जैन ख़ाँ कोका

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जैन ख़ाँ कोका मुग़ल बाहशाह अकबर की एक धाय का पुत्र था। इसके पिता और चाचा सम्राट् के बहुत निकट रहते थे, अतएव इसपर भी कृपा होना स्वाभाविक था। कहते हैं कि हिंदी काव्य और संगीत में इसकी विशेष रुचि थी। स्वयं कविहृदय और वाद्यप्रेमी था। इसकी विलासप्रियता की भी अनेक कहानियाँ प्रसिद्ध हैं। अपने राज्य के 30वें वर्ष अकबर ने इसे काबुल भेजा जहाँ युसुफजई उपद्रव मचा रहे थे। उलूग बेग मिर्जा की सहायता से इनके विद्रोह का दमन किया। इसी स्थान पर एक अन्य जाति 'सुलतानी' के नाम से रहती थी। बादशाही सेना ने चतुरता से युसुफजइयों को अपने पक्ष में करके सुलतानियों को नष्ट किया। बजोर, स्वाद आदि में दमन करते हुए वह चकदर पहुँचा जहाँ उसने एक दुर्ग स्थापित किया। कराकर और बूनेर प्रांत को छोड़कर शेष भाग पर अधिकार कर लिया।

संक्षिप्त परिचय

अबुलफतह और राजा बीरबल के साथ इसे पहाड़ी प्रांतों में भी युद्ध करना पड़ा, यद्यपि यह उसकी अनिच्छा से ही हुआ था। पहाड़ी प्रांतों के अफगानों से युद्ध इसे अत्यंत महँगा पड़ा। इसकी सेना पहाड़ी क्षेत्रों में युद्ध की अनभ्यस्त होने के कारण बिखर गई। बहुत से सैनिक काम आए। स्वयं जैन ख़ाँ के प्राण बड़ी कठिनाई से बचे। राजा बीरबल अन्य मुख्य साथियों के साथ युद्ध में मारे गए। अकबर राज्य के 31वें वर्ष इसने पेशावर के निकट जलालुद्दीन रोशानी के नेतृत्व में महमंद और गोरी जातियों के विद्रोह का बड़ी वीरता से दमन किया। 32वें वर्ष में यह राजा मानसिंह के उत्तराधिकारी के रूप में जाबुलिस्तान का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। 33वें वर्ष इसने युसुफजइयों पर आक्रमण किया और 8 महीने के पश्चात्‌ बहुत लोगों को मार कर शेष लोगों से आत्मसमर्पण करवा लिया।
कोका ने स्वाद पर भी अधिकार करने का विचार किया। बचकोरा नदी के किनारे रक्षार्थ दुर्ग बनाकर उसने ईद की कुर्बानी के पर्व की रात अफगानों के ऊपर आक्रमण कर दिया। इसमें कोका की विजय हुई। 35वें वर्ष इसी की वीरता के कारण पहाड़ियों के जमींदारों को आत्मसमर्पण करना पड़ा। 37वें वर्ष जब जैन ख़ाँ को हिंदूकुश से लेकर सिंध के किनारे तक की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया, वह स्वाद और बजोर होकर तीराह पहुँचा। अफ्रीदियों और ओरकजइयों ने आत्मसमर्पण कर दिया और जलाल के काफिरों के क्षेत्र में शरण ली। इसने अपनी राजनीतिक कुशलता से काफिरों को मिलाकर अफगानों का दमन किया, युसूफजई भी बदख्शाँ तक भागकर सुरक्षित न रह सके। उन्हें जैन खां से संधि करनी पड़ी। इस प्रकार कनशान दुर्ग, बदख्शाँ और काशगर के सीमांत क्षेत्र इसके अधिकार में आ गए। इसी समय कुलीख़ाँ काबुल का कार्यभार संभालने में असमर्थ हो रहा था, अत: वह पद जैन ख़ाँ को प्रदान किया गया। जब जलालुद्दीन रोशानी के मरने पर अफगानिस्तान में शांति स्थापित हो गई तो यह लाहौर आ गया। अधिक मदिरासेवी होने के कारण इसका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया था। अंत में 1602 ई. में यह मर गया।[1]

