मुग़ल साम्राज्य का पतन

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औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य का तेज़ीसे पतन होने लगा था। मुग़ल दरबार सरदारों के बीच आपसी झगड़ों और षड़यंत्रों का अड्डा बन गया और शीघ्र ही महत्वाकांक्षी तथा प्रान्तीय शासक स्वाधीन रूप में कार्य करने लगे। मराठों के हमले दक्कन से फैलकर साम्राज्य के मुख्य भाग, गंगा की घाटी तक पहुँच गए। साम्राज्य की कमज़ोरी उस समय विश्व के सामने स्पष्ट हो गई, जब 1739 में नादिरशाह ने मुग़ल सम्राट को बंदी बना लिया तथा दिल्ली को खुले आम लूटा।

इतिहासकार मतभेद

सवाल यह है कि मुग़ल साम्राज्य के पतन के लिए औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद की घटनाएँ किस हद तक ज़िम्मेदार थीं और किस हद तक औरंगज़ेब की ग़लत नीतियाँ? इस बात को लेकर इतिहासकारों में काफ़ी मतभेद रहा है। हालाँकि औरंगज़ेब को इसके लिए ज़िम्मेदार होने से पूर्णतया मुक्त नहीं किया जाता, अधिकतर आधुनिक इतिहासकर औरंगज़ेब के शासनकाल को देश की तात्कालिक आर्थिक, सामाजिक, प्रशासनिक तथा बौद्धिक स्थिति और उसके शासनकाल के पहले और उसके दौरान की अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं।

मध्यकालीन आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति

मध्यकालीन भारत की आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति का पूरा मूल्यांकन करने पर पता चलता है कि सत्रहवीं शताब्दी के दौरान भारत में वाणिज्य तथा व्यापार का बहुत विकास हुआ तथा हस्तकला के माध्यम से निर्मित वस्तुओं की माँग भी बढ़ती गई। इस माँग को तभी पूरा किया जा सकता था, जब कपास तथा नील जैसे कच्चे माल का भी उत्पादन साथ-साथ बढ़ता रहे। इस काल में मुग़ल सरकारी आंकड़ों के अनुसार उन क्षेत्रों का जहाँ 'ज़ाब्ती' अर्थात 'भूमि की नपाई' के आधार पर बनाई गई व्यवस्था का विस्तार हुआ। इस बात के भी कुछ सुबूत मिलते हैं कि कृषि योग्य भूमि का भी विस्तार हुआ। यह आर्थिक परिस्थितियों के अलावा मुग़लों की प्रशासनिक नीतियों के कारण ही सम्भव हुआ। हर सरदार तथा ऐसे धार्मिक नेता जिसे भूमि अनुदान में मिलती थी, से आशा की जाती थी कि वह कृषि के विस्तार और विकास में व्यक्तिगत रुचि लेगा। कृषि सम्बन्धित दस्तावेज़ों को सावधानी से रखा जाता था। इतिहासकारों को इन विस्तृत ब्योरों को देखकर आश्चर्य होता है। इनमें हर गाँव के न केवल हलों, बैलों तथा कुंओं की संख्या दी गई थी, बल्कि किसानों की संख्या भी दर्ज की गई थी।

इसके बावजूद ऐसा विश्वास करने के कारण भी हैं कि वाणिज्य तथा व्यापार और कृषि उत्पादन उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ रहा था, जितनी कि स्थिति और आवश्यकता के अनुसार बढ़ना चाहिए था। इसके कई कारण थे। मिट्टी की घटती हुई उपजाऊ शक्ति को पूरा करने के लिए कृषि के नये उपायों के बारे में लोगों को कोई जानकारी नहीं थी। लगान की दर बहुत ऊँची थी। बादशाह अकबर के समय से, यदि ज़मींदारों तथा अन्य स्थानीय अधिकारियों के हिस्से को शामिल करें, तब यह कुल उत्पादन का क़रीब-क़रीब आधा हिस्सा होती थी। अकबर के शासनकाल में आमतौर पर लगान औसत उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा था। लेकिन इसमें ज़मींदारों तथा अन्य स्थानीय अधिकारियों का हिस्सा सम्मिलित नहीं था। सत्रहवीं शताब्दी के मध्य के बाद राज्य का हिस्सा बढ़कर कुल उत्पादन का आधा भाग हो गया, लेकिन इसमें ज़मींदारों तथा अन्य स्थानीय अधिकारियों, जिनमें गाँव के मुखिया इत्यादि शामिल थे, का हिस्सा भी शामिल था।

