"महात्मा गाँधी और चरखा" के अवतरणों में अंतर

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एकमात्र सवाल यह है कि भारत की गरीबी और तंगहाली दूर करने के उत्कृष्ट व्यावहारिक साधन कैसे विकसित किये जा सकते हैं। कल्पना कीजिए एक राष्ट्र की, जो प्रतिदिन औसतन पॉंच घंटे काम करता है, कौन-सा ऐसा काम है जो लोग अपने दुर्लभ संसाधनों के पूरक के रूप में आसानी से कर सकते हैं? क्या किसी को अब भी संदेह है कि हाथ से कताई करने का कोई विकल्प नहीं है? गाँधी जी का व्यावहारिक अर्थव्यवस्था में पूरा विश्र्वास था, क्योंकि उनका लक्ष्य किसी एक सिद्धांत या प्रणाली की श्रेष्ठता सिद्ध करना नहीं था, बल्कि उन गरीबों की कठिनाइयों का व्यावहारिक समाधान तलाश करना था, जो आधिपत्यपूर्ण आर्थिक सिद्धांतों के दुष्परिणाम झेल रहे थे। करोड़ों लोगों की गरीबी दूर करने के साधन के रूप में चरखे को प्रचारित करने की गाँधी जी की बुद्धिमत्ता के बारे में अनेक लोगों ने सवाल उठाये, किन्तु गाँधी जी स्वयं अमल में लाये बिना किसी भी सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं करते थे और पहले किसी भी सिद्धांत की व्यावहारिकता और गुणकारिता स्वयं सुनिश्चित करते थे।<ref>{{cite web |url=http://www.hindimilap.com/%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%9C%E0%A5%80-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A4%96%E0%A4%BE/2015/06/20 |title=गाँधी जी और चरखा |accessmonthday=09 फ़रवरी |accessyear= 2017|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=hindimilap.com |language=हिंदी }}</ref>
 
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12:38, 9 फ़रवरी 2017 का अवतरण

महात्मा गाँधी विषय सूची
महात्मा गाँधी और चरखा
Gandhi-Spinning-The-Wheel.jpg
पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी
अन्य नाम बापू, महात्मा जी
जन्म 2 अक्तूबर, 1869
जन्म भूमि पोरबंदर, गुजरात
मृत्यु 30 जनवरी, 1948
मृत्यु स्थान नई दिल्ली
मृत्यु कारण हत्या
अभिभावक करमचंद गाँधी, पुतलीबाई
पति/पत्नी कस्तूरबा गाँधी
संतान हरिलाल, मनिलाल, रामदास, देवदास
स्मारक राजघाट (दिल्ली), बिरला हाउस (दिल्ली) आदि।
पार्टी काँग्रेस
शिक्षा बैरिस्टर
विद्यालय बंबई यूनिवर्सिटी, सामलदास कॉलेज
संबंधित लेख गाँधी युग, असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह, भारत छोड़ो आन्दोलन, दांडी मार्च, व्यक्तिगत सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, ख़िलाफ़त आन्दोलन

महात्मा गाँधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी, जिसने भारत को आजादी दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। महात्मा गाँधी के साथ चरखे का नाम भी विशेषतौर पर जोड़ा जाता है। भारत में चरखे का इतिहास बहुत प्राचीन होते हुए भी इसमें उल्लेखनीय सुधार का काम महात्मा गाँधी के जीवनकाल का ही मानना चाहिए। सबसे पहले सन 1908 में गाँधी जी को चरखे की बात सूझी थी, जब वे इंग्लैंड में थे। उसके बाद वे बराबर इस दिशा में सोचते रहे। वे चाहते थे कि चरखा कहीं न कहीं से लाना चाहिए।

गाँधी जी का सेवा भाव

गाँधी जी ने चरखे की तलाश की थी। एक गंगा बहन थीं। उनसे उन्होंने चरखा बड़ौदा के किसी गांव से मंगवाया था। इससे पहले गाँधी जी ने चरखा कभी देखा भी नहीं था, सिर्फ सुना था उसके बारे में। बाद में उस चरखे में उन्होंने काफी सुधार भी किए। दरअसल गाँधी जी के चरखे और खादी के पीछे सेवा का भाव था। उनका चरखा एक वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था का प्रतीक भी था। महिलाओं की आर्थिक स्थिति के लिए भी, उनकी आजादी के लिए भी। आर्थिक स्वतंत्रता के लिए भी और उस किसान के लिए भी, जो 6 महीने खाली रहता था। इसलिए उस समय चरखा इतना प्रभावी हुआ कि अच्छे-अच्छे घरों की महिलाएं चरखा चलाने लगीं, सूत कातने लगीं; लेकिन धीरे-धीरे यह सब समाप्त हो गया। कांग्रेस की सरकार ने उनका इस्तेमाल किया या नहीं, इसकी एक अलग कहानी है।[1]

गाँधी-नेहरू संवाद

1945 में गाँधी जी ने जवाहरलाल नेहरू को एक चिट्ठी में लिखा था-

"आप हिंद स्वराज के हिसाब से काम करिये। गांव की तरफ हम को चलना चाहिये।"

नेहरू ने उनको जवाब में लिखा-

"गांव हमें क्या देंगे, वह क्या हमें प्रकाश देंगे। वह तो खुद अंधेरे में हैं।"

नेहरू के इस वाक्य से गाँधी जी को बहुत आधात लगा। उन्हें बहुत तकलीफ हुई थी। फिर गाँधी जी ने नेहरू को भी लिख दिया था-

"तो फिर अब से तुम्हारा रास्ता मेरा रास्ता अलग-अलग है।"

