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− | क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को [[वायु देव|वायु]] हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।।67।। | + | क्योंकि जैसे [[जल]] में चलने वाली नाव को [[वायु देव|वायु]] हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई [[इन्द्रियाँ|इन्द्रियों]] में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।।67।। |
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08:59, 4 जनवरी 2013 के समय का अवतरण
गीता अध्याय-2 श्लोक-67/ Gita Chapter-2 Verse-67
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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