कृषि का विकास न होना

यद्यपि राज्य का हिस्सा अलग-अलग क्षेत्रों के अनुसार अलग-अलग था। अर्थात राजस्थान तथा सिंध जैसे कम उपजाऊ राज्यों में कम तथा कश्मीर में केसर उत्पादन करने वाले उपजाऊ क्षेत्रों में अधिक था, आमतौर पर लगान इतना अधिक नहीं था कि इसके कारण किसान खेती छोड़ दें। वास्तव में पूर्वी राजस्थान के आँकड़ों से पता चलता है कि सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में नये गाँव बराबर बसते गये। ऐसा लगता है कि सामाजिक तथा कुछ हद तक प्रशासनिक कारणों से कृषि का उतना अधिक विकास नहीं हो पाया।

वर्ग विशेष की भावना

अनुमान लगाया जाता है कि इस काल में देश की आबादी साढ़े बारह करोड़ थी। इसका अर्थ यह हुआ कि कृषि भूमि बहुत बड़ी मात्रा में उपलब्ध थी। लेकिन इसके बावजूद कई गाँवों में ऐसे किसानों के बारे में सुनने को मिलता है, जिनके पास कोई ज़मींन नहीं थी। इनमें से अधिकतर लोग अछूत वर्ग में जाते थे। खेती करने वाला वर्ग तथा ज़मीदार, जो अधिकतर उच्च जातियों के थे न तो चाहते थे कि अछुत नये गाँव बसायें और इस प्रकार ज़मींन की मिल्कियत हासिल करें और न ही इस बात को प्रोत्साहन देते थे। उनका हित इसी में था कि ये लोग गाँव में अतिरिक्त श्रमिक के तौर पर ही रहें और उनके लिए मृत जानवरों की खाल उतारने तथा चमड़े की रस्सियाँ बनाने जैसे छोटे काम करते रहें। भूमिहीन अथवा ग़रीब, जिनके पास बहुत कम ज़मीन थी, लोगों के पास न तो ऐसा संगठन था और न ही इतनी पूँजी थी कि वे अपने बल पर नई ज़मीन पर खेती कर सकें अथवा नये गाँव बसा सकें। कभी-कभी नयी ज़मीन पर खेती करने के कार्य में राज्य पहल करता था। लेकिन अछुत इसका पूरा लाभ नहीं उठा सकते थे। क्योंकि राज्य को इस काम में स्थानीय ज़मींदारों तथा गाँव के मुखियों का सहयोग लेना ही पड़ता था और ये लोग दूसरी जातियों के होते थे और अपने ही वर्ग के हितों के प्रति जागरुक थे।

मनसबदारों की वृद्धि

इस प्रकार उत्पादन तो धीरे-धीरे बढ़ा परन्तु शासक वर्ग की आशाएँ तथा उनकी माँगें तेज़ी से बढ़ती गईं। इस प्रकार मनसबदारों की संख्या 1605 में जहाँगीर के सम्राट बनने के समय में 2,069 से बढ़कर शाहजहाँ के शासनकाल 1637 में 8,000 तथा औरंगज़ेब के शासनकाल में 11,456 हो गई। सरदारों की संख्या इस प्रकार पाँच गुनी हो गई, लेकिन सम्राज्य की आय इस अनुपात में नहीं बढ़ी। इसके बावजूद शाहजहाँ के शासनकाल में एक भव्य काल की शुरूआत हुई। मुग़ल सरदारों के वेतन विश्व में सबसे ऊँचे थे ही। इस काल में उनकी अमीरी और विलासिता और भी अधिक बढ़ गई। यद्यपि कई सरदार वाणिज्य तथा व्यापार में परोक्ष रूप से अथवा ऐसे व्यापारियों के माध्यम से जो उनके लिए कार्य करते थे, हिस्सा लेते थे फिर भी वाणिज्य तथा व्यापार से होने वाली आय ज़मीन से होने वाली आय का पूरक मात्र थी। इस कारण वे किसानों तथा ज़मींदारों को चूसकर ज़मीन से होने वाली आय को ही बढ़ाने में दिलचस्पी रखते थे।

