हुसैन कुली ख़ाँ

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हुसैन कुली ख़ाँ बैरम खाँ खानखानाँ का भांजा था। इसका पिता वर्लाबेग जुलुकद्र दौलतखाँ के समय अच्छी जागीर पाने तथा अत्यंत विश्वासपात्र होने से अन्य सभी सरदारों से बढ़कर माना जाता था। जालंधर के अंतर्गत हकदार कस्बे के युद्ध में जो बैरम खाँ तथा शम्शुद्दीन खाँ अतगा के बीच में हुआ था, यह घायल होकर पकड़ा गया और उसी चोट के कारण मर गया। अकबर यही समझता था कि इसी के बहकाने से बैरम खाँ ने यह विद्रोह तथा उपद्रव किया है इसलिए इसके सिर को कटवाकर उसने पूर्वीय प्रांत को भेज दिया।

जीवन परिचय

खानखानाँ को जिस समय बादशाह के अप्रसन्न हो जाने का निश्चय हुआ उसी समय उसने अपनी सरदारी का सब सामान मेवात से दरबार भेज दिया कि इसे कृपा तथा वृद्धि की प्रार्थना समझे जाने पर उसका काम बन जाएगा। जब खानखानाँ के पंजाब जाने का समाचार ज्ञात हुआ, जो विद्रोह तथा उपद्रव की सूचना थी। इसलिए समयोचित समझकर इसको (हुसैन कुलीबेग) आसफखाँ अब्दुल मलीत को सौंप दिया, जो दिल्ली का अध्यक्ष था, कि इसे सुरक्षित रखे तथा हानि न पहुँचावे। उस झगड़े के शांत होने पर हुसैन कुलीबेग को छुटकारा मिला और सेवा तथा व्यवहार के अनुसार इसपर बराबर कृपा होती गई। 8वें वर्ष सन् 971 हिजरी में जब मिर्जा शरफुद्दीन हुसैन अहरारी बिना कारण दरबार से भागा तब अकबर ने हुसैन कुलीबेग को खाँ की पदवी तथा अजमेर और नागौर की जागीरदारी मिर्जा के स्थान पर देकर उसका पीछा करने को नियत किया। जब मिर्जा बिना युद्ध किए उत्तरी भारत से बाहर चला गया तब हुसैन कुली बिना परिश्रम के उस प्रांत पर अधिकत होकर वहाँ का प्रबंध पहले से अच्छा करने लगा। इसने जोधपुर दुर्ग को थोड़े समय ही में विजय कर लिया, जो राय मालदेव का निवास स्थान था। मालदेव ऐश्वय तथा सेवकों की अधिकता के कारण हिंदुस्तान के सभी राजाओं में अधिक सम्मानित था और उसकी मृत्यु पर उसका छोटा पुत्र चन्द्रसेन उत्तराधिकारी हो गया था। इसने चित्तौड़ के घेरे के समय राणा उदयसिंह का पीछा करने में बहुत प्रयत्न किया था और इसके लिए इसकी प्रशंसा भी हुई थी।
जब 93 वें वर्ष में अतगा वाले सब सरदार पंजाब से दरबार बलाये गये, तब उस प्रांत का, जो बादशाही बड़े प्रांतों में से एक था, हुसैन कुली खाँ सूबेदार नियत हुआ, पर रणथम्भोर की चड़ाई के निश्चित हो जाने पर वहाँ जाने की छुट्टी न पाकर यह बादशाही सेना के साथ चला गया। उस दृढ़ दुर्ग के टूटने पर जब बादशाह आगरा आये तब इसे नियत महाल पर जाने की छुट्टी मिल गई। 