"वैशेषिक दर्शन" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
छो (Text replacement - "शृंखला" to "श्रृंखला")
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 7 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 17: पंक्ति 17:
 
#'विशेषणं विशेष:'—ऐसा विग्रह करने पर यह अर्थ हो जाता है कि पदार्थों के लक्षण- परीक्षण द्वारा जो शास्त्र उनका बोध करवाये, वह वैशेषिक है।  
 
#'विशेषणं विशेष:'—ऐसा विग्रह करने पर यह अर्थ हो जाता है कि पदार्थों के लक्षण- परीक्षण द्वारा जो शास्त्र उनका बोध करवाये, वह वैशेषिक है।  
 
#इस दर्शन में आत्मा के भेद तथा उसमें रहने वाले विशेष गुणों का व्याख्यान किया गया है। कपिल ने आत्मा के भेदों को स्वीकार किया, किन्तु उनको विशेष गुण वाला नहीं माना। वेदान्त तो आत्मा के भेद और गुणों को स्वीकार नहीं करता। अत: आत्मा के विशेष गुण और भेद स्वीकार करने से इस दर्शन को वैशेषिक कहा जाता है।  
 
#इस दर्शन में आत्मा के भेद तथा उसमें रहने वाले विशेष गुणों का व्याख्यान किया गया है। कपिल ने आत्मा के भेदों को स्वीकार किया, किन्तु उनको विशेष गुण वाला नहीं माना। वेदान्त तो आत्मा के भेद और गुणों को स्वीकार नहीं करता। अत: आत्मा के विशेष गुण और भेद स्वीकार करने से इस दर्शन को वैशेषिक कहा जाता है।  
#अनेक पाश्चात्त्य और भारतीय विद्वानों ने वैशेषिक को डिफरेन्सियलिस्ट दर्शन कहा है, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह भेदबुद्धि (वैशिष्ट्रय-विचार) पर आधारित होने के कारण भेदवादी है।<ref>(a) Dictionaries of Asian Philosphies, IR, P 186<br />
+
#अनेक पाश्चात्त्य और भारतीय विद्वानों ने वैशेषिक को डिफरेन्सियलिस्ट दर्शन कहा है, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह भेदबुद्धि (वैशिष्ट्रय-विचार) पर आधारित होने के कारण भेदवादी है।<ref>a) Dictionaries of Asian Philosphies, IR, P 186<br />
 
(b) Encyclopaidia Betannika, Vol, X, P. 327<br />
 
(b) Encyclopaidia Betannika, Vol, X, P. 327<br />
 
(c) The Word Vishesha is derived from Vishesha which means difference and the doctrine is so designated because according to it diversity and not the unity is a root of Universe: Hiriyanna, OIP. P. 225<br /></ref>
 
(c) The Word Vishesha is derived from Vishesha which means difference and the doctrine is so designated because according to it diversity and not the unity is a root of Universe: Hiriyanna, OIP. P. 225<br /></ref>
पंक्ति 31: पंक्ति 31:
 
#आधुनिक समीक्षक : उदयवीर शास्त्री प्रभृति अधिकतर विद्वानों का भी यही विचार है –कणाद ने जिन परम सूक्ष्म पृथिव्यादि भूततत्त्वों को जगत् का मूल उपादान माना है, उनका नाम विशेष है। अत: इसी आधार पर इस शास्त्र का नाम वैशेषिक पड़ा।<ref>वै. द. विद्योदयभाष्य, पृ. 19</ref>  
 
#आधुनिक समीक्षक : उदयवीर शास्त्री प्रभृति अधिकतर विद्वानों का भी यही विचार है –कणाद ने जिन परम सूक्ष्म पृथिव्यादि भूततत्त्वों को जगत् का मूल उपादान माना है, उनका नाम विशेष है। अत: इसी आधार पर इस शास्त्र का नाम वैशेषिक पड़ा।<ref>वै. द. विद्योदयभाष्य, पृ. 19</ref>  
  
वैशेषिकसूत्र में वैशेषिक शब्द केवल एक बार प्रयुक्त हुआ है<ref>(1) वै. सू. 10.2.7</ref>- जिसका अर्थ है- विशेषता।  
+
वैशेषिकसूत्र में वैशेषिक शब्द केवल एक बार प्रयुक्त हुआ है<ref>1) वै. सू. 10.2.7</ref>- जिसका अर्थ है- विशेषता।  
  
