सिपाही क्रांति 1857

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(सिपाही स्वतंत्रता संग्राम से पुनर्निर्देशित)
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सिपाही स्वतंत्रता संग्राम का प्रारम्भ मेरठ से 10 मई, 1857 ई. को हुआ था, लेकिन इसके पूर्व ही बहरामपुर और बैरकपुर की छावनियों के सैनिकों में असन्तोष के लक्षण प्रकट हो चुके थे। 28 मार्च, 1857 ई. को मंगल पाण्डे नामक भारतीय सैनिक ने दिन-दहाड़े एक अंग्रेज़ पदाधिकारी को मार डाला। उस समय जो विद्रोह हुआ, वह जल्द ही दबा दिया गया। फिर भी विद्रोहाग्नि भीतर ही भीतर धधकती रही और ग्रीष्म ऋतु के मध्य में इसकी ज्वाला भड़क उठी।

क्रांति के कारण

इस क्रांति के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सैनिक कई कारण थे। लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा गोद प्रथा का अन्त तथा देशी राज्यों को कुशासन के बहाने हड़पने की नीति से भारतीय राज्यों के शासकों को अपना सिंहासन बचाने की चिन्ता पीड़ित करने लगी थी। दूसरी ओर गद्दी से हटाये गए शासक तथा उनके आश्रित बेकारी तथा अर्थाभाव से पीड़ित होकर अंग्रेज़ों से द्वेष करने लगे। ऐसे अपदस्थ शासकों में से पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोह को संगठित करने में प्रमुख एवं सक्रिय भाग लिया। झाँसी की रानी ने मृत्यु पर्यन्त अंग्रेज़ों से वीरता पूर्वक युद्ध किया।

भारतीयों का असंतोष

राज्यापहरण की नीति तथा अपहृत राज्यों, विशेषकर अवध में नयी भूमि-व्यवस्था से ज़मींदारों और साधारण जनता में अत्यन्त असन्तोष व्याप्त हुआ; इनमें से अधिकांश वे लोग थे, जो सैन्य सेवा से मुक्त होने के कारण बेकार हो गए थे। शिक्षित भारतीयों को उनकी योग्यता के अनुरूप नौकरियाँ, लॉर्ड मैकाले जैसे पढ़े-लिखे अंग्रेज़ों द्वारा हिन्दू जनता की खुली भर्त्सना, हिन्दू धर्म की ईसाई मिशनरियों द्वारा खुली आलोचना, सती प्रथा और शिशु बलि का निषेध, हिन्दू विधवाओं के पुर्नविवाह को वैधानिक रूप देना, किसी हिन्दू द्वारा ईसाई धर्म स्वीकार कर लेने पर उत्तराधिकार से वंचित होने पर रोक तथा रेल, तार-डाक आदि का प्रसार इन सबके सम्मिलित प्रभाव ने हिन्दुओं के मस्तिष्क में यह भावना भर दी कि उनका धर्म संकट में है और अंग्रेज़ों द्वारा ऐसे कुत्सित प्रयास किये जो रहे हैं, जिनसे विवश होकर उन्हें ईसाई धर्म स्वीकार करना पड़ेगा। अन्तत: जिस भारतीय सैन्यबल का ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना एवं निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान था, उसमें भी गहरा असन्तोष व्याप्त हो गया।

भारतीय सैनिकों की मुश्किलें

भारतीय सैनिक का वेतन तथा भत्ता भारतीय सशस्त्र सेना में नियुक्त अंग्रेज़ सैनिक की अपेक्षा बहुत ही कम था तथा उसकी पदोन्नति के मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ थीं। भारतीय सैनिक को बर्मा तथा अफ़ग़ानिस्तान जैसे दूरस्थ देशों के युद्ध क्षेत्रों तक अपना सामान आदि ले जाने का व्यय स्वयं ही वहन करना पड़ता था और ऐसे देश, धर्म तथा जाति-पाँति के नियमों और बन्धनों के कारण, हिन्दुओं के लिए वर्जित थे, क्योंकि इससे उनके जातिच्युत होने का भय था। एक ज्येष्ठतम सर्वोच्च भारतीय सैनिक को भी बहुधा कनिष्ठ अंग्रेज़ पदाधिकारी के अधीन कार्य करना पड़ता था। इन समस्त कारणों से भारतीय पदाति सेना में अत्यन्त असन्तोष था, जबकि समस्त भारतीय सैन्यशक्ति में अंग्रेज़ सैनिकों की संख्या केवल पाँचवाँ भाग थी, अर्थात् 2,33,000 में से 45,322 अंग्रेज़ सैनिक थे। इससे स्पष्ट है कि भारतीय सिपाहियों को भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य बनाये रखने और अपनी शक्ति एवं महत्ता का गर्व था। किन्तु भारतीय सेना में सेवारत अंग्रेज़ों की तुलना में उनके प्रति जो हेय व्यवहार किया जाता था, उसने उनमें अंग्रेज़ों के प्रति तीव्र असन्तोष उत्पन्न किया।

