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वसुबन्धु बौद्धाचार्य

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वसुबन्धु की बौद्ध जगत में एक प्रकाण्ड पण्डित और शास्त्रार्थ-पटुता के कारण बड़ी प्रतिष्ठा है। अपनी अनेक कृतियों द्वारा उन्होंने बुद्ध के मन्तव्य का लोक में प्रसार करके लोक का महान् कल्याण सिद्ध किया है। उनके इस परहित कृत्य को देखकर विद्वानों ने उन्हें 'द्वितीय बुद्ध' की उपाधि से विभूषित किया। आचार्य वसुबन्धु शास्त्रार्थ में अत्यन्त निपुण थे। उन्होंने महावैयाकरण वसुरात को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। सुना जाता है कि सांख्याचार्य विन्ध्यवासी ने उनके गुरु बुद्धमित्र को पराजित कर दिया था। इस पराजय का बदला लेने वसुबन्धु विन्ध्यवासी के पास शास्त्रार्थ करने पहुँचे, किन्तु तब तक विन्ध्यवासी का निधन हो गया था। फलत: उन्होंने विन्ध्यवासी के 'सांख्यसप्तति' ग्रन्थ के खण्डन में 'परमार्थसप्तति' नामक ग्रन्थ की रचना की।

जीवन परिचय

वसुबन्धु के जीवन और आविर्भाव तिथि के विषय में मतभेद हैं। परमार्थ (499-569) ने चीनी भाषा में वसुबन्धु की जीवनी लिखी थी। इससे पता चलता है कि आचार्य वसुबन्धु कौशिक गोत्र के ब्राह्मण थे और इनका जन्म 'पुरुषपुर' (पेशावर) में हुआ था। ये तीन भाई थे। इनमें ज्येष्ठ असंग थे। वसुबन्धु उनसे छोटे थे। सबसे छोटे भाई का नाम विरिंचिवत्स था। असंग और वसुबन्धु आरम्भ में सर्वास्तिवाद की महीशासक शाखा के अनुयायी थे, बाद में महायान में दीक्षित हुए। ये अयोध्या के निवासी रहे थे और अस्सी वर्ष की अवस्था में इनका देहान्त हुआ।

समय काल

वसुबन्धु की तिथि के विषय में विद्वानों में काफ़ी विवाद है। वसुबन्धु का सर्वाधिक मान्य समय चौथी शताब्दी ईसवी सन है। बौद्ध न्यायशास्त्र के मुख्य प्रवर्तक आचार्य दिङ्नाग इनके शिष्य थे। वसुबन्धु का समय 360-440 ई. अस्थायी रूप से स्वीकार किया जा सकता है। भोटदेशीय इतिहासकार लामा तारानाथ और बुदोन के अनुसार इन्होंने संघभद्र से विद्याध्ययन किया था। आचार्य परमार्थ के अनुसार इनके गुरु बुद्धमित्र थे। अन्य विद्वानों में ताकाकुसू के अनुसार 420-500 ईस्वीय वर्ष उनका काल है। वोगिहारा महोदय के मतानुसार आचार्य 390 से 470 ईस्वीय वर्षों में विद्यमान थे। सिलवां लेवी उनका समय पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानते हैं। एन. पेरी महोदय उनका समय 350 ईस्वीय वर्ष सिद्ध करते हैं। फ्राउ वाल्नर महोदय इसी मत का समर्थन करते हैं। इन सब विवादों के समाधान के लिए कुछ विद्वान दो वसुबन्धुओं का अस्तित्व मानते हैं। उनमें एक वसुबन्धु तो आचार्य असंग के छोटे भाई थे, जो महायान शास्त्रों के प्रणेता हुए तथा दूसरे वसुबन्धु सौत्रान्तिक थे, जिन्होंने अभिधर्म कोश की रचना की। विन्टरनित्ज, मैकडोनल, डॉ. विद्याभूषण, डॉ. विनयतोष भट्टचार्य आदि विद्वान आचार्य को ईस्वीय चतुर्थ शताब्दी का मानते हैं।