 
उपर्युक्त कथनों पर विचार करने के अनन्तर यही मत समुचित प्रतीत होता है कि नित्य और अनित्य पदार्थों के अन्तिम परमाणुओं में रहने वाले और उनको एक दूसरे से व्यावृत्त करने वाले विशेष नामक पदार्थ की उद्भावना पर आधारित होने के कारण इस दर्शन का नाम वैशेषिक पड़ा। योगसूत्र पर अपने भाष्य में व्यास ने भी इसी मत का समर्थन किया है।<ref>योगसूत्र व्यासभाष्य, 1.4.9</ref>
 
उपर्युक्त कथनों पर विचार करने के अनन्तर यही मत समुचित प्रतीत होता है कि नित्य और अनित्य पदार्थों के अन्तिम परमाणुओं में रहने वाले और उनको एक दूसरे से व्यावृत्त करने वाले विशेष नामक पदार्थ की उद्भावना पर आधारित होने के कारण इस दर्शन का नाम वैशेषिक पड़ा। योगसूत्र पर अपने भाष्य में व्यास ने भी इसी मत का समर्थन किया है।<ref>योगसूत्र व्यासभाष्य, 1.4.9</ref>
 
==पदार्थ तत्त्व निरूपणम==
 
==पदार्थ तत्त्व निरूपणम==
 
{{main|पदार्थ तत्त्व निरूपणम}}
 
{{main|पदार्थ तत्त्व निरूपणम}}
*रघुनाथ शिरोमणि का जन्म सिलहर (आसाम) में हुआ था।
+
*[[रघुनाथ शिरोमणि]] ने वैशेषिक के सात पदार्थों की समीक्षा की और विशेष के पदार्थत्व का खण्डन किया।
*विद्याभूषण के अनुसार इनका समय 1477-1557 ई. है।
 
*इनके पूर्वज मिथिला से आसाम में गये थे।
 
*इनके पिता का नाम गोविन्द चक्रवर्ती और माता का नाम सीता देवी था।
 
*गोविन्द चक्रवर्ती की अल्पायु में ही मृत्यु हो जाने के कारण इनकी माता ने बड़े कष्ट के साथ इनका पालन किया।
 
*यात्रियों के एक दल के साथ वह [[गंगा नदी|गंगा]]स्नान करने के लिए नवद्वीप पहुँची।
 
*संयोगवश उसने वासुदेव सार्वभौम के घर पर आश्रय प्राप्त किया।
 
*वासुदेव से ही रघुनाथ को विद्या प्राप्त हुई।
 
*बाद में रघुनाथ ने मिथिला पहुँच कर पक्षधर मिश्र से न्याय का अध्ययन किया।
 
  
 
==वैशेषिक दर्शन की तत्त्व मीमांसा==
 
==वैशेषिक दर्शन की तत्त्व मीमांसा==
पंक्ति 53: पंक्ति 45:
 