चर्बी वाले कारतूस

भारतीय पदाति सेना का यह असन्तोष उस समय हताशा में परिवर्तित हुआ, जब उन पर चर्बी लगे हुए कारतूसों के साथ एन्फ़ील्ड रायफ़लें (बन्दूक़ें) लादी गईं, जिनसे हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मों के सिपाहियों को धर्मभ्रष्ट होने का भय हुआ। इस प्रकार कुछ दिन पूर्व से ही सुलगती हुई असन्तोष की अग्नि में चर्बी लगे कारतूसों ने आहुति का कार्य किया और इसके फलस्वरूप विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी।

विद्रोहियों की सफलता

प्रारम्भ में विद्रोहियों को विशेष सफलता मिली। 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से चलकर दूसरे ही दिन उन्होंने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और बहादुर शाह ज़फ़र को, जो केवल एक कठपुतली शासक मात्र था, दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया गया। दिल्ली पर अधिकार कर लेने से विद्रोहियों की प्रतिष्ठा बढ़ गई और अगले दो महिनों में ही यह विद्रोह अवध और रूहेलखण्ड में भी फैल गया। राजपूताना में स्थित नसीराबाद, ग्वालियर राज्य में नीमच, वर्तमान उत्तर प्रदेश में बरेली, लखनऊ, वाराणसी और कानपुर की छावनियों के सिपाहियों ने भी अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उधर बुन्देलखण्ड में विद्रोह का नेतृत्व करती हुई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने उन सभी यूरोपियनों को, जो उसके हाथों में पड़ते गए, मार डाला। विद्रोह प्रारम्भ होने पर सभी ओर से विद्रोही दिल्ली की ओर चल पड़े। केवल कानुपर में स्थित अंग्रेज़ी सैनिक छावनी और लखनऊ में रेजीडेन्सी का घेरा डाल दिया गया।

लक्ष्य का अभाव

कानपुर के निकट बिठूर में नाना साहब को पेशवा घोषित किया गया, इससे यह स्पष्ट हो गया कि विद्रोहियों में किसी सुनिश्चित लक्ष्य का अभाव है। उनका लक्ष्य क्या था-मुग़ल सम्राट को पुन: सिंहासनासीन करके भारत में मुसलमानी राज्य की पुन: स्थापना, अथवा ब्राह्मण पेशवा के अधीन हिन्दू राज्य की स्थापना? समस्त विद्रोह काल में उद्देश्यों में यही अस्पष्टता बनी रही, जिससे उसकी शक्ति शिथिल होती चली गई। प्रारम्भ में यह लक्ष्यहीनता स्पष्ट न थी और भारत में अंग्रेज़ी शासन के लिए वास्तविक भय उत्पन्न हो गया था। दिल्ली, कानपुर, लखनऊ और बुन्देलखण्ड इस विद्रोह के मुख्य केन्द्र बन गए थे। अंग्रेज़ी सत्ता, जो प्रारम्भिक प्रहारों से डाँवाडोल हो रही थी, धीरे-धीरे सिक्खों, गोरखों और दक्षिण भारत की सैनिक छावनियों से लाये गए सैनिकों के द्वारा फिर से स्थापित हो गई। 14 सितम्बर, 1857 ई. को दिल्ली पर उनका पुन: अधिकार हो गया और कानपुर पर भी 27 जून, 1857 ई. को अधिकार कर लिया गया। 25 सितम्बर को लखनऊ का घेरा भी तोड़ दिया गया, किन्तु शहर पूना विद्रोहियों के हाथों में पड़ जाने के कारण 5 नवम्बर को उस पर अधिकार हो सका। इसी बीच सर कालिन कैम्पबेल, सेनाध्यक्ष और सर ह्यूरोज सदृश दो विशेष अनुभवी अफ़सरों के नेतृत्व में अंग्रेज़ों की नई सेना भी आ गई।