विस्तृत जीवन परिचय

जैन ख़ाँ कोका की माता पेच: जान अकबर की धाय थी। इसका पिता ख्वाजा: मकसूदअली हर्वी पवित्र विचार का सच्चा तथा दियानतदार आदमी था और हमीद: बानू बेगम का एक सेवक था, जो हौदज के पास बराबर नियत था। एराक की यात्रा में यह भी साथ गया था। अकबर ने इसके भाई ख्वाज: सहन की, जो जैन ख़ाँ का चचा था, लड़की का शाहजादा सलीम से निकाह कर दिया था। इसी से सन् 997 हिजरी में सुलतान पर्वेज पैदा हुआ। 30 वर्ष में जब मिर्जा मुहम्मद हकीम काबुल में मर गया और अकबर जाबुलिस्तान जाने को इच्छा से सिंध नदी के पार उतरा तब जैन ख़ाँ, जिसे ढ़ाई हजारी मनसब मिल चुका था, यूसुफजाई जाति वालों को ठीक करने और स्वाद तथा बजौर पर अधिकार करने के लिए भेजा गया। यह झुड पहिले कराबाग और कंधार में रहता था। और वहाँ से काबुल आकर इस पर अधिकार करने लगा था। मिर्जा उलुगबेग काबुली ने इसे भगा दिया। बचे हुए वहाँ से लमगानात में कुछ दिन ठहर कर इस्तगर में जा बसे। लगभग सौ वर्ष हुए कि तब से स्वाद तथा बजौर में लूट मार कर दिन बिताते हैं।
उसी देश में एक और झुंड था, जो अपने को सुलतानी कहता था और अपने को सुल्तान सिकंदर की पुत्री का वंशज समझता था। यह जाति पहले ग़ुलामी करने लगी और फिर कपट करके इसने कुछ अच्छी जगह अपने अधिकार ने कर लिया। इसमें से कुछ उन्हीं घाटियों में असफलता में दिन व्यतीत करते रहे और देश-प्रेम के कारण बाहर नहीं गए। जिस वर्ष पहले अकबर मिर्जा मुहम्मद हकीम को दंड देने के लिए उस प्रांत में गया था, उस समय उस जाति के बड़े लोग सेवा में पहुँचे थे। इनमें से एक कालू था, जो कृपा पाकर भी आगरे से भाग गया। ख्वाज: शम्सुद्दीन खवाफी ने अटक के पास उसे कैद कर दर्बार भेज दिया। दंड के बदले उस पर कृपा हुई परंतु फिर भाग कर अपने देश चला गया और लूट मार करने में दूसरों का साथी हो गया।
जैन ख़ाँ कोका पहले बजौर प्रांत से गया, जिसके दक्षिण में पेशावर और पूर्ण में काबुल के परगने हैं, जो पचीस कोस लंबा और पांच से दम कोस तक चौड़ा है सथा जिसमें इस जाति के 30 सहस्र गृहस्थ आदमी बसते है। वहाँ इसने बहुतों को दंड दिया। गाजी ख़ाँ, मिर्जा अली और दूसरे सर्दारों ने अमान माँगी और उपद्रव शांत हो गया। इसके अनंतर पार्वत्यस्थान स्वाद की ओर गया और कड़े धावों पर शत्रु को भगा दिया। जगदर्रा में, जो उस प्रांत के बीच में है, इसने दुर्ग की नींद डाली। इसने तीईस बार विजय पाई और इसके सात भाले टूटे। कराकर की ऊँचाई और पवनीर प्रांत के सिवा सब पर अधिकार हो गया। पहाड़ों में घूमते-घूमते सेना शिथिल हो गई, इसलिए जैन ख़ाँ ने सहायता माँगी। अकबर ने राजा बीरबल और हकीम अबुल्फतह को एक दूसरे के बाद नियत किया। जब वे कोकल्ताश के पास पहुँचे तब पुरानी ईर्ष्या के कारण वे आपस में न मिलकर भिन्न मत हो गए। जब कोका ने न्याय करते समय कहा कि 'नई आई हुई सेना को बलवाइयों पर भेजा जाय और हम इस प्रांत में रक्षा के लिए रहें या आप लोग यहाँ जगदर्रा में रक्षा का काम देखिए और हम बलवाइयों को दंड देने जाय, तब राजा और हकीम ने जवाब दिया कि 'शादी आज्ञा मुल्क पर धावा करने कि है, उसकी रचना करने के लिए नहीं है। हम सब मिलकर दंड देने के बाद दरबार चले चलेंगे।' कोका ने कहा की 'जिस प्रांत को इतना युद्ध कर अधिकृत किया है, उसे किस प्रकार बिना प्रबंध किए छाड़ दें। यदि यह दोनों प्रस्ताव न स्वीकार हों तो जिस मार्ग से आये हो उसी से लौट जाओ' वे यह न सुनकर कराकर के उस मार्ग से आगे बढ़े, जो पहाड़ों और गड़हों से भरा हुआ था। कोका भी निरुपाय होकर उन्हीं के साथ चला कि कहीं ये पार्श्ववर्ती कोई ऐसी बात न कह दें कि बादशाह का विचार उसकी ओर से बदल जाए। यहाँ तक कि हर एक तंग दरें में बराबर लड़ाई होती रही और लूट भी खूब होती रही।