आचार्य कुमारजीव ने वसुबन्धु के अनेक ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया है। वे 344 से 413 ईस्वीय वर्ष में विद्यमान थे। सुना जाता है कि कुमारजीव ने अपने गुरु सूर्यसोम से वसुबन्धु के 'सद्धर्मपुण्डरीकोपदेश शास्त्र' का अध्ययन किया था। आर्यदेवविरचित शतशास्त्र की 'वसुबन्धरचित' व्याख्या का चीनी भाषा में अनुवाद 404वें ईस्वीय वर्ष में तथा वसुबन्धुप्रणीत 'बोधिचित्तोत्पाद शास्त्र' का 405वें वर्ष में चीनी भाषा में अनुवाद हुआ था। बोधिरुचि ने वसुबन्धु 'वज्रच्छेदिकाप्रज्ञापारमिताशास्त्र' की वज्रर्षिकृत व्याख्या का अनुवाद 535 ईस्वीय वर्ष में सम्पन्न किया था। इन प्रमाणों के आधार पर महायान-ग्रन्थों के रचयिता वसुबन्धु अभिधर्मकोशकार वसुबन्धु से भिन्न प्रतीत होते हैं। अभिधर्मकोश के व्याख्याकार यशोमित्र अपनी व्याख्या में वसुबन्धु नामक एक अन्य आचार्य की सूचना देते हैं। वे उन्हें 'वृद्धाचार्य वसुबन्धु' कहते हैं। तिब्बती परम्परा आचार्य को बुद्ध के नवम शतक में विद्यमान मानती है। बीसवीं शताब्दी में भोटदेशीय इतिहासकार गे-दुन-छोस-फेल महोदय का कहना है कि भोटदेशीय सम्राट स्रोड्-चन्-गम्पो, भारतीय सम्राट श्रीहर्ष, आचार्य दिङ्नाग, कवि कालिदास, आचार्य दण्डी, इस्लाम धर्मप्रवर्तक मुहम्मद साहब ये सब महापुरुष कुछ काल के अन्तर से प्राय: समान कालिक थे। परमार्थ, ह्वेनसांग, तारानाथ, ताकाकुसू आदि इतिहासवेत्ताओं का कहना है, दो वसुबन्धुओं की कल्पना निरर्थक है, वसुबन्धु एक ही थे और वे 420 से 500 ईस्वीय वर्षों के मध्य विद्यमान थे। आधुनिक इतिहासकार भी इसी मत का समर्थन करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।

विद्वान विचार

  • ह्नेनसांग के मतानुसार परमार्थ इनके गुरु थे। सम्भव है कि इन्होंने विभिन्न गुरुओं के समीप बैठकर ज्ञानार्जन किया हो। उस काल में अयोध्या प्रधान विद्याकेन्द्र के रूप प्रतिष्ठित थी। यहीं निवास करते हुए उन्होंने गम्भीर दर्शनों का तलस्पर्शी अध्ययन-अध्यापन और अभिधर्मकोश आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों का प्रणयन किया था।
  • तारानाथ के मतानुसार नालन्दा में प्रव्रजित होकर वहीं उन्होंने सम्पूर्ण 'श्रावकपिटक' का अध्ययन किया था और उसके बाद विशेष अध्ययन के लिए ये आचार्य संघभद्र के समीप गये थे। इनकी विद्वत्ता की कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी। इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर अयोध्या के सम्राट चन्द्रगुप्त सांख्य मत को छोड़कर बौद्ध मत के अनुयायी हो गये थे। उन्होंने अपने पुत्र 'बालादित्य' को और अपनी पत्नी महारानी 'ध्रुवा' को अध्ययन के लिए इनके समीप भेजा था।
  • 'तत्त्वसंग्रह' नामक ग्रन्थ की पञ्जिका के रचयिता आचार्य कमलशील ने अपने ग्रन्थ में इनके वैदुष्य की बड़ी प्रशंसा की है। अस्सी वर्ष की आयु में अयोध्या में ही इनका देहावसान हुआ। तारानाथ के मतानुसार नेपाल में और महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार गान्धार में इनका निधन हुआ था।

