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दलाईलामा तेनजिन ग्यात्सो

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दलाईलामा तेनजिन ग्यात्सो
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पूरा नाम तेनजिन ग्यात्सो
अन्य नाम दलाईलामा, बचपन का नाम ल्हामो थोंडुप
जन्म 6 जुलाई, 1935
जन्म भूमि पूर्वोत्तर तिब्बत के तक्तेसेर (Taktser) टोले में
पद तिब्बती धर्मगुरु
पुरस्कार-उपाधि नोबेल पुरस्कार

दलाईलामा तेनजिन ग्यात्सो अथवा 'दलाई लामा' (जन्म- 6 जुलाई, 1935) तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष और आध्यात्मिक गुरु हैं। वर्ष 1949 में तिब्बत पर चीन के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा से कहा गया कि वह पूर्ण राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में ले लें और उन्हें दलाई लामा का पद दे दिया गया। चीन यात्रा पर शांति समझौता व तिब्बत से सैनिकों की वापसी की बात को लेकर 1954 में वह माओ जेडांग, डेंग जियोपिंग जैसे कई चीनी नेताओं से बातचीत करने के लिए बीजिंग भी गए थे। परमपावन दलाई लामा के शांति संदेश, अहिंसा, अंतर धार्मिक मेलमिलाप, सार्वभौमिक उत्तरदायित्व और करुणा के विचारों को मान्यता के रूप में 1959 से अब तक उनको 60 मानद डॉक्टरेट, पुरस्कार, सम्मान आदि प्राप्त हुए हैं।

परिचय

बौद्ध धर्म दुनिया के धर्मों का चौथा सबसे बड़ा धर्म है, जिसके 375 लाख अनुयायी है। बौद्ध धर्म के धर्मगुरु को दलाई लामा कहा जाता है। बौद्ध धर्म के 14वें दलाईलामा तिब्बती धर्मगुरु तेनजिन ग्यात्सो[1] है। तेनजिन ग्यात्सो[2] तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष और आध्यात्मिक गुरु हैं। दलाईलामा[3] का जन्म 6 जुलाई, 1935 को पूर्वोत्तर तिब्बत के तक्तेसेर[4] क्षेत्र में रहने वाले एक साधारण येओमान किसान परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम ल्हामो थोंडुप था, जिसका अर्थ है मनोकामना पूरी करने वाली देवी। बाद में उनका नाम तेंजिन ग्यात्सो रखा गया। उन्हें मात्र दो साल की उम्र में 13वें दलाई लामा थुबटेन ज्ञायात्सो (13th Dalai Lama, Thubten Gyatso) का अवतार बताया गया था। छह साल की उम्र में ही मठ के अंदर उनको शिक्षा दी जाने लगी। अपने अध्ययन काल के दौरान से ही वह बहुत कर्मठ और समझदार व्यक्तित्व के स्वामी थे।

'दलाई लामा' एक मंगोलियाई पदवी है, जिसका मतलब होता है- ज्ञान का महासागर और दलाई लामा के वंशज करूणा, अवलोकितेश्वर के बुद्ध के गुणों के प्रकट रूप माने जाते है। बोधिसत्व ऐसे ज्ञानी लोग होते हैं जिन्होंने अपने निर्वाण को टाल दिया हो और मानवता की रक्षा के लिए पुनर्जन्म लेने का निर्णय लिया हो।

प्रारंभिक जीवन

बालक दलाई लामा

चौदहवें दलाईलामा का बचपन काफ़ी उथल-पुथल भरा रहा है। तेरहवें दलाईलामा थुप्टेन ग्यात्सो के 1933 में देहांत के बाद तिब्बती परंपराओं के अनुसार चौदहवें दलाईलामा की खोज शुरू हुई। इसी कड़ी में 1937 में उच्च तिब्बती लामाओं व अन्य धर्मगुरुओं का एक दल उत्तर पूर्वी तिब्बत के आम्दो प्रांत में पहुंचा। दल जब इस प्रांत के कुंबुम पहुंचा तो उसके सदस्यों को यह विश्वास हो चुका था कि वह सही रास्ते पर हैं। कुंबुम में ही दल की मुलाकात तेंजिन ग्यात्सो से हुई। उस बालक को देख इस बात का आभास हुआ कि यही चौदहवें दलाईलामा का अवतार हैं। तब लहासा से आये हुए धर्म गुरुओं ने अनेक प्रकार से उस बालक की परिक्षा ली और यह जाननी चाही की वास्तव में यहीं हमारे धर्म गुरु दलाई लामा के अवतार हैं या फिर कोई और। विभिन्न परीक्षा के बाद जब सभी आश्वस्त हो गये कि तेंजिन ग्यात्सो ही 14वें दलाई लामा के रूप में अवतार हुआ है। अंतिम फैसला लिया गया और समाचार तिब्बत की राजधानी ल्हासा भेजा गया। इसके बाद उन्हें माता-पिता सहित कुंबुम मठ लाया गया जहां विशेष समारोह में दलाईलामा के अवतार तेंजिग ग्यात्सो का अभिषेक किया गया।