जब बलन्दरी घाटी की ओर बढ़े तब कोका पीछे हो गया। अफगानों ने धावा किया और युद्ध होने लगा। उन सब ने हर ओर से तीर और पत्थर फेंकना आरंभ किया। आदमी लोग घबड़ा कर पहाड़ के नीचे भागे। इस दौड़ धूप में हाथी और घोड़े भी उन्हीं में मिल गए और बहुत से आदमी मारे गए। कोका चाहता था कि लड़ मरे परंतु जानिश बहादुर उसे लौटा लाया और मार्ग न होने से कुछ दूर पैदल चल कर पड़ाव पर पहुँच गया। जब यह विदित हुआ कि अफगान आक्रमण को आते हैं तब घबराहट में कुसमय में कूच कर दिया। अंधकार के कारण रास्ता छोड़ कर बहुत से लोग दर्रों में जा पड़े। अफगानों ने लूट बहुत बाँटी पर तौ भी बच गई। दूसरे दिन भी कितने मार्ग भूले हुए मारे गए। राजा बीरबल बादशाह की पहचान के लगभग पाँच सौ आदमियों तथा दूसरों के साथ मारा गया।
31वें वर्ष में कोकलताश पेशावर के पास मुहम्मद और गोरी जातियों को दंड देने के लिए नियत हुआ, जो जकाकुद्दीन रौशानी को सर्दार बनाकर रीराह और खैबर में बलवा मचाए हुए थे। इसने अच्छा काम दिखलाया। 32वें वर्षं में राजा मानसिंह के स्थान पर जाबुलिस्तान का शासक नियत हुआ। 33वें वर्षं में फिर यूसुफजई लोगों को दंड देने के लिए नियुक्त होकर पहिले बजौर गया और उन पर आठ महीने तह आक्रमण किए। इसमें बहुत से शत्रु मारे गए और बचे हुए लोगों ने अधीनता स्वीकार कर ली। कोका स्वाद पर अधिकार करने चला। पहिले बचकोरा नदी के किनारे, जो उस देश में पहुँचने के मार्ग का आरंभ है, द्दढ़ दृर्ग बनवाकर बैठ रहा। शत्रु ईद की कुरबानी में लगे थे कि कोका गुप्त रास्ते से स्वाद में जो जा पहुँचा। अफगान चबड़ाकर भाग गए और उस देश पर अधिकार हो गया। हर एक आवश्यक स्थान पर दुर्गा बनवाकर रक्षा का प्रबंध किया। 43वें वर्ष जैन ख़ाँ उत्तर के जमींबारों को दंड देने के लिए नियत हुआ। पठान के पास से उस प्रांत में जाकर सतलज नदी तक पहुँचा। सब विद्रोहियों ने अधीनता स्वीकार कर ली। नगरकोट के राजा विधिचंद्र, जम्बू पर्वत के राजा परशुराम, मऊ के राजा बासू, राजा अनिरुद्ध जसबाल, राजा काम लौरी, राजा जगदीशचंद्र दलवाल, पन्ना के राजा संसारचंद्र, मानकोट के राय प्रताप, जसरौता के राय बासू, लखनपुर के राय बलभद्र, कोट भरत के दौलत, रायकृष्ण बलाबरिइय: और राय रावदिया धमरीवाल ने 10 सहस्त्र सवार इकट्टा अर लिए थे और पैदल एक लाख से अधिक थे पर ये सब अच्छी भेंट लेकर कोका से साथ दरबार गए। 36वें वर्ष में चार हजारी मंसब और डंका पाकर यह संमानित हुआ। 37वें वर्ष जैन ख़ाँ सिंध नदी के उस पार से हिंद कोह तक के प्रांत का शासक नियत हुआ और स्वाद तथा बजौर से तीराह की ओर गया। अफरीदी और उरकजई जातियों ने अधीनता स्वीकार कर ली। जलाल। काफिरों के प्रांत में चला गया। कोका भी उस प्रांत में पहुँच। जलाल: के दामाद वहदत अली ने यूसुफजई की सहायता से कनशाल दुर्ग पर और काफिरों के प्रांत में कुछ सफलता प्राप्त की थी इसलिए कोका ने उन्हें दमन करने का साहस किया। सेना ने कोहसार तक, जो काशगर के शासक का थाना था, जाकर बहतों को कैद किया। काफिरों के सर्दारों ने भी अफगानों की हार में प्रयत्न किया। क्छ चगानसरा की और बदख्शाँ जाकर लूट मार करने लगे। निरुपाय होकर यूसुफजई सर्दारों ने अधेनता स्वीकार कर ली और दुर्ग कनशाल तथा बदख्शाँ-काशगार की सीमा तक के बहुत से थानों पर अधिकार हो गया। इस खशी में 41वें वर्ष के आरंभ में इसे पाँच हजारी मनसब मिला।
जब कुलीज ख़ाँ काबुल का प्रबंध नहीं कर सका तब उसी वर्ष कोका उस प्रात में नियत हुआ। उसी वर्ष शाहजाद सलीम जैन ख़ाँ की पुत्री पर आशिक हो गया और उसी की चिंता में रहने लगा। अकबर इस कुचाल से परेशान हुआ, परंतु जब उसकी घबड़ाहट अधिक देखा तब स्वीकृत देकर सन् 1004 हि. में निकाह कर दिया। जब जलालुद्दीन रौशानी, जो काबुल प्रांत में उपद्रवों का जड़ था, मर गया और काबुल में उपद्रव शांत हुआ तब आज्ञानुसार जैन ख़ाँ तीराह से लाहौर की रक्षा के लिए पहुँचा। जब अकबर बुरहानपुर से लौट कर आगरा आया तब इसको बुलवाया। काम करने से जान चुरा कर इसने शराब पौना आरंभ किया था, जिस कारण इससे कुछ लोग खिंच गए। इसकी बीमारी बढ़ने लगी और हृदय की निर्बलता से यह सन् 1010 हिजरी (सन् 1602 ई.) में मर गया। कहते हैं कि बीरबल की घटना से जैन ख़ाँ की अवनति होने लगी और इसका बादशाह के हृदय में विचार बना रहा। जब सलीम कुविचार से इलाहाबाद जाकर रहने लगा और इसने बहुत से घोड़े उसके पास भेजे तब वह अप्रसन्नता और भी बड़ी। उसी समय यह मर गया। [2]

