जतीन्द्रनाथ दास
जतीन्द्रनाथ दास
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पूरा नाम | जतीन्द्रनाथ दास |
जन्म | 27 अक्टूबर, 1904 |
जन्म भूमि | कलकत्ता, ब्रिटिश भारत |
मृत्यु | 13 सितम्बर, 1929 |
मृत्यु स्थान | लाहौर, पाकिस्तान |
मृत्यु कारण | भूख हड़ताल |
अभिभावक | बंकिम बिहारी दास और सुहासिनी देवी |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | क्रांतिकारी |
जेल यात्रा | इन्हें 1925 में 'दक्षिणेश्वर बम कांड' और 'काकोरी कांड' के सिलसिले में और फिर 14 जून, 1929 को 'केन्द्रीय असेम्बली बमकाण्ड' के सिलसिले में जेल हुई। |
संबंधित लेख | भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, सुभाषचन्द्र बोस |
अन्य जानकारी | 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जो बम केन्द्रीय असेम्बली में फेंके, वे जतीन्द्रनाथ दास के द्वारा बनाये हुए थे। |
जतीन्द्रनाथ दास (अंग्रेज़ी: Jatindranath Das; जन्म- 27 अक्टूबर, 1904, कलकत्ता, ब्रिटिश भारत; मृत्यु- 13 सितम्बर, 1929, लाहौर, पाकिस्तान) भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों में से एक थे, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए जेल में अपने प्राण त्याग दिए और शहादत पाई। इन्हें 'जतिन दास' के नाम से भी जाना जाता है, जबकि संगी साथी इन्हें प्यार से 'जतिन दा' कहा करते थे। जतीन्द्रनाथ दास 'कांग्रेस सेवादल' में सुभाषचन्द्र बोस के सहायक थे। भगत सिंह से भेंट होने के बाद ये बम बनाने के लिए आगरा आ गये थे। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जो बम केन्द्रीय असेम्बली में फेंके थे, वे इन्हीं के द्वारा बनाये गए थे। जेल में क्रान्तिकारियों के साथ राजबन्दियों के समान व्यवहार न होने के कारण क्रान्तिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन आरम्भ कर दिया। जतीन्द्रनाथ भी इसमें सम्मिलित हुए। अनशन के 63वें दिन जेल में ही इनका देहान्त हो गया।
जन्म और शिक्षा
अमर शहीद जतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर, 1904 ई. को कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता), ब्रिटिश भारत में एक साधारण बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बंकिम बिहारी दास और माता का नाम सुहासिनी देवी था। जतीन्द्र नौ वर्ष के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। 16 वर्ष की उम्र में 1920 में जतीन्द्र ने मैट्रिक की परीक्षा पास की।
क्रांतिकारी गतिविधि
जब जतीन्द्रनाथ अपनी आगे की शिक्षा पूर्ण कर रहे थे, तभी महात्मा गाँधी ने 'असहयोग आन्दोलन' प्रारम्भ किया। जतीन्द्र इस आन्दोलन में कूद पड़े। विदेशी कपड़ों की दुकान पर धरना देते हुए वे गिरफ़्तार कर लिये गए। उन्हें 6 महीने की सज़ा हुई। लेकिन जब चौरी-चौरा की घटना के बाद गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो निराश जतीन्द्रनाथ फिर कॉलेज में भर्ती हो गए। कॉलेज का यह प्रवेश जतीन्द्र के जीवन में निर्णायक सिद्ध हुआ।[1]
शचीन्द्रनाथ से भेंट
एक युवक के माध्यम से जतीन्द्रनाथ प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के सम्पर्क में आए और क्रान्तिकारी संस्था 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' के सदस्य बन गये। अपने सम्पर्कों और साहसपूर्ण कार्यों से उन्होंने दल में महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया और अनेक क्रान्तिकारी कार्यों में भाग लिया। इस बीच जतीन्द्र ने बम बनाना भी सीख लिया था।
नज़रबन्द
1925 में जतीन्द्रनाथ को 'दक्षिणेश्वर बम कांड' और 'काकोरी कांड' के सिलसिले में गिरफ़्तार किया गया, किन्तु प्रमाणों के अभाव में मुकदमा न चल पाने पर वे नज़रबन्द कर लिये गए। जेल में दुर्व्यवहार के विरोध में उन्होंने 21 दिन तक जब भूख हड़ताल कर दी तो बिगड़ते स्वास्थ्य को देखकर सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा।
लाहौर षड़यंत्र केस में गिरफ़्तार
जेल से बाहर आने पर जतीन्द्रनाथ दास ने अपना अध्ययन और राजनीति दोनों काम जारी रखे। 1928 की 'कोलकाता कांग्रेस' में वे 'कांग्रेस सेवादल' में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सहायक थे। वहीं उनकी सरदार भगत सिंह से भेंट हुई और उनके अनुरोध पर बम बनाने के लिए आगरा आए। 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जो बम केन्द्रीय असेम्बली में फेंके, वे इन्हीं के द्वारा बनाये हुए थे। 14 जून, 1929 को जतीन्द्र गिरफ़्तार कर लिये गए और उन पर 'लाहौर षड़यंत्र केस' में मुकदमा चला।[1]
अनशन
जेल में क्रान्तिकारियों के साथ राजबन्दियों के समान व्यवहार न होने के कारण क्रान्तिकारियों ने 13 जुलाई, 1929 से अनशन आरम्भ कर दिया। जतीन्द्र भी इसमें सम्मिलित हुए। उनका कहना था कि एक बार अनशन आरम्भ होने पर हम अपनी मांगों की पूर्ति के बिना उसे नहीं तोड़ेंगे। कुछ समय के बाद जेल अधिकारियों ने नाक में नली डालकर बलपूर्वक अनशन पर बैठे क्रांतिकारियों के के पेट में दूध डालना शुरू कर दिया। जतीन्द्र को 21 दिन के पहले अपने अनशन का अनुभव था। उनके साथ यह युक्ति काम नहीं आई। नाक से डाली नली को सांस से खींचकर वे दांतों से दबा लेते थे। अन्त में पागल खाने के एक डॉक्टर ने एक नाक की नली दांतों से दब जाने पर दूसरी नाक से नली डाल दी, जो जतीन्द्र के फेफड़ों में चली गई। उनकी घुटती सांस की परवाह किए बिना उस डॉक्टर ने एक सेर दूध उनके फेफड़ों में भर दिया। इससे उन्हें निमोनिया हो गया। कर्मचारियों ने उन्हें धोखे से बाहर ले जाना चाहा, लेकिन जतीन्द्र अपने साथियों से अलग होने के लिए तैयार नहीं हुए।
निधन
अनशन के 63वें दिन 13 सितम्बर, 1929 को जतीन्द्रनाथ दास का देहान्त हो गया। जतीन्द्र के भाई किरण चंद्रदास ट्रेन से उनके शव को कोलकाता ले गए। सभी स्टेशनों पर लोगों ने इस शहीद को श्रद्धांजलि अर्पित की। कोलकाता में शवदाह के समय लाखों की भीड़ एकत्र थी। उनकी इस शानदार अहिंसात्मक शहादत का उल्लेख पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में किया है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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