शक्तिशाली ज़मींदार

ज़मींदारों की संख्या तथा उनके रहन-सहन के स्तर के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है। ज़मींदारों के प्रति मुग़ल नीतियाँ अलग-अलग थीं। एक ओर तो यह माना जाता था कि राज्य की आँतरिक स्थिरता के लिए सबसे बड़ा ख़तरा ज़मींदार ही हैं। दूसरी ओर स्थानीय प्रशासन को चलाने के लिए बड़े पैमाने पर इनकी नियुक्ति होती थी। इनमें से कइयों- राजपूतों, मराठों तथा अन्य को मनसब प्रदान किये जाते थे और साम्राज्य के आधार पर विस्तार के लिए राजनीतिक पदों पर इनकी नियुक्ति की जाती थी। इस प्रक्रिया में ज़मींदारों का वर्ग बहुत शक्तिशाली हो गया था और वह अब सरदारों की ग़ैर-क़ानूनी माँगों को मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। न ही किसानों पर लगान का बोझ बढ़ाना आसान था। विशेषकर जबकि उपजाऊ भूमि बड़ी मात्रा में उपलब्ध थी। ज़मींदारों तथा गाँव के मुखियों में अधिक खेतिहारों को अपने यहाँ काम करने के लिए लाने की होड़ लगी रहती थी। ऐसे किसान जो रोज़गार की खोज में एक गाँव से दूसरे गाँव जाते रहते थे, उन्हें 'पाही' अथवा 'ऊपरी' कहा जाता था। मध्ययुगीन ग्रामीण समाज के ये एक प्रमुख अंग थे। लेकिन इनके भविष्य पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया।

किसानों तथा सरदारों का असंतोष

इस प्रकार ज़मींदार ज़मीन से अधिक से अधिक कमाना चाहते थे और कई बार ऐसे तरीक़े अपनाते थे, जो राज्य के द्वारा स्वीकृत नहीं थे। इस कारण मध्ययुगीन ग्रामीण समाज के सभी आंतरिक संघर्ष उभरकर सामने आ गये। कुछ क्षेत्रों में किसानों के बीच गम्भीर असंतोष फैला तथा अन्य क्षेत्रों में ज़मींदारों के नेतृत्व में विद्रोह तक हो गये। कई अवसरों पर इन ज़मींदारों ने स्वतंत्र क्षेत्रीय राज्य स्थापित करने के प्रयास भी किए। प्रशासनिक स्तर पर भी सरदारों के बीच व्यापक असंतोष तथा भेदभाव फैला और इससे ज़ागीरदारी व्यावस्था में गंम्भीर संकट पैदा हो गया। अधिकतर सरदारों का यह प्रयास रहता था कि वे अधिक आमदनी वाली ज़ागीर हथिया लें और इस कारण मुग़ल प्रशासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार बढ़ता गया। औरंगज़ेब ने 'ख़ालिसा' अर्थात राजकीय व्यय के लिए सुरक्षित भूमि, की सीमा को बढ़ाकर इस संकट की और गंम्भीर कर दिया। उसने दिनों तक बढ़तें प्रशासनिक खर्चे तथा युद्धों के खर्चे, जो उसके शासनकाल में बराबर होते रहे, के लिए ख़ालिसा को बढ़ाया था।