तिब्बत में शिक्षा

इसके बाद चौदहवें दलाईलामा की शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध कुंबुम मठ में ही किया गया। दलाई लामा ने अपनी मठवासीय शिक्षा छह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ की। 23 वर्ष की अवस्था में वर्ष 1949 के वार्षिक मोनलम; प्रार्थनाद्ध उत्सव के दौरान उन्होंने जोखांग मंदिर, ल्हासा में अपनी फाइनल परीक्षा दी। उन्होंने यह परीक्षा ऑनर्स के साथ पास की और उन्हें सर्वोच्च गेशे डिग्री ल्हारम्पा; बौध दर्शन में पी. एच. डी. प्रदान की गई।

1939 में जब दलाईलामा चार वर्ष के थे तो उन्हें राजधानी ल्हासा के लिए रवाना कर दिया गया। ल्हासा के निकट कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के दल ने उनसे भेंट की। वहीं पर एक विशेष समारोह में उन्हें विधिवत तिब्बत का आध्यात्मिक नेता घोषित कर दिया गया। उसके बाद उन्हें नोरबूलिंगा महल ले जाया गया। फिर मात्र 15 वर्ष की अल्प आयु में ही उन्हें तिब्बत का राष्ट्राध्यक्ष बना कर सारे अधिकार दे दिये गये थे, मात्र 15 वर्ष की अल्पआयु में 17 नवम्बर 1950 को वे साठ लाख जनता का राष्ट्राध्यक्ष बन गये। उसके बाद से ही उनके जीवन में उथल-पुथल शुरू हुई। चीन के तिब्बत में बढ़ते हस्तक्षेप के कारण दलाईलामा को बहुत छोटी उम्र में ही कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

नेतृत्व की ज़िम्मेदारियां

वर्ष 1949 में तिब्बत (Tibet) पर चीन (China) के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा से कहा गया कि वह पूर्ण राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में ले लें और उन्हें दलाई लामा का पद दे दिया गया। चीन यात्रा पर शांति समझौता व तिब्बत से सैनिकों की वापसी की बात को लेकर 1954 में वह माओ जेडांग, डेंग जियोपिंग जैसे कई चीनी नेताओं से बातचीत करने के लिए बीजिंग (Beijing) भी गए लेकिन सम्मेलन असफल ही रहा। लेकिन आखिरकार वर्ष 1959 में ल्हासा में चीनी सेनाओं द्वारा तिब्बती राष्ट्रीय आंदोलन को बेरहमी से कुचले जाने के बाद वह निर्वासन में जाने को मजबूर हो गए। अंतत: वर्ष 1959 में उन्हें भारत में शरण लेनी पड़ी। वह उत्तर भारत के शहर धर्मशाला (Dharamsala, Northern India) में रह रहे हैं जो केंद्रीय तिब्बती प्रशासन का मुख्यालय है।

तिब्बत धार्मिक मान्यताओं व परम्पराओं को देश है और यहां लड़ाई-झगड़ा व मार-काट जैसे बातों अर्थात् कहां जाये तो विध्वंस पर विश्वास नहीं करते। इसके बावजूद तिब्बत की अपनी सेना थी, जिसमें क़रीब 10 हज़ार के लगभग सैनिक थे, लेकिन उनके पास ना तो चीन से मुकाबला करने लायक़ आधुनिक हथियार थे और ना ही तिब्बत की सेना उनके मुकाबले संख्या में थी।

तिब्बत पर चीन के हमले के बाद परमपावन दलाई लामा ने संयुक्त राष्ट्र से तिब्बत मुद्दे को सुलझाने की अपील की है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इस संबंध में 1959, 1961 और 1965 में तीन प्रस्ताव पारित किए जा चुके हैं।

लोकतंत्रकरण की प्रक्रिया

1963 में परमपावन दलाई लामा ने तिब्बत के लिए एक लोकतांत्रिक संविधान (Democratic Constitution) का प्रारूप प्रस्तुत किया। इसके बाद परमपावन ने इसमें कई सुधार किए। हालांकि, मई 1990 तक ही दलाई लामा द्वारा किए गए मूलभूत सुधारों को एक वास्तविक लोकतांत्रिक सरकार के रूप में वास्तविक स्वरूप प्रदान किया जा सका। इस वर्ष अब तक परमपावन द्वारा नियुक्त होने वाले तिब्बती मंत्रिमंडल; काशग और दसवीं संसद को भंग कर दिया गया और नए चुनाव करवाए गए। निर्वासित ग्यारहवीं तिब्बती संसद के सदस्यों का चुनाव भारत व दुनिया के 33 देशों में रहने वाले तिब्बतियों के एक व्यक्ति एक मत के आधार पर हुआ। धर्मशाला में केंद्रीय निर्वासित तिब्बती संसद मे अध्यक्ष व उपाध्यक्ष सहित कुल 46 सदस्य हैं।

