योग दर्शन

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'योग' आर्य जाति की प्राचीनतम विद्या है, जिसमें विवाद को प्रश्रय नहीं मिला है। योग ही सर्वोत्तम मोक्षोपाय है। भव ताप सन्तप्त जीव को ईश्वर से मिलाने में योग ही भक्ति और ज्ञान का प्रधान साधन है। चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है- 'योगश्चित्तवृत्ति-निरोध:।' यद्यपि उपलब्ध योगसूत्रों के रचयिता महर्षि पतञ्जलि माने जाते हैं, किन्तु योग पतञ्जलि से भी प्राचीन अध्यात्म-प्रक्रिया है। संहिताओं, ब्राह्मणों तथा उपनिषदों में अनेकत्र इसका संकेत एवं विवेचन उपलब्ध है। योग सांख्य-अभिमत तत्त्व को स्वीकारता है, परन्तु ईश्वर की सत्ता मानकर उसे छब्वीसवाँ तत्त्व मानता है। इसीलिए योग को सेश्वर सांख्य भी कहा जाता है। योग दर्शन सूत्र रूप है। इन सूत्रों के रचयिता महर्षि पतञ्जलि हैं। इन्होंने 195 सूत्रों में सम्पूर्ण योग दर्शन को विभाजित किया है।

योग दर्शन में सूत्र

योगदर्शन में चार पाद हैं, जिनकी सूत्रसंख्या 195 है।

प्रथम समाधि पाद

प्रथम समाधिपाद में समाधि के रूप तथा भेद, चित्त एवं उनकी वृत्तियों का वर्णन हैं। प्रथम पाद में 'योग' का लक्षण 'योग: चित्तवृत्तिनिरोध:' बताया है। तदन्तर 'समाधि' का सविस्तार निरूपण किया है। इसीलिए इस प्रथम पाद को 'समाधिपाद' के नाम से कहा गया है। इस पाद में सूत्रसंख्या (51) इक्यावन है।

द्वितीय साधन पाद

द्वितीय साधनपाद में क्रियायोग, क्लेश तथा अष्टांग योग वर्णित हैं। द्वितीय पाद में व्युत्थित चित्त को समाहित करने हेतु 'तप:स्वाध्याय' और 'ईश्वर-प्रणिधान' रूप क्रियायोग के द्वारा यम-नियमादि पाँच साधनों को बताया गया है। ये सब बहिरंग साधन हैं। इस पाद में सूत्रसंख्या (55) पचपन है।

तृतीय विभूति पाद

तृतीय विभूतिपाद में धारणा, ध्यान और समाधि के अनन्तर योग के अनुष्ठान से उत्पन्न विभूतियों का वर्णन है। तृतीय पाद में 'धारणा', 'ध्यान' और 'समाधि' रूप तीन अन्तरंग-साधनों को बताया गया है। इस साधनों से अवतान्तर फलों के रूप में अनेक विभूतियाँ प्राप्त होती हैं, इसलिये इस पाद को 'विभूतिपाद' के नाम से जाना गया है। इस पाद में सूत्रसंख्या (55) पचपन है।

चतुर्थ कैवल्य पाद

चतुर्थ कैवल्य पाद में समाधिसिध्दि, विज्ञानवादनिराकरण और कैवल्य का निर्णय किया गया है। चतुर्थ पाद में 'जन्म', औषधि, मंत्र, तप और समाधि से प्राप्त होने वाली पाँच सिद्धियों का सविस्तार वर्णन किया गया है। तदनन्तर प्रस्तुत शास्त्र का मुख्य प्रयोजन 'कैवल्य' प्राप्ति बताई गई है। इसलिये इस पाद को 'कैवल्य पाद' के नाम से कहा गया है। इस पाद में सूत्रसंख्या (34) चौतीस है।