विद्रोह का दमन

कैम्पबेल ने अवध और रुहेलखण्ड में विद्रोह का दमन किया और सर ह्यूरोज ने बुन्देलखण्ड में। उसने झाँसी की रानी को लगातार कई युद्धों में परास्त किया, परन्तु रानी वीरतापूर्वक लड़ती हुई वीरगति को प्राप्त हुई। तात्या टोपे को, जो नाना साहब का सेनापति था, बन्दी बनाकर फ़ाँसी दे दी गई। 14 सितम्बर को जब दिल्ली पर अंग्रेज़ों का पुन: अधिकार हुआ, बहादुरशाह द्वितीय को बन्दी बनाकर रंगून (वर्तमान यांगून) भेज दिया गया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गई। उसके दो पुत्रों और पौत्रों को कर्नल हाड्सन ने बिना किसी न्यायिक जाँच के गोली से उड़ा दिया। नाना साहब नेपाल की तरफ़ तराई के जंगलों की ओर भाग गया और फिर उसका पता न लगा। 8 जुलाई, 1858 ई. को तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड कैनिंग ने विद्रोह की समाप्ति और शान्ति स्थापना की घोषणा की।

कम्पनी राज्य की समाप्ति

विद्रोह काल में दोनों ही पक्षों की ओर से अत्यन्त अमानुषिक अत्याचार हुए। उस काल की कटु स्मृतियों ने यूरोपियनों और भारतीयों के बीच एक ऐसी खाई पैदा कर दी, जो दीर्घकाल तक पट नहीं सकी। इस विद्रोह के फलस्वरूप भारत में कम्पनी का राज्य समाप्त हो गया और भारत का प्रशासन कम्पनी से इंग्लैण्ड की महारानी के हाथों में आ गया। महारानी विक्टोरिया ने इस परिवर्तन की घोषणा की और सभी को क्षमा करने तथा धार्मिक स्वतंत्रता, देशी राजाओं के अधिकारों की रक्षा एवं गोद प्रथा के अन्त की नीति को त्याग देने का वचन दिया।

विद्रोह की विफलता के कारण

अंग्रेज़ों की सफलता और विद्रोहियों की विफलता के कई कारण थे, जो निम्न प्रकार हैं-

  1. विद्रोह कुछ वर्गों तक ही सीमित था। इस विद्रोह का क्षेत्र पश्चिम में पंजाब, पूर्व में बंगाल, उत्तर में अवध और दक्षिण में नर्मदा नदी तक ही सीमित था। यह विद्रोह केवल सैनिकों तक ही सीमित था, देशी नरेश और भारत की साधारण जनता इससे अलग रही।
  2. विद्रोहियों का कोई एक मूल उद्देश्य नहीं था और उन्हें किसी केन्द्रीभूत तथा कुशल नेतृत्व के संचालन का सुयोग भी प्राप्त नहीं था।
  3. विद्रोही भली प्रकार संगठित भी नहीं थे। प्रत्येक दल का अपना नेता होता था, जो अपने ही बल पर युद्ध करता था।
  4. सिक्खों ने अपनी थोड़े दिन पूर्व हुई पराजय के लिए विद्रोही सिपाहियों को कारण मानकर स्वामिभक्ति की भावना से अंग्रेज़ों का पूरा साथ दिया। वस्तुत: यह उन्हीं की सहायता का परिणाम था कि दिल्ली पर अंग्रेज़ों का पुन: अधिकार हुआ और विद्रोहियों की रीढ़ टूट गई।
  5. यद्यपि विद्रोही अत्यधिक वीरता से लड़े, पर उन्होंने अपने में से कोई सुयोग्य सेनानायक नहीं चुना। इसके विपरीत अंग्रेज़ों में अनुशासन तथा एक व्यक्ति के निर्देशन में कार्य करने के गुण थे। उन्हें हैवलाक, निकोल्सन, औटरम तथा लॉरेन्स जैसे अनेक प्रतिभाशाली पदाधिकारियों और सेनानायकों का निर्देशन प्राप्त था।
  6. अन्त में एक कारण यह भी दिया जा सकता है कि विद्रोही लोग भारतीय समाज के एक अल्पांश मात्र थे। अंग्रेज़ों की विजय भारतीय जनता के बहुत भारी अंश की सक्रिय एवं निष्क्रिय सहायता के फलस्वरूप हुई, क्योंकि उन्हें विद्रोही सिपाहियों के कार्यों एवं गतिविधियों में कोई ऐसी विशेषता नहीं दिखलाई दी, जिससे प्रेरित होकर सभी उनका साथ देते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 477 |


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