97वें दर्ष में नगरकोट दुर्ग को घेरने के विचार से बादशाह की आज्ञा के अनुसार यह उस ओर गया, जो राजा जयचंद्र के अधिकार में था और जिसे कैदकर उसके पुत्र विधिचंद्र ने अपने को पिता का स्थानापन्न समझकर और उसे मृत मानकर विद्रोह कर लिया था। जब यह धमथरी के पास पहुँचा तब वहाँ का अध्यक्ष जन्न जयचंद्र का संबंधी होने के कारण शंका से अलग हट गया पर अपने वकील को भेजकर वचन दिया कि यह मार्ग का उचित प्रबन्ध रखेगा। हुसैन कुली खाँ अपने कुछ आदमी उस मोजे की थानेदारी पर छोड़कर, जो मार्ग में पड़ता था, आगे को चला। जब यह कोटिला दुर्ग पहुँचा, जो ऊँचाई में आकाश की बराबरी करता था और कुछ तोपों ने जब पहाड़ की ऊँचाई से जो दुर्ग के पास सामने थी, गोले उतारे, तब दुर्गवालों का होश जाता रहा। वे सब रात्रि में भाग गए। यह दुर्ग पहले ग्वालियर के राजा उत्तमचंद्र का था और इसे जयचंद्र के पितामह राजा रामचंद्र ने छीन लिया था इस लिए राजा ग्वालियरी को, जो उत्तमचंद्र का वंशधर था, इस दुर्ग को सौंपकर अपना थाना बैठा दिया। वहाँ वृक्षों का ऐसा घना जंगल था कि आगे बढ़ना कठिन हो गया इस लिए कुछ लोगों को जंगल काटने के लिए भेजा। प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा मार्ग बनने पर आगे बढ़ता। सन् 980 हिजरी के रज्जब महीने के आरंभ में सेना नगरकोट के पास पहुँची। पहले की आक्रमण में दुर्ग भवन पर अधिकार हो गया, जिसमें महामाया का मन्दिर था। बहुत से राजपूत तथा ब्राह्मण, जो पुण्य लूटने के लिए वहाँ डटे हुए थे, मारे गये। इसके अनंतर नगरकोट के बाहर की बस्ती पर भी अधिकार हो गया। तब दुर्ग पर अधिकार करने का रक्षा मार्ग बनाया तथा मोर्चे बाँधे गये। प्रतिदिन गोले बरसाकर मकानों को तोड़ने और जीविजों को मारने का प्रयास होता रहा। राजा विधचंद के भोजन के समय बड़ी तोप दागी गए, जिससे प्राय: अस्सी आदमी दीवर के नीचे दबकर मर गए।
जिस समय दुर्ग टूटने का कार्य समाप्त होने को था, उसी समय मिर्जा इब्राहीम हुसैन और मसऊद मिर्चा विद्रोहियों के आने का समाचार पंजाब में एकाएक सुनाई दिया तथा सेना में गल्ला भी खतम हो चला तब निरुपाय होकर हुसैन कुली खाँ ने पाँच मन सोना और बहुत सा सामान भेंट में लेकर संधि कर ली। राजा जयचंद के मकान के सामने एक मसजिद की नींव डालकर दो दिन में यह बाहर चला आया। उक्त सन् के शब्बास महीने मध्य में जुमा के दिन बादशाही खुतबा पढ़वाकर हुसैन कुली खाँ वहाँ से लौटा। इस्माइल कुली खाँ तथा मिर्जा यूसूफ खाँ के साथ विद्रोहियों का पीछा करने में शीघ्रता की। मुलतान से चालीस कोस पर तुलुम्बा कस्बे में उन असावधानों पर जा पहुचाँ और दोनों पक्ष में घोर युद्ध हुआ। इब्राहीम हुसैन परास्त होकर सुलतान की ओर भागा और मसऊद हुसैन कुछ साथियों के साथ पकड़ा गया। 78 वें वर्ष 921 हिजरी में जब अकबर गुजरात विजय कर आगरा लौटा और से सरदारगण बधाई देने के लिए आए तब हुसैन कुली खाँ दरबार पहुँचा और मसऊद हुसैन की आँखें सिलवाकर तथा अन्य कैदियों को बैल के चमड़े, जिनकी सींघें अलग नहीं की गई थीं, पहिराकर बादशाह के सामने ऐसी विचित्र सूरतों में उपस्थित किया।
