नाना साहब

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नाना साहब
नाना साहब
पूरा नाम नाना साहब
जन्म 19 मई, 1824
जन्म भूमि वेणुग्राम, महाराष्ट्र
मृत्यु तिथि 6 अक्टूबर, 1858
मृत्यु स्थान अनिश्चित
पिता/माता पिता- माधवनारायण भट्ट

माता- गंगाबाई
पालक पिता- बाजीराव द्वितीय

प्रसिद्धि पेशवा, स्वतंत्रता सेनानी
संबंधित लेख मराठा, पेशवा, बाजीराव द्वितीय

नाना साहब (अंग्रेज़ी: Nana Saheb, जन्म- 19 मई, 1824, वेणुग्राम, महाराष्ट्र; मृत्यु- 6 अक्टूबर, 1858) सन 1857 के भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार थे। उनका मूल नाम 'धोंडूपंत' था। स्वतंत्रता संग्राम में नाना साहेब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोहियों का नेतृत्व किया। पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट द्वितीय ने नाना साहब को गोद ले लिया था। इतिहास में नाना साहेब को बालाजी बाजीराव के नाम से भी संबोधित किया गया है। 1 जुलाई 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ और उन्होंने क्रांतिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया।

परिचय

नाना साहब ने 19 मई सन 1824 को वेणुग्राम निवासी माधवनारायण भट्ट के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय जिस समय दक्षिण छोड़कर गंगा तटस्थ बिठूर, कानपुर में रहने लगे थे, तब उनके साथ दक्षिण के पं। माधवनारायण भट्ट और उनकी पत्नी गंगाबाई भी वहीं रहने लगे थे। इसी भट्ट दम्पत्ति से एक ऐसे बालक का जन्म हुआ, जो भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में अपने अनुपम देशप्रेम के कारण सदैव अमर हो गया। पेशवा बाजीराव द्वितीय ने पुत्रहीन होने के कारण इसी बालक को गोद ले लिया था। कानपुर के पास गंगा तट के किनारे बिठुर (कानपुर) में ही रहते हुए, बाल्यावस्था में ही नाना साहब ने घुड़सवारी, मल्लयुद्ध और तलवार चलाने में कुशलता प्राप्त कर ली थी। अजीम उल्ला ख़ाँ नाना साहब का वेतन भोगी कर्मचारी था।

पेंशन का रुकना

पेशवा बाजीराब को मराठा साम्राज्य छोड़कर कानपूर के पास बिठूर आना पड़ा था। इस समय तक अंग्रेजों ने भारत के एक बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया था। इसी दौरान 28 जनवरी 1851 ई। को पेशवा बाजीराव की मौत हो गई। कहा जाता है कि मृत्यु तक पेशवा को 80 हजार डॉलर की पेंशन अंग्रेज़ सरकार से मिलती थी, लेकिन बाद में उसे रोक दिया गया। माना जाता है कि लॉर्ड डलहौजी ने नाना साहेब को दत्तक पुत्र होने के कारण पेंशन देने से मना कर दिया। ऐसे में नाना साहेब को इस बात से बहुत दु:ख हुआ। एक तो वैसे ही उनके मराठा साम्राज्य पर अंग्रेज अपनी हुकूमत जमा कर बैठे थे, वहीं दूसरी ओर उन्हें जीवन यापन के लिए रॉयल्टी का कुछ भी हिस्सा नहीं दिया जा रहा था।[1]

इसके बाद 1853 ई। में नाना साहेब ने अपने सचिव अजीम उल्ला ख़ाँ को पेंशन बहाली पर बात करने के लिए लंदन भेजा। अजीम उल्ला ख़ाँ हिंदी, फ़ारसी, उर्दू, फ्रेंच, जर्मन और संस्कृत का अच्छा ज्ञाता था। वह अंग्रेजों की क्रूर नीतियों का शिकार था, इसलिए नाना साहेब ने उसे अपना सचिव बना लिया था। इस दौरान अजीम उल्ला ने अंग्रेज अधिकारियों को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उनकी सभी दलीलें ठुकरा दी गईं। ब्रिटिश अधिकारियों के इस रवैये से नाना साहेब बेहद खफा थे। ऐसे में उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत को ही सबसे अच्छा विरोध का माध्यम माना।

बगावत

उधर, मंगल पांडे के नेतृत्व में मेरठ छावनी के सिपाही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का मन बना चुके थे। खबर उड़ती-उड़ती नाना साहेब के पास पहुंची तो इन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर 1857 में ब्रिटिश राज के खिलाफ कानपुर में बगावत छेड़ दी। जब मई 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ज्वालायें उठीं, नाना साहब भी राष्ट्र मुक्ति संघर्ष में कूद पड़े थे। उन्होंने कानपुर पर अधिकार कर लिया। कई मास इस पर आज़ादी का झण्डा लहराता रहा। कानपुर पर फिर से अधिकार करने के लिए हेवलॉक ने विशाल सेना के साथ आक्रमण किया। उन्होंने कुछ समय तक शत्रु सेना से वीरता के साथ संघर्ष किया। अन्त में उनकी पराजय हुई। नाना साहब ने अपना साहस नहीं खोया और उन्होंने कई स्थानों में शत्रु सेना से संघर्ष किया। अन्त में जब 1857 का प्रथम संग्राम असफल हुआ, तब नाना साहब को सपरिवार नेपाल की शरण लेनी पड़ी। लेकिन वहाँ शरण ना मिल सकी, क्योंकि नेपाल दरबार अंग्रेज़ों को असन्तुष्ट नहीं करना चाहता था। जुलाई सन 1857 तक इस महान् देश भक्त को घोर आपत्तियों में अपने दिन व्यतीत करने पड़े। उनका स्वराज्य स्थापना का स्वप्न टूट चुका था।

