महायान साहित्य

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महायानसूत्र

महयानसूत्र अनन्त हैं। उनमें कुछ उपलब्ध हैं, और कुछ मूल रूप में अनुपलब्ध हैं। भोट-भाषा, चीनी भाषा में अनेक सूत्रों के अनुवाद उपलब्ध हैं। कुछ सूत्र अवश्य ऐसे हैं, जिन का महायान बौद्ध परम्परा में अत्यधिक आदर है। ऐसे सूत्रों की संख्या 9 है। इन 9 सूत्रों को 'नव धर्म' भी कहते हैं तथा 'वैपुल्यसूत्र' भी कहते हैं। वे इस प्रकार है-

  1. सद्धर्मपुण्डरीक,
  2. ललितविस्तर,
  3. लंकावतार,
  4. सुवर्णप्रभास,
  5. गण्डव्यूह,
  6. तथागतगुह्यक,
  7. समाधिराज,
  8. दशभूमीश्वर एवं
  9. अष्टसाहसिका आदि
  • प्रज्ञापारमितासूत्र भी इन सूत्रों से अलग एक मह्त्वपूर्ण सूत्र है जिसमें प्रमुखत: भगवान बुद्ध द्वारा गृध्रकूट पर्वत पर द्वितीय धर्मचक्र के काल में उपदिष्ट देशनाएं हैं।

सद्धर्मपुण्डरीक

  • महायान वैपुल्यसूत्रों में यह अन्यतम एवं एक आदृत सूत्र है। 'पुण्डरीक' का अर्थ 'कमल' होता है। 'कमल' पवित्रता और पूर्णता का प्रतीक होता है। जैसे पंक (कीचड़) में उत्पन्न होने पर भी कमल उससे लिप्त नहीं होता, वैसे लोक में उत्पन्न होने पर भी बुद्ध लोक के दोषों से लिप्त नहीं होते। इसी अर्थ में सद्धर्मपुण्डरीक यह ग्रन्थ का सार्थक नाम है।
  • चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत आदि महायानी देशों में इसका बड़ा आदर है और यह सूत्र बहुत पवित्र माना जाता है।
  • चीनी भाषा में इसके छह अनुवाद हुए, जिसमें पहला अनुवाद ई. सन् 223 में हुआ।
  • धर्मरक्ष, कुमारजीव, ज्ञानगुप्त और धर्मगुप्त इन आचार्यों के अनुवाद भी प्राप्त होते हैं।
  • चीन और जापान में आचार्य कुमारजीव- कृत इसका अनुवाद अत्यन्त लोकप्रिय है।
  • ईस्वीय 615 वर्ष में जापान के एक राजपूत्र शी-तोकु-ताय-शि ने इस पर एक टीका लिखी, जो अत्यन्त आदर के साथ पढ़ी जाती है।
  • इस ग्रन्थ पर आचार्य वसुबन्धु ने 'सद्धर्म-पुण्डरीकशास्त्र' नामक टीका लिखी, जिसका बोधिरुचि और रत्नमति ने लगभग 508 ईस्वीय वर्ष में चीनी भाषा में अनुवाद किया था। इसका सम्पादन 1992 में प्रो. एच. कर्न एवं बुनियिउ नंजियों ने किया।
  • इस ग्रन्थ में कुल 27 अध्याय है, जिन्हें 'परिवर्त' कहा गया है। प्रथम निदान परिवर्त में इसमें उपदेश की पृष्ठभूमि और प्रयोजन की चर्चा करते हुए कहा गया है कि यह 'वैपुल्यसूत्रराज' है। इस परिच्छेद का मुख्य प्रतिपाद्य तो भगवान का यह कहना है कि 'तथागत नाना निरुक्ति और निदर्शनों (उदाहरणों) से, विविध उपायों से नाना अधिमुक्ति, रुचि और (बुद्धि की) क्षमता वाले सत्वों को सद्धर्म का प्रकाशन करते हैं। सद्धर्म कत्तई तर्कगोचर नहीं है। तथागत सत्त्वों को तत्त्वज्ञान का सम्यग् अवबोध कराने के लिए ही लोक में उत्पन्न हुआ करते हैं। तथागत यह महान् कृत्य एक ही यान पर आधिष्ठित होकर करते हैं, वह एक यान है 'बुद्धयान' उससे अन्य कोई दूसरा और तीसरा यान नहीं है। वह बुद्धमय ही सर्वज्ञता को प्राप्त कराने वाला है। अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न तीनों कालों के बुद्धों ने बुद्धयान को ही अपनाया है। वे बुद्धयान का ही तीन यानों (श्रावकयान, प्रत्येक बुद्धयान और बोधिसत्त्वयान) के रूप में निर्देश करते हैं। अत: बुद्धयान ही एकमात्र यान है।

एकं हि यानं द्वितीयं न विद्यते
तृतीयं हि नैवास्ति कदापि लोके।[1]

  • द्वितीय उपायकौशल्यं परिवर्त में भगवान् ने शारिपुत्र के लिए व्याकरण किया कि वह अनागत काल में पद्मनाभ नाम के तथागत होंगे और सद्धर्म का प्रकाश करेंगे। शारिपुत्र के बारे में व्याकरण सुनकर जब वहाँ उपस्थित 12 हज़ार श्रावकों को विचिकित्सा उत्पन्न हुई तब उसे हटाते हुए भगवान ने तृतीय औपम्यपरिवर्त में एक उदाहरण देते हुए कहा कि किसी महाधनी पुरुष के कई बच्चे हैं, वे खिलौनों के शौक़ीन हैं। उसके घर में आग लग जाए, उसमें बच्चे घिर जाएं और निकलने का एक ही द्वार हो, तब पिता बच्चों को पुकार कर कहता है- आओ बच्चों, खिलौने ले लो, मेरे पास बहुत खिलौने हैं, जैसे- गोरथ, अश्वरथ, मृगरथ आदि। तब वे बच्चे खिलौन के लोभ में बाहर आ जाते हैं। तब शारिपुत्र, वह पुरुष उन सभी बच्चों को सर्वोत्कृष्ट गोरथ देता है। जो अश्वरथ और मृगरथ आदि हीन हैं, उन्हें नहीं देता। ऐसा क्यों? इसलिए कि वह महाधनी है और उसका कोष (ख़ज़ाना) भरा हुआ है। भगवान कहते हैं कि उसी प्रकार ये सभी मेरे बच्चे हैं, मुझे चाहिए कि इन सबको समान मान कर उन्हें 'महायान' ही दूँ। क्या शारिपुत्र, उस पिता ने तीनों यानों को बताकर एक ही 'महायान' दिया, इसमें क्या उनका मृषावाद है? शारिपुत्र ने कहा नहीं भगवान तथागत महाकारुणिक हैं, वह सभी सत्वों के पिता हैं। वे दु:ख रूपी जलते हुए घर से बाहर लाने के लिए तीनों यानों की देशना करते हैं, किन्तु अन्त में सबकों बुद्धयान की ही देशना देते हैं।
  • व्याकरणपरिवर्त नामक षष्ठ (छठवें) परिच्छेद में श्रावकयान के अनेक स्थविरों के बारे में, जो महायन में प्रविष्ट हो चुके थे, व्याकरण किया गया है। बुद्ध कहते हैं कि महास्थविर महाकाश्यप भविष्य में 'रश्मिप्रभास' तथागत होंगे। स्थविर सुभूति, 'शशिकेतु', महाकात्यायन 'जाम्बूनदप्रभास' तथा महामौदलयायन 'तमालपत्र चन्द्रनगन्ध' नाम के तथागत होंगे। *पञ्चभिक्षुशतव्याकरण परिवर्त में पूर्ण मैत्रायणी पुत्र आदि अनेक भिक्षुओं के बुद्धत्व-प्राप्ति का व्याकरण किया गया है।
  • नवम परिवर्त में आयुष्मान आनन्द और राहुल आदि दो सहस्र श्रावकों के बारे में बुद्धत्व-प्राप्ति का व्याकरण है।
  • उस समय वहाँ महाप्रजापति गौतमी और भिक्षुणी राहुल माता यशोधरा आदि परिषद में दु:खी होकर इसलिए बैठी थीं कि भगवान ने हमारे बारे में बुद्धत्व का व्याकरण क्यों नहीं किया? भगवान् ने उनके चित्त का विचार जानकर कृपापूर्वक उनका भी व्याकरण किया।
  • सद्धर्मपुण्डरीक के इस संक्षिप्त पर्यालोचन से महायान बौद्ध-धर्म का हीनयान से सम्बन्ध स्पष्ट होता है। पालि-ग्रन्थों में दो प्रकार की धर्म देशना है। एक दानकथा, शीलकथा आदि उपाय धर्म देशना हैं ता दूसरी 'सामुक्कंसिका धम्मदेशना है', जिसमें चार आर्यसत्यों की देशना दी जाती है। इस सद्धर्मपुण्डरीक में चार आयसत्यों की देशना तथा सर्वज्ञताज्ञान पर्यवसायी दो देशनाएं हैं। यह सर्वज्ञताज्ञान प्राप्त कराने वाली देशना भगवान ने शारिपुत्र आदि को जो पहले नहीं दीं, यह उनका उपायकौशल्य है। यह द्वितीय देशना ही परमार्थ देशना है। इसमें शारिपुत्र आदि महास्थविरों और महाप्रजापति गौतमी आदि स्थविराओं को बुद्धत्व प्राप्ति का आश्वासन दिया गया है। हीनयान में उपदिष्ट धर्म भी बुद्ध का ही है। उसे एकान्तत: मिथ्या नहीं कहा गया है, किन्तु केवल उपायसत्य है, परमार्थसत्य तो बुद्धयान ही है।
  • सद्धर्मपुण्डरीक में बुद्धयान एवं तथागत की महिमा का वर्णन है, तथापि इस ग्रन्थ के कुछ अध्यायों में अवलोकितेश्वर आदि बोधिसत्त्वों की महिमा का भी पुष्कल वर्णन है। अवलोकितेश्वर बोधिसत्त्व करुणा की मूर्ति हैं। अवलोकितेश्वर ने यद्यपि बोधि की प्राप्ति की है, तथापि जब तक संसार में एक भी सत्त्व दु:खी और बद्ध रहेगा, तब तक निर्वाण प्राप्त नहीं करने का उनका संकल्प है। वे निर्वाण में प्रवेश नहीं करेंगे। वे सदा बोधिसत्व की साधना में निरत रहते हैं। इससे उनकी महिमा कम नहीं होती। बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर के नाम मात्र के उच्चारण में अनेक दु:खों और आपदाओं से रक्षण की शक्ति है। हम बोधिसत्त्वों की श्रद्धा के साथ उपासना का प्रारम्भ इस ग्रन्थ में देखते हैं।