==वैशेषिक दर्शन का वैशिष्ट्य==
 
==वैशेषिक दर्शन का वैशिष्ट्य==
 
{{main|वैशेषिक दर्शन का वैशिष्ट्य}}
 
{{main|वैशेषिक दर्शन का वैशिष्ट्य}}
वैशेषिक सिद्धान्तों का अतिप्राचीनत्व प्राय: सर्वस्वीकृत है। महर्षि कणाद द्वारा रचित वैशेषिकसूत्र में बौद्धों के सिद्धान्तों की समीक्षा न होने के कारण यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि [[कणाद]] [[बुद्ध]] के पूर्ववर्ती हैं। जो विद्वान कणाद को बुद्ध का पूर्ववर्ती नहीं मानते, उनमें से अधिकतर इतना तो मानते ही हैं कि कणाद दूसरी शती ईस्वी पूर्व से पहले हुए होंगे। संक्षेपत: सांख्यसूत्रकार [[कपिल मुनि|कपिल]] और [[ब्रह्मसूत्र]]कार [[व्यास]] के अतिरिक्त अन्य सभी आस्तिक दर्शनों के प्रवर्त्तकों में से कणाद सर्वाधिक पूर्ववर्ती हैं। अत: वैशेषिक दर्शन को [[सांख्य दर्शन|सांख्य]] और वेदान्त के अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय दर्शनों का पूर्ववर्ती मानते हुए यह कहा जा सकता है कि केवल दार्शनिक चिन्तन की दृष्टि से ही नहीं, अपितु अतिप्राचीन होने के कारण भी इस दर्शन का अपना विशिष्ट महत्व है।
+
वैशेषिक सिद्धान्तों का अतिप्राचीनत्व प्राय: सर्वस्वीकृत है। महर्षि कणाद द्वारा रचित वैशेषिकसूत्र में बौद्धों के सिद्धान्तों की समीक्षा न होने के कारण यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि [[कणाद]] [[बुद्ध]] के पूर्ववर्ती हैं। जो विद्वान कणाद को बुद्ध का पूर्ववर्ती नहीं मानते, उनमें से अधिकतर इतना तो मानते ही हैं कि कणाद दूसरी शती ईस्वी पूर्व से पहले हुए होंगे। संक्षेपत: सांख्यसूत्रकार [[कपिल मुनि|कपिल]] और [[ब्रह्मसूत्र]]कार [[व्यास]] के अतिरिक्त अन्य सभी आस्तिक दर्शनों के प्रवर्त्तकों में से कणाद सर्वाधिक पूर्ववर्ती हैं। अत: वैशेषिक दर्शन को [[सांख्य दर्शन|सांख्य]] और वेदान्त के अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय दर्शनों का पूर्ववर्ती मानते हुए यह कहा जा सकता है कि केवल दार्शनिक चिन्तन की दृष्टि से ही नहीं, अपितु अतिप्राचीन होने के कारण भी इस दर्शन का अपना विशिष्ट महत्त्व है।
  
 
==वैशेषिक दर्शन की आचार-मीमांसा==
 
==वैशेषिक दर्शन की आचार-मीमांसा==
पंक्ति 67: पंक्ति 59:
 
वैशेषिक सिद्धान्तों की परम्परा अतिप्राचीन है। [[महाभारत]] आदि ग्रन्थों में भी इसके तत्त्व उपलब्ध होते हैं। महात्मा [[बुद्ध]] और उनके अनुयायियों के कथनों से भी यह प्रमाणित होता है कि सिद्धान्तों के रूप में वैशेषिक का प्रचलन 600 ई. से पहले भी विद्यमान था। महर्षि [[कणाद]] ने [[वैशेषिक सूत्र|वैशेषिक सूत्रों]] का ग्रंथन कब किया? इसके संबन्ध में अनुसन्धाता विद्वान किसी एक तिथि पर अभी तक सहमत नहीं हो पाये, किन्तु अब अधिकतर विद्वानों की यह धारणा बनती जा रही है कि कणाद महात्मा बुद्ध के पूर्ववर्ती थे और सिद्धान्त के रूप में तो वैशेषिक परम्परा अति प्राचीन काल से ही चली आ रही है।
 
वैशेषिक सिद्धान्तों की परम्परा अतिप्राचीन है। [[महाभारत]] आदि ग्रन्थों में भी इसके तत्त्व उपलब्ध होते हैं। महात्मा [[बुद्ध]] और उनके अनुयायियों के कथनों से भी यह प्रमाणित होता है कि सिद्धान्तों के रूप में वैशेषिक का प्रचलन 600 ई. से पहले भी विद्यमान था। महर्षि [[कणाद]] ने [[वैशेषिक सूत्र|वैशेषिक सूत्रों]] का ग्रंथन कब किया? इसके संबन्ध में अनुसन्धाता विद्वान किसी एक तिथि पर अभी तक सहमत नहीं हो पाये, किन्तु अब अधिकतर विद्वानों की यह धारणा बनती जा रही है कि कणाद महात्मा बुद्ध के पूर्ववर्ती थे और सिद्धान्त के रूप में तो वैशेषिक परम्परा अति प्राचीन काल से ही चली आ रही है।
  
 +
{{संदर्भ ग्रंथ}}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>
पंक्ति 72: पंक्ति 65:
 