सरदारों की व्यवस्था

मुग़लों द्वारा विकसित सरदारों की व्यवस्था मुग़ल काल की सबसे प्रमुख विशेषता थी। जातिभेद के आधार पर मुग़ल योग्य से योग्य व्यक्तियों को अपनी सेवा में आकर्षित करने में सफल रहे थे। इनमें से देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग थे और कुछ विदेशी भी थे। व्यक्तिगत आधार पर बने मुग़लों के प्रशासनिक ढाँचे के अंतर्गत सरदारों ने बड़ी सफलता से काम किया और देश को काफ़ी हद तक सुरक्षा तथा शान्ति प्रदान की। सरदारों की यह भूमिका सम्राट के प्रति मात्र सेवा भाव थी और ये अधिकतर अपने ही हितों का ध्यान रखते थे। कुछ इतिहासकारों का यह तर्क ग़लत है कि सरदारों का संगठन औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद इसलिए कमज़ोर पड़ गया, क्योंकि मध्य एशिया से कुशल लोगों का आना रुक गया। वास्तव में औरंगज़ेब के सिंहासनरूढ़ होने तक अधिकतर मुग़ल सरदार ऐसे व्यक्ति थे, जिनका जन्म भारत में हुआ था। ऐसा विश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि इनकी योग्यता का ह्रास भारतीय जलवायु के कारण हुआ। यह तर्क अंग्रेज़ इतिहासकारों ने जातिभेद के आधार पर इसलिए दिया है, जिससे वे ठंडे देशों के लोगों द्वारा भारत के आधिपत्य को उचित ठहरा सकें। लेकिन ये तर्क अब नहीं स्वीकार किए जा सकते।

प्रशासनिक व्यवस्था का कमज़ोर होना

यह भी कहा गया है कि क्योंकि सरदारों का वर्ग ऐसे लोगों का बना था, जिसमें कई जातियों के लोग सम्मिलित थे, इसलिए उनमें कोई राष्ट्रीय चेतना नहीं थी और उन्होंने राष्ट्रविरोधी कार्य भी किए। लेकिन राष्ट्रीयता की भावना का उस अर्थ में जिसे हम आज समझते हैं, मध्ययुग में कोई अस्तित्व नहीं था। इसके बावजूद नमक हलाली की भावना इतनी प्रभावशाली थी कि इसी के कारण सरदार मुग़ल वंश के प्रति वफ़ादार बने रहे और उनमें एक प्रकार से देशभक्ति जीवित रही। विदेशों से आने वाले सरदारों का अपने स्वदेश से कोई विशेष सम्पर्क नहीं रहता था और उनका सांस्कृतिक दृष्टिकोण मुग़ल भारतीय ही हो जाता था। मुग़लों ने प्रशासनिक व्यवस्था के हर स्तर पर सावधानी से ऐसे तरीक़े लागू किए, जिनसे विभिन्न जाति अथवा धर्म के लोगों के बीच ऐसा संतुलन बना रहे, ताकि महत्वाकांक्षी सरदारों अथवा उनके दलों पर प्रभावशाली नियंत्रण रखा जा सके। सरदार स्वाधीनता की कल्पना तभी करने लगे, जब औरंगज़ेब के उत्तराधिकारियों ने ज़ागीरदारी व्यवस्था में उत्पन्न संकट के कारण प्रशासनिक व्यवस्था को धीरे-धीरे कमज़ोर होने दिया। इस प्रकार मुग़लों का शीघ्रता से विघटन मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था की कमज़ोरी का कारण नहीं बल्कि परिणाम था। यह अवश्य कहा जा सकता है कि मुग़ल प्रशासन बहुत हद तक केंद्रित था और इसकी सफलता अततः सम्राट की योग्यता पर निर्भर करती थी। योग्य सम्राटों के अभाव में वज़ीरों ने उनका स्थान लेने की कोशिश की, पर वे असफल रहे। इस प्रकार इस व्यवस्था के पतन तथा व्यक्तिगत असफलता की एक दूसरे पर प्रतिक्रिया हुई।