सत्ती घाट नरसंहार

नाना साहेब और ब्रिटिश सेना के बीच की इस लड़ाई ने सत्ती चोरा घाट के नरसंहार के बाद और भी गंभीर रुख अख्तियार कर लिया। दरअसल, 1857 में एक समय पर नाना साहेब ने ब्रिटिश अधिकारियों के साथ समझौता कर लिया था, मगर जब कानपुर का कमांडिंग ऑफिसर जनरल विहलर अपने साथी सैनिकों व उनके परिवारों समेत नदी के रास्ते कानपुर आ रहे थे, तो नाना साहेब के सैनिकों ने उन पर हमला कर दिया। इस घटना के बाद ब्रिटिश पूरी तरह से नाना साहेब के खिलाफ हो गए और उन्होंने नाना साहेब के गढ़ माने जाने वाले बिठूर पर हमला बोल दिया। हमले के दौरान नाना साहेब जैसे-तैसे अपनी जान बचाने में सफल रहे। लेकिन यहां से भागने के बाद उनके साथ क्या हुआ यह बड़ा सवाल है। इसे लेकर कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वह भागने में सफल हो गए थे और अंग्रेजी सेना से बचने के लिए भारत छोड़कर नेपाल चले गए।

खजाने की तलाश

हालांकि रहस्य केवल नाना साहेब के गायब होने का नहीं है। बात उनके बेशकीमती खजाने की भी है। जिस समय अंग्रेजों ने नाना साहेब के महल पर हमला किया, तो उनके हाथ नाना साहेब तो नहीं लगे, लेकिन दौलत के भूखे अंग्रेजों ने उनके महल को कुरेदना शुरू कर दिया।अंग्रेज वहां किसी गुप्त खजाने की तलाश में थे। इसके लिए खासतौर पर रॉयल इंजीनियरों व लगभग आधी ब्रिटिश सेना को काम पर लगा दिया गया। खजाने की खोज के लिए अंग्रेजों ने कुछ भारतीय जासूसों की भी मदद ली। जिसके चलते वह खजाना ढूंढ पाने में लगभग सफल हो ही गए। महल में खोज के दौरान अंग्रेजों को सात गहरे कुंए मिले। जिनमें तलाशने पर उन्हें सोने की प्लेट मिली। इससे यह पक्का हो गया कि नाना साहेब का खजाना इन्हीं कुओं में कहीं छिपाया गया है।[1]

इस दौरान सारा पानी निकाल कर जब कुंए की तलाशी ली गई, तो कुएं के तल में बड़े-बड़े बक्से दिखे, जिसमें सोने की कई प्लेटें, चांदी के सिक्के व अन्य बेशकीमती सामान रखा हुआ था। इतना बड़ा खजाना अंग्रेजों के हाथ लग चुका था, बावजूद इसके उनका मानना था कि नाना साहेब खजाने का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने साथ ले गए हैं।

मृत्यु

नाना साहब की मृत्यु को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। माना जाता है कि नेपाल के देवखारी गांव में रहते हुए नाना साहेब भयंकर बुख़ार से पीड़ित हो गए और इसी के परिणामस्वरूप मात्र 34 साल की उम्र में 6 अक्टूबर, 1858 को इनकी मौत हो गई। कुछ विद्वानों एवं शोधार्थियों के अनुसार क्रान्तिकारी नाना साहब के जीवन का पटाक्षेप नेपाल में न होकर गुजरात के ऐतिहासिक स्थल सिहोर में हुआ।

सिहोर के गोमतेश्वर स्थित गुफा, ब्रह्मकुण्ड की समाधि, नाना साहब के पौत्र केशवलाल के घर में सुरक्षित नागपुर, दिल्ली, पूना और नेपाल आदि से आये नाना को सम्बोधित पत्र, तथा भवानी तलवार, नाना साहब की पोथी, पूजा करने के ग्रन्थ और मूर्ति, पत्र तथा स्वाक्षरी; नाना साहब की मृत्यु तक उनकी सेवा करने वाली जड़ीबेन के घर से प्राप्त ग्रन्थ, छत्रपति पादुका और स्वयं जड़ीबेन द्वारा न्यायालय में दिये गये बयान इस तथ्य को सिद्ध करते है कि सिहोर, गुजरात के स्वामी दयानन्द योगेन्द्र नाना साहब ही थे, जिन्होंने क्रान्ति की कोई संभावना न होने पर 1865 को सिहोर में सन्न्यास ले लिया था। मूलशंकर भट्ट और मेहता जी के घरों से प्राप्त पोथियों से उपलब्ध तथ्यों के अनुसार, बीमारी के बाद नाना साहब का निधन मूलशंकर भट्ट के निवास पर भाद्रमास की अमावस्या को हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1857 की क्रांति के हीरो की मौत का रहस्य! (हिंदी) roar.media। अभिगमन तिथि: 24 सितंबर, 2020।

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