{{दर्शन शास्त्र}} {{वैशेषिक दर्शन2}} {{संस्कृत साहित्य}}
 
{{दर्शन शास्त्र}} {{वैशेषिक दर्शन2}} {{संस्कृत साहित्य}}
 
{{वैशेषिक दर्शन}}
 
{{वैशेषिक दर्शन}}
 
+
{{हिन्दू धर्म}}
 
 
 
[[Category:दर्शन कोश]]
 
[[Category:दर्शन कोश]]
 
[[Category:वैशेषिक दर्शन]]
 
[[Category:वैशेषिक दर्शन]]
+
[[Category:हिन्दू धर्म]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

10:20, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

परिचय

प्राय: चार्वाकेतर सभी भारतीय दर्शन मोक्ष प्राप्ति को मानव-जीवन का लक्ष्य मानते हैं। दर्शन शब्द का सामान्य अर्थ है- देखने का माध्यम या साधन[1] अथवा देखना। स्थूल पदार्थों के संदर्भ में जिसको दृष्टि[2] कहा जाता है, वही सूक्ष्म पदार्थों के सम्बन्ध में अन्तर्द्रष्टि है। भारतीय चिन्तकों ने दर्शन शब्द का प्रयोग स्थूल और सूक्ष्म अर्थात् भौतिक और आध्यात्मिक दोनों अर्थों में किया है, तथापि जहाँ अन्य दर्शनों में आध्यात्मिक चिन्तन पर अधिक बल दिया गया है, वहाँ न्याय दर्शन में प्रमाण-मीमांसा और वैशेषिक दर्शन में प्रमुख रूप से प्रमेय-मीमांसा अर्थात भौतिक पदार्थों का विश्लेषण किया गया है। इस दृष्टि से वैशेषिक दर्शन को अध्यात्मोन्मुख जिज्ञासा प्रधान दर्शन कहा जा सकता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन प्रमुख रूप से इस विचारधारा पर आश्रित रहे हैं कि जगत में जिन वस्तुओं का हमें अनुभव होता है वे सत हैं। अत: उन्होंने दृश्यमान जगत् से परे जो समस्याएँ या गुत्थियाँ हैं, उन पर विचार केन्द्रित करने की अपेक्षा दृश्यमान जगत को वास्तविक मानकर उसकी सत्ता का विश्लेषण करना ही अधिक उपयुक्त समझा।[3] वस्तुवादी और जिज्ञासा प्रधान होने के कारण तथा प्रमेय-प्रधान विश्लेषण के कारण वैशेषिक दर्शन व्यावहारिक या लौकिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की पृथक्-पृथक् वस्तु-सत्ता है, जबकि वेदान्त में यह माना जाता है कि ज्ञाता ज्ञानस्वरूप है और ज्ञेय भी ज्ञान से पृथक् नहीं है। न्याय और वैशेषिक यद्यपि समानतन्त्र हैं, फिर भी न्याय प्रमाण-प्रधान दर्शन है जबकि वैशेषिक प्रमेय-प्रधान। इसके अतिरिक्त अन्य कई संकल्पनाओं में भी इन दोनों दर्शनों का पार्थक्य है।

वैशेषिक नाम का कारण

वैशेषिक दर्शन अपने आप में महत्त्वपूर्ण होने के अतिरिक्त अन्य दर्शनों तथा विद्यास्थानों के प्रतिपाद्य सिद्धान्तों के ज्ञान और विश्लेषण में भी बहुत उपकारक है। कौटिल्य ने वैशेषिक का पृथक् रूप से तो उल्लेख नहीं किया, किन्तु संभवत: समानतन्त्र आन्वीक्षिकी में वैशेषिक का भी अन्तर्भाव मानते हुए कौटिल्य ने यह कहा कि आन्वीक्षिकी सब विद्याओं का प्रदीप है।[4]

भारतीय चिन्तन-परम्परा में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त प्रभृति छ: आस्तिक दर्शनों और चार्वाक, बौद्ध, जैन इन तीन नास्तिक दर्शनों का अपना-अपना स्थान व महत्त्व रहा है।

