दशभूमीश्वर

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  • गण्डव्यूह की भाँति यह सूत्र भी अवतंसक का एक भाग माना जाता है। इसमें बोधिसत्त्व की दस आर्यभूमियों का विस्तृत वर्णन है, जिन भूमियों पर क्रमश: अधिरोहण करते हुए बुद्धत्व अवस्था तक साधक पहुँचता है। 'महावस्तु' में इस सिद्धान्त का पूर्वरूप उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में उक्त सिद्धान्त का परिपाक हुआ है।
  • महायान में इस सूत्र का अत्युच्च स्थान है। इसे दशभूमिक, दशभूमीश्वर एवं दशभूमक नाम से भी जाना जाता है।
  • आर्य असंग ने 'दशभूमक' शब्द का ही प्रयोग किया है। इसकी लोकप्रियता एवं प्रामाणिकता में यह प्रमाण है कि अत्यन्त प्राचीनकाल में ही इसके तिब्बती, चीनी, जापानी एव मंगोलियन अनुवाद हो गये थे।
  • श्री धर्मरक्ष ने इसका चीनी अनुवाद ई. सन् 297 में कर दिया था। इसके प्रतिपादन की शैली में लम्बे-लम्बे समस्त पद एवं रूपकों की भरमार है।
  • मिथिला विद्यापीठ ने डॉ. जोनेस राठर के संस्करण के आधार पर इसका पुन: संस्करण किया है।
  • ज्ञात है कि महायान में दस आर्यभूमियाँ मानी जाती हैं, यथा- प्रमुदिता, विमला, प्रभाकरी, अर्चिष्मती, सुदर्जया, अभिमुखी, दूरङ्गमा, अचला, साधुमती एवं धर्ममेधा।
  • आर्यावस्था से पूर्व जो पृथग्जन भूमि होती है, उसे 'अधिमुक्तिचर्याभूमि' कहते हैं। महायान में पाँच मार्ग होते हैं- सम्भारमार्ग, प्रयोगमार्ग, दर्शनमार्ग, भावनामार्ग एवं अशैक्षमार्ग। दर्शनमार्ग प्राप्त होने पर बोधिसत्त्व 'आर्य' कहलाने लगता है। उपर्युक्त दस भूमियाँ आर्य की भूमियाँ हैं। दर्शन मार्ग की प्राप्ति से पूर्व बोधिसत्व पृथग्जन होता है। सम्भारमार्ग एवं प्रयोगमार्ग पृथग्जनमार्ग हैं और उनकी भूमि अधिमुक्तिचर्याभूमि कहलाती है।
  • महायान गोत्रीय व्यक्ति बोधिचित्त का उत्पाद कर महायान में प्रवेश करता है। पृथग्जन अवस्था में सम्भार मार्ग एवं प्रयोगमार्ग का अभ्यास कर दर्शन मार्ग प्राप्त करते ही आर्य होकर प्रथम प्रमुदिता भूमि को प्राप्त करता है।
  • पारमिताएं भी दस होती हैं, यथा-दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, उपायकौशल, प्रणिधान, बल एवं ज्ञान पारमिता। बोधिसत्त्व प्रत्येक भूमि में सामान्यत: इन सभी पारमिताओं का अभ्यास करता है, किन्तु प्रत्येक भूमि में किसी एक पारमिता का प्राधान्य हुआ करता है। ग्रन्थ में इन भूमियों के वैशिष्ट्य का विस्तृत प्रतिपादन किया गया है-

प्रमुदिता

संबोधि को तथा सत्त्वहित की सिद्धि को आसन्न देखकर इस भूमि में प्रकृष्ट (तीव्र) मोद (हर्ष) उत्पन्न होता है, अत: इसे 'प्रमुदिता' भूमि कहते हैं। इस अवस्था में बोधिसत्त्व पांच भयों से मुक्त हो जाता है, यथा- जीविकाभय, निन्दभय, मृत्युभय, दुर्गतिभय एवं परिषद्शारद्य (लज्जा का) भय। जो बोधिसत्त्व प्रमुदिता भूमि में अधिष्ठित हो जाता है, वह जम्बूद्वीप पर आधिपत्य करने में समर्थ हो जाता है। इस भूमि में बोधिसत्त्व सामान्यत: दान, प्रियवचन, परहितसम्पादन (अर्थचर्या) एवं समानार्थता (सर्वधर्मसमता)- इन कृत्यों का सम्पादन करता है। विशेषत: इस भूमि में उसकी दानपारमिता की पूर्ति होती है।