स्वतन्त्र विचारक तथा प्रतिभा सम्पन्न

जीवन के प्रारम्भिक काल में वसुबन्धु सर्वास्तिवादी थे। आचार्य संघभद्र के प्रभाव से ये 'कश्मीर-वैभाषिक' हो गए और उसी समय इन्होंने 'अभिधर्मकोश' का प्रणयन किया। इस ग्रन्थ का विद्वत्समाज में बड़ा आदर था। महाकवि बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित ग्रन्थ में अभिधर्मकोश का उल्लेख किया है। सिंहलद्वीप के महाकवि श्रीराहुल संघराज ने 15वीं विक्रम शताब्दी में प्रणीत अपने ग्रन्थ मोग्गलानपंचिकाप्रदीप में अभिधर्मकोश के वचन का उद्धरण दिया है। आचार्य वसुबन्धु सभी अठारह निकाय के तथा महायान के दार्शनिक सिद्धान्तों के अद्वितीय ज्ञाता थे, यह बात उनकी कृतियों से स्पष्ट होती है। सर्वप्रथम वे सर्वास्तिवादी निकाय में प्रव्रजित हुए। तदनन्तर उन्होंने कश्मीर में वैभाषिक शास्त्रों का अध्ययन किया। उस समय कश्मीर में सौत्रान्तिकों का प्रभाव क्षेत्र विस्तृत एवं धनीभूत हो रहा था। सौत्रान्तिकों का दार्शनिक परिवेश निश्चय ही वैभाषिकों की अपेक्षा सूक्ष्म भी था और युक्तिसंगत भी। फलत: आचार्य ने अपने अभिधर्मकोश और उसके स्वभाष्य में यत्र तत्र वैभाषिकों की विसंगतियां की ओर इंगित भी किया और उनकी आलोचना भी की है। उनकी रचनाओं के अध्ययन से एक बात निश्चय ही स्पष्ट होती है कि वे एक स्वतन्त्र विचारक एवं प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे।

ग्रन्थ रचना

वसुबन्धु ने वैभाषिक सिद्धांतों का सम्यक प्रतिपादन करने के लिए 'अभिधर्मकोश' नामक ग्रन्थ की रचना की थी, जिसमें छ: सौ कारिकाएं हैं। बाद में आचार्य ने इसका एक भाष्य भी लिखा। परम्परा से ज्ञात होता है कि भाष्य में में आचार्य वसुबन्धु ने सौत्रान्तिक नये को स्वीकार किया था, जिसके खंडन के लिए आचार्य संघधभद्र ने पच्चीस हज़ार श्लोकों में 'न्यायानुसार' शास्त्र की रचना की थी। 'कर्मसिद्धिप्रकरण' आचार्य की दूसरी रचना है, जिसमें सौत्रान्तिक दृष्टि होते हुए भी महायान का प्रभाव लक्षित होता है। मानो वे हीनयान से महायान में परिवर्तन की संक्रमण रेखा पार करते हुए विज्ञानवादी योगाचार दृष्टिकोण का समर्थन कर रहे थे। पच्चस्कंध प्रकरण और व्याख्यायुक्ति आचार्य वसुबन्धु की दूसरी रचनाएं हैं। 'त्रिस्वभावनिर्देश' में महायान सिद्धांतों का, विशेष रूप से परतंत्र, परिकल्पित और परिनिष्पन्न इन तीन स्वभावों (लक्षणों) का सुगम रीति से प्रतिपादन किया गया है। शिवतिका (सवृत्ति) और त्रिंशिका कारिकाओं में आचार्य वसुबन्धु के महायान दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति हुई है। जबकि विंशिका कारिका और उसकी वृत्ति में योगाचार के दृष्टिकोण से बाह्यार्थ का प्रतिषेध है, त्रिंशिका की तीस कारिकाओं में विज्ञानवाद के आलय विज्ञान सिद्धांत का क्रमबद्ध निरूपण किया गया है। मध्यान्तसूत्र विभाग सूत्रभाष्य आर्य मैत्रेयनाथ के मध्यान्तसूत्र विभाग की विस्तृत टीका है। इसके अतिरिक्त परमार्थसप्तति, सद्धर्मपुण्डरीकोपदेश, वज्रच्छैदिका प्रज्ञापारमिताशास्त्र, आर्य देव के शतशास्त्र की व्याख्या प्रभूति ग्रन्थ भी वसुबन्धु की कृतियों के रूप में स्वीकार किये जाते हैं। आचार्य वसुबन्धु ने सर्वास्तिवादी दृष्टिकोण से अभिधर्मकोश (कारिका तथा भाष्य) के आठ कोशस्थानों- धातु, इन्द्रिय, लोकधातु, कर्म, अनुशय, आर्यपुद्गल, ज्ञान और ध्यान तथा परिशिष्ट रूप पुद्गलकोश (भाष्य) में अभिधर्म के सिद्धांतों का विशद रूप से उपन्यास किया है।