  • सांख्य में त्रिविध दु:खों की निवृत्ति को,
  • योग में चित्तवृत्ति के निरोध को,
  • मीमांसा में धर्म की जिज्ञासा को और
  • वेदान्त में ब्रह्म की जिज्ञासा को नि:श्रेयस का साधन बताया गया है; जबकि वैशेषिक में पदार्थों के तत्त्वज्ञानरूपी धर्म अर्थात् उनके सामान्य और विशिष्ट रूपों के विश्लेषण से पारलौकिक नि:श्रेयस के साथ-साथ इह लौकिक अभ्युदय को भी साध्य माना गया है।[5] अन्य दर्शनों में प्राय: ज्ञान की सत्ता[6] को सिद्ध मान कर उसके अस्तित्वबोध और विज्ञान को मोक्ष या नि:श्रेय का साधन बताया गया है, किन्तु वैशेषिक में दृश्यमान वस्तुओं के साधर्म्य-वैधर्म्यमूलक तत्त्वज्ञान को साध्य माना गया है। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में लोकधर्मिता तथा वैज्ञानिकता से समन्वित आध्यात्मिकता परिलक्षित होती है। यही कारण है कि न्याय-वैशेषिक को व्याकरण के समान अन्य शास्त्रों के ज्ञान का भी उपकारक या प्रदीप कहा गया है।[7]

अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म को ही एकमात्र सत कहा गया है। बौद्धों ने सर्व शून्यं जैसे कथन किये, सांख्यों ने प्रकृति-पुरुष के विवेक की बात की। इस प्रकार इन सबने भौतिक जगत् के सामूहिक या सर्वसामान्य किसी एक तत्त्व को भौतिक जगत् से बाहर ढूँढ़ने का प्रयत्न किया। किन्तु वैशेषिकों ने न केवल समग्र ब्रह्माण्ड का, अपितु प्रत्येक पदार्थ का तत्त्व उसके ही अन्दर ढूँढ़ने का प्रयास किया और यह बताया कि प्रत्येक वस्तु का निजी वैशिष्ट्रय ही उसका तत्त्व या स्वरूप है और प्रत्येक वस्तु अपने आप में एक सत्ता है। इस मूल भावना के साथ ही वैशेषिकों ने दृश्यमान जगत की सभी वस्तुओं को छ: या सात वर्गों में समाहित करके वस्तुवादी दृष्टि से अपने मन्तव्य प्रस्तुत किये। इन छ: या सात पदार्थों में सर्वप्रथम द्रव्य का उल्लेख किया गया है, क्योंकि उसको ही केन्द्रित करके अन्य पदार्थ अपनी सत्ता का भान कराते हैं। पहले तो वैशेषिकों ने छ: ही पदार्थ माने थे, पर बाद में उनको यह आभास हुआ कि वस्तुओं के भाव की तरह उनका अभाव भी वस्तुतत्त्व के निरूपण में सहायक होता है। अत: गुण, कर्म सामान्य विशेष के साथ-साथ अभाव का भी वैशेषिक पदार्थों में समावेश किया गया। अभिप्राय यह है कि सभी 'वस्तुओं का निजी वैशिष्ट्रय ही उनका स्वभाव है' – क्या इस आधार पर ही इस शास्त्र को वैशेषिक कहा गया? इस जिज्ञासा के समाधान के संदर्भ में अनेक विद्वानों ने जो विचार प्रस्तुत किये, उनका सार इस प्रकार है –