औरंगज़ेब की ग़लतियाँ

राजनीतिक क्षेत्र में औरंगज़ेब ने कई गंम्भीर ग़लतियाँ की। किस प्रकार वह मराठों के आंदोलन के सही स्वरूप को नहीं समझ सका और शिवाजी को मित्र बनाने की जयसिंह की सलाह अनदेखी कर दी। शम्भाजी की हत्या उसकी एक और बड़ी ग़लती थी। इसके बाद मराठों का ऐसा कोई प्रभावशाली नेता नहीं बचा, जिससे औरंगज़ेब बातचीत या समझौता कर सकता। उसे विश्वास था कि बीजापुर और गोलकुण्डा को अपने क़ब्ज़े में करने के बाद मराठे उससे दया की भीख माँगेंगे और उसकी शर्तों को स्वीकार करने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं रह जायेगा। औरंगज़ेब मराठों के 'स्वराज्य' को छोटा करना और उनसे निष्ठा का वचन चाहता था। जब औरंगज़ेब ने अपनी ग़लती महसूस की और मराठों से बातचीत शुरू की तब 'चौथ' तथा 'सरदेशमुखी' की माँग आड़े आ गई। बहुत हद तक इस बाधा को भी दूर किया गया। 1703 में मराठों और औरंगज़ेब के बीच समझौता क़रीब-क़रीब हो ही गया था, लेकिन औरंगज़ेब, शाहू तथा मराठा सरदारों के प्रति अंत तक अविश्वासी बना रहा।

मराठों के प्रति अविश्वास की भावना

इस तरह औरंगज़ेब मराठों की समस्या का समाधान ढूँढने में असफल रहा और अंत तक इसका शिकार बना रहा। उसने कई मराठा सरदारों को मनसब प्रदान किए। यहाँ तक की उच्चतम स्तर पर राजपूत सरदारों की अपेक्षा मराठा सरदारों के पास अधिक मनसब थे। लेकिन इसके बावजूद मराठा सरदारों पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया गया। राजपूतों की तरह उन्हें ज़िम्मेदारी अथवा विश्वास का कोई पद नहीं सौंपा गया। इस प्रकार मराठे मुग़ल राजनीतिक व्यवस्था के अभिन्न अंग कभी नहीं बन सके। यदि औरंगज़ेब शिवाजी, शंभाजी या शाहू से भी कोई राजनीतिक समझौता कर लेता तो बहुत बड़ा फ़र्क़ पड़ता।

दक्कनी राज्यों का असंगठन

मराठों के ख़िलाफ़ दक्कनी राज्यों को संगठित करने की असफलता के लिए औरंगज़ेब की आलोचना की जाती है। यह भी कहा जाता है कि उन्हें जीतकर औरंगज़ेब ने अपने साम्राज्य को इतना बड़ा कर लिया था कि यह अपने ही भार के कारण ढह गया। शाहजहाँ के ही काल में 1636 की संधि भंग होने के बाद औरंगज़ेब तथा दक्कनी राज्यों के बीच गाढ़ी एकता असंम्भव थी। सम्राट बनने के बाद औरंगज़ेब दक्कन में पूर्ण विजय की नीति अपनाने से हिचकिचा रहा था। उसने दक्कनी राज्यों की विजय का निर्णय जब तक संम्भव था, टाला। मराठों की बढ़ती शक्ति, गोलकुण्डा के मदन्ना तथा अख़न्ना द्वारा शिवाजी को दिए गए समर्थन और इस भय से कि बीजापुर पर शिवाजी तथा गोलकुण्डा, जिस पर मराठों का प्रभाव था, का प्रभुत्व क़ायम हो जाएगा, औरंगज़ेब दक्कन में अभियान चलाने पर विवश हो गया था। बाद में राजकुमार अकबर को पनाह देकर शम्भाजी ने औरंगज़ेब को एक प्रकार से बड़ी चुनौती दी थी। औरंगज़ेब ने शीघ्र ही महसूस किया कि बीजापुर तथा गोलकुण्डा को क़ब्ज़े में किये बिना मराठों से टक्कर लेना आसान नहीं है।