विमला

दौ:शील्य एवं आभोग आदि सभी मलो से व्यपगत (रहित) होने के कारण यह भूमि 'विमला' कही जाती है। इस भूमि में बोधिसत्त्व शील में प्रतिष्ठित होकर दस प्रकार के कुशलकर्मो का सम्पादन करता है। इस भूमि में चार संग्रह वस्तुओं[1] में प्रियवादिता एवं शीलपारमिता का प्राधान्य होता है।

प्रभाकरी

विशिष्ट (महान) धर्मों का अवभास कराने के कारण यह भूमि 'प्रभाकरी' कहलाती है। इस अवस्था में बोधिसत्त्व सभी संस्कार धर्मों को अनित्य, दु:ख, अनात्म एवं शून्य देखता है। सभी वस्तुएं उत्पन्न होकर विनष्ट हो जाती हैं। वे अतीत अवस्था में संक्रान्त नहीं होतीं, भविष्य में कहीं जाकर स्थित नहीं होतीं तथा वर्तमान में भी कहीं उनका अवस्थान नहीं होता। शरीर दु:खस्कन्धात्मक हैं- ऐसा बोधिसत्त्व अवधारण करता है। उसमें शान्ति, शम, औदार्य एवं प्रियवादिता आदि गुणों का उत्कर्ष होता है। इस भूमि में अवस्थित बोधिसत्त्व इन्द्र के समान बन जाते हैं। इस भूमि में सत्त्वहित चर्या बलवती होती है और शान्तिपरामिता का आधिक्य होता है तथा बोधिसत्व दूसरों में धर्म का अवभास करता है।

अर्चिष्मती

बोधिपाक्षिक प्रज्ञा इस भूमि में क्लेशावरण एवं ज्ञेयावरण का दहन करती है। बोधिपाक्षिक धर्म अर्चिष् (ज्वाला) के समान होते हैं। फलत: बोधिपाक्षिक धर्म और प्रज्ञा से युक्त होने के कारण यह भूमि 'अर्चिष्मती' कहलाती है। बोधिसत्त्व इस भूमि में दस प्रकार के धर्मालोक के साथ अधिरूढ होता है। बोधिपाक्षिक धर्म सैंतीस होते हैं।, यथा-चार स्मृत्युपस्थान, चार प्रधान, चार ऋद्धिपाद, पाँच इन्द्रिय, पाँच बल, सात बोध्यङ्य और आठ आर्यमार्ग (आर्यअष्टाङ्गिक मार्ग) बोधिसत्त्व इन बोधिपाक्षिक धर्मों का इस भूमि में विशेष लाभ करता है। अन्य पारिमताओं की अपेक्षा इस भूमि में वीर्यपारमिता की प्रधानता होती है तथा संग्रह वस्तुओं में समानार्थता अधिक उत्कर्ष को प्राप्त होती है।

सुदुर्जया

बोधिसत्त्व इस भूमि में सत्त्वों का परिपाक और अपनी चित्त की विशेष रूप से रक्षा करता है। ये दोनों कार्य अत्यन्त दुष्कर हैं। इन पर जय प्राप्त करने के कारण यह भूमि 'सुदुर्जया' कहलाती है। बोधिसत्त्व इस भूमि में दस प्रकार की चित्तविशुद्धियों को प्राप्त करता है तथा चतुर्विध आर्यसत्व के यथार्थज्ञान का लाभ करता है। इस स्थिति में बोधिसत्त्व को यह उपलब्धि होती है कि सम्पूर्ण विश्व शून्य है। सभी प्राणियों के प्रति उसमें महाकरुणा का प्रादुर्भाव होता है तथा महामैत्री का आलोक उत्पन्न होता है। वह दान, प्रियवादिता एवं धर्मोपदेश आदि के द्वारा संसार में कल्याण के मार्ग का निर्देश करता है। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा ध्यानपारमिता की प्रधानता होती है।

अभिमुखी

इस भूमि में प्रज्ञा का प्राधान्य होता है। प्रज्ञापारमिता की वजह से संसार और निर्वाण दोनों में प्रतिष्ठित नहीं होने के कारण यह भूमि संसार और निर्वाण दोनों के अभिमुख होती है। इसलिए 'अभिमुखी' कहलाती है। इस भूमि में बोधिसत्व बोध्यङ्गों की निष्पत्ति का विशेष प्रयास करते हैं। इस भूमि में प्रज्ञापारमिता अन्य पारमिताओं की अपेक्षा अधिक प्रधान होती है।