बादशाह ने कृपा तथा मुरौवत से मिर्जा की आँखें खुलवा दीं और अन्य की जान बख्शी। हुसैन कुली खाँ अच्छा मंसब तथा खानजहाँ की पदवी, जिससे बढ़कर खानखानाँ के सिवा अन्य कोई पदवी नहीं थी, पाकर सम्मामित हुआ। जब बदख्शाँ का शासक मिर्जा सुलेमान अपने पौत्र मिर्जा शाहरुख के अधिकार से भागकर अकबर की शरण में आया तब हुसैन कुली खाँ को आज्ञा हुई कि पंजाब की भारी सेना लेकर मिर्जा के साथ बदख्शाँ जाय और उस वृद्ध शासन को उस प्रांत को राजगद्दी पर बैठा दें। इसी समय 20 वें वर्ष सन् 983. हिजरी में बंगाल का शासक मुनइस खाँ खानखानाँ मर गया और उस प्रांत में बड़ा उपद्रव मचा। सहायक गण उस प्रांत की खराब हवा से डर कर और दाऊद अफ़ग़ान के उपद्रव से, जो उन प्रांतों के राज्य का दावा करता था और अधीनता छोड़कर नए सिरे से विद्रोह कर बैठा था, भय खाकर एकबारगी अपने स्थानों को छोड उस प्रांत से बाहर चले आये। विशेष कार्य के लिए साधारण कार्य को छोड़ देना अच्छी राजनीति है, इसलिए बादशाह ने खानजहाँ को फुर्ती से पंजाब से बुलाकर बंगाल का सूबेदार नियत किया और राजा टोडरमल को जो वीरता तथा अनुभव में बहुत बढ़ाचढ़ा था और उस प्रांत में अच्छा काम कर चुका था, इसके साथ भेजा। बंगाल के सरदार गण भागलपुर बिहार के पास खानजहाँ से मिले और उनमें से कुछ ने खराब जलवायु के कारण लौटने की राय दी। कुछ धर्म की भावना के कारण विरोधकर बकवाद करने लगे।
खानजहाँ वृद्ध तथा स्वभाव पहचानने वाला सरदार था इसलिये वह वहाँ से न हटा और उन लोगों को सांत्वना तथा दिलासा देकर इन सबके साथ आगे बढ़ा। इस कारण कि अधिकतम सेना चगत्ताई थी और कजिलबाश की सरदारी से बिगड़ती न थी, इसलिये थोड़े ही प्रयत्न से गद्दी को, जो बंगाल का फाटक है, ख़ाली कराकट टांड़े तक के प्रांत पर अधिकार कर लिया, जो हाथ से निकल गया था। इसके सिवा जो गड़बड़ी मची थी उसे भी दुर करने का इसने प्रयत्न किया। दाऊद खाँ किर्रानी आक महल को दृढ़कर बादशाही सेना के सामने डट गया। प्रति दिन युद्ध और धावे होते रहते थे। खानजहाँ और राजा टोडरमल कितना भी प्रयत्न करते थे पर सैनिकों के साहस की कमी के कारण कुछ न हो पाता था। एक दिन ख्वाजा अब्दुल्ला नक्शबंदी ने कुछ सेवकों के साथ अपने मोर्चे से आगे बढ़कर युद्ध के लिए शत्रु को ललकारा, जिससे शत्रुओं का एक झुण्ड लड़ने के लिए आगे बढ़ आया। ख्वाजा के साथियों ने इसका साथ नहीं दिया पर वह स्वयं वीरता के साथ डटा रहा और मारा गया। जब यह समाचार अकबर बादशाह को मिला तब उसने शोक प्रकट कर बिहार के सूबेदार मुजफ्फर खाँ को आज्ञा पत्र भेजा कि शीघ्र उस प्रांत के जागीरदारों के साथ बंगाल की सेना से जा मिले। सन् 984 हि. में मुजफ्फर खाँ बिहार प्रांत की कुछ सेना एकत्रकर वहाँ पहुँचा और खानजहाँ सेना का ध्यूह रचकर युद्ध करने लगा। दैवयोग से विजय के दिन की पहले रात्रि को तोप का एक गोला बादशाही सेना से उसकी चारपाई पर पहुँचा, जिसपर दाऊद का जुनहे किर्रानी सोया हुआ था और उससे उसका पैर नष्ट हो गया। इसके अनंतर जब वीरता के साथ कड़े घावे हुए तब शर्तु की मध्य सेना का अध्यक्ष काला पहाड़ घायल होकर भागा। अभी युद्ध मध्य में पहुँचा था कि शत्रु सेना में भगदड़ मच गई।