पतञ्जलि योगदर्शन

पतञ्जलि योग दर्शन के स्थूल रूप का यही परिचय है। पतञ्जलि योग-सूत्र पर 'व्यासभाष्य' अत्यन्त प्रमाणिक ग्रन्थ है। योग-सूत्रों के गूढ़ रहस्यों को व्यक्त करने में यह भाष्य अत्यन्त उपयोगी है। योग-सूत्रों की अनेक टीकाएँ हैं, जिनमें भोज कृत 'राजमार्तण्ड' (भोजवृत्ति), भावावेश की 'वृत्ति', रामानन्द यति की 'मणिप्रभा', अनन्त पण्डित की 'योगचन्द्रिका', सदाशिवेन्द्र का 'योगसुधारक' और नागोजि भट्ट की 'लघ्वी' और 'बृहती' वृत्तियाँ प्रसिद्ध हैं। वाचस्पति मिश्र ने व्यास पर 'तत्त्ववैशारदी' टीका लिखकर योग के तत्त्वों को सरल एवं सुबोध बनाया है। इस टीका में योगसूत्र तथा व्यासभाष्य के पारिभाषिक शब्दों का विस्तृत परिष्कार किया गया है।

योग का अर्थ

'योग' शब्द समाध्यर्थक युज् धातु से निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है समाधि। पतञ्जलि का योगलक्षण है- 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:' अर्थात् चित्त की वृत्तियों को रोकना। चित्त से अभिप्राय अन्त:करण अर्थात्‌ मन, बुद्धि, अहंकार है। सत्त्वादिगुणों के तर-तमभाव से 'चित्तवृत्ति' में तारतम्य उत्पन्न होता है। उस कारण वह 'बहिर्मुख' और 'अन्तर्मुख' भी होता रहता है।

चित्त

चित्त सत्त्वप्रधान प्रकृति-परिणाम है। चित्त प्राकृत होने से जड़ और प्रतिक्षण परिणामशाली है। इस चित्त की 5 भूमियाँ या अवस्थायें होती हैं- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध।

वृत्तियाँ

चित्त की वृत्तियाँ भी प्रमुखतया पाँच हैं- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति। चित्त की समस्त अवस्थाओं का अन्तर्भाव इन्हीं पाँचों वृत्तियों में हो जाता है। योगसिद्धि में चित्तवृत्तियों के साथ ही उनके संस्कारों का भी निरोध आवश्यक है। अत: चित्त की स्थूल वृत्तियों और सूक्ष्म-संस्कारों के निरोध होने पर ही योग की पूर्णता सिद्ध होती है।

समाधि के भेद

योगदर्शन में समाधि के दो भेद माने गये हैं-

  1. सम्प्रज्ञात समाधि
  2. असम्प्रज्ञात समाधि।

सम्प्रज्ञात समाधि

'एकाग्रता' चित्त की वह अविचल अक्षुब्ध अवस्था है, जब ध्येय वस्तु के ऊपर चित्त चिरकाल तक रहता है। इस योग का नाम सम्प्रज्ञात समाधि है, क्योंकि इस अवस्था में चित्त के समाहित होने के लिए कोई न कोई आलम्बन बना रहता है। योग शास्त्र में चित्त की 'एकाग्र' और 'निरुद्ध' इन दो अवस्थाओं का ही विचार किया गया है। 'चित्त' जब सम्पूर्णतया निरुद्ध हो जाता है, तब तीन गुणों से उत्पन्न होने वाली शांत, घोर, और मूढ़ वृत्तियों का उदय उसमें नहीं होता है। 'सम्प्रज्ञात' समाधि में ध्येयपदार्थ का स्वरूप अच्छी प्रकार से समझ में आ जाता है। इस समाधि में ध्यान करने वाले का 'चित्त', वृत्तरहित न होकर ध्येय वस्तुविषयक 'वृत्ति' बनी रहती है। इसलिये इस समाधि को - 'सबीज समाधि' कहा गया है। अन्त:करण की एक विशेष प्रकार की भावना को ही 'समाधि' शब्द से कहा जाता है। समस्त वृत्तियों का लय होकर केवल संस्कारमात्र शेष रहने वाले चित्त के निरोध को असम्प्रज्ञात समाधि कहा जाता है। पर-वैराग्य के सतत अभ्यास करने से यह समाधि हुआ करती है। पर-वैराग्य में चिनतनीय कोई वस्तु नहीं होती, और इस समाधि में कोई ध्येय वस्तु नहीं होती।

वैराग्य और अभ्यास की दृढ़ता के कारण 'चित्त', निर्विषय हो जाता है, तब उससे 'वृत्तियों' की उत्पत्ति का होना बन्द हो जाता है। वृत्तिरहित हुआ 'चित्त', मृतवत् पड़ा रहता है। इस समाधि में संसार के बीजभूत संस्कारों का ही नाश हो जाने से इसे 'निर्बीज समाधि' के नाम से भी कहा जाता है।