कवि हृदय और वाद्य प्रेमी

जैन ख़ाँ कवित्त और राग का प्रेमी था। बहुत से बाजे स्वयं बजा लेता था और शेर भी कहता है। उसके एक शेर का उर्दू रूपांतर यों है-

आराम नहीं देता है यह चर्ख कज-खेराम ।

रिश्त: मुराद का कि सुई में मैं डाल लू॥

कहते है कि जब इसने बादशाह को अपने घर बुला कर जलसा किया था जब ऐसी तैयारी की थी कि बराबर वाले आश्चर्यचकित को गया। इन्हीं में से एक चबूतरा पूरी लम्बाई ओर चौड़ाई तक तूस के शालों से ढँक दिया था, जो उस समय बहुत कम मिलते थे और उसके आगे तीन हौज थे, जिनमें से एक हौज यज्द के गुलाब से, दूसरा केसर के रंग से और तीसरा अरगजा से भर कर बनवाया था। इसमें एक हजार से अधिक तबायफों को डाल दिया था। दूध और चीनी मिलाकर उसकी नहरें बहाई और सहन में पानी के बदले गुलाब जल छिड़का गया। इसने टोकरों में रत्न और जड़ाऊ बर्तन भर कर भारी हाथियों के साथ भेंट किए थे। कहते हैं कि उस समय हाथियों की अधिकता में जैन ख़ाँ, घोड़ों में कुलीज ख़ाँ और ख्वाज: सराओं में सईद ख़ाँ प्रसिद्ध थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैन ख़ाँ कोका (हिंदी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 24 मई, 2014।
  2. पुस्तक- 'मुग़ल दरबार के सरदार' भाग-1| लेखक: मआसिरुल् उमरा | प्रकाशन: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी | पृष्ठ संख्या: 698-701

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