दूरङ्गमा

संबोधि को प्राप्त कराने वाले एकायन मार्ग से अन्वित होने के कारण यह भूमि उपाय और प्रज्ञा के क्षेत्र में दूर तक प्रविष्ट है, क्योंकि बोधिसत्त्व अभ्यास की सीमा को पार कर गया है, इसलिए यह भूमि 'दूरङ्गमा' कहलाती है। इस अवस्था में बोधिसत्त्व शून्यता, अनिमित्त और अप्रणिहित इन त्रिविधि विमोक्ष या समाधियों का लाभ करता है। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा 'उपायकौशल पारमिता' अधिक बलवती होती है।

अचला

नाम से ही स्पष्ट है कि इस भूमि पर अधिरूढ होने पर बोधिसत्त्व की परावृत्ति (पीछे लौटने) की सम्भावना नहीं रहती। इस भूमि में वह अनुत्पत्तिक धर्मक्षान्ति से समन्वित होता है। निमित्ताभोगसंज्ञा और अनिमित्ताभोगसंज्ञा इन दोनों संज्ञाओं से विचलित नहीं होने के कारण यह भूमि 'अचला' कहलाती है। इस भूमि का लाभ करने पर बोधिसत्त्व निर्वाण की भी इच्छा नहीं करते, क्योंकि ऐसा करने पर सभी दु:खी प्राणियों का कल्याण करने की उनकी जो प्रतिज्ञा है, उसके भङ्ग होने की आंशका होती है। वे लोक में ही अवस्थान करते हैं। इनका पूर्व प्रणिधान इस अवस्था में बलवान् होता है। जो बोधिसत्त्व इस भूमि में अवस्थान करते हैं, उनमें आयुर्वशिता, चेतोवशिता, कर्मवशिता आदि दश वशिताएं तथा अशयबल, अध्याशय बल, महाकरुणा आदि दश बल सम्पन्न होते हैं। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा 'प्रणिधान पारमिता' का आधिक्य रहता है।

साधुमती

चार प्रतिसंविद् (विशेष ज्ञान) होती हैं, यथा- धर्मप्रतिसंविद् अर्थप्रतिसंविद्, निरुक्तिप्रतिसंविद् एवं प्रतिभानप्रतिसंविद्। इस भूमि में बोधिसत्व इन चारों प्रतिसंविद् में प्रवीण (=साधु अर्थात् कर्मण्य) हो जाता है, इसलिए यह भूमि 'साधुमती' कहलाती है। धर्मप्रतिसंविद् के द्वारा वह धर्मों के स्वलक्षण को जानता है। अर्थप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों के विभाग को जानता है। निरुक्तिप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों को अविभक्त देशना को जानता है तथा प्रतिभानप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों के अनुप्रबन्ध अर्थात् निरवच्छिन्नता को जानता है। इस अवस्थ् में बोधिसत्त्व कुशल और अकुशलों को निष्पत्ति के प्रकार को ठीक-ठीक जान लेता है। इस भूमि में पारमिताओं में 'बल पारमिता' का प्राधान्य होता है।

धर्ममेघा

धर्म रूपी आकाश विविध समाधि मुख और विविध धारणीमुख रूपी मेघों से इस भूमि में व्याप्त हो जाता है, अत: यह भूमि 'धर्ममेघा' कहलाती है। यह भूमि अभिषेक भूमि आदि नामों से भी परिचित है। इस भूमि में बोधिसत्त्व की 'सर्वज्ञानाभिषेक समाधि' निष्पन्न होती है। बोधिसत्तव जब इस समाधि का लाभ करते हैं तब वे 'महारत्नराजपद्म' नामक आसन पर उपविष्ट दिखलाई पड़ते हैं। वे अज्ञान से उत्पन्न क्लेश रूपी अग्नि का धर्ममेघ के वर्णन से उपशमन करते हैं। अर्थात् क्लेशरूपी अग्नि को बुझा देते हैं, इसलिए इस भूमि का नाम 'धर्ममेघा' है। इस भूमि में उनकी 'ज्ञानपारमिता' अन्य पारमिताओं की अपेक्षा प्राधान्य का लाभ करती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चार संग्रह ये हैं- दान, प्रियवादित्व, अर्थचर्या एवं समानार्थता।

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