मेव जाति

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मेव जाति मुख्य रूप से राजस्थान के अलवर और भरतपुर जिले में पायी जाती है। इस कारण इस क्षेत्र को 'मेवात' कहते हैं। मेव पहले हिन्दू थे, कालान्तर में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और ये मुस्लिम हो गये। जिन मेव को औरंगज़ेब, मीर कासिम या बलबन के साथ जोड़ते रहे हैं, उनकी जड़ें आर्यों से जुड़ती हैं यानी मध्य एशिया की ये नस्ल 'मेद' नाम से शुरू हुई। प्रकृति की पूजा करने वाले आर्यों के कई दलों में से एक मेद कबीले के लोग भी तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, अजर बैजान और ईरान जैसे मध्य एशिया के इलाकों से अफ़ग़ानिस्तान और सिंध के रास्ते भारत भूमि में आये। वैदिक युग में मेद कहलाने वाले ये लोग जब प्राकृत भाषा के युग तक पहुंचे तो मेद का 'द' अक्षर 'व' में बदल गया और 'मेद' से 'मेव' हो गया।[1]

इतिहास

कहते हैं कि कभी मेवाड़ का नाम भी 'मेदपाट' था तो ऐसे में मेवाड़, मारवाड़ और मेवात सभी सहोदर ही प्रतीत होते हैं। भारतीय भूमि पर आने के बाद ये प्रकृति पूजक मेद फिर ईसवी पूर्व 500 साल पहले तक बौद्ध अनुयायी भी हुए। सिंध और कंधार से लेकर सरस्वती और सिंधु नदी के आसपास मेवों की खासी आबादी थी। अरब से आये यात्रियों ने अपने यात्रा वृत्तांत में इन मेदों को बौद्ध बताया है और इन पशुपालक किसानों के पास दो कूबड़ वाले ऊंट होने की बात लिखी है। ये दो कूबड़ वाले ऊंट ही इनके मध्य एशिया से आने की पुष्टि करते हैं।

इतिहास के पन्नों में 512 ईसवी में मीर कासिम का जिक्र आता है जिसने सिंध में बड़ी तादाद में इन बौद्धों को इस्लाम में दीक्षित किया। लेकिन जो इस्लाम में दीक्षित नहीं हुए, उनको मजबूत कद काठी और लड़ाका प्रवृत्ति के कारण राजाओं ने सेना में शामिल कर लिया। धीरे-धीरे ये मेव राजपूत हो गए। सारी परंपराएं राजपूती हो गईं। स्थानीय रहन सहन में ये रच बस गये। मीर कासिम के लगभग सवा पांच सौ साल बाद महमूद ग़ज़नवी के भांजे सैयद सालार मसूद गाजी ने 1053 से 1058 ई. के बीच बड़ी तादाद में इन मेवों का धर्म परिवर्तन कराया। इसके बाद बारहवीं सदी में जब ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने 1192 ई. में अजमेर से दिल्ली की पैदल यात्रा की, तब भी लाखों राजपूतों ने उनके प्रभाव में आकर इस्लाम अपनाया।

इतिहास तो ये भी कहता है कि फिरोजशाह तुग़लक़ एक बार शिकार खेलने गया। फिरोजशाह समरपाल नामक मेव राजपूत युवक के साथ शेर का शिकार कर रहे थे। तभी पीछे से शेर फिरोजशाह पर लपका। फिरोजशाह संभलते तब तक देर हो जाती; लेकिन इसी दौरान समरपाल ने अपनी तलवार के जबरदस्त वार से शेर की गर्दन उतार दी। फिरोजशाह ने समरपाल को 'बहादुर नाहर' की पदवी दी। सुल्तान का करम हुआ तो समरपाल का परिवार इस्लाम में बदल गया। इसी समरपाल नाहर बहादुर की अगली पीढ़ियों में हसन खां मेवाती हुए तो महाराणा सांगा की राजपूत सेना की ओर से लड़े और अपनी बहादुरी की मिसाल कायम की।[1]

मेवाती घराना

इसी मेवाती परंपरा में राजपूतों की कला संगीत को आगे बढ़ाने की भी मिसाल मिलती हैं। उस्ताद घग्गे नजीर खां साहब ने शास्त्रीय संगीत के मेवाती घराने की नींव रखी। आज उस घराने के सबसे बड़े सितारे संगीत मार्तंड पंडित जसराज हैं। घग्गे नजीर खां साहब की परंपरा में पंडित चिमन लाल जी, पंडित मोतीराम और पंडित ज्योतिराम जी हुए। फिर पंडित मणिराम जी और उनके भाई व शिष्य पंडित जसराज जी। पंडित जसराज जी की भी शिष्य परंपरा को आगे बढ़ा रही है एक पूरी पीढ़ी।

नूह के रहने वाले पेशे से सिविल इंजीनियर लेकिन प्रवृत्ति से इतिहासकार सिद्दीक मेव के अनुसार- "अभी भी राजपूतों के 52 गोत्र और 12 पाल मेवों में मौजूद हैं। 12 पाल में पांच पाल यदुवंशियों के, चार पाल गूजरों के यानी तंवर या तोमर, दो सूर्यवंशी राजपूतों के और एक चौहानों का है। 52 गोत्र में से 30 गोत्र तो सीधे राजपूतों वाले हैं। बाकी 22 में गूजर, अहीर और जाटों के गोत्र हैं"।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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