असम्प्रज्ञात समाधि

निरुद्ध दशा में असम्प्रज्ञात समाधि का उदय होता है, जब चित्त की समस्त वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती हैं। यहाँ कोई भी आलम्बन नहीं रहता। अत: इसे असम्प्रज्ञात समाधि कहा जाता है। असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था-पूर्णतया प्राप्त होने पर 'आत्मा' अर्थात् 'द्रष्टा' केवल 'चैतन्य' स्वरूप से ही स्थित रहता है। 'आत्मा' स्वभावत: निर्वि कार होने पर भी विकार 'चित्त' में हुआ करते हैं। उस कारण (आत्मा), चित्त की तत्तद्वृत्तियों की सरूपता को प्राप्त हुआ सा अविद्यादोष के कारण प्रतीत होता है। यद्यपि निरोध करने योग्य वृत्तियाँ असंख्य हैं, तथापि पाँच ही वृत्तियाँ मुख्य हैं। अज्ञ मनुष्य में ये पाँच वृत्तियाँ क्लेशकारण हुआ करती हैं। किन्तु जीवनमुक्त के लिए वे वृत्तियाँ क्लेशकारक नहीं होतीं। उपायप्रत्यय और भवप्रत्यय के भेद से 'असम्प्रज्ञात' योग (समाधि) दो प्रकार का होता है। समाधि के अभ्यास में किसी प्रकार के विक्षेप तथा उपद्रव से बाधा न होने के लिये 'ईश्वर' का चिन्तन सतत करते रहना चाहिए। प्राणायाम का अभ्यास करते रहना चाहिए। 'सबीज समाधि' में चित्त की प्रज्ञा 'सत्य' का ही ग्रहण करता है, विपरीत ज्ञान रहता ही नहीं। इसीलिये उस प्रज्ञा को 'ऋतंभरा प्रज्ञा' कहा गया है। इस प्रज्ञा से क्रमश: पर-वैराग्य के द्वारा 'निर्बीज समाधि' का लाभ होता है। उस अवस्था में 'आत्मा' केवल अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है। तब 'पुरुष' को 'मुक्त' समझना चाहिए।

योग दर्शन का लक्ष्य

ध्येय वस्तु का ज्ञान बने रहने के कारण पूर्व समाधि को 'सम्प्रज्ञात' और ध्येय, ध्यान, ध्याता के एकाकार हो जाने से द्वितीय समाधि को 'असम्प्रज्ञात' कहा जाता है। योग दर्शन का चरमलक्ष्य है आत्म-दर्शन।

योग दर्शन में ईश्वर

योग दर्शन में ईश्वर का स्थान महत्त्वपूर्ण है। योग में जो पुरुष-विशेष क्लेश, कर्मविपाक तथा आशय से असम्पृक्त रहता है, वह ईश्वर कहलाता है- 'क्लेशकर्म-विपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:'। योग के आचार्यों ने ईश्वरसिद्धि में श्रुति-शब्द प्रमाण को सर्वोत्कृष्ट माना है। सांख्य के साथ सिद्धान्तसाम्य होने पर भी योग ईश्वर को मानता है। इस ईश्वर की उपयोगिता योग-साधन में मौलिक है, क्योंकि ईश्वर-प्राणिधान से ही समाधि की सिद्धि होती है। ईश्वर गुरुओं का भी गुरु है, अत: तारक ज्ञान का दाता साक्षात् ईश्वर ही है।

योग दर्शन का महत्त्व

मानव जीवन के आध्यात्मिक उत्कर्ष में योग अत्यन्त उपयोगी दर्शन है। भारतीयों ने इस दर्शन का अनुशीलन विज्ञान की भाँति किया है और इसे उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचाया है। काय और चित्त के मलों से मुक्त कर पुरुष की आध्यात्मिक समुन्नति में उपयोग करने की शिक्षा योग से ही मिलती है। आज पाश्चात्य मनोविज्ञानिकों तथा चिकित्सकों का भी ध्यान योग की ओर आकृष्ट हुआ है, जिससे उसका विपुल प्रचार पाश्चात्त्य जगत् में भी हो रहा है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ


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