धर्म के स्वरूप का विवेचन

सानुचर अनास्रव प्रज्ञा ही अभिधर्म कही जाती है। अभिधर्म प्रतिपादक शास्त्र भी अभिधर्म की आख्या को प्राप्त करता है। सभी धर्म स्वलक्षण, नाना और निरात्मक हैं। इसके प्रविचय से ही क्लेशों का उपशम सम्भव है, अन्यथा नहीं। इसीलिए वसुबन्धु ने अभिधर्मकोश में धर्मों के स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया है। धर्म सास्रव (मलिन) और अनास्रव के भेद से दो प्रकार के बताये गए हैं। मार्ग सत्य के अतिरिक्त सभी संस्कृत (हेतु प्रत्यम जनित) धर्म सास्रव होते हैं। तीन असंस्कृत धर्म और मार्गसत्य अनास्रव हैं। असंस्कृत धर्म है- आकाश, प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध। आकाश अनावरण स्वभाव है, क्योंकि आकाश किसी प्रकार के रोध या बाधा का कारण नहीं बनता और रूप का उसमें संचार अबाध रूप से होता है। आकाश न तो रूप से आवृत होता है न अपगत। प्रतिसंख्यानिरोध का अर्थ है पृथक-पृथक् विसंयोग। प्रतिसंख्या या प्रज्ञा द्वारा सास्रव धर्मों से विसंयोग ही प्रतिसंख्या निरोध या निर्वाण कहा जाता है। प्रतिसंख्या या प्रतिसंख्यान से एक प्रज्ञाविशेष का, अनास्रव प्रज्ञा का, दु:खादि आर्यसत्यों के अभिसमय का ग्रहण होता है। अप्रतिसंख्यानिरोध का तात्पर्य है वह निरोध जो उत्पाद का अत्यन्त विघ्नभूत है। इसकी प्राप्ति सत्य साक्षात्कार से न होकर प्रत्यय वैकल्प से होती है। उदाहरण के लिए जब इन्द्रियाँ (यथा चक्षुरिन्द्रिय और मन) किसी एक रूप में आसक्त होते हैं, उस समय अन्य रूप (यथा शब्द आदि) किसी दूसरे अध्वा (यथा अतीत) में चले जाते हैं। प्रत्ययों के वैकल्प से उत्पन्न होने वाला यह निरोध ही अप्रतिसंख्या निरोध कहा जाता है।

