर दिया। इस लड़ाई का स्मरण कराती ऊदा देवी की एक मूर्ति सिकन्दर बाग़ परिसर में कुछ ही वर्ष पूर्व स्थापित की गयी है।

विशेष उल्लेख

  • 'लंदन टाइम्स' के संवाददाता विलियम हावर्ड रसेल ने लड़ाई के समाचारों का जो डिस्पैच लंदन भेजा था, उसमें पुरुष वेशभूषा में एक स्त्री द्वारा पीपल के पेड़ से गोलियाँ चलाने तथा अंग्रेज़ सेना को भारी क्षति पहुँचाने का उल्लेख प्रमुखता से किया गया है। संभवतः 'लंदन टाइम्स' में छपी खबरों के आधार पर ही कार्ल मार्क्स ने भी अपनी टिप्पणी में इस घटना को समुचित स्थान दिया।
  • वीरांगना ऊदा देवी का ससुराली नाम 'जगरानी' माना जाता है। इनके भक्त दृढ़ता से यह मत व्यक्त करते रहे हैं कि ऊदा देवी उर्फ 'जगरानी' को 16 नवम्बर, 1857 को सिकन्दर बाग़ में साहसिक कारनामा अंजाम देने की शक्ति उनके पति 'मक्का पासी' के बलिदान से प्राप्त हुई थी। अर्थात् 10 जून, 1857 को लखनऊ के क़स्बा चिनहट के निकट इस्माईलगंज में हेनरी लारेंस के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौज के साथ मौलवी अहमद उल्लाह शाह की अगुवाई में संगठित विद्रोही सेना की ऐतिहासिक लड़ाई में मक्का पासी की शहादत ने उनमें प्रतिशोध की ज्वाला धधकाई थी। इस प्रतिशोध कीे आग को उन्होंने कानपुर से आयी काल्विन कैम्बेल सेना के 32 सिपाहियों को मृत्युलोक पहुँचाकर बुझाया।
  • कहा जाता है कि ऊदा देवी की स्तब्ध कर देने वाली वीरता से अभिभूत होकर काल्विन कैम्बेल ने हैट उतारकर शहीद ऊदा देवी को श्रद्धांजलि दी।
  • निश्चय ही सिकन्दर बाग़ की लड़ाई चिनहट के महासंग्राम की अगली कड़ियों में से एक थी। यक़ीनी तौर पर चिनहट की लड़ाई में विद्रोही सेना की विजय तथा हेनरी लारेंस की फौज का मैदान छोड़कर भाग खड़ा होना, 'प्रथम स्वतंत्रता संग्राम' की बहुत बड़ी उपलब्धि थी; जिसके निश्चित प्रभाव कालांतर में सितम्बर, 1858 तक चले इस संग्राम पर पड़े।
  • यह भी सही है कि दमन के सहारे साम्राज्य को फैलाये जाने के ख़िलाफ़ भारतीय अवाम में प्रतिशोध की जो लहर विस्तार पा रही थी, उसका उल्लेख पहले भी आया है। 'मक्का पासी' तथा 'ऊदा देवी' इसकी विराटता से अलग नहीं थे, उनके भीतर भी वही आग थी। ज़ालिम फिरंगियों को खदेड़ो, मारो और बाहर निकालो।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 लोक संघर्ष, ऊदा देवी-2 (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 18 अप्रैल, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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