  1. विशेष पदार्थ से युक्त होने के कारण यह शास्त्र वैशेषिक कहलाता है। अन्य दर्शनों में विशेष का उपदेश वैसा नहीं है जैसा कि इसमें है। विशेष को स्वतन्त्र पदार्थ मानने के कारण इस दर्शन की अन्य दर्शनों से भिन्नता है। विशेष पदार्थ व्यावर्तक है। अत: इस शास्त्र की संज्ञा वैशेषिक है।
  2. विशेष गुणों का उच्छेद ही मुक्ति है, न कि दु:ख का आत्यन्तिक उच्छेद। मुक्ति का प्रतिपादन चार्वाकेतर सभी दर्शन करते हैं, किन्तु विशेष गुण को लेकर मुक्ति का प्रतिपादन इसी दर्शन में किया गया है।
  3. विगत: शेष: यत्र स विशेष:- इस प्रकार का विग्रह करने पर विशेष का अर्थ 'निरवशेष' हो जाता है और इस प्रकार सभी पदार्थों का छ: या सात में अन्तर्भाव हो जाता है।
  4. 'विशेषणं विशेष:'—ऐसा विग्रह करने पर यह अर्थ हो जाता है कि पदार्थों के लक्षण- परीक्षण द्वारा जो शास्त्र उनका बोध करवाये, वह वैशेषिक है।
  5. इस दर्शन में आत्मा के भेद तथा उसमें रहने वाले विशेष गुणों का व्याख्यान किया गया है। कपिल ने आत्मा के भेदों को स्वीकार किया, किन्तु उनको विशेष गुण वाला नहीं माना। वेदान्त तो आत्मा के भेद और गुणों को स्वीकार नहीं करता। अत: आत्मा के विशेष गुण और भेद स्वीकार करने से इस दर्शन को वैशेषिक कहा जाता है।
  6. अनेक पाश्चात्त्य और भारतीय विद्वानों ने वैशेषिक को डिफरेन्सियलिस्ट दर्शन कहा है, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह भेदबुद्धि (वैशिष्ट्रय-विचार) पर आधारित होने के कारण भेदवादी है।[8]

वैशेषिक शब्द की व्युत्पत्ति

वैशेषिक शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न भाष्यकारों, टीकाकारों और वृत्तिकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से की। उनमें से कुछ का यहाँ उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा।

  1. आचार्य चन्द्र : वैशेषिक विशिष्टोपदेष्टा।
  2. चन्द्रकान्त : यदिदं वैशेषिकं नाम शास्त्रमारब्धं तत्खलु तन्त्रान्तरात् विशेषस्यार्थ- स्याभिधानात् (चन्द्रकान्तभाष्यम्)।
  3. मणिभद्रसूरि: नैयायिकेभ्यो द्रव्यगुणादिसामग्र्या विशिष्टमिति वैशेषिकम् (षड्दर्शनसमुच्चय-वृत्ति- पृ. 4)।
  4. गुणरत्न: नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा: एवं वैशेषिकम् (विनयादिभ्य: स्वार्थे इक्) तद् वैशेषिकं विदन्ति अधीयते वा (तद्वैत्यधीत इत्यणि) वैशेषिका: तेषामिदं वैशेषिकम् (षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति)।
  5. उदयनाचार्य: (क)विशेषो व्यवच्छेद: तत्त्वनिश्चय: तेन व्यवहरन्तीत्यर्थ: (किरणावली पृ. 613), (ख) तत्त्वमनारोपितं रूपम्। तच्च साधर्म्यवैधर्म्याभ्यामेव विविच्यते (किरणावली पृ. 5)
  6. श्रीधर : साधर्म्य-वैधर्म्यम् एव तत्त्वम् (अस्यार्थ: - वैधर्मरूपात् तत्त्वात् उत्पन्नं यत् शास्त्रं तदेव वैशेषिकम्) – न्यायकन्दली)।
  7. दुर्वेकमिश्र : द्रव्यकुणकर्मसामान्यविशेषसमवायात्मके पदार्थविशेषे व्यवहरन्तीति वैशेषिका: (धर्मोत्तरप्रदीप:)।
  8. आधुनिक समीक्षक : उदयवीर शास्त्री प्रभृति अधिकतर विद्वानों का भी यही विचार है –कणाद ने जिन परम सूक्ष्म पृथिव्यादि भूततत्त्वों को जगत् का मूल उपादान माना है, उनका नाम विशेष है। अत: इसी आधार पर इस शास्त्र का नाम वैशेषिक पड़ा।[9]

वैशेषिकसूत्र में वैशेषिक शब्द केवल एक बार प्रयुक्त हुआ है[10]- जिसका अर्थ है- विशेषता।

उपर्युक्त कथनों पर विचार करने के अनन्तर यही मत समुचित प्रतीत होता है कि नित्य और अनित्य पदार्थों के अन्तिम परमाणुओं में रहने वाले और उनको एक दूसरे से व्यावृत्त करने वाले विशेष नामक पदार्थ की उद्भावना पर आधारित होने के कारण इस दर्शन का नाम वैशेषिक पड़ा। योगसूत्र पर अपने भाष्य में व्यास ने भी इसी मत का समर्थन किया है।[11]