ललितविस्तर

  • वैपुल्यसूत्रों में यह एक अन्यतम और पवित्रतम महायानसूत्र माना जाता है।
  • इसमें सम्पूर्ण बुद्धचरित का वर्णन है।
  • बुद्ध ने पृथ्वी पर जो-जो क्रीड़ा (ललित) की, उनका वर्णन होने के कारण इसे 'ललितविस्तर' कहते हैं। इसे 'महाव्यूह' भी कहा जाता है। इसमें कुल 27 अध्याय हैं, जिन्हें 'परिवर्त' कहा जाता है। तिब्बती भाषा में इसका अनुवाद उपलब्ध है। समग्र मूल ग्रन्थ का सम्पादन डॉ. एस0 लेफमान ने किया था।
  • प्रथम अध्याय में रात्रि के व्यतीत होने पर ईश्वर, महेश्वर, देवपुत्र आदि जेतवन में पधारे और भगवान की पादवन्दना कर कहने लगे-'भगवन्, ललितविस्तर नामक धर्मपर्याय का व्याकरण करें। भगवान का तुषितलोक में निवास, गर्भावक्रान्ति, जन्म, कौमार्यचर्या, सर्व मारमण्डल का विध्वंसन इत्यादि का इस ग्रंथ में वर्णन है। पूर्व के तथागतों ने भी इस ग्रंथ का व्याकरण किया था।' भगवान ने देवपुत्रों की प्रार्थना स्वीकार की। तदनन्तर अविदूर निदान अर्थात तुषितलोक से च्युति से लेकर सम्यग ज्ञान की प्राप्ति तक की कथा से प्रारम्भ कर समग्र बुद्धचरित का वर्णन सुनाने लगे।
  • बोधिसत्त्व ने क्षत्रिय कुल में जन्म लेने का निर्णय किया।
  • भगवान ने बताया कि बोधिसत्त्व शुद्धोदन की महिषी मायादेवी के गर्भ में उत्पन्न होंगे। वही बोधिसत्त्व के लिए उपयुक्त माता है। जम्बूद्वीप में कोई दूसरी स्त्री नहीं है, जो बोधिसत्त्व के तुल्य महापुरुष का गर्भ धारण कर सके। बोधिसत्त्व ने महानाग अर्थात कुञ्जर के रूप में गर्भावक्रान्ति की।
  • मायादेवी पति की आज्ञा से लुम्बिनी वन गईं, जहाँ बोधिसत्त्व का जन्म हुआ। उसी समय पृथ्वी को भेदकर महापद्म उत्पन्न हुआ। नन्द, उपनन्द आदि नागराजाओं ने शीत और उष्ण जल की धारा से बोधिसत्त्व को स्नान कराया। बोधिसत्त्व ने महापद्म पर बैठकर चारों दिशाओं का अवलोकन किया। बोधिसत्त्व ने दिव्यचक्षु से समस्त, लोकधातु को देखा और जाना कि शील, समाधि और प्रज्ञा में मेरे तुल्य कोई अन्य सत्त्व नहीं है। पूर्वाभिमुख हो वे सात पग चले। जहाँ-जहाँ बोधिसत्त्व पैर रखते थे, वहाँ-वहाँ कमल प्रादुर्भूत हो जाता था। इसी तरह दक्षिण और पश्चिम की दिशा में चले। सातवें क़दम पर सिंह की भांति निनाद किया और कहा कि मैं लोक में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हूँ। यह मेरा अन्तिम जन्म है। मैं जाति, जरा और मरण दु:ख का अन्त करुँगा। उत्तराभिमुख हो बोधिसत्त्व ने कहा कि मैं सभी प्राणियों में अनुत्तर हूँ नीचे की ओर सात पग रखकर कहा कि मार को सेना सहित नष्ट करुँगा और नारकीय सत्त्वों पर महाधर्ममेघ की वृष्टि कर निरयाग्नि को शान्त करूँगा। ऊपर की ओर भी सात पग रखे और अन्तरिक्ष की ओर देखा।
  • सातवें परिवर्त में बुद्ध और आनन्द का संवाद है, जिसका सारांश है कि कुछ अभिमानी भिक्षु बोधिसत्त्व की परिशुद्ध गर्भावक्रान्ति पर विश्वास नहीं करेंगे, जिससे उनका घोर अनिष्ट होगा तथा जो इस सूत्रान्त को सुनकर तथागत में श्रद्धा का उत्पाद करेंगे, अनागत बुद्ध भी उनकी अभिलाषा पूर्ण करेंगे। जो मेरी शरण में आते हैं, वे मेरे मित्र हैं। मैं उनका कल्याण साधित करूँगा। इसलिए हे आनन्द, श्रद्धा के उत्पाद के लिए यत्न करना चाहिए।
  • बुद्ध की गर्भावक्रान्ति एवं जन्म की जो कथा ललितविस्तर में मिलती है, वह पालि ग्रंथों में वर्णित कथा से कहीं-कहीं पर भिन्न भी है। पालि ग्रंथों में विशेषत: संयुक्त निकाय, दीर्घ निकाय आदि में यद्यपि बुद्ध के अनेक अद्भुत धर्मों का वर्णन है, तथापि वे अद्भुत धर्मों से समन्वागत होते हुए भी अन्य मनुष्यों के समान जरा, मरण आदि दु:ख एवं दौर्मनस्य के अधीन थे। *पालि ग्रन्थों के अनुसार बुद्ध लोकोत्तर केवल इसी अर्थ में है कि उन्होंने मोक्ष के मार्ग का अन्वेषण किया था तथा उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करने से दूसरे लोग भी निर्वाण और अर्हप्व पद प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु महासांघिक लोकोत्तरवादी निकाय के लोग इसी अर्थ में लोकोत्तर शब्द का प्रयोग नहीं करते। इसीलिए लोकोत्तरता को लेकर उनमें वाद-विवाद था।
  • आगे का ललितविस्तर का वर्णन महावग्ग की कथा से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। जहाँ समानता है, वहाँ भी ललितविस्तर में कुछ बातें ऐसी हैं, जो अन्यत्र नहीं पाई जातीं। उदाहरणार्थ शाक्यों के कहने से जब शुद्धोदन कुमार को अपने देवकुल में ले गये तो सब प्रतिमाएं अपने-अपने स्वरूप में आकर कुमार के पैरों पर गिर पड़ी। इसी तरह कुमार जब शिक्षा के लिए लिपि शाला में ले जाये गये तो आचार्य, कुमार के तेज़ को सहन नहीं कर पाये और मूर्च्छित होकर गिर पड़े। तब बोधिसत्व ने आचार्य से कहा- आप मुझे किस लिपि की शिक्षा देंगे। तब कुमार ने ब्राह्मी, खरोष्ठी, पुष्करसारि, अंग, बंग, मगध आदि 64 लिपियाँ गिनाईं। आचार्य ने कुमार का कौशन देखकर उनका अभिवादन किया।
  • बुद्ध के जीवन की प्रधान घटनाएं हैं- निमित्त दर्शन, जिनसे बुद्ध ने जरा, व्याधि, मृत्यु एवं प्रव्रज्या का ज्ञान प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त अभिनिष्क्रमण, बिम्बिसार के समीप गमन, दुष्करचर्या, मारधर्षण, अभिसंबोधि एवं धर्मचक्रप्रवर्तन आदि घटनाएं हैं। जहाँ तक इन घटनाओं का सम्बन्ध है, ललितविस्तर का वर्णन बहुत भिन्न नहीं है। किन्तु ललितविस्तर में कुछ अतिशयताएँ अवश्य हैं। 27वें परिवर्त में ग्रन्थ के माहात्म्य का वर्णन है।
  • यह निश्चित है कि जिन शिल्पियों ने जावा में स्थित बोरोबुदूर के मन्दिर को प्रतिमाओं से अलंकृत किया था, वे ललितविस्तर के किसी न किसी पाठ से अवश्य परिचित थे। शिल्प में बुद्ध का चरित इस प्रकार उत्कीर्ण है, मानों शिल्पी ललितविस्तर को हाथ में लेकर इस कार्य में प्रवृत्त हुए थे। जिन शिल्पियों ने उत्तर भारत में स्तूप आदि कलात्मक वस्तुओं को बुद्धचरित के दृश्यों से अलंकृत किया था, वे भी ललितविस्तर में वर्णित बुद्ध कथा से परिचित थे।