अफमानों ने साहस छोड़कर भागना आरम्भ कर दिया और बहुत से पीछा करनेवाले वीरों द्वारा मारे गये। दाऊद चाहता था कि किसी ओर वह भाग जाय पर कीचड़ के कारण घोड़े के रुक जाने से वह पकडा गया। जब अह खानजहाँ के सामने लाया गया तब उससे पूछा गया कि खानखानाँ के साथ वचनबद्ध होना तथा शपथ खाना क्या हुआ? उसने उद्दंडता से उत्तर दिया कि वह मौखिक संधि थी, जिसमें मित्रता का संबंध नये सिरे से हो। खानजहाँ ने आज्ञा दी कि उसके सिर का बोझ जिसमें मस्तिष्क नहीं है, हलका कर दो। उसका सिर उसी समय सैयद अब्दुल्ला खाँ के हाथ दरबार भेज दिया गया। जिसको बादशाह ने खानजहाँ के पास इसलिए भेजा था कि वह जाकर यह समाचार दे कि गोघूँदा के पास राणा के साथ युद्ध करके राजा मानसिंह कछवाहा ने विजय प्राप्त की है और बादशाही सेना सरदारों के साथ शीघ्र लौट कर पूर्वीय प्रांत में पहुँचती है। दैवयोग से इसे विदा करते समय बादशाह ने कहा थ कि जब वह यह मुभ समाचार ले जाय तो उस ओर से भी बंगाल के विजय का समाचार ले आवे। संयद अब्दुल्ला खाँ ग्यारहवें दिन, जिस समय बादशाह उस प्रांत पर चढ़ाई करने के विचार से फरहपुर से बाहर निकला था, उसी समय पहुँचकर उस विद्रोही का सिर जिलौ खाने में डाल दिया। आक्रमण के आशंका जाती रही और विजय पत्र चारों ओर भेजे गये। इस विजय के अनंतर खानजहाँ राजा टोडरमल को दरबार भेजकर स्वयं सतगाँव की ओर सेना लेकर गया, जहाँ दाऊद का परिवार था।
उसका खासखेल जमशेद आक्रमण कर परास्त हुआ और दाऊद की माँ अपने संबंधियों के साथ दरबार आई। वह प्रांत जिसे प्राचीन समय से उपद्रव का घर कहते थे अर्थात् जहाँ की कुछ भी जमीन बलवाइयों के उपद्रव से ख़ाली नहीं बची थी, खानजहाँ के साहस तथा वीरता से पुन: अधिकृत होकर शांति का घर हो गया। कूच प्रांत के ज़मींदार राजा माल गोसाई ने भी अधीनता स्वीकार कर ली। खानजहाँ ने वहाँ की अच्छी वस्तुएँ तथा 45 हाथी दरबार भेज दिया। भाटी प्रांत में कुछ अफ़ग़ानों ने उपद्रह मचा रखा था और वहाँ के ज़मींदार ईसा ने विद्रोह कर दिया था, इसलिए 23वें वर्ष में खानजहाँ ने उस ओर रवाना होकर एक सेना आगे आगे भेजी। घोर आक्रमण पर परास्त होकर ईसा भाग गया और अफ़ग़ान अस्तव्यस्त हो गये। खाजकाँ इस कार्य के निपटने पर लौटकर सहेतपुर पहुँचा, जिस नगर को यह टाँड़ा के पास बसा रहा था, और वहीं आराम से रहने लगा। हर एक सुख का अंत दु:ख में होता है और हर एक पूर्णता का अंत माश में शैर का अर्थ-कोई इच्छा पूर्णत: सजल नहीं होती। ज्योंही पृष्ठ पूरा हुआ कि उलट दिया गया। खानजहाँ थोड़े ही समय के बाद बीमारी से डेढ़ महीने तक बिछोने पर पड़ा रहा। हकीम लोग बिना समझे दवा करते रहे। उसी वर्ष सन् 986 हिजरी में यह मर गया। यह पाँच हजारी अकबरी मनसबदार था। इसका पुत्र मिर्जा रजाकुली 47 वें वर्ष में पाँच सद्दी 300 सवार के मनसब तक पहुँचा था। [1]




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक- 'मुग़ल दरबार के सरदार' भाग-2| लेखक: मआसिरुल् उमरा | प्रकाशन: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी | पृष्ठ संख्या: 705-709

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