पदार्थ तत्त्व निरूपणम

  • रघुनाथ शिरोमणि ने वैशेषिक के सात पदार्थों की समीक्षा की और विशेष के पदार्थत्व का खण्डन किया।

वैशेषिक दर्शन की तत्त्व मीमांसा

  • महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
  • शिवादित्य (10वीं शती) से पूर्ववर्ती आचार्य चन्द्रमति के अतिरिक्त प्राय: अन्य सभी प्रख्यात व्याख्याकारों ने पदार्थों की संख्या छ: ही मानी, किन्तु शिवादित्य ने सप्तपदार्थी में कणादोक्त छ: पदार्थों में अभाव को भी जोड़ कर सप्तपदार्थवाद का प्रवर्तन करते हुए वैशेषिक चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया। यद्यपि चन्द्रमति (6ठी शती) ने दशपदार्थी (दशपदार्थशास्त्र) में कणादसम्मत छ: पदार्थो में शक्ति, अशक्ति, सामान्य-विशेष और अभाव को जोड़कर दश पदार्थों का उल्लेख किया था, किन्तु चीनी अनुवाद के रूप में उपलब्ध इस ग्रन्थ का और इसमें प्रवर्तित दशपदार्थवाद का वैशेषिक के चिन्तन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। हाँ, ऐसा प्रतीत होता है कि अभाव के पदार्थत्व पर चन्द्रमति के समय से लेकर शिवादित्य के समय तक जो चर्चा हुई, उसको मान्यता देते हुए ही शिवादित्य ने अभाव का पदार्थत्व तो प्रतिष्ठापित कर ही दिया। कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि कणाद ने आरम्भ में मूलत: द्रव्य, गुण और कर्म ये तीन ही पदार्थ माने थे। शेष तीन का प्रवर्तन बाद में हुआ। अधिकतर यही मत प्रचलित है, फिर भी संक्षेपत: छ: पदार्थों का परिगणन कणाद ने ही कर दिया था।

वैशेषिक दर्शन का वैशिष्ट्य

वैशेषिक सिद्धान्तों का अतिप्राचीनत्व प्राय: सर्वस्वीकृत है। महर्षि कणाद द्वारा रचित वैशेषिकसूत्र में बौद्धों के सिद्धान्तों की समीक्षा न होने के कारण यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि कणाद बुद्ध के पूर्ववर्ती हैं। जो विद्वान कणाद को बुद्ध का पूर्ववर्ती नहीं मानते, उनमें से अधिकतर इतना तो मानते ही हैं कि कणाद दूसरी शती ईस्वी पूर्व से पहले हुए होंगे। संक्षेपत: सांख्यसूत्रकार कपिल और ब्रह्मसूत्रकार व्यास के अतिरिक्त अन्य सभी आस्तिक दर्शनों के प्रवर्त्तकों में से कणाद सर्वाधिक पूर्ववर्ती हैं। अत: वैशेषिक दर्शन को सांख्य और वेदान्त के अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय दर्शनों का पूर्ववर्ती मानते हुए यह कहा जा सकता है कि केवल दार्शनिक चिन्तन की दृष्टि से ही नहीं, अपितु अतिप्राचीन होने के कारण भी इस दर्शन का अपना विशिष्ट महत्त्व है।