सुवर्णप्रभास

  • महायान सूत्र साहित्य में सुवर्णप्रभास की महत्त्वपूर्ण सूत्रों में गणना की जाती है। चीन और जापान में इसके प्रति अतिशय श्रद्धा है। फलस्वरूप धर्मरक्ष ने 412-426 ईस्वी में, परमार्थ ने 548 ईस्वी में, यशोगुप्त ने 561-577 ईस्वी में, पाओक्की ने 597 ईस्वी में तथा इत्सिंग ने 703 ईस्वी में इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया।
  • इसी तरह जापानी भाषा में भी तीन या चार अनुवाद हुए। तिब्बती भाषा में भी इसका अनुवाद उपलब्ध है। साथ ही उइगर (Uigur) और खोतन में भी इसका अनुवाद हुआ। इन अनुवादों से यह सिद्ध होता है कि इस सूत्र का आदर एवं लोकप्रियता व्यापक क्षेत्र में थी। इस सूत्र में दर्शन, नीति, तन्त्र एवं आचार का उपाख्यानों द्वारा सुस्पष्ट निरूपण किया गया है। इस तरह बौद्धों के महायान सिद्धान्तों का विस्तृत प्रतिपादन है। इसमें कुल 21 परिवर्त हैं।
  • प्रथम परिवर्त में सुवर्णप्रभास के श्रवण का माहात्म्य वर्णित है।
  • द्वितीय परिवर्त में जिस विषय की आलोचना की गई है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। बुद्ध ने दीर्षायु होने के दो कारण बताए हैं। प्रथम प्राणिवध से विरत होना तथा द्वितीय प्राणियों के अनुकूल भोजन प्रदान करना। बोधिसत्त्व रुचिरकेतु को सन्देह हुआ कि भगवान ने दीर्घायुष्कता के दोनों साधनों का आचरण किया, फिर भी अस्सी वर्ष में ही उनकी आयु समाप्त हो गई। अत: उनके वचन का कोई प्रामाण्य नहीं है।
  • इस शंका का समाधान करने के लिए चार बुद्ध अक्षोभ्य, रत्नकेतु, अमितायु और दुन्दुभिस्वर की कथा की तथा लिच्छिवि कुमार ब्राह्मण कोण्डिन्य की कथा की अवतारणा की गई। आशय यह है कि बुद्ध का शरीर पार्थिव नहीं है, अत: उसमें सर्षप (सरसों) के बराबर भी धातु नहीं है तथा उनका शरीर धर्ममय एवं नित्य है। अत: पूर्वोक्त शंका का कोई अवसर नहीं है।

तथा हि: यदा शशविषाणेन नि:श्रेणी सुकृता भवेत्।
स्वर्गस्यारोहणार्थाय तदा धातुर्भविष्यति॥
अनस्थिरुधिरे काये कुतो धातुर्भविष्यति।[2]
अपि च, न बुद्ध: परिनिर्वाति न धर्म: परिहीयते।
सत्त्वानां परिपाकाय परिनिर्वाणं निदर्श्यते॥
अचिन्त्यो भगवान् बुद्धो नित्यकायस्तथागत:।
देशेति विविधान व्यूहान् सत्त्वानां हितकारणात्।[3]

  • तृतीय परिवर्त में रुचिरकेतु बोधिसत्त्व स्वप्न में एक ब्राह्मण को दुन्दुभि बजाते देखता है और दुन्दुभि से धर्म गाथाएं निकल रही हैं। जागने पर भी बोधिसत्त्व को गाथाएं याद रहती हैं और वह उन्हें भगवान के सामने निवेदित करता है।
  • चतुर्थ परिवर्त में महायान के मौलिक सिद्धान्तों का गाथाओं द्वारा उपपादन किया गया है।
  • पञ्चम परिवर्त में बुद्ध के स्तव हैं, जिनका सामूहिक नाम कमलाकर है। इनमें बुद्ध की महिमा का वर्णन है।
  • षष्ठ परिवर्त में वस्तुमात्र की शून्यता के परिशीलन का निर्देश है।
  • सप्तम में सुवर्णप्रभास के माहात्म्य का वर्णन है।
  • अष्टम परिवर्त में सरस्वती देवी बुद्ध के सम्मुख आविर्भूत हुई और सुवर्णप्रभास में प्रतिपादित धर्म का व्याख्यान करने वाले धर्मभाणक को बुद्ध की प्रतिभा से सम्पन्न करने की प्रतिज्ञा की। *नवम परिवर्त में महादेवी बुद्ध के सम्मुख प्रकट हुईं और घोषणा की कि मैं व्यावहारिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति से धर्मभाणक को सम्पन्न करूँगी।
  • दशम परिवर्त में विभिन्न तथागतों एवं बोधिसत्त्वों के नामों का संकीर्तन किया गया है।
  • एकादश परिवर्त में दृढ़ा नामक पृथ्वी देवी भगवान के सम्मख उपस्थित हुईं और कहा कि धर्मभाणक के लिए जो उपवेशन-पीठ हे, वह यथासम्भव सुखप्रदायक होगा। साथ ही आग्रह किया कि धर्मभाणक के धर्मामृत से अपने को तृप्त करूँगी।
  • द्वादश परिवर्त में यक्ष सेनापति अपने अट्ठाइस सेनापतियों के साथ भगवान के पास आये और सुवर्णप्रभास के प्रचार के लिए अपने सहयोग का वचन दिया। साथ ही धर्मभाणकों की रक्षा का आश्वासन भी दिया।
  • त्रयोदश परिवर्त में राजशास्त्र सम्बन्धी विषयों का प्रतिपादन है।
  • चतुर्दश परिवर्त में सुसम्भव नामक राजा का वृत्तान्त है।
  • पंचदश परिवर्त में यक्षों और अन्य देवताओं ने सुवर्णप्रभास के श्रोताओं की रक्षा की प्रतिज्ञा की।
  • षोडश परिवर्त में भगवान ने दश सहस्र देवपुत्रों के बुद्धत्व लाभ की भविष्यवाणी की।
  • सप्तदश परिवर्त में व्याधियों के उपशमन करने का विवरण दिया गया है।
  • अष्टादश परिवर्त में जलवाहन द्वारा मत्स्यों को बौद्धधर्म में प्रवेश कराने के चर्चा है।
  • उन्नीसवें परिवर्त में भगवान ने बोधिसत्त्व अवस्था में एक व्याघ्री की भूख मिटाने के लिए अपने शरीर का परित्याग किया था, उसकी चर्चा है।
  • बीसवें परिवर्त में सुवर्णरत्नाकरछत्रकूट नामक तथागत की बोधिसत्त्वों द्वारा की गई गाथामय स्तुति प्रतिपादित है।
  • इक्कीसवें परिवर्त में बोधिसत्त्वसमुच्चया नामक कुल-देवता द्वारा व्यक्त सर्वशून्यताविषयक गाथाएं उल्लिखित हैं।