प्रशासनिक सेवाओं का टूटना

गोलकुण्डा, बीजापुर तथा कर्नाटक में मुग़ल प्रशासन के विस्तार से मुग़ल प्रशासनिक सेवा टूटने लगी थी। मुग़लों के सम्पर्क साधन भी मराठों के हमलों के लिए खुले थे। यहाँ तक की इस क्षेत्र के मुग़ल सरदारों के लिए अपनी ज़ागीरों से निर्धारित लगान उगाहना भी असंम्भव हो गया और कई बार उन्हें मराठों के साथ गुप्त संधियाँ करनी पड़ी। इसके परिणामस्वरूप मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा बढ़ी और उधर साम्राज्य की प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचा। संम्भतः औरंगज़ेब यदि अपने सबसे बड़े लड़के शाहआलम की यह बात मान लेता कि बीजापुर तथा गोलकुण्डा के साथ समझौता किया जाना चाहिए और उनके कुछ क्षेत्रों को ही साम्राज्य में मिलाया जाना चाहिए तो औरंगज़ेब के लिए बहुत लाभदायक होता। शाहआलम इस पक्ष में भी था कि बहुत दूर होने के कारण कर्नाटक पर प्रभावशाली नियंत्रण रखना अंसम्भव है इसलिए उसे वहीं के अधिकारियों के हाथों में छोड़ दिया जाना चाहिए।

ग़लत नीतियाँ

मुग़ल साम्राज्य के पतन के दक्कनी तथा अन्य युद्धों और उत्तर भारत से बहुत कम समय के लिए औरंगज़ेब का ग़ैरहाज़िर होना भी बहुत महत्त्वपूर्ण कारण थे। औरंगज़ेब ने कई ग़लत नीतियाँ अपनाई थीं और उसमें कई व्यक्तिगत कमज़ोरियाँ भी थीं जैसे- वह अत्यधिक संदेही तथा संकीर्ण विचारों का था। लेकिन इसके बावजूद मुग़ल साम्राज्य बहुत शक्तिशाली था तथा उसकी सैनिक और प्रशासनिक व्यवस्था ठोस थी। मुग़ल सेना दक्कन के पहाड़ी क्षेत्रों में मराठा छापामारों के हमलों का सामना करने में भले ही असफल रही हो और मराठों के क़िलों पर मुश्किल से क़ब्ज़ा कर सकी हो और क़ब्ज़ा कर लेने के बाद उन्हें अधिक काल तक अपने अधीन रखने में असफल भी रही हो, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्तरी भारत के मैदानों तथा कर्नाटक के विस्तृत पठार में मुग़ल तोपख़ाना अभी भी सबसे अधिक प्रभावशाली था। औरंगज़ेब की मृत्यु के चालीस साल बाद भी जब मुग़ल तोपख़ाने कि शक्ति और क्षमता घट गई, मराठे खुले मैदान में उसका मुक़ाबला नहीं कर सकते थे। लम्बे समय तक अराजकता, युद्ध तथा मराठों के हमलों से दक्कन की आबादी भले ही कम हुई हो और वहाँ का व्यापार, उद्योग तथा कृषि जड़भूत हो गया हो, परन्तु इसमें संदेह नहीं कि साम्राज्य के मुख्य भाग उत्तरी भारत में, जो आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण था, मुग़ल प्रशासन अत्यन्त प्रभावशाली बना हुआ था। यहाँ तक की ज़िलों के स्तर पर मुग़ल प्रशासन इतना कारगर सिद्ध हुआ कि इसके कई तत्व ब्रिटिश प्रशासन में सम्मिलित किए गए। सैनिक पराजयों और औरंगज़ेब की ग़लतियो के बावजूद राजनीतिक तौर पर लोगों के दिलों-दिमाग पर मुग़ल वंश का प्रभाव छाया रहा।