वैशेषिक दर्शन की आचार-मीमांसा

प्राय: सभी दर्शनों के आकर ग्रन्थों में ज्ञान मीमांसा और तत्त्व मीमांसा के साथ-साथ किसी-न-किसी रूप में आचार का विवेचन भी अन्तर्निहित रहता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के सम्यक विवेक के साथ जीवन में सन्तुलित कार्य करना ही आचार है। यही कारण है कि प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति कभी-न-कभी यह सोचने के लिए बाध्य हो जाता है कि जीवन क्या है? संसार क्या है? संसार से उसका संयोग या वियोग कैसे और क्यों होता है? क्या कोई ऐसी शक्ति है, जो उसका नियन्त्रण कर रही है? क्या मनुष्य जो कुछ है उसमें वह कोई परिवर्तन ला सकता है? व्यष्टि और समष्टि में क्या अन्तर या सम्बन्ध है? एक व्यक्ति का अन्य व्यक्तियों या जगत के प्रति क्या कर्तव्य है? ये और कई अन्य ऐसे प्रश्न हैं जो एक ओर रहस्यमयी पारलौकिकता को स्पर्श करते हैं। प्रकारान्तर से यह कहा जा सकता है कि जो प्रयत्न-श्रृंखला सार्थक और सम्यक् उद्देश्य की पूर्ति के लिए दृष्ट को अदृष्ट के साथ या दृष्ट को दृष्ट के साथ जोड़ती है, वह लौकिक क्षेत्र में आचार कहलाती है। सभी भारतीय आस्तिक दर्शनों में आचार नहीं किया। अत: वैशेषिक ग्रन्थों में यत्र-तत्र जो कतिपय संकेत उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर ही यह कहा जा सकता है कि वैशेषिकों का आचारपरक दृष्टिकोण भी वेदमूलक ही है।

वैशेषिक दर्शन की ज्ञान मीमांसा

ज्ञान (प्रमा) क्या है? ज्ञान और अज्ञान (अप्रमा) में क्या भेद है? ज्ञान के साधन अथवा निश्चायक घटक कौन हैं? इन और इसी प्रकार के कई अन्य प्रश्नों के उत्तर में ही ज्ञान के स्वरूप का कुछ परिचय प्राप्त किया जा सकता है। ज्ञान अपने आप में वस्तुत: एक निरपेक्ष सत्य है, किन्तु जब उसको परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है तो वह विश्लेषक की अपनी सीमाओं के कारण ग्राह्यावस्था में सापेक्ष सत्य की परिधि में आ जाता है। फिर भी भारतीय मान्यताओं के अनुसार कणाद आदि ऋषि सत्य के साक्षात द्रष्टा हैं। अत: उन्होंने जो कहा, वह प्राय: ज्ञान का निरपेक्ष विश्लेषण ही माना जाता है।

वैशेषिक प्रमुख ग्रन्थ

वैशेषिक सिद्धान्तों की परम्परा अतिप्राचीन है। महाभारत आदि ग्रन्थों में भी इसके तत्त्व उपलब्ध होते हैं। महात्मा बुद्ध और उनके अनुयायियों के कथनों से भी यह प्रमाणित होता है कि सिद्धान्तों के रूप में वैशेषिक का प्रचलन 600 ई. से पहले भी विद्यमान था। महर्षि कणाद ने वैशेषिक सूत्रों का ग्रंथन कब किया? इसके संबन्ध में अनुसन्धाता विद्वान किसी एक तिथि पर अभी तक सहमत नहीं हो पाये, किन्तु अब अधिकतर विद्वानों की यह धारणा बनती जा रही है कि कणाद महात्मा बुद्ध के पूर्ववर्ती थे और सिद्धान्त के रूप में तो वैशेषिक परम्परा अति प्राचीन काल से ही चली आ रही है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दृश्यन्तेऽनेन इति दर्शनम्
  2. दर्शनं दृष्टि:
  3. संविदेव भगवती वस्तूपगमे न: प्रमाणम्, न्या. वा. ता. टीका, 2.1.36
  4. प्रदीप: सर्वविद्यानामुपाय: सर्वकर्मणाम्। आश्रय: सर्वधर्माणां तस्मादान्वीक्षिकी मता॥ कौ. अर्थशास्त्र
  5. यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म:। वै. सू. 1.1.2
  6. सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म
  7. काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्।
  8. a) Dictionaries of Asian Philosphies, IR, P 186
    (b) Encyclopaidia Betannika, Vol, X, P. 327
    (c) The Word Vishesha is derived from Vishesha which means difference and the doctrine is so designated because according to it diversity and not the unity is a root of Universe: Hiriyanna, OIP. P. 225
  9. वै. द. विद्योदयभाष्य, पृ. 19
  10. 1) वै. सू. 10.2.7
  11. योगसूत्र व्यासभाष्य, 1.4.9

संबंधित लेख

श्रुतियाँ