तथागतगुह्यक

  • प्रारम्भिक तन्त्र महायानसूत्रों से बहुत मिलते-जुलते हैं। उदाहरणार्थ मञ्जुश्रीमूलकल्प अवतंसक के अन्तर्गत 'महावैपुल्यमहायानसूत्र', के रूप में प्रसिद्ध है।
  • विद्वानों की राय है कि तथागतगुह्य, गुह्यसमाजतन्त्र तथा अष्टादशपटल तीनों एक ही हैं। अर्थात ग्रन्थ में जो तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण मिलते हैं, वे गुह्यसमाज से भिन्न हैं। अत: तथागतगुह्यसूत्र एवं गुह्यसमाजतन्त्र का अभेद नहीं है अर्थात भिन्न-भिन्न हैं।
  • 'अष्टादश' इस नाम से यह प्रकट होता है कि इस ग्रन्थ में अठारह अध्याय या परिच्छेद हैं।
  • तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार बोधिसत्त्व प्रणिधान करता है कि श्मशान में स्थित उसके मृत शरीर का तिर्यग योनि में उत्पन्न प्राणी यथेच्छ उपभोग करें और इस परिभोग की वजह से वे स्वर्ग से उत्पन्न हो। इतना ही नहीं, वह उनके परिनिर्वाण का भी हेतु हो।[4]
  • पुरश्च, तदनुसार बोधिसत्त्व धर्मकाय से प्रभावित होता है, इसलिए वह अपने दर्शन, श्रवण और स्पर्श से भी सत्त्वों का हित करता है।[5]
  • उसी सूत्र में अन्यत्र उल्लिखित है कि जैसे शान्तमति, जो वृक्ष मूल से उखड़ गया हो, उसकी सभी शाखाएं डालियां और पत्ते सूख जाते हैं, उसी प्रकार सत्कायदृष्टि का नाश हो जाने से बोधिसत्त्व के सभी क्लेश शान्त हो जाते हैं।[6]
  • अपि च, महायान में प्रस्थित बोधिसत्त्व के ये चार धर्म विशेष गमन के और अपरिहाणि के हेतु होते हैं। कौन चार? श्रद्धा, गौरव, निर्मानता (अनहंकार) एवं वीर्य।[7]
  • पुनश्च, बोधिसत्तत्त्व सर्वदा अप्रमादी होता है और अप्रमाद का अर्थ है 'इन्द्रियसंवर'। वह न निमित्त का ग्रहण करता है और न अनुव्यजंन का। वह सभी धर्मों के आस्वाद, आदीनव और नि:सरण को ठीक-ठीक जानता है।[8]
  • अप्रमाद अपने चित्त का दमन करता है, दूसरों के चित्तों की रक्षा, क्लेश में अरति एवं धर्म में रति है।[9]
  • योनिश: प्रयुक्त बोधिसत्त्व 'जो है' उसे अस्ति के रूप में और 'जो नहीं है' उसे नास्ति के रूप में जानता है।[10]
  • तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार जिस रात्रि में तथागत ने अभिसम्बोधि प्राप्त की तथा जिस रात्रि में परिनिर्वाण प्राप्त करेंगे, इस बीच में तथागत ने एक भी अक्षर न कहा और न कहेंगे। प्रश्न है कि तब समस्त सुर, असुर, मनुष्य, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, नाग आदि विनेयजनों को उन्होंने कैसे विविध प्रकार की देशना की? मात्र एक क्षण की ध्वनि के उच्चारण से वह विविधजनों के मानसिक अन्धकार का नाश करने वाली, उनके बुद्धिरूपी कमल को विकसित करने वाली, जरा, मरण आदि रूपी नदी और समुद्र का शोषण करने वाली तथा प्रलयकालानल को लज्जित करने वाली शरत्कालिक अरुण-प्रभा के समान थी। वस्तुत: जैसे तूरी नामक वाद्ययन्त्र वायु के झोकों से बजती है, वहां कोई बजाने वाला नहीं होता, फिर भी शब्द निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वों की वासना से प्रेरित होकर बुद्ध की वाणी भी नि:सृत होती है, जबकि उनमें किसी भी प्रकार की कल्पना नहीं होती।[11]
  • नाना आशय वाले सत्त्व समझते हैं कि तथागत के मुख से वाणी निकल रही है। उन्हें ऐसा लगता है, मानों भगवान हमें धर्म की देशना कर रहे हैं और हम देशना सुन रहे हैं, किन्तु तथागत में कोई विकल्प नहीं होता, क्योंकि उन्होंने समस्त विकल्प जालों का प्रहाण कर दिया है।[12]
  • इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शान्तिदेव के शिक्षासमुच्चय और चन्द्रकीर्ति की प्रसन्नपदा मूल माध्यमिक कारिका टीका में अनेक स्थलों पर तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण उपलब्ध हैं, जिनका हमने भी यथासम्भव पादटिप्पणी में उल्लेख किया है। यदि ये उद्धरण प्रकाशित वर्तमान गुह्यसमाज में उपलब्ध नहीं होते है- तो समझा जाना चाहिए कि तथागतगुह्यसूत्र और गुह्यसमाज अभिन्न नहीं है, जैसे कि कुछ विद्वानों की धारणा है। आचार्य शान्तिदेव और चन्द्रकीर्ति के काल में ये दोनों अवश्य भिन्न-भिन्न थे।

