पूर्णा

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पूर्णा सुजाता की दासी थी, जिसने महात्मा बुद्ध को बरगद वृक्ष के नीचे देखा और उन्हें देव माना। उसने वापस आकर ये बात अपनी मालकिन सुजाता को बताई। सुजाता ने भगवान बुद्ध को खीर अर्पित की और बुद्ध ने अपना कई दिन का उपवास भंग किया। बुद्ध ने सुजाता को उसका मनोरथ पूर्ण होने का आशीर्वाद दिया।

सुजाता का आदेश

उरुवेला प्रदेश के सेनानी ग्राम में पूर्णा सुजाता की सेविका के रूप में रहती थी। वैशाख पूर्णिमा के दिन तरुणी मालकिन (सुजाता) ने पूर्णा दासी से कहा, अम्म जल्दी जा बरगद वृक्ष (देवस्थान) को स्वच्छ करके आ। वहाँ पर पूजा करनी है। सुजाता को बरगद की उपासना से इच्छित समान जाति के कुल घर में जाकर प्रथम गर्भ में पुत्र की प्राप्ति हुई थी, इसीलिए वह बरगद देवस्थान को अनेक गायों के दुग्ध से खीर बनाकर समर्पित करना चाहती थी।

बुद्ध से भेंट

संयोग से उसी वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ (महात्मा बुद्ध) उस रात पांच महास्वप्नों को देखकर, भिक्षा काल की प्रतिक्षा करते, अपनी दिव्य प्रभा से वृक्ष को प्रभासित करते बोधि प्राप्ति के लिए बैठे हुए थे। पूर्णा दासी ने विस्फारित नेत्रों से बुद्ध को देखा। सोचा वृक्ष से बलि ग्रहण (खीर-पायस की भेंट) को स्वीकारने के लिए देव वृक्ष से नीचे उतरे हैं। उसने वहाँ से शीघ्र लौटकर यह बात सुजाता से कही। ‘वृक्ष देवता आज अति प्रसन्न हुए’, यह जानकर वह स्वर्ण थाल में पायस (खीर) लेकर बुद्ध के सम्मुख उपस्थित हुई। सुजाता ने कहा, आर्य! इसे ग्रहण करें। भोजन प्राप्त कर बुद्ध ने अपना कई दिन का उपवास भंग किया और शारीरिक कष्ट द्वारा सिद्ध प्राप्त करने के मार्ग की सारहीनता उनकी समझ में आई। बुद्ध ने कहा, ‘जैसे मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ, तुम्हारा भी पूर्ण हो।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 507 |

  1. बुद्धचरित., पृष्ठ 14

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