1992 में परमपावन दलाई लामा ने यह घोषणा की कि जब तिब्बत स्वतंत्र हो जाएगा तो उसके बाद सबसे पहला लक्ष्य होगा कि एक अंतरिम सरकार की स्थापना करना जिसकी पहली प्राथमिकता यह होगी तिब्बत के लोकतांत्रिक संविधान के प्रारूप तैयार करने और उसे स्वीकार करने के लिए एक संविधान सभा का चुनाव करना। इसके बाद तिब्बती लोग अपनी सरकार का चुनाव करेंगे और परमपावन दलाई लामा अपनी सभी राजनीतिक शक्तियां नवनिर्वाचित अंतरिम राष्ट्रपति को सौंप देंगे।

वर्ष 2001 में परमपावन दलाई लामा के परामर्श पर तिब्बती संसद ने निर्वासित तिब्बती संविधान में संशोधन किया और तिब्बत के कार्यकारी प्रमुख के प्रत्यक्ष निर्वाचन का प्रावधान किया। निर्वाचित कार्यकारी प्रमुख अपने कैबिनेट के सहयोगियों का नामांकन करता है और उनकी नियुक्ति के लिए संसद से स्वीकृति लेता है। पहले प्रत्यक्ष निर्वाचित कार्यकारी प्रमुख ने सितम्बर 2001 में कार्यभार ग्रहण किया।

शांति प्रयास

सितंबर 1987 में परमपावन ने तिब्बत की ख़राब होती स्थिति का शांतिपूर्ण हल तलाशने की दिशा में पहला क़दम उठाते हुए पांच सूत्रीय शांति योजना (Five Point Peace Plan) प्रस्तुत की। उन्होंने यह विचार रखा कि तिब्बत को 'एक अभयारण्य' एशिया के हृदय स्थल में स्थित एक शांति क्षेत्र में बदला जा सकता है जहां सभी सचेतन प्राणी शांति से रह सकें और जहां पर्यावरण की रक्षा की जाए। लेकिन चीन परमपावन दलाई लामा द्वारा रखे गए विभिन्न शांति प्रस्तावों पर कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया देने में नाकाम रहा।

पांच सूत्रीय शांति योजना

21 सितम्बर 1987 को अमेरिकी कांग्रेस (United States Congress in Washington, D.C) के सदस्यों को सम्बोधित करते हुए परमपावन दलाई लामा ने पांच बिन्दुओं वाली निम्न शांति योजना रखी --

  1. समूचे तिब्बत को शांति क्षेत्र में परिवर्तित किया जाए।
  2. चीन उस जनसंख्या स्थानान्तरण नीति का परित्याग करे जिसके द्वारा तिब्बती लोगों के अस्तित्व पर ख़तरा पैदा हो रहा है।
  3. तिब्बती लोगों के बुनियादी मानवाधिकार और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का सम्मान किया जाए।
  4. तिब्बत के प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण व पुनरूद्धार किया जाए और तिब्बत को नाभिकीय हथियारों के निर्माण व नाभिकीय कचरे के निस्तारण स्थल के रूप में उपयोग करने की चीन की नीति पर रोक लगे।
  5. तिब्बत की भविष्य की स्थिति और तिब्बत व चीनी लोगों के सम्बंधो के बारे में गंभीर बातचीत शुरू की जाए।

तिब्बती लोगों में आदर

हर तिब्बती परमपावन दलाई लामा के साथ गहरा व अकथनीय जुड़ाव रखता है। तिब्बतियों के लिए परमपावन समूचे तिब्बत के प्रतीक हैं: भूमि के सौंदर्य, उसकी नदियों व झीलों की पवित्रता, उसके आकाश की पुनीतता, उसके पर्वतों की दृढ़ता और उसके लोगों की ताकत का।