दशभूमीश्वर

  • गण्डव्यूह की भाँति यह सूत्र भी अवतंसक का एक भाग माना जाता है। इसमें बोधिसत्त्व की दस आर्यभूमियों का विस्तृत वर्णन है, जिन भूमियों पर क्रमश: अधिरोहण करते हुए बुद्धत्व अवस्था तक साधक पहुँचता है। 'महावस्तु' में इस सिद्धान्त का पूर्वरूप उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में उक्त सिद्धान्त का परिपाक हुआ है।
  • महायान में इस सूत्र का अत्युच्च स्थान है। इसे दशभूमिक, दशभूमीश्वर एवं दशभूमक नाम से भी जाना जाता है।
  • आर्य असंग ने 'दशभूमक' शब्द का ही प्रयोग किया है। इसकी लोकप्रियता एवं प्रामाणिकता में यह प्रमाण है कि अत्यन्त प्राचीनकाल में ही इसके तिब्बती, चीनी, जापानी एव मंगोलियन अनुवाद हो गये थे।
  • श्री धर्मरक्ष ने इसका चीनी अनुवाद ई. सन् 297 में कर दिया था। इसके प्रतिपादन की शैली में लम्बे-लम्बे समस्त पद एवं रूपकों की भरमार है।
  • मिथिला विद्यापीठ ने डॉ. जोनेस राठर के संस्करण के आधार पर इसका पुन: संस्करण किया है।
  • ज्ञात है कि महायान में दस आर्यभूमियाँ मानी जाती हैं, यथा- प्रमुदिता, विमला, प्रभाकरी, अर्चिष्मती, सुदर्जया, अभिमुखी, दूरङ्गमा, अचला, साधुमती एवं धर्ममेधा।
  • आर्यावस्था से पूर्व जो पृथग्जन भूमि होती है, उसे 'अधिमुक्तिचर्याभूमि' कहते हैं। महायान में पाँच मार्ग होते हैं- सम्भारमार्ग, प्रयोगमार्ग, दर्शनमार्ग, भावनामार्ग एवं अशैक्षमार्ग। दर्शनमार्ग प्राप्त होने पर बोधिसत्त्व 'आर्य' कहलाने लगता है। उपर्युक्त दस भूमियाँ आर्य की भूमियाँ हैं। दर्शन मार्ग की प्राप्ति से पूर्व बोधिसत्व पृथग्जन होता है। सम्भारमार्ग एवं प्रयोगमार्ग पृथग्जनमार्ग हैं और उनकी भूमि अधिमुक्तिचर्याभूमि कहलाती है।
  • महायान गोत्रीय व्यक्ति बोधिचित्त का उत्पाद कर महायान में प्रवेश करता है। पृथग्जन अवस्था में सम्भार मार्ग एवं प्रयोगमार्ग का अभ्यास कर दर्शन मार्ग प्राप्त करते ही आर्य होकर प्रथम प्रमुदिता भूमि को प्राप्त करता है।
  • पारमिताएं भी दस होती हैं, यथा-दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, उपायकौशल, प्रणिधान, बल एवं ज्ञान पारमिता। बोधिसत्त्व प्रत्येक भूमि में सामान्यत: इन सभी पारमिताओं का अभ्यास करता है, किन्तु प्रत्येक भूमि में किसी एक पारमिता का प्राधान्य हुआ करता है। ग्रन्थ में इन भूमियों के वैशिष्ट्य का विस्तृत प्रतिपादन किया गया है-

प्रमुदिता

संबोधि को तथा सत्त्वहित की सिद्धि को आसन्न देखकर इस भूमि में प्रकृष्ट (तीव्र) मोद (हर्ष) उत्पन्न होता है, अत: इसे 'प्रमुदिता' भूमि कहते हैं। इस अवस्था में बोधिसत्त्व पांच भयों से मुक्त हो जाता है, यथा- जीविकाभय, निन्दभय, मृत्युभय, दुर्गतिभय एवं परिषद्शारद्य (लज्जा का) भय। जो बोधिसत्त्व प्रमुदिता भूमि में अधिष्ठित हो जाता है, वह जम्बूद्वीप पर आधिपत्य करने में समर्थ हो जाता है। इस भूमि में बोधिसत्त्व सामान्यत: दान, प्रियवचन, परहितसम्पादन (अर्थचर्या) एवं समानार्थता (सर्वधर्मसमता)- इन कृत्यों का सम्पादन करता है। विशेषत: इस भूमि में उसकी दानपारमिता की पूर्ति होती है।

विमला

दौ:शील्य एवं आभोग आदि सभी मलो से व्यपगत (रहित) होने के कारण यह भूमि 'विमला' कही जाती है। इस भूमि में बोधिसत्त्व शील में प्रतिष्ठित होकर दस प्रकार के कुशलकर्मो का सम्पादन करता है। इस भूमि में चार संग्रह वस्तुओं[13] में प्रियवादिता एवं शीलपारमिता का प्राधान्य होता है।

प्रभाकरी

विशिष्ट (महान) धर्मों का अवभास कराने के कारण यह भूमि 'प्रभाकरी' कहलाती है। इस अवस्था में बोधिसत्त्व सभी संस्कार धर्मों को अनित्य, दु:ख, अनात्म एवं शून्य देखता है। सभी वस्तुएं उत्पन्न होकर विनष्ट हो जाती हैं। वे अतीत अवस्था में संक्रान्त नहीं होतीं, भविष्य में कहीं जाकर स्थित नहीं होतीं तथा वर्तमान में भी कहीं उनका अवस्थान नहीं होता। शरीर दु:खस्कन्धात्मक हैं- ऐसा बोधिसत्त्व अवधारण करता है। उसमें शान्ति, शम, औदार्य एवं प्रियवादिता आदि गुणों का उत्कर्ष होता है। इस भूमि में अवस्थित बोधिसत्त्व इन्द्र के समान बन जाते हैं। इस भूमि में सत्त्वहित चर्या बलवती होती है और शान्तिपरामिता का आधिक्य होता है तथा बोधिसत्व दूसरों में धर्म का अवभास करता है।

अर्चिष्मती

बोधिपाक्षिक प्रज्ञा इस भूमि में क्लेशावरण एवं ज्ञेयावरण का दहन करती है। बोधिपाक्षिक धर्म अर्चिष् (ज्वाला) के समान होते हैं। फलत: बोधिपाक्षिक धर्म और प्रज्ञा से युक्त होने के कारण यह भूमि 'अर्चिष्मती' कहलाती है। बोधिसत्त्व इस भूमि में दस प्रकार के धर्मालोक के साथ अधिरूढ होता है। बोधिपाक्षिक धर्म सैंतीस होते हैं।, यथा-चार स्मृत्युपस्थान, चार प्रधान, चार ऋद्धिपाद, पाँच इन्द्रिय, पाँच बल, सात बोध्यङ्य और आठ आर्यमार्ग (आर्यअष्टाङ्गिक मार्ग) बोधिसत्त्व इन बोधिपाक्षिक धर्मों का इस भूमि में विशेष लाभ करता है। अन्य पारिमताओं की अपेक्षा इस भूमि में वीर्यपारमिता की प्रधानता होती है तथा संग्रह वस्तुओं में समानार्थता अधिक उत्कर्ष को प्राप्त होती है।

सुदुर्जया

बोधिसत्त्व इस भूमि में सत्त्वों का परिपाक और अपनी चित्त की विशेष रूप से रक्षा करता है। ये दोनों कार्य अत्यन्त दुष्कर हैं। इन पर जय प्राप्त करने के कारण यह भूमि 'सुदुर्जया' कहलाती है। बोधिसत्त्व इस भूमि में दस प्रकार की चित्तविशुद्धियों को प्राप्त करता है तथा चतुर्विध आर्यसत्व के यथार्थज्ञान का लाभ करता है। इस स्थिति में बोधिसत्त्व को यह उपलब्धि होती है कि सम्पूर्ण विश्व शून्य है। सभी प्राणियों के प्रति उसमें महाकरुणा का प्रादुर्भाव होता है तथा महामैत्री का आलोक उत्पन्न होता है। वह दान, प्रियवादिता एवं धर्मोपदेश आदि के द्वारा संसार में कल्याण के मार्ग का निर्देश करता है। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा ध्यानपारमिता की प्रधानता होती है।

अभिमुखी

इस भूमि में प्रज्ञा का प्राधान्य होता है। प्रज्ञापारमिता की वजह से संसार और निर्वाण दोनों में प्रतिष्ठित नहीं होने के कारण यह भूमि संसार और निर्वाण दोनों के अभिमुख होती है। इसलिए 'अभिमुखी' कहलाती है। इस भूमि में बोधिसत्व बोध्यङ्गों की निष्पत्ति का विशेष प्रयास करते हैं। इस भूमि में प्रज्ञापारमिता अन्य पारमिताओं की अपेक्षा अधिक प्रधान होती है।

दूरङ्गमा

संबोधि को प्राप्त कराने वाले एकायन मार्ग से अन्वित होने के कारण यह भूमि उपाय और प्रज्ञा के क्षेत्र में दूर तक प्रविष्ट है, क्योंकि बोधिसत्त्व अभ्यास की सीमा को पार कर गया है, इसलिए यह भूमि 'दूरङ्गमा' कहलाती है। इस अवस्था में बोधिसत्त्व शून्यता, अनिमित्त और अप्रणिहित इन त्रिविधि विमोक्ष या समाधियों का लाभ करता है। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा 'उपायकौशल पारमिता' अधिक बलवती होती है।