मारवाड़ का विभाजन

जहाँ तक राजपूतों का सवाल है, मारवाड़ से मुग़लों का संघर्ष इसलिए आरम्भ नहीं हुआ था कि औरंगज़ेब ने इस बात का प्रयास किया कि हिन्दुओं का कोई प्रभावशाली नेता न रहे। बल्कि इसलिए की नासमझी के कारण उसने दो मुख्य प्रतिद्वन्द्वियों के बीच मारवाड़ के राज्य को विभाजित कर दोनों कि दुश्मनी मोल ले ली। इसके अलावा इस क़दम से मेवाड़ का शासक भी उससे क्षुब्ध हो गया, क्योंकि वह मुग़ल हस्तक्षेप को बहुत बड़ा ख़तरा समझता था। इसके बाद मारवाड़ तथा मेवाड़ के साथ जो लम्बा संघर्ष चला, उससे मुग़ल साम्राज्य की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का पहुँचा। यह बात और है कि 1681 के बाद इस संघर्ष का कोई विशेष सामरिक महत्व नहीं रहा। इस बात में संदेह है कि 1681 तथा 1706 के बीच यदि दक्कन में अधिक संख्या में राठौर राजपूत नियुक्त किये जाते तो मराठों से होने वाले संघर्ष में कोई विशेष अंतर पड़ता। जो भी हो, पहले की तरह राजपूत अधिक मनसब और अपने क्षेत्रों की वापसी की माँग करते रहे। इन माँगों को औरंगज़ेब की मृत्यु के छह साल के अंदर-अंदर स्वीकार कर लिया गया और इसके साथ ही मुग़ल साम्राज्य के लिए राजपूतों की समस्या समाप्त हो गई। इसके बाद साम्राज्य के विघटन में उन्होंने न तो कोई भूमिका निभाई और न ही वे उसके पतन की प्रक्रिया को रोक सके।

धार्मिक नीति

औरंगज़ेब की धार्मिक नीति भी तात्कालिक सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखी जानी चाहिए। औरंगज़ेब स्वाभाव से बड़ा कट्टर था और इस्लाम के क़ानून के अंतर्गत ही काम करना चाहता था। लेकिन इस क़ानून का विकास भारत के बाहर बिल्कुल विभिन्न परिस्थितियों में हुआ था और यह आशा नहीं की जा सकती थी कि यह भारत में भी कारगार सिद्ध होगा। औरंगज़ेब ने कई अवसरों पर अपनी ग़ैर मुसलमान प्रजा की भावनाओं को समझने से इंकार कर दिया। मंदिरों के प्रति अपनाई गई उसकी नीति और इस्लाम के क़ानून के आधार पर जज़िया को दुबारा लागू करके न तो वह मुसलमानों को अपने पक्ष में कर सका और न ही इस्लाम के क़ानून पर आधारित राज्य के प्रति उनकी निष्ठा प्राप्त कर सका। दूसरी ओर इस नीति के कारण हिन्दू भी उसके ख़िलाफ़ हो गये और ऐसे वर्गों के हाथ मज़बूत हो गये जो राजनीतिक तथा अन्य कारणों से मुग़ल साम्राज्य के ख़िलाफ़ थे। वास्तव में इस सारी प्रक्रिया में अपने आप में सवाल धर्म का नहीं था। औरंगज़ेब की मृत्यु के छह वर्षों के अंदर जज़िया को समाप्त कर दिया गया तथा नये मंदिरों के निर्माण पर लगी पाबंदी को उठा लिया गया लेकिन इससे भी साम्राज्य के पतन और विघटन की प्रक्रिया पर कोई असर नहीं पड़ा।

निष्कर्ष

अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि मुग़ल साम्राज्य का पतन और विघटन आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा संगठनात्मक कारणों से हुआ। अकबर की नीतियों से विघटन के तत्वों पर कुछ समय तक प्रभावशाली नियंत्रण रखा जा सका, लेकिन समाज व्यवस्था में कोई मूलभूत परिवर्तन करना उसके भी बस के बाहर की बात थी। जब तक औरंगज़ेब ने सिंहासन संम्भाला, विघटन की सामाजिक और आर्थिक शक्तियाँ उभर कर और शक्तिशाली हो गईं थीं। इस व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन करने के लिए न तो औरंगज़ेब में राजनीतिक योग्यता और न ही दूरदर्शिता थी। वह ऐसी नीतियों के पालन में भी असमर्थ रहा, जिनसे परस्पर विरोधी तत्वों पर कुछ समय के लिए रोक लगाई जा सकती। इस प्रकार औरंगज़ेब न केवल परिस्थितियों का शिकार था, बल्कि उसने स्वयं ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करने में योग दिया जिनका वह स्वयं शिकार बना।


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