सार्वभौमिक मान्यता

तिब्बत की मुक्ति के लिए अहिंसक संघर्ष जारी रखने हेतु दलाई लामा की इस कोशिश को सबने सराहा। चीन और तिब्बत के बीच एक शांतिदूत की भूमिका निभाने के कारण उन्हें 10 दिसंबर 1989 में शांति का नोबल पुरस्कार (Nobel Peace Prize) दिया गया। उन्होंने लगातार अहिंसा की नीति का समर्थन करना जारी रखा है, यहां तक कि अत्यधिक दमन की परिस्थिति में भी। शांति, अहिंसा और हर सचेतन प्राणी की खुशी के लिए काम करना परमपावन दलाई लामा के जीवन का बुनियादी सिधांत है। वह वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं पर भी चिंता प्रकट करते रहते हैं। परमपावन दलाई लामा ने 52 से अधिक देशों का दौरा किया है और कई प्रमुख देशों के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और शासकों से मिले हैं। उन्होंने कई धर्म के प्रमुखों और कई प्रमुख वैज्ञानिकों से मुलाकात की है।

परमपावन के शांति संदेश, अहिंसा, अंतर धार्मिक मेलमिलाप, सार्वभौमिक उत्तरदायित्व और करुणा के विचारों को मान्यता के रूप में 1959 से अब तक उनको 60 मानद डॉक्टरेट, पुरस्कार, सम्मान आदि प्राप्त हुए हैं। परमपावन ने 50 से अधिक पुस्तकें लिखीं हैं। अपने जीवन पर दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो के द्वारा लिखी गई बुक Freedom in Exile : The Autobiography of the Dalai Lama है।

इस समय तक दलाई लामा की लोकप्रियता दुनिया भर में शिखर तक पहुंच गई। ईसाइयों के धर्म गुरु पोप के बाद लोग अब दलाई लामा को भी सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे हैं। दलाई लामा ने दुनिया भर में सफर करके अपने वचनों और शिक्षा को जगह जगह फैलाया और शांति बनाने पर ज़ोर दिया। परमपावन अपने को एक साधारण बौध भिक्षु ही मानते हैं। दुनियाभर में अपनी यात्राओं और व्याख्यान के दौरान उनका साधारण व करूणामय स्वभाव उनसे मिलने वाले हर व्यक्ति को गहराई तक प्रभावित करता है। उनका संदेश है प्यार, करुणा और क्षमाशीलता।

दलाई लामा के संदेश

सार्वभौमिक उत्तरदायित्व

आज के समय की चुनौती का सामना करने के लिए मनुष्य को सार्वभौमिक उत्तरदायित्व की व्यापक भावना का विकास करना चाहिए। हम सबको यह सीखने की ज़रूरत है कि हम न केवल अपने लिए कार्य करें बल्कि पूरे मानवता के लाभ के लिए कार्य करें। मानव अस्तित्व की वास्तविक कुंजी सार्वभौमिक उत्तरदायित्व ही है। यह विश्व शांति, प्राकृतिक संसाधनों के समवितरण और भविष्य की पीढ़ी के हितों के लिए पर्यावरण की उचित देखभाल का सबसे अच्छा आधार है।

बौद्ध धर्म

मेरा धर्म साधारण है, मेरा धर्म में दयालुता है।

पर्यावरण

अपने ग्रहों की रक्षा हमें उसी तरह से करना चाहिए जैसा कि हम अपने घोड़ों की करते हैं। हम मनुष्य प्रकृति से ही जन्मे हैं इसलिए हमारा प्रकृति के ख़िलाफ़ जाने का कोई कारण नहीं बनता, इस कारण ही मै कहता हूं कि पर्यावरण धर्म नीतिशास्त्रा या नैतिकता का मामला नहीं है। यह सब ऐसी विलासिताएं हैं जिनके बिना भी हम गुजर-बसर कर सकते हैं लेकिन यदि हम प्रकृति के विरफ जाते हैं तो हम जिंदा नहीं रह सकते।

भारत

एक शरणार्थी के रूप में हम तिब्बती लोग भारत के लोगों के प्रति हमेशा कृतज्ञता महसूस करते हैं, न केवल इसलिए कि भारत ने तिब्बतियों की इस पीढ़ी को सहायता और शरण दिया है, बल्कि इसलिए भी कई पीढ़ियों से तिब्बती लोगों ने इस देश से पथप्रकाश और बुधमित्ता प्राप्त की है। इसलिए हम हमेशा भारत के प्रति आभारी रहते हैं। यदि सांस्कृतिक नजरिए से देखा जाए तो हम भारतीय संस्कृति के अनुयायी हैं।

चीन

हम चीनी लोगों या चीनी नेताओं के ख़िलाफ़ नहीं हैं आखिर वे भी एक मनुष्य के रूप में हमारे भाई-बहन हैं। यदि उन्हें खुद निर्णय लेने की स्वतंत्राता होती तो वे खुद को इस प्रकार की विनाशक गतिविधि में नहीं लगाते या ऐसा कोई काम नहीं करते जिससे उनकी बदनामी होती हो। मै उनके लिए करुणा की भावना रखता हूं।’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. Tenzin Gyatso
  2. Tenzin Gyatso
  3. Dalai Lama
  4. Taktser

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