अचला

नाम से ही स्पष्ट है कि इस भूमि पर अधिरूढ होने पर बोधिसत्त्व की परावृत्ति (पीछे लौटने) की सम्भावना नहीं रहती। इस भूमि में वह अनुत्पत्तिक धर्मक्षान्ति से समन्वित होता है। निमित्ताभोगसंज्ञा और अनिमित्ताभोगसंज्ञा इन दोनों संज्ञाओं से विचलित नहीं होने के कारण यह भूमि 'अचला' कहलाती है। इस भूमि का लाभ करने पर बोधिसत्त्व निर्वाण की भी इच्छा नहीं करते, क्योंकि ऐसा करने पर सभी दु:खी प्राणियों का कल्याण करने की उनकी जो प्रतिज्ञा है, उसके भङ्ग होने की आंशका होती है। वे लोक में ही अवस्थान करते हैं। इनका पूर्व प्रणिधान इस अवस्था में बलवान् होता है। जो बोधिसत्त्व इस भूमि में अवस्थान करते हैं, उनमें आयुर्वशिता, चेतोवशिता, कर्मवशिता आदि दश वशिताएं तथा अशयबल, अध्याशय बल, महाकरुणा आदि दश बल सम्पन्न होते हैं। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा 'प्रणिधान पारमिता' का आधिक्य रहता है।

साधुमती

चार प्रतिसंविद् (विशेष ज्ञान) होती हैं, यथा- धर्मप्रतिसंविद् अर्थप्रतिसंविद्, निरुक्तिप्रतिसंविद् एवं प्रतिभानप्रतिसंविद्। इस भूमि में बोधिसत्व इन चारों प्रतिसंविद् में प्रवीण (=साधु अर्थात कर्मण्य) हो जाता है, इसलिए यह भूमि 'साधुमती' कहलाती है। धर्मप्रतिसंविद् के द्वारा वह धर्मों के स्वलक्षण को जानता है। अर्थप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों के विभाग को जानता है। निरुक्तिप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों को अविभक्त देशना को जानता है तथा प्रतिभानप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों के अनुप्रबन्ध अर्थात् निरवच्छिन्नता को जानता है। इस अवस्थ् में बोधिसत्त्व कुशल और अकुशलों को निष्पत्ति के प्रकार को ठीक-ठीक जान लेता है। इस भूमि में पारमिताओं में 'बल पारमिता' का प्राधान्य होता है।

धर्ममेघा

धर्म रूपी आकाश विविध समाधि मुख और विविध धारणीमुख रूपी मेघों से इस भूमि में व्याप्त हो जाता है, अत: यह भूमि 'धर्ममेघा' कहलाती है। यह भूमि अभिषेक भूमि आदि नामों से भी परिचित है। इस भूमि में बोधिसत्त्व की 'सर्वज्ञानाभिषेक समाधि' निष्पन्न होती है। बोधिसत्तव जब इस समाधि का लाभ करते हैं तब वे 'महारत्नराजपद्म' नामक आसन पर उपविष्ट दिखलाई पड़ते हैं। वे अज्ञान से उत्पन्न क्लेश रूपी अग्नि का धर्ममेघ के वर्णन से उपशमन करते हैं। अर्थात् क्लेशरूपी अग्नि को बुझा देते हैं, इसलिए इस भूमि का नाम 'धर्ममेघा' है। इस भूमि में उनकी 'ज्ञानपारमिता' अन्य पारमिताओं की अपेक्षा प्राधान्य का लाभ करती है।

प्रज्ञापारमितासूत्र

  • प्रज्ञापारमितासूत्र प्रमुखत: भगवान बुद्ध द्वारा गृध्रकूट पर्वत पर द्वितीय धर्मचक्र के काल में उपदिष्ट देशनाएं हैं। कालान्तर में ये सूत्र जम्बूद्वीप में विलुप्त हो गये।
  • आचार्य नागार्जुन ने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त किया और वे वहाँ से पुन: जम्बूद्वीप लाए। प्रज्ञापारमितासूत्रों के दो पक्ष हैं।
  1. एक दर्शनपक्ष है, जिसे प्रज्ञापक्ष या शून्यतापक्ष भी कहा जाता है।
  2. दूसरा है साधनापक्ष, जिसे उपायपक्ष या करुणापक्ष भी कहा जाता है।
  • नागार्जुन ने प्रज्ञापारमितासूत्रों के दर्शन पक्ष को अपनी कृतियों द्वारा प्रकाशित किया। प्रज्ञापारमितासूत्रों के आधार पर उन्होंने प्रमुखत: मूलमाध्यमिककारिका आदि ग्रन्थों में शून्यता-दर्शन को युक्तियों द्वारा प्रतिष्ठापित किया, जिसे आगे चलकर उनके अनुयायियों ने और अधिक विकसित किया। प्रज्ञापारमितासूत्रों के साधनापक्ष को आर्य असंग ने अपनी कृतियों द्वारा प्रकाशित किया। तदनन्तर उनके अनुयायियों ने उसे और अधिक पल्लवित एवं पुष्पित किया। शून्यता, अनुत्पाद, अनिरोध आदि पर्यायवाची शब्द हैं। सभी धर्मों की नि:स्वभावता प्रज्ञापारमितासूत्रों का मुख्य प्रतिपाद्य है। प्रज्ञापारमितासूत्रों की संख्या अत्यधिक है। शतसाहस्रिका (एक लाख श्लोकात्मक) प्रज्ञापारमिता से लेकर एकाक्षरी प्रज्ञापारमिता तक ये सूत्र पाये जाते हैं। महायानी वैपुल्यसूत्रों के दो प्रकार हैं। एक प्रकार के वे सूत्र हैं, जिनमें बुद्ध, बोधिसत्त्व, बुद्धयान आदि की महत्ता प्रदर्शित की गई है। ललितविस्तर, सद्धर्मपुण्डरीक आदि सूत्र इसी प्रकार के हैं। दूसरे प्रकार में वे सूत्र आते हैं, जिनमें शून्यता और प्रज्ञा की महत्ता प्रदर्शित है, ये सूत्र प्रज्ञापारमितासूत्र ही हैं। शून्यता और महाकरुणा- इन दोनों का समन्वय प्रज्ञापारमितासूत्रों में दृष्टिगोचर होता है।
  • महायान साहित्य में प्रज्ञापारमितासूत्रों का अत्यधिक महत्त्व है। अन्य सूत्रों में अधिकतर बुद्ध और बोधिसत्त्वों का संवाद दिखलाई देता है, जबकि प्रज्ञापारमितासूत्रों में बुद्ध सुभूति नामक स्थविर से प्रश्न करते हैं। सुभूति और शारिपुत्र इन दो स्थविरों का शून्यता के बारे में संवाद ही तात्त्विक एवं गम्भीर है। इन सूत्रों की प्राचीनता इसी से प्रमाणित है कि ई. सन् 179 में प्रज्ञापारमितासूत्र का चीनी भाषा में रूपान्तर हो गया था। प्राय: सभी बौद्ध धर्मानुयायी देशों में इन सूत्रों का अत्यधिक समादर है।
  • नेपाली परम्परा के अनुसार मूल प्रज्ञापारमिता महायान सूत्र सवा लाख श्लोकात्मक है। पुन: एक लक्षात्मक, पच्चीस हज़ार, दस हज़ार और आठ हज़ार श्लोकात्मक प्रज्ञापारमितासूत्र भी प्रकाशित हैं। चीनी और तिब्बती परम्परा में इसके और भी अनेक प्रकार हैं।
  • संस्कृत में निम्नलिखित सूत्र अंशत: या पूर्णरूपेण उपलब्ध होते हैं-
  1. शतसाहस्रिकाप्रज्ञापारमिता,
  2. पञ्चविंशतिसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता,
  3. अष्टसाहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता,
  4. सार्धद्विसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता,
  5. सप्तशतिका प्रज्ञापारमिता,
  6. वज्रच्छेदिका (त्रिशतिका) प्रज्ञापारमिता,
  7. अल्पाक्षरा प्रज्ञापारमिता,
  8. भगवती प्रज्ञापारमितासूत्र आदि।
  • प्रज्ञापारमितासूत्रों को जननी सूत्र भी कहते हैं। प्रज्ञापारमिता के बिना बुद्धत्व का लाभ सम्भव नहीं है, अत: यह बुद्धत्व को उत्पन्न करने वाली है। इसी अर्थ में इसे जननी, बुद्धमाता आदि शब्दों से भी अभिहित करते हैं। इन्हें 'भगवती' भी कहते हैं, जो इनके प्रति अत्यधिक आदर का सूचक है। जननी सूत्रों का तीन में विभाजन भी किया जाता है, यथा- विस्तृत, मध्यम एवं संक्षिप्त जिनजननीसूत्र।
  • शतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता विस्तृत जिनजननीसूत्र है, जिसका उपदेश भगवान ने मृदु-इन्द्रिय और विस्तृतरुचि विनेयजनों के लिए किया है। मध्येन्द्रिय और मध्यरुचि विनेयजनों के लिए मध्यम जिनजननी अर्थात पञ्चविंशति साहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का तथा तीक्ष्णेन्द्रिय और संक्षिप्त रुचि विनेयजनों के लिए संक्षिप्त जिनजननी अर्थात अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का भगवान ने उपदेश किया है। इन सभी में अष्टसाहस्त्रिका पूर्णत: उपलब्ध है, अत: उसका यहाँ निरूपण किया जा रहा है।