संस्कृत धर्म

हेतु प्रत्ययों से उत्पन्न रूपादि को 'संस्कृत धर्म' कहा जाता है। अध्व (त्रिविधि काल), कथावस्तु (वाक्स विषय), सनि:सार (नि:सरणयुक्त) और सर्वस्तुक (सहेतुक) भी संस्कृत धर्मों के पर्याय हैं, जिनसे क्रमश: इनकी कालिकता, वाक्य विषयता, हेयता और कारण नियम का बोध होता है। ये संस्कृत धर्म संख्या में बहत्तर हैं और इनमें रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पांच स्कन्धों का संग्रह है। स्कन्ध शब्द का अर्थ है राशि यानी धर्मों का समूह। रूप से भूत या मैटर का तात्पर्य ग्रहीत होता है। समस्त भूत और भौतिक पदार्थ रूप के अंतर्गत आते हैं। भूतरूप और उपादाय रूप के भेद से रूप द्विविध होता है। पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार भूत हैं। इन चार भूतों से नाना प्रकार के रूप बनते हैं, जो उपादय रूप की श्रेणी में आते हैं। चक्षुश्रौत्र, घ्राण, जिह्वा, काय और उनके विषय रूप शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श ये पांच मुख्य उपादाय रूप हैं। समस्त भूत और भौतिक परमाणु निर्मित हैं। प्रत्येक महाभूत के पृथक-पृथक् परमाणु होते हैं। रूपप्रसाद यानी सूक्ष्म और अतीन्द्रिय अथवा भौतिक धातु और पांच इन्द्रियों के पांच विषयों के पृथक् परमाणु होते हैं। परमाणु निरवयव, दिग्भेदहीन, निरन्तर और सूक्ष्मतम रूपसंघात होते हैं। वेदना स्कन्ध से तात्पर्य है सुखा, दु:खा या अदुखासुखा (आनिज्जय) वेदना या अनुभव। संज्ञा निमित्तों का उद्ग्रहण या परिच्छेद करती है। विज्ञान विषयप्रतिविज्ञप्ति रूप होता है। पांच इन्द्रियों और मन से सम्बद्ध छ: प्रकार के विज्ञान बताये गए हैं।

संस्कार-स्कन्ध

रूप, वेदना, संज्ञा और विज्ञान से भिन्न शेष संस्कार संस्कार-स्कन्ध में संग्रहीत हैं। संस्कार-स्कन्ध के अंतर्गत चित्त सम्प्रयुक्त (46) और चित्त विप्रयुक्त (14) संस्कारों की गणना की जाती है। पांच स्कन्ध क्षणिक और नित्य परिवर्तनशील हैं। ये मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं और वस्तु, इन्द्रिय और विज्ञान, इस त्रिक सन्निपात रूप प्रत्यय से उत्पन्न होते हैं। इनसे भिन्न आत्मा कोई दूसरा नित्य नाम का पदार्थ नहीं है। इसीलिए भगवान ने कहा है, कर्म है, कर्मफल है, किन्तु कोई कारक नहीं है, जो धर्मों के संकेत अर्थात् हेतुफल संबंध की व्यवस्था से पृथक् स्कन्धों का परित्याग या ग्रहण करे। प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम के अनुसार ये पांच स्कन्ध ही सन्तान रूप में मरणभव से उपपत्तिभव पर्यन्त विस्तार को प्राप्त करते हैं। ये ही माता की कुक्षि में प्रवेश कर पुनर्जन्म के भागी होते हैं। वसुबन्धु का स्पष्ट कथन है-

नात्मास्ति स्कन्धामात्रंतु क्लेशकर्माभिसंस्कृतम्।
अन्तराभवसन्तत्या कुक्षिमेति-प्रदीपवत्।। अभि को।।

भगवान बुद्ध ने जिस सापेक्षता के इदम्प्रत्ययतारूप, कारणतावाद के सिद्धांत प्रतीत्यसमुत्पाद का प्रतिपादन किया था, उसके बारह अंक हैं, जिन्हें भवाङग भी कहते हैं। ये हैं- अविद्या, संस्कार, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान भव, जाति और जरामरण, दु:ख, दौर्मनस्य, उपायास और उपक्लेश, जो एक दूसरे की प्रतीति कर सम्भूत होते हैं। एक के रहने पर दूसरा अंग अभिनिवृत्त होता है। एक के विरुद्ध होने पर अपर अंग का भी निरोध होता है।