खादी का महत्त्व

महात्मा गाँधी ने लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिये खादी पहनना सर्वोच्च अनिवार्यता है। गाँधी जी का प्रत्येक भारतीय से आग्रह था कि वह रोज कताई करें और घर में कताई कर बुने वस्त्र ही पहनें। उनका यह आग्रह अनुचित या अत्युत्साही राष्टभक्ति से नहीं उपजा था बल्कि भारत की नैतिक और आर्थिक स्थितियों के यथार्थवादी मूल्यांकन पर आधारित था। कुछ लोग गाँधी जी की अवधारणा को गलत संदर्भ में प्रचारित करते हैं कि उन्होंने हाथ से काते वस्त्र पहनने पर इसलिए जोर दिया, क्योंकि वे मशीनों के खिलाफ थे। यथार्थ से हटकर उनकी आलोचना नहीं की जा सकती। वे मानते थे कि दरिद्रता दूर भगाने और काम तथा धन का संकट कभी पैदा न होने देने के लिये हाथ से कताई कर बने वस्त्र पहनना ही तात्कालिक उपाय है। उनका कहना था- "चरखा स्वयं ही एक बहुमूल्य मशीन है…।" चरखा, साबरमती आश्रम, अहमदाबाद एकमात्र सवाल यह है कि भारत की गरीबी और तंगहाली दूर करने के उत्कृष्ट व्यावहारिक साधन कैसे विकसित किये जा सकते हैं। कल्पना कीजिए एक राष्ट्र की, जो प्रतिदिन औसतन पॉंच घंटे काम करता है, कौन-सा ऐसा काम है जो लोग अपने दुर्लभ संसाधनों के पूरक के रूप में आसानी से कर सकते हैं? क्या किसी को अब भी संदेह है कि हाथ से कताई करने का कोई विकल्प नहीं है? गाँधी जी का व्यावहारिक अर्थव्यवस्था में पूरा विश्र्वास था, क्योंकि उनका लक्ष्य किसी एक सिद्धांत या प्रणाली की श्रेष्ठता सिद्ध करना नहीं था, बल्कि उन गरीबों की कठिनाइयों का व्यावहारिक समाधान तलाश करना था, जो आधिपत्यपूर्ण आर्थिक सिद्धांतों के दुष्परिणाम झेल रहे थे। करोड़ों लोगों की गरीबी दूर करने के साधन के रूप में चरखे को प्रचारित करने की गाँधी जी की बुद्धिमत्ता के बारे में अनेक लोगों ने सवाल उठाये, किन्तु गाँधी जी स्वयं अमल में लाये बिना किसी भी सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं करते थे और पहले किसी भी सिद्धांत की व्यावहारिकता और गुणकारिता स्वयं सुनिश्चित करते थे।[2]

गाँधी जी का आग्रह था कि चरखे अथवा स्थानीय महत्व के अन्य उपकरणों पर आधारित और आधुनिक तकनीकी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कुटीर उद्योग विकसित किये जायें। आज के संदर्भ में इलेक्टॉनिक सेक्टर, खेती के औजारों का निर्माण, कार्बनिक उर्वरक, बायोगैस और कचरे से बिजली उत्पादन जैसी गतिविधियों को कुटीर उद्योगों से जोड़ा जा सकता है। गाँधी जी ने अनेक नाम गिनाये थे, जिन्हें ग्राम स्तर पर सहकारी आधार पर चलाया जा सकता है। चरखे और घर में कताई कर बुने वस्त्र पहनने के प्रति गाँधी जी के आग्रह के पीछे निर्धनतम व्यक्ति के बारे में उनकी चिंता झलकती है। उन्हें करोड़ों लोगों की भूख की चिंता थी। उनका कहना था-

"हमें उन करोड़ों लोगों के बारे में सोचना चाहिए, जो पशुओं से भी बदतर जीवन जीने के लिये अभिशप्त हैं, जो अकाल की आशंका से ग्रस्त रहते हैं और जो लोग भुखमरी की अवस्था में हैं।"

चरखे की नीलामी

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान यरवडा जेल में जिस चरखे का इस्तेमाल महात्मा गाँधी ने किया था, वह नीलामी के दौरान ब्रिटेन में एक लाख दस हजार पौंड का बिका। गाँधी जी की आखिरी वसीयत ऐतिहासिक दस्तावेजों की नीलामी के दौरान 20,000 पौंड में बिकी थी। चरखे और इस वसीयत की नीलामी श्रॉपशर के मलॉक ऑक्शन हाउस ने करवाई। मलॉक के एक अधिकारी माइकल मॉरिस ने के अनुसार- "गाँधी जी का चरखा 110,000 पाउंड में नीलाम हुआ और उनकी वसीयत 20,000 पाउंड में।" चरखे की न्यूनतम बोली 60,000 लगाई गई थी। पुणे की यरवडा जेल में गाँधी जी ने इसे इस्तेमाल किया था। बाद में यह चरखा उन्होंने एक अमेरिकी मिशनरी रेव्ड फ्लॉयड ए पफर को भेंट कर दिया। पफर भारत में शैक्षणिक और औद्योगिक सहकारी संघ बनाने वाले पहले व्यक्ति थे। उन्होंने बाँस का एक हल बनाया था, जिसे गाँधी जी ने बाद में इस्तेमाल भी किया। औपनिवेशिक काल के दौरान पफर के काम के लिए गाँधी जी ने उन्हें यह चरखा भेंट किया था।[3]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. थोड़ा-सा इतिहास, अमर उजाला, 22 जनवरी-2017
  2. गाँधी जी और चरखा (हिंदी) hindimilap.com। अभिगमन तिथि: 09 फ़रवरी, 2017।
  3. गाँधी जी का चरखा एक लाख पौंड का (हिंदी) dw.com। अभिगमन तिथि: 09 फ़रवरी, 2017।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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सुव्यवस्थित लेख