अवदान साहित्य

  • इस शब्द की व्युत्पत्ति अज्ञात है। पालि में इसके समकक्ष 'अपदान' शब्द है। सम्भवत: इसका प्रारम्भिक अर्थ असाधारण या अद्भुत कार्य है।
  • अवदान कथाएं कर्म-प्राबल्य को सिद्ध करती हैं।
  • आजकल अवदान का अर्थ कथामात्र रह गया है। महावस्तु को भी 'अवदान' कहते हैं।
  • अवदान कथाओं का प्राचीनतम संग्रह 'अवदानशतक' है।
  • तीसरी शताब्दी में इसका चीनी अनुवाद हो गया था। प्रत्येक कथा के अन्त में यह निष्कर्ष दिया जाता है कि शुक्ल कर्म का शुक्ल फल, कृष्ण कर्म का कृष्ण फल तथा व्यामिश्र का व्यामिश्र फल होता है। इनमें से अनेक में अतीत जन्म की कथा है। इसे हम जातक भी कह सकते हैं। क्योंकि जातक में बोधिसत्त्व के जन्म की कथा दी गयी है। किन्तु ऐसे भी अवदान हैं, जिनमें अतीत की कथा नहीं पाई जाती। कुछ अवदान 'व्याकरण' के रूप में हैं अर्थात इनमें प्रत्युत्पन्न कथा का वर्णन करके अनागत काल का व्याकरण किया गया है। तिब्बती भाषा में भी अवदान साहित्य अनूदित हुआ है।

अवदानशतक

  • यह हीनयान का ग्रन्थ है- ऐसी मान्यता है। इसके चीनी अनुवादकों का ही नहीं, अपितु इसके अन्तरंग प्रमाण भी हैं।
  • सर्वास्तिवादी आगम के परिनिर्वाणसूत्र तथा अन्य सूत्रों के उद्धरण अवदानशतक में पाये जाते हैं। यद्यपि इसकी कथाओं में बुद्ध पूजा की प्रधानता है, तथापि बोधिसत्त्व का उल्लेख नहीं मिलता। अवदानशतक की कई कथाएं अवदान के अन्य संग्रहों में और कुछ पालि-अपदानों में भी आती हैं।

दिव्यावदान

  • इस बौद्धिक ग्रन्थ में पुष्यमित्र को मौर्य वंश का अन्तिम शासक बतलाया गया है ।
  • इसमें महायान एवं हीनयान दोनों के अंश पाए जाते हैं। विश्वास है कि इसकी सामग्री बहुत कुछ मूल सर्वास्तिवादी विनय से प्राप्त हुई है। दिव्यावदान में दीर्घागम, उदान, स्थविरगाथा आदि के उद्धरण प्राय: मिलते हैं। कहीं-कहीं बौद्ध भिक्षुओं की चर्याओं के नियम भी दिये गये हैं, जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि दिव्यावदान मूलत: विनयप्रधान ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ गद्य-पद्यात्मक है। इसमें 'दीनार' शब्द का प्रयोग कई बार किया गया है। इसमें शुंगकाल के राजाओं का भी वर्णन है।
  • शार्दूलकर्णावदान का अनुवाद चीनी भाषा में 265 ई. में हुआ था।
  • दिव्यावदान में अशोकावदान एवं कुमारलात की कल्पनामण्डितिका के अनेक उद्धरण हैं। इसकी कथाएं अत्यन्त रोचक हैं। उपगुप्त और मार की कथा तथा कुणालावदान इसके अच्छे उदाहरण हैं।
  • अवदानशतक की सहायता से अनेक अवदानों की रचना हुई है, यथा- कल्पद्रुमावदानमाला, अशोकावदानमाला, द्वाविंशत्यवदानमाला भी अवदानशतक की ऋणी हैं। अवदानों के अन्य संग्रह भद्रकल्यावदान और विचित्रकर्णिकावदान हैं। इनमें से प्राय: सभी अप्रकाशित हैं। कुछ के तिब्बती और चीनी अनुवाद मिलते हैं।
  • क्षेमेन्द्र की अवदानकल्पलता का उल्लेख करना भी प्रसंग प्राप्त है। इस ग्रन्थ की समाप्ति 1052 ई. में हुई। तिब्बत में इस ग्रन्थ का अत्यधिक आदर है। इस संग्रह में 107 कथाएं हैं।
  • क्षेमेन्द्र के पुत्र सोमेन्द्र ने न केवल इस ग्रन्थ की भूमिका ही लिखी, अपितु अपनी ओर से एक कथा भी जोड़ी है। यह जीमूतवाहन अवदान है।

अश्वघोष साहित्य

  • 1892 ई. में सिलवां लेवी द्वारा बुद्धचरित के प्रथम सर्ग के प्रकाशन से पूर्व यूरोप में कोई नहीं जानता था कि अश्वघोष एक महान् कवि हुए हैं। तिब्बती और चीनी आम्नाय के अनुसार अश्वघोष महाराज कनिष्क के समकालीन थे। जो प्रमाण उपलब्ध हैं, उनके अनुसार वे अश्वघोष के समकालीन या उससे कुछ पूर्ववर्ती थे।
  • चीनी आम्नाय के अनुसार अश्वघोष का सम्बन्ध विभाषा से भी था, किन्तु विद्वानों को इसमें सन्देह है।
  • अश्वघोष की काव्यशैली सिद्ध करती है कि वह कालिदास से कई शताब्दी पूर्व थे।
  • भास उनका अनुसरण करते हैं। शब्द प्रयोग से लगता है कि कौटिल्य के निकटवर्ती थे।
  • अश्वघोष अपने को 'साकेतक' कहते हैं और माता का नाम 'सुवर्णाक्षी' बताते हैं।
  • रामायण का उनके ग्रन्थों पर विशेष प्रभाव है। उनका कहना है कि शाक्य इक्ष्वाकुवंशीय थे। अश्वघोष ब्राह्मण थे, उसी प्रकार उनकी शिक्षा भी हुई थी। बाद में वे बौद्ध धर्म मे दीक्षित हुए। उनके ग्रन्थों से सिद्ध होता है कि वे बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में अत्यन्त व्यस्त थे। तिब्बती विवरण के अनुसार वे एक अच्छे संगीतज्ञ भी थे और गायकों की मण्डली के साथ भ्रमण करते थे तथा बौद्ध धर्म का प्रचार वे गानों के माध्यम से करते थे।
  1. बुद्धचरित,
  2. सौन्दरनन्द और
  3. शारिपुत्र प्रकरण- ये तीनों ग्रन्थ उनकी रचनाएं हैं।

बुद्धचरित में बुद्ध की कथा वर्णित है। इसमें 28 वर्ग हैं। बुद्ध कथा भगवान के जन्म से प्रारम्भ होती है औ संवेगोत्पत्ति, अभिनिष्क्रमण, मारविजय, संबोधि धर्मचक्रप्रवर्तन, परिनिर्वाण आदि घटनाओं का वर्णन कर प्रथम संगीति और अशोक के राज्यकाल पर समाप्त होती है।

सौन्दरनन्द में बुद्ध के भाई नन्द के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने की कथा है। इस ग्रन्थ में 18 सर्ग हैं। समग्र ग्रन्थ सुरक्षित है।

शारिपुत्र प्रकरण यह नाटक ग्रन्थ है। इसमें 9 अंक हैं। इसमें शारिपुत्र औ मौद्गल्यायन के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने की कथा वर्णित है। यह खण्डित रूप में प्राप्य है। इसका उद्धार प्रोफेसर लुडर्स ने किया है। ये तीनों ग्रन्थ एक रचयिता द्वारा रचे हुए प्रतीत होते हैं। श्री जान्सटन ने बुद्धचरित का सम्पादन किया है। पूरा अविकल ग्रन्थ संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। प्रथम सर्ग और 14वें सर्ग का कुछ अंश खण्डित है। 2-13 सर्ग ठीक हैं। 15 सर्ग से आगे मूल संस्कृत में अनुपलब्ध है।

  • तिब्बती और चीनीपरम्परा अश्वघोष को अन्य ग्रन्थों का भी रचयिता मानती है। टामस ने उनकी सूची प्रकाशित की है, किन्तु वे संस्कृत में अप्राप्य हैं, इसलिए उनके बारे में कुछ कहना सम्भव नहीं है। प्रोफेसर लुडर्स को शारिपुत्रप्रकरण के साथ दो और नाटकों के अंश मिले हैं। एक के मात्र तीन पत्र मिले हैं, जिनमें बुद्ध के ऋदिबल का प्रदर्शन है। दूसरे में एक नवयुवक की कथा है, जिसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। किन्तु इनके अश्वघोष की रचना होने में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है।
  • तीन और ग्रन्थ अश्वघोष के बताये जाते हैं- वज्रसूची, गण्डीस्तोत्र एवं सूत्रालङ्कार। चीनी अनुवादक सूत्रालंकार को अश्वघोष की कृति मानते हैं। बाद में प्रोफेसर लुडर्स को मध्य एशिया में इस ग्रन्थ के मूल संस्कृत में कुछ अंश मिले हैं, उन्होंने सिद्ध किया है कि वहाँ ग्रन्थकार का नाम कुमारलात है और ग्रन्थ का नाम कल्पनामण्डितिका है। सामान्यत: विद्वान् इन्हें अश्वघोष की रचना नहीं मानते।
  • अपनी रचनाओं में अश्वघोष ने श्रद्धा की महिमा का ज़ोरदार वर्णन किया है।

श्रद्धाङ्कुरमिमं तस्मात् संवर्धयितुमर्हसि।
तद्वृद्धौ वर्धते धर्मों मूलवृद्धौ यथा द्रुम:॥ (सौन्दरनन्द 12:)

  • विद्वानों का मानना है कि अश्वघोष बाहुश्रुतिक हैं। बाहुश्रुतिक महासांघिक की शाखा है। इसलिए ये महादेव की पांच वस्तुओं को स्वीकारते हैं। इनमें से चतुर्थ के अनुसार अर्हत परप्रत्यय से ज्ञान लाभ करते हैं। पर-प्रत्यय के लिए श्रद्धा आवश्यक है।
  • जान्सटन के अनुसार अश्वघोष बाहुश्रुतिक या कौक्कुटिक या कौक्कुलिक हैं।
  • तारानाथ के अनुसार मातृचेट अश्वघोष का दूसरा नाम है। मातृचेट का स्तोत्र अत्यन्त लोकप्रिय था।
  • 'जातकमाला' के रचयिता आर्यशूर अश्वघोष के ऋणी हैं। जातकमाला में 34 जातककथाओं का संग्रह है, लगभग सभी कथांए पालि जातक में पाई जाती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द्र.- सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र, 2:54, पृ. 31 (दरभङ्गा-संस्करण 1960
  2. द्र.- सुवर्णप्रभाससूत्र, तथागतायु: प्रमाणनिर्देशपरिवर्त, पृ0 8 (दरभङ्गा-संस्करण 1967
  3. द्र.- सुवर्णप्रभाससूत्र, तथागतायु: प्रमाणनिर्देशपरिवर्त, पृ0 9 (दरभङ्गा-संस्करण 1967
  4. ये मे मृतस्य कालगतस्य मांसं परिभुञ्जीरन्, स एव तेषां हेतुर्भवेत् स्वर्गोपपत्तये यावत् परिनिर्वाणाय तस्य शीलवत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ0 89 (दरभङ्गा संस्करण, 1996
  5. स धरृमकायप्रभावितो दर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति, श्रवणेनापि स्पर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति। द्र.- तथागतगुह्सूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 89 (दरभङ्गा संस्करण 1960
  6. तद्यथापि नाम शान्तमते, वृक्षस्य मूलच्छिन्नस्य सर्वशाखापत्रपलाशा: शुष्यन्ति, एवमेव शान्तमते, सत्कायदृष्टयुपशमात् सर्वक्लेशा उपशाम्यन्तीति-द्र. तथागतगुह्य-सूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 130 (दरभङ्गा संस्करण, 1960
  7. चत्वार इमे महाराज, धर्मा महायानसंम्प्रतिस्थितानां विशेषगामितायै संवर्तन्तेऽपरिहाणाय च। कतमे चत्वार:? श्रद्धा महाराज, विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय... गौरवं...निर्मानता...वीर्यं महाराज विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 168 (दरभङ्गा संस्करण, 1960
  8. तत्र कतामोऽप्रमाद:? यदिन्द्रियसंवर:। स चक्षुषा रूपाणि दृष्ट्वा न निमित्तग्राही भवति नानुव्यंजन-ग्राही।...सर्वधर्मेष्वास्वादं चादीनवं च नि:सरणं च यथाभूतं प्रजानाति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191।
  9. अप्रमादो यत् स्वचित्तस्य दमनम्, परचित्तस्य रक्षा, क्लेशरतेरपरकिर्मणा, धर्मरतेरनुवर्तनमृ, यावदयमुच्यतेऽप्रमाद। द्र.-तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191
  10. योनिश: प्रयुक्तो हि गुह्यकाधिपते, बोधिसत्त्वो यदस्ति तदस्तीति प्रजानाति, यन्नास्ति तन्नास्तीति प्रजानीति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्ध्त पृ. 191 (दरभङ्गा संस्करण, 1960
  11. यां च शान्तमते, रात्रिं तथागतोऽनुत्तरां सम्यक्संबोधिमभिसंबुद्ध:, यां च रात्रिमुपादाय परिनिर्वास्यति, अस्मिन्नन्तरे तथागतेन एकाक्षरमपि नोदाहृतं न प्रवराहृतं न प्रवराहरिष्यति। कथं तर्हि भगवता........
    विनेयजनेभ्यो विविधप्रकारेभ्यो धर्मदेशना देशिता? एकक्षणवागुदाहारेणैव तत्तज्जनमनस्तमोहरणी........
    शरदरुणमहाप्रभेति।
    तदेव सूत्रे:
    यथा यन्त्रकृतं तूर्यं वाद्यते पवनेरितम्।
    न चात्र वादक: कश्चिनिरन्त्यथ च स्वरा:॥
    एवं पूर्वसुशुद्धत्वात् सर्वसत्त्वाशयेरिता।
    वाग्निश्चरति बुद्धस्य न चास्यास्तीह कल्पना॥
    द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत पृ. 155 नाना (दरभङ्गा संस्करण, 1960)

  12. अथ च चथाधिमुक्ता: सर्वसत्त्वा नानाधातवाशयास्तां तां विविधां तथागतवाचं निश्चरन्तीं संजानन्ति। तेषामिदं पृथक् भवति- अथ। भगवान अस्मभ्यमिमं धर्म देशयति, सयं च तथागतस्य धर्मदेशनां श्रुणुम:। तथागतो न कल्पयति न विकल्पयति सर्वविकल्पजालवासनाप्रपंचविगतो हि शान्तमते, तथागत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत, पृ. 236 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)

  13. चार संग्रह ये हैं- दान, प्रियवादित्व, अर्थचर्या एवं समानार्थता।

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