पंचस्कन्ध

पूर्वजन्म की क्लेशदशा ही अविद्या है और कर्मदशा संस्कार। इस जन्म के लिए रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान का बीजरोपण ही विज्ञान है। इसे प्रतिसंधि विज्ञान भी कहा जाता है। जन्म से पूर्व गर्भित दशा में पंचस्कन्धों की संवृति नामरूप है, मन एवं इन्द्रियों वाला स्थूल शरीर षडायतन, सुखदु:खात्मक अनुभव वाली वेदना का पूर्वरूप स्पर्श, सुख-दु:ख की अनुभूति (मैथुनराग के पूर्व की अवस्था) का नाम वेदना, रूपादि कामगुण, मैथुन के प्रति राग और भोग की कामना तृष्णा, भोगसम्प्राप्ति हेतु पुद्गल का यत्न उपादान, इस प्रकार प्रभावित होकर अनागत भव हेतु किया गया कर्म भव, भरण के अनन्तर प्रतिसंधि, काल में पांचों स्कन्धों की अवस्था जाति, स्कन्धपरिपाक जरा और स्कन्ध नाश भरण् कहलाता है। इनमें से प्रथम दो भवांग अतीत अध्वा से, अन्तिम दो भवांग अनागत अध्वा से और शेष आठ भवांग प्रत्युत्पन्न अध्वा से सम्बद्ध हैं।

विज्ञानवाद की प्रतिष्ठा

महायान दर्शन, विशेषत: योगाचार विज्ञानवाद की प्रतिष्ठा में वसुबन्धु का विशेष योगदान रहा है। सन्धिनिर्मोचन, लंकावतार तथा अन्य आकरग्रन्थों के तात्पर्य को आचार्य वसुबन्धु ने तार्किक और प्रौढ़ अभिव्यक्ति प्रदान की है। विंशिका और त्रिंशिका कारिकाओं तथा त्रिस्वभाव निर्देश में उनकी योगाचार विचारधारा की पुष्ट रूप से अभिव्यक्ति हुई है। वसुबन्धु योगाचार विज्ञानवाद की दृष्टि से केवल विज्ञप्तिमात्रता या विज्ञान की ही सत्ता स्वीकार करते हैं। विज्ञप्तिमात्र ही सत् है उससे व्यतिरिक्त किसी बाह्य की विषय की सत्ता विज्ञानवादी स्वीकार नहीं करते हैं। यह समस्त विकल्पज्ञान विज्ञान का ही परिणाम है। स्वाप्न पदार्थों के समान बाह्यर्थ की उपलब्धि भी असत् है। वासनावश बाह्यर्थ के उपलम्भ का हमें भ्रम मात्र होता है। सहोपलम्भनियम के आधार पर नील और नीलविज्ञान का अभेद सिद्ध होता है।

नीलादिविज्ञान से भिन्न किसी बाह्य रूप आदि विषय की सिद्धि, न तो अवयवी के रूप में, न ही परमाणुश: पृथक् रूप में होती है, क्योंकि परमाणु स्वयं अतीन्द्रिय और अनुभव के अविषय होते हैं। साथ ही बाह्यर्थ को परमाणुओं का संघात भी नहीं माना जा सकता। जब एक परमाणु का अन्य परमाणुओं से संयोग होता है, तभी वह षडंश होता है और इन छ: परमाणु भागों के एक देशस्थ होने पर पिण्ड भी अणुमात्र होता है। इस प्रकार परमाणु के प्रसिद्ध हो जाने पर परमाणु संघात भी अर्थत: असिद्ध हो जाता है। इस प्रकार स्वप्नदृष्ट पदार्थों के समान ही जागतिक अनुभव के समस्त विषय माया मरीचि के समान असत् और भ्रम स्वरूप हैं। विज्ञप्तियों के आधार बाह्य विषय नहीं होते अपित् बाह्य विषयों के अभाव में भी विज्ञप्तियों का उदय होता है।

विज्ञान की विधियाँ

विज्ञान त्रिविध होता है। आलयविज्ञान, प्रवृतिविज्ञान और मननात्मक मनोविज्ञान। आलयविज्ञान ही समस्त विज्ञानों का मूल स्रोत है। यह जगत की समग्र वस्तुओं के बीज को धारण करने वाला अपरिछिन्न प्रवाह रूप में नित्य समस्त कर्मों और साङक्लेशिक धर्मों के बीज का आलय है। यह क्षणिक और प्रवाह रूप में नित्य है। हेतुफलभाव से समस्त पदार्थ उसी में संलीन रहते हैं। आलयविज्ञान अनादिकालिक सर्वधर्मसमाश्रय और निर्वाण का प्रायक भी माना गया है। यह व्यक्तिगत होता है। प्रवृतिविज्ञान सभी बाह्य अर्थों की विज्ञप्ति का ही दूसरा नाम है। पांच ज्ञानेन्द्रियों (चक्षु, श्रौत्र, घ्राण, जिह्वा तक) और मन के ग्राह्य विषयों के भेद से यह छ: प्रकार का होता है। प्रवृतिविज्ञान परिच्छिन्न स्वभाव, क्षणिक और अनित्य होता है तथा चक्षुरादि इसके आलम्बन होते हैं। मननात्मक क्लिष्ट मनोविज्ञान का कार्य पांच ज्ञानेन्द्रियों के विज्ञानों द्वारा प्रस्तुत विचारों या प्रत्ययों का परिच्छेद (अलग-अलग) करना है। यह अपने विषयभूत आलयविज्ञान को उसके स्वरूप स्वभाव के विपरीत बीजरूप में कल्पित करता है।

वसुबन्धु ने योगाचार की दृष्टि से परिकल्पित परतंत्र और परिनिष्पन्न स्वभाव सत्ता के इन विविध स्वभावों का स्वरूप दिग्दर्शित किया है। वे सभी पदार्थ जो व्यवहारत: सत् नहीं हैं और जिनका स्वरूप कल्पित होता है तथा जो व्यवहारत: सत् पदार्थों के ऊपर आरोपित होते हैं, परिकल्पित स्वभाव परिकल्पित लक्षण कहे जाते हैं। जैसे रज्जु के ऊपर सर्प का आरोप होता है। इस दृष्टांत में सर्प परिकल्पित स्वभाव कहा जाएगा। परतंत्र स्वभाव के अंतर्गत समस्त प्रतीत्यसमुत्पन्न पदार्थों की गणना की जाती है, जैसे उपर्युक्त दृष्टांत में तृणनिर्मित रज्जु परतंत्र कही जाएगी। बाह्य जगत के समस्त पदार्थ परतंत्र, क्षणिक और विज्ञानात्मक माने गए हैं। परमार्थत: सत्य सत्ता ही परिनिष्पन्न स्वभाव कही गई है। ये समस्त कोटियाँ विकल्पों से अस्पष्ट भेदहीन अद्वय तत्व हैं। यह तथता, विज्ञानधातु और धर्मधातु से भी अभिन्न है। वसुबन्धु विज्ञप्ति मात्रता के यथार्थ स्वरूप को परिनिष्पन्न स्वभाव से ही सम्बद्ध करते हैं। क्लेशावरण और रोपावरण की निवृत्ति से विशुद्ध, विज्ञान, धातु स्वरूप, विमल तथता से अभिन्न निर्वाण का अधिगम होता है, जो परमार्थ लक्षण है।

वसुबन्धु का महत्त्व

वसुबन्धु का बौद्ध परम्परा में न केवल अभिधर्म और योगाचार दर्शन को एक व्यवस्थित और क्रमबद्ध स्वरूप प्रदान करने के कारण महत्त्व है अपितु उनका महत्त्व बौद्ध विचार पद्धति में हेतुविद्या, वादविधि और प्रमाण व्यवस्था को एक निश्चित भूमि प्रदान करने में भी है, जो आगे चलकर दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, ईश्वरसेन तथा अन्य बौद्ध नैयायिक आचार्यों की कृतियों में विस्पष्ट रूप से स्फुट हुई।


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