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इस्लामी शासन काल में जज़िया नाम का एक कर था। जज़िया को '''जिज़या''' भी लिखा जाता है। वैयक्तिक या सामुदायिक कर, जिसे प्रारंभिक इस्लामी शासकों ने अपनी ग़ैर मुस्लिम प्रजा से वसूल किया था। इस्लामी क़ानून में ग़ैर [[मुसलमान]] प्रजा को दो श्रेणियों में विभक्त किया गया था:-
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*ज़िम्मी ('संरक्षित लोग' या 'ग्रंथों के लोग', यानि वे लोग, जिनके धार्मिक विश्वासों का आधार पवित्र ग्रंथ होते हैं, जैसे ईसाई, यहूदी और पारसी)।
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मुस्लिम शासकों ने ज़िम्मियों के साथ सहिष्णुतापूर्वक व्यवहार किया और उन्हें अपने धर्म का पालन करने की इजाज़त दी। इस संरक्षण के बदले और अधीनता के रूप में ज़िम्मियों को एक ख़ास व्यक्ति कर चुकाना आवश्यक था, जो '''जज़िया''' कहलाया। कर की दर व उसकी वसूली हर प्रांत में अलग-अलग थे और वे स्थानीय इस्लाम-पूर्व के रिवाज़ों से अत्यधिक प्रभावित थे। सिद्धांततः कर के धन का इस्तेमाल दान व तनख्वाह व पेंशन बांटने के लिए होता था। वास्तव में जज़िया से एकत्र किए गए राजस्व को शासक के निजी कोष में जमा किया जाता था। आमतौर पर ऑटोमन शासक जज़िया से एकत्र धन का इस्तेमाल अपने सैन्य ख़र्चों के लिए करते थे।
  
संयोगवश [[अकबर]] शिकार खेलने [[मथुरा]] गया था। वहाँ उसे ज्ञात हुआ कि मथुरा आने पर हिन्दुओं को कर देना पड़ता है। उसने यात्री कर उठा दिया। अकबर ने कहा- यह कहाँ का न्याय है कि ईश्वर की आराधना पर कर लिया जाए। अगले ही वर्ष, अपने राज्याभिषेक की नौवीं वर्षगाँठ पर उसने मुस्लिम क़ानून के अनुसार गैर-मुस्लिमों पर लगने वाले कर 'जज़िया' को भी उठा लिया। यह एक अनोखी घटना थी। फिर तो दो पीढ़ियों तक जज़िया कर नहीं लगा। [[औरंगजेब]] ने 1679 में जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद जज़िया कर पुनः लगाया। जज़िया से प्रतिवर्ष साम्राज्य को लाखों की आय होती। फिर भी अकबर ने इसे अनुचित माना।
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सिद्धांततः धर्मांतरण कर इस्लाम को अपनाने वाले व्यक्ति को जज़िया अदा करने की ज़रूरत नहीं थी। हालांकि उमय्या ख़लीफ़ाओं (661-750) ने बढ़ते वित्तीय संकट का सामना करने के लिए इस्लाम को स्वीकार करने वाले नए लोगों के साथ-साथ ज़िम्मियों से भी जज़िया की मांग की थी। नए मुस्लिमों के प्रति यह भेदभाव [[खुरासान]] में अबू मुस्लिम विद्रोह (747) और उमय्या वंश के पतन का कारण बना।
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[[चित्र:Akbar.jpg|thumb|120px|[[अकबर]]]]
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कई बादशाहों ने यह कर समाप्त कर दिया था जिनमें उल्लेखनीय नाम [[अकबर|सम्राट अकबर]] का है। जब मिर्ज़ा राजा जयसिंह के बाद महाराज यशवंत सिंह का भी देहांत हो गया, तब [[औरंगज़ेब]] ने निरंकुश होकर सन् 1679 में फिर से इस कर को लगाया। इस अपमानपूर्ण कर का हिन्दुओं द्वारा विरोध किया गया। [[मेवाड़]] के वृद्ध राणा राजसिंह ने इसके विरोध में औरंगजेब को उपालंभ देते हुए एक पत्र लिखा था, जिसका उल्लेख [[कर्नल टॉड|टॉड]] कृत राजस्थान नामक ग्रंथ में हुआ है ।
  
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[http://www.britannica.com/EBchecked/topic/304125/jizya जज़िया]
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08:24, 15 सितम्बर 2012 के समय का अवतरण

जज़िया कर
इस्लामी शासन काल में जज़िया नाम का एक कर था। जज़िया को जिज़या भी लिखा जाता है। वैयक्तिक या सामुदायिक कर, जिसे प्रारंभिक इस्लामी शासकों ने अपनी ग़ैर मुस्लिम प्रजा से वसूल किया था। इस्लामी क़ानून में ग़ैर मुसलमान प्रजा को दो श्रेणियों में विभक्त किया गया था:-

  • मूर्तिपूजक
  • ज़िम्मी ('संरक्षित लोग' या 'ग्रंथों के लोग', यानि वे लोग, जिनके धार्मिक विश्वासों का आधार पवित्र ग्रंथ होते हैं, जैसे ईसाई, यहूदी और पारसी)।

इतिहास

मुस्लिम शासकों ने ज़िम्मियों के साथ सहिष्णुतापूर्वक व्यवहार किया और उन्हें अपने धर्म का पालन करने की इजाज़त दी। इस संरक्षण के बदले और अधीनता के रूप में ज़िम्मियों को एक ख़ास व्यक्ति कर चुकाना आवश्यक था, जो जज़िया कहलाया। कर की दर व उसकी वसूली हर प्रांत में अलग-अलग थे और वे स्थानीय इस्लाम-पूर्व के रिवाज़ों से अत्यधिक प्रभावित थे। सिद्धांततः कर के धन का इस्तेमाल दान व तनख्वाह व पेंशन बांटने के लिए होता था। वास्तव में जज़िया से एकत्र किए गए राजस्व को शासक के निजी कोष में जमा किया जाता था। आमतौर पर ऑटोमन शासक जज़िया से एकत्र धन का इस्तेमाल अपने सैन्य ख़र्चों के लिए करते थे।

सिद्धांततः धर्मांतरण कर इस्लाम को अपनाने वाले व्यक्ति को जज़िया अदा करने की ज़रूरत नहीं थी। हालांकि उमय्या ख़लीफ़ाओं (661-750) ने बढ़ते वित्तीय संकट का सामना करने के लिए इस्लाम को स्वीकार करने वाले नए लोगों के साथ-साथ ज़िम्मियों से भी जज़िया की मांग की थी। नए मुस्लिमों के प्रति यह भेदभाव खुरासान में अबू मुस्लिम विद्रोह (747) और उमय्या वंश के पतन का कारण बना।

कई बादशाहों ने यह कर समाप्त कर दिया था जिनमें उल्लेखनीय नाम सम्राट अकबर का है। जब मिर्ज़ा राजा जयसिंह के बाद महाराज यशवंत सिंह का भी देहांत हो गया, तब औरंगज़ेब ने निरंकुश होकर सन् 1679 में फिर से इस कर को लगाया। इस अपमानपूर्ण कर का हिन्दुओं द्वारा विरोध किया गया। मेवाड़ के वृद्ध राणा राजसिंह ने इसके विरोध में औरंगजेब को उपालंभ देते हुए एक पत्र लिखा था, जिसका उल्लेख टॉड कृत राजस्थान नामक ग्रंथ में हुआ है ।


बाहरी कड़ियाँ

जज़िया

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