"द्वैध शासन (बंगाल)": अवतरणों में अंतर
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इसके अंतर्गत कम्पनी राजस्व वसूलने के लिए तथा नवाब शासन चलाने के लिए ज़िम्मेदार हुए। दोनों ने ही सम्राट की अधीनता स्वीकार की और सम्राट को भी राजस्व का कुछ भाग मिलने लगा, जो बहुत वर्षों से बन्द हो गया था। इस दोहरे शासन से कम्पनी की असंगत स्थिति का तो अन्त हो गया, किन्तु शासन व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हो सका। | इसके अंतर्गत कम्पनी राजस्व वसूलने के लिए तथा नवाब शासन चलाने के लिए ज़िम्मेदार हुए। दोनों ने ही सम्राट की अधीनता स्वीकार की और सम्राट को भी राजस्व का कुछ भाग मिलने लगा, जो बहुत वर्षों से बन्द हो गया था। इस दोहरे शासन से कम्पनी की असंगत स्थिति का तो अन्त हो गया, किन्तु शासन व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हो सका। | ||
दूसरी ओर नवाब से वित्तीय प्रबन्ध ले लिये जाने और उस पर शान्ति एवं व्यवस्था तथा कम्पनी के कर्मचारियों की घूसखोरी की प्रवृत्ति को रोकने की ज़िम्मेदारी सौंप दिये जाने से [[बंगाल]] की शासन व्यवस्था बिगड़ने लगी; क्योंकि [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] के कर्मचारी अपने को मालिक समझते थे। उन पर नियंत्रण पा सकना बहुत कठिन हो गया था। | दूसरी ओर नवाब से वित्तीय प्रबन्ध ले लिये जाने और उस पर शान्ति एवं व्यवस्था तथा कम्पनी के कर्मचारियों की घूसखोरी की प्रवृत्ति को रोकने की ज़िम्मेदारी सौंप दिये जाने से [[बंगाल]] की शासन व्यवस्था बिगड़ने लगी; क्योंकि [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] के कर्मचारी अपने को मालिक समझते थे। उन पर नियंत्रण पा सकना बहुत कठिन हो गया था। ग़रीब जनता कम्पनी तथा नवाब दोनों के अफ़सरों के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि करने लगी। इसी का फल हुआ कि 1769-1770 ई. में भयंकर अकाल पड़ा, जिससे बंगाल की एक-तिहाई आबादी नष्ट हो गयी। इस दुखद घटना ने दोहरी शासन पद्धति की बुराई को सबसे अधिक उजागर कर दिया। फलस्वरूप 1772 ई. में इसे समाप्त कर दिया गया। | ||
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09:20, 12 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण
द्वैध शासन बंगाल में 1765 ई. की इलाहाबाद सन्धि के अंतर्गत लगाया गया था। यह शासन बंगाल के अतिरिक्त बिहार और उड़ीसा में भी लागू किया गया था। सन्धि के फलस्वरूप एक ओर ईस्ट इण्डिया कम्पनी और दूसरी ओर अवध के नवाब शुजाउद्दौला, बंगाल के नवाब मीर कासिम और दिल्ली के सम्राट शाहआलम द्वितीय के बीच युद्ध का अन्त हो गया।
बंगाल की दीवानी
युद्ध समाप्त हो जाने पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल की दीवानी सौंप दी गयी, अर्थात् कम्पनी को 'बंगाल का दीवान' (वित्तमंत्री तथा राजस्व संग्रहकर्ता) बना दिया गया, जबकि मीर ज़ाफ़र के लड़के को बंगाल का नवाब मान लिया गया। यह तय पाया गया कि कम्पनी जो राजस्व वसूल करेगी, उसमें से 26 लाख रुपया सालाना सम्राट को तथा 52 लाख रुपया बंगाल के नवाब को शासन चलाने के लिए दिया जायेगा तथा शेष भाग कम्पनी अपने पास रखेगी। इस प्रकार बंगाल, बिहार और उड़ीसा में दोहरे शासन का आविर्भाव हुआ।
द्वैधा शासन का अन्त
इसके अंतर्गत कम्पनी राजस्व वसूलने के लिए तथा नवाब शासन चलाने के लिए ज़िम्मेदार हुए। दोनों ने ही सम्राट की अधीनता स्वीकार की और सम्राट को भी राजस्व का कुछ भाग मिलने लगा, जो बहुत वर्षों से बन्द हो गया था। इस दोहरे शासन से कम्पनी की असंगत स्थिति का तो अन्त हो गया, किन्तु शासन व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हो सका। दूसरी ओर नवाब से वित्तीय प्रबन्ध ले लिये जाने और उस पर शान्ति एवं व्यवस्था तथा कम्पनी के कर्मचारियों की घूसखोरी की प्रवृत्ति को रोकने की ज़िम्मेदारी सौंप दिये जाने से बंगाल की शासन व्यवस्था बिगड़ने लगी; क्योंकि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्मचारी अपने को मालिक समझते थे। उन पर नियंत्रण पा सकना बहुत कठिन हो गया था। ग़रीब जनता कम्पनी तथा नवाब दोनों के अफ़सरों के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि करने लगी। इसी का फल हुआ कि 1769-1770 ई. में भयंकर अकाल पड़ा, जिससे बंगाल की एक-तिहाई आबादी नष्ट हो गयी। इस दुखद घटना ने दोहरी शासन पद्धति की बुराई को सबसे अधिक उजागर कर दिया। फलस्वरूप 1772 ई. में इसे समाप